भारतीय वांङ्गमय में सर्प : जगत की उत्पत्ति और गति का परस्पर संबंध है। दृश्य जगत में प्रत्येक पिण्ड का एक निश्चित गति का पैटर्न है। संसार उस एक पैटर्न पर काम करता हुआ प्रतीक होता है। इलैक्ट्रोन से लेकर आकाश में स्थित प्रत्येक पिण्ड शुद्ध वृत्ताकार कक्षाओं में भ्रमण नहीं करते बल्कि वे कक्षाएं दिग्वृत्त का रूप ले लेती है। यह संभव है कि एक संपूर्ण वृत्त से दिग्वृत्त बनने की प्रक्रिया में ही प्रकृति या जगत की उत्पत्ति छिपी हुई हो। मेरा यह मानना है कि ईश्वर ने जब जगत को उत्पन्न किया होगा तो उस समय प्रथम तो शून्य से जगत का विस्तार होना शुरु हुआ और विस्तार की गति लगातार बढ़ती गई। उपनिषदों की इस धारणा को न्यूटन और स्टीफन हॉकिन्स ने भी स्वीकार किया है। उससे बाद भौतिक पिण्डों में उनके बीज या न्यूक्लीस या केन्द्र बिंदु के चहुँओर कक्षाएं उत्पन्न हो और तीसरी प्रक्रिया में उन कक्षाओं में वृत्तिक्रम उत्पन्न हुआ। इस वृत्तिक्रम में सबसे प्रधान गति सर्पगति है। सर्पगति को ग्रहों के या नक्षत्रों के अपनी कक्षाओं में दोलन या oscillation के रूप में देखा जा सकता है। जिसमें यह पिण्ड अपने मूल कक्षा पक्ष से दोनों और समान कोणीय दूरी पर विचलन करते हैं। ज्योतिष में शर या विचलन एक महत्वपूर्ण शब्द है जो कि ग्रहों की स्थिति को बताता है और ग्रहण इत्यादि भी इसी से प्राप्त किए जाते हैं। वराहमिहिर या आर्यभट्ट इनकी गणनाएं करते हैं।

शिव और विष्णु के उपासक मध्यकालीन भारत में परस्पर संघर्षवत रहते थे। सामाजिक समरचना के लिए तुलसीदास को भगवान राम के मुंह से यह कहलाना पड़ा - शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहु नहीं भावा।। इसके बाद ही दोनों एक-दूसरे को सम्मान की दृष्टि से देखने लगे परंतु सर्प की सत्ता भगवान विष्णु और भगवान शिव के साथ जुड़ी हुई है। शेषनाग के रूप में सर्पराज भगवान विष्णु के साथ हर क्षण उपस्थित है और भगवान शिव के अलंकरण के रूप में भी सर्प वहां उपस्थित हैं, संभवत: इसीलिए वे समुद्र-मंथन से उत्पन्न विष को भी सहन कर पाए थे। 

प्रस्तुत संदर्भ में मेरा यह मानना है कि सर्प प्रतीकात्मक रूप में शिव और विष्णु की महान् जगत अवधारणाओं में उपस्थित हैं। सृष्टि की उत्पत्ति और संहार में सर्प का योगदान है। मैं इस सर्प की उपस्थिति को सर्पगति के रूप में लेता हँू और यह मानता हँू कि जब संाख्य-दर्शन के अनुरूप प्रकृति में विक्षोभ होता है या वेदान्त के अनुसार ईश्वर माया की उत्पत्ति करते हैं तो सर्पगति के कारण जगत शून्य से आगे विस्तार पाता है। यह गति कक्षाओं में पिण्डों के भ्रमण में सर्पगति या दोलन या oscillation के रूप में देखी जा सकती है। जिस दिन जगत पुन: शून्य में विलीन होगा उस दिन यह सर्पगति सामान्य वृत्त गति में बदल जाएगी। तब आकाशीय पिण्डों का कक्षा पथ में शर या विचलन शून्य हो जाएगा।

इसीलिए भारतीय वांङ्गमय में सर्प या नाग का उल्लेख प्रमुखता से लिया जाता है और वे अत्यंत महत्वपूर्ण हो गए है। उनकी पूजा का विधान भी उनकी महत्ता को ध्यान में रखकर अनिवार्य बताया गया है। इन्हें समूहों में ही रखकर उनकी पूजा करने की पद्धति विकसित की गई है। सर्वतोभद्र चक्र या वास्तुचक्र में कुछ देवताओं की पूजा समूह के रूप में की जाती है। वायव्य कोण में स्थित नागदेवता और कुछ नहीं बल्कि नवनाग या अष्टवसु ही हैं।

अष्टवसु: अष्टवसु आठ देवताओं का यह एक समूह है जिसे वेदों में भी बताया गया है। इनकी पूजा इन्द्र, अग्नि एवं आदित्य के साथ-साथ की जाती है और इन्हें भी पृथ्वी स्थानीय, अंतरिक्ष स्थानीय एवं द्यिुस्थानीय बताया गया है। यह धर्म की पत्नी वसु से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम हैं - द्रोण, प्राण, धु्रव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु तथा विभावसु। यह वर्णन भागवत का है परन्तु विष्णु पुराण में जो नाम मिलते हैं वे इस प्रकार हैं - आप, धु्रव, सोम, धर्म, अनिल, अनल, प्रत्यूष तथा प्रभास। विश्वकर्मा इन्हीं प्रभास वसु के पुत्र हैं और बृहस्पति के बहिन के पुत्र हैं। इन्हें पितृ स्वरूप बताया गया है और श्राद्ध आदि कर्म में तर्पण तथा पिण्डादि दान से इनके तृप्ति की जाती है।

वास्तु चक्र में अष्टवसुओं का स्थान  : वास्तु मण्डल में देवयोनियों की प्रविष्टि मात्र दार्शनिक आधार पर नहीं है। जब तक उन सभी के अंतरिक्ष और खगोलीय प्रभावों का पूर्व ज्ञान ऋषियों को नहीं हुआ तब तक उन्होंने चक्रों की रचना नहीं की। एक वास्तु चक्र में नव नाग हैं, अष्टवसु हैं और सर्पों की अन्य देवयोनियां भी समष्टि रूप मेें उपलब्ध हैं।

                अष्टवसुओं में प्रभास वसु अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान पा गये। प्रभास वसु से देवगुरु बृहस्पति की बहिन का विवाह हुआ और उनसे विश्वकर्मा उत्पन्न हुए। यही कारण है कि विश्वकर्मा ने समस्त अष्टवसुओं को वास्तुचक्र में स्थान दिलाने में सफलता पा ली। यह तो हम सभी जानते हैं कि एक साधारण से मकान में भी एक स्थपति अपने ही लोगों को कार्य देता है। उस पर ये अष्टवसु साधारण नहीं थे और इन्हें देवयोनि प्राप्त हो चुकी थी।

                नाग और वसु साधारण श्रेणी के देवता नहीं थे। मेरी यह धारणा है कि सृष्टि को व्यक्त करने के लिए जब ईश्वर ने विक्षोभ उत्पन्न किया तो प्रत्येक नाभिक के चहुँओर समस्त कक्षापथ वृत्त से दीर्घवृत्त में बदल गये। पुन: जब सृष्टि विलीन होगी तब दीर्घवृत्त से वृत्त में बदलने की प्रक्रिया प्रारम्भ होगी। दीर्घवृत्त पर भ्रमण करने वाले समस्त पिण्ड चाहे वे इलैक्ट्रोन हों और चाहे वे सूर्य और चाहे वे मंदाकिनी हों, ये सूर्य जब अपने कक्षापथ पर भ्रमण करते हैं तो उनकी गति सामान्य न होकर सर्प गति होती है। जैसे विष्णु भी एक आदित्य हैं और उनका शेषनाग पर विराजना इसी बात का द्योतक है कि वे अपनी कक्षा में सर्पगति से भ्रमणशील हैं।

                समराङ्गण सूत्रधार परम्परा में भल्लाट का निघंटु चंद्र को बताया गया है और चंद्र से लगते हुए वासुकि हैं। ज्योतिष में सर्प या नाग का समीकरण राहु से भी किया जाता है। यदि इस दर्शन पर ध्यान दें तो वास्तुचक्र के 4 षट्पदिक देवताओं में से तीन तो आदित्य हैं और चौथे पृथ्वीधर हैं और बाह्य उत्तरी सीमा रेखा पर चंद्र (भल्लाट) के साथ वासुकि स्थित हैं। यहाँ संकेत हैं कि सूर्य और चंद्रमा का ग्रहण राहु करते हैं और राहु का समीकरण सर्प से है जो कि पृथ्वीधर या वासुकि के रूप में देखा जा सकता है। उधर वरुण जो कि पश्चिम में स्थित है से लगता हुआ पद असुर का है जिनका निघण्टु राहु से किया गया है और राहु और सूर्य का संबंध सर्वज्ञात है। असंदिग्ध रूप से सभी देव परंपराओं मेें नाग किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। भगवान शंकर के गले में तो भगवान विष्णु शेष शय्या पर विराजमान हैं। कदाचित इसीलिए नव नाग, अष्टवसु एवं सर्प योनियाँ वास्तुचक्र में विद्यमान हैं। ये सब अनंत सत्ताओं पर नियंत्रक शक्ति हैं।

                हम अष्टवसुओं को एक वास्तुचक्र में निम्न भाँति देख सकते हैं। अष्टवसुओं की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि उनमें से एक वास्तु चक्र के 6 पद वाले स्थान को प्राप्त करने में सफल हो गये। पृथ्वीधर स्वयं शेषनाग हैं और षट्पदिक हैं।

वसुगण पितरों के अधिष्ठात्री देवता हैं। यदि ये प्रसन्न हो गए तो आयु, संतति, ऐश्वर्य, विद्या, सम्पूर्ण सुखों, राज्य, स्वर्ग तथा अंत में मोक्ष पद भी प्रदान कर सकते हैं।

ज्योतिष के परिप्रेक्ष्य में अष्टवसु और नाग : इनके परस्पर संबंध के उल्लेख कहीं भी नहीं मिलते हंै परन्तु आश्चर्यजनक रूप से महर्षि पाराशर ने इनका समीकरण एक स्थान पर कर दिया है। उनके द्वारा रचित वृहत पाराशर होरा शास्त्र में पूर्वजन्म शापद्योतनाध्याय में पंचम भाव का संबंध राहु से होने से सर्प शाप से संतान हानि का योग बताया है। यही योग कहीं-कहीं पितृ दोष के रूप में उपलब्ध है। समस्त ज्योतिष गं्रथों में राहु का संबंध सर्प या विष से बताया गया है।

आजकल जिस कालसर्प योग का ढिंढोरा पीटा जा रहा है वह वास्तव में सर्प दोष है जिसमें यदि पांचवें भाव पर राहु और मंगल का प्रभाव हो तो संतान हानि का योग बनता है। इनमें राहु तो संतान की पीड़ा बताते हैं और मंगल हिंसा के द्योतक हैं। किसी जन्मपत्रिका में इसे इस प्रकार देखा जा सकता है।

सर्प की सत्ता : यह अद्भुत है कि वैष्णव मत और शैव मत दोनों में ही सर्प को अत्यधिक प्रतिष्ठा है। भगवान विष्णु का शेष नाग से संबंध है तो भगवान शिव ने सर्प को धारण कर रखा है। न केवल यह बल्कि विष को केवल शंकर भगवान ने ही सहन किया। इससे सर्प या विष की सत्ता का प्राकट्य होता है। अंतरिक्ष की कोई भी सत्ता सर्प गति संचालित है। हर कण चाहे वह सूक्ष्म हो, चाहे स्थूल अपने नाभिक के दीर्घवृत्त में भ्रमण करता है और भ्रमण करते समय अपने कक्षा कक्ष में सर्पिल गति (Spiral Movement) से यात्रा करता है। Oscillation सर्प गति का ही प्रच्छन्न नाम है। समस्त मंदाकिनियों में या अंतरिक्ष सत्ताओं में केवल सर्प गति मिलेगी। सम्पूर्ण वृत्त कहीं भी नहीं है। इन्द्र और वृत्र का आख्यान वेदों में अत्यधिक मुखर रूप में सामने आया है। ऋग्वेद में वृत्र युद्ध और वृत्र वध एक प्रमुख घटना है। महर्षि दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से वृत्र वध का कथानक महर्षि के त्याग की पराकाष्ठा है। वैदिक कवि वृत्र को सर्पाकार अर्थात् कुण्डली भरकर पड़ा हुआ मानते हैं। फलत: वृत्र, अपाद और अहस्त माने गए हैं (बिना हाथ पैर के) और द्यावा पृथिवी को ढककर पड़े हुए हैं। इन्द्र इसका सिर काट डालते हैं।

अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि

सानो जघान। ऋ. 1.32.7

यह कथानक बिल्कुल ऐसा ही है जैसे कि राहु सिर के रूप में काट डाला गया था। सर्प गति या सर्प का अस्तित्व सम्पूर्ण वैदिक कथाओं या पौराणिक कथाओं में अपने शक्तिशाली स्वरूप में उपस्थित है। मैं तो इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि सृष्टि के अस्तित्व का सर्प या सर्प गति से कोई न कोई अंतर्निहित संबंध है और इस गूढ़ अर्थ को समझे बिना कोई भी वास्तुशास्त्र में सफल नहीं हो सकता।

मेरा यह मानना है कि जिस दिन दीर्घवृत्त सम्पूर्ण वृत्त में बदल जाएंगे वह महाप्रलय का दिन होगा।

 

 

दस महाविद्या की 2 देवियाँ

बगलामुखी                                             

पीताम्बरा विद्या के नाम से विख्यात बगलामुखी की साधना प्राय: शत्रुभय से मुक्त होने और वाक्सिद्धि के लिये की जाती है। इनकी उपासना में पीतवस्त्र, हरिद्रामाला, पीत आसन और पीत पुष्पों का विधान है। व्याष्टिरूप में शत्रुओं को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली और समष्टिरूप में परमेश्वर की संहार इच्छा की अधिष्ठात्री शक्ति वगला व बगलामुखी हैं। ये देवी सुधासमुद्र के मध्य स्थित मणिमय मण्डप में रक्तवेदी पर, रक्तमय सिंहासन पर विराजमान हैं। स्वयं पीतवर्ण होती हुई पीतवर्ण के ही वस्त्र, आभूषण एवं माला धारण किये हुए हैं। इनके एक हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुग्दर है। इनके आविर्भाव के विषय में इस प्रकार की कथा आती है-

सत्ययुग में सम्पूर्ण जगत को नष्ट करने वाला तूफान आया। प्राणियों के जीवन संकट आया देखकर महाविष्णु भगवती को प्रसन्न करने के लिये तप करने लगे। श्रीविद्या ने उस सरोवर से निकलकर पीताम्बरा के रूप में उन्हें दर्शन दिया और बढ़ते हुए जल वेग तथा विध्वंसकारी उत्पात का स्तम्भन किया। वास्तव में दुष्ट वही है जो जगत् के या धर्म के छन्द का अतिक्रमण करता है। बगला उसका स्तम्भन या नियंत्रण करने वाली महाशक्ति हैं। वे परमेश्वर की सहायिका हैं और वाणी, विद्या तथा गति को अनुशासित करती हैं। ब्रह्मास्त्र होने का यही रहस्य है। 'ब्रह्माद्विषे शरवे हन्त वा उÓ आदि वाक्यों में बगला-शक्ति ही पर्यायरूप में उपस्थित हैं। वे सर्वसिद्धि देने में समर्थ और उपासकों की वाञ्छाकल्पतरु हैं।

कमला

कमला वैष्णवी शक्ति हैं। महाविष्णु की लीला-विलास-सहचरी कमला की उपासना वास्तव में जगदाधार-शक्ति की उपासना है। इनकी कृपा के अभाव में जीवन में सम्पत् शक्ति का अभाव हो जाता है। मानव, दानव और देव-सभी इनकी कृपा के बिना पंगु हैं। विश्वभर की इन आदि शक्ति की उपासना आगमन-निगम दोनों में समान रूप से प्रचलित है। भगवती कमला दस महाविद्याओं में एक हैं। जो क्रम-पराम्परा मिलती है, उनमें इसका स्थान दसवाँ है। (अर्थात् इनमें इनकी महिमा में प्रवेश कर जीव पूर्ण और कृतार्थ हो जाता है।) सभी देवता, राक्षस, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व इनकी कृपा से प्रसार के लिये लालायित रहते हैं। ये परमवैष्णवी, सात्त्विक और शुद्धाचारा, विचार-धर्मचेतना और भक्त्यैकगम्या हैं। इनका आसन कमल पर है। इनके ध्यान में बताया गया है कि ये सुवर्णतुल्य कान्तिमती हैं। हिमालय-सदृश श्वेवर्ण के चार गजों द्वारा शुण्डाओं से गृहीत सुवर्ण-कलशों से ज्ञापित हो रही हैं। ये देवी चार भुजाओं में वर, अभय और कमलद्वय धारण किये हुए हैं तथा किरीट धारण किये हुए क्षौम-वस्त्र का परिधान किये हुए हैं।

महाविद्याओं का स्वरूप वास्तव में एक ही आद्याशक्ति के विभिन्न स्वरूपों का विस्तार है। इनकी उपासना से विजय, ऐश्वर्य, धन-धान्य, पुत्र और अन्यान्य कीर्ति आदि प्राप्त होती है। पारमार्थिक स्तर पर इन विद्याओं की उपासना का आशय अन्तत: मोक्ष की साधना है, भगवत्प्राप्ति साधना है।

 

देवताओं के लिए पत्र-पुष्प विधान

हम सभी जानते हैं कि देवताओं को पत्र पुष्प बहुत पंसद है। वास्तु ग्रन्थों में तो लिखा मिलता है, जहाँ जल हो, वन - उपवन हो, पुष्प वृक्ष हो  वहाँ देवता वास करते हैं।

परन्तु कुछ पत्र - पुष्प देवताओं के लिए वर्जित भी हंै।

गणेश जी को तुलसी छोड़कर सभी पत्र-पुष्प पंसद हंै। 'ना तुलस्या गणधिपम्'।

दुर्गा की पूजा दूर्वा से नहीं करनी चाहिए।

भगवान शंकर की पूजा में जिन पुष्प  पत्रों का उल्लेख आता है। उन सब को माता गौरी के पूजन में भी काम में लिया जा सकता है। उन्हें अपामार्ग अधिक पसंद है।

लाल फूल भगवती को अति पसंद है, परन्तु सुगन्धित श्वेत पुष्प भी उन्हें पंसंद हैं। बेला, चमेली, केसर, श्वेत और लाल फूल, श्वेत कमल, पलाश, तगर, अशोक, चम्पा, मौलश्री, मदार, कुंद, लोध, कनेर, आक, शीशम और अपराजित आदि के फूलों से देवी की पूजा की जाती है। परन्तु इनमें से आक और मदार का प्रयोग आपातकाल में ही करें। अन्य देवियों पर इनको ना चढ़ावें और केवल दुर्गा को ही चढ़ाएँ। दूर्वा, मालती, तुलसी, भंरैया और तमाल देवी के लिए निषिद्ध हंै।

तत्त्वसागर संहिता के अनुसार जब शास्त्र में वर्णित पुष्पादि ना मिले तभी विकल्प को काम में लिया जाना चाहिए। भगवान शंकर पर 100 फूल चढ़ाने से इतना फल मिलता है, जितना कि ब्राह्मण को स्वर्ण दान से।

तप:शीलगुणोपेते विप्रे वेदस्य पारगे।

दत्त्वा सुवर्णस्य शतं तत्फलं कुसुमस्य च।।

भगवान विष्णु के लिए जो पुष्प चढ़ाये जाते हैं वे सब भगवान शंकर पर भी चढ़ाये जा सकते हैं परन्तु केतकी-केवड़े का निषेध किया गया है। भगवान शंकर की पूजा में मौलश्री श्रेष्ठ बतायी गई है, यद्यपि कनेर, धतूरा, बड़ी केतकी, अपराजिता, शंखपुष्पी, नाग केसर, गुलर, पलाश, बेलपत्ता और नीले व लाल कमल भी शुभ माने गये हैं। यह वर्णन भविष्णपुराण में मिलता है। शिवजी को कदम्ब, केवड़ा, कैथ, गाजर, भरेड़ा, कपास, अनार, जूही इत्यादि नहीं चढ़ाने चाहिए। परन्तु देवी पुराण में भाद्रपद मास में कदन्ब और चम्पा से शिवजी की पूजा करना विशेष फलदायी माना गया है। यहाँ थोड़ा विरोधाभास है।

भगवान विष्णु को तुलसी बहुत प्रिय है। उन्हें सोने के फूल से भी अधिक तुलसी प्रिय है। तुलसी पत्र मंजरी और भी अधिक प्रिय है। काली तुलसी से अधिक गौरी तुलसी और भी अधिक प्रिय है। ब्रह्मा पुराण के अनुसार तुलसी से पूजी शिवलिंग या विष्णु प्रतिमा के दर्शन मात्र से ब्रह्मा हत्या का पाप भी माफ हो जाता है।

फल प्रदान के क्रम में कुछ वरीयता भी प्रदान की गई है जैसे कि चिड़चिड़े की पत्ती से भंगरैया की पत्ती अच्छी मानी गई है। उससे अच्छी खेर की, और उससे अच्छी शमी की, शनि से अच्छी दूर्वा, दूर्वा से अच्छी कुश, उससे अच्छी दौनाकी, उससे अच्छी बेलपत्ती और इनसे अच्छा तुलसीदल माना गया है।

भगवान विष्णु को कई पुष्प लक्ष्मी की तरह प्रिय हैं। उनमें मालती, मौलश्री, तगर, बिल्व, जूही, कदम्ब, पाटला, चम्पा, नवंग, केवड़ा, बेल, श्वेत कमल और अडूसा। विष्णु रहस्य में कहा गया है कि कमल का एक फूल करोड़ों वर्षों के पापों का नाश कर देता है। लाल कमल से श्वेत कमल अच्छा माना गया है तथा श्वेत कमल से नील कमल अच्छा माना गया है। भगवान विष्णु को चमेली, चम्पा, अशोक, आदि भी पसंद हंै। उन्हें केसर, कुमकुम और अडहुल के फूल पंसद हैं। लाल कनेर भी भगवान विष्णु को पसन्द हैं। भगवान विष्णु को आक, धतूरा, काँची, अपराजिता, कचनार, बरगद, गुलर निषिद्ध हैं। अगर कनेर घर में रोपा गया है तो उसका निषेध है।

सूर्य भगवान को आक का फूल प्रिय है। फूल की अपेक्षा माला में दुगुना फल प्राप्त होता है। सूर्य भगवान को भी बेला, मालती, कनेर, चम्पा, कमल, मौलश्री, पलाश और दूर्वा चढ़ाई जा सकती है। सूर्य को गुंजा, धतूरा, काँची और अपराजिता नहीं चढ़ाई जाती।

 

 

 

केतु

केतु के नाम से इतना भय उत्पन्न नहीं होता जितना राहु के नाम से होता है। राहु की छवि ही ऐसी गढ़ी गई है। यह अकारण नहीं है, क्योंकि ज्योतिष में राहु का नैसर्गिक बल सूर्य से भी अधिक माना गया है। प्रसिद्ध ऋषि जैमिनी ने तो केतु को बहुत अधिक प्रतिष्ठा दी है और वे उसे मोक्ष कारक भी मानते हैं। जैमिनी ने अपने जैमिनीसूत्रम् में यह बताया है कि जन्म पत्रिका के 12वें भाव में अगर बृहस्पति और केतु एक साथ स्थित हों तो मोक्ष करा देते हैं। ऐसा तब भी संभव है जब 12वें भाव के स्वामी या 12वें भाव को बृहस्पति और केतु एक साथ प्रभावित कर रहे हों। परन्तु इनमें से एक भी 12वें भाव या 12वें भाव के स्वामी को प्रभावित करें तो अगला जन्म अच्छी योनि में होता है और व्यक्ति मोक्ष मार्ग प्राप्त करने के लिए उचित उपाय करने लगता है।

समुद्र मंथन की प्रक्रिया में जब अमृत का वितरण हो रहा था, तो दैत्य स्वरभानु देवताओं की पंक्ति में जाकर बैठ गये। सूर्य और चन्द्रमा ने भगवान विष्णु को इसका बोध करवाया तो उन्होंने स्वरभानु का सिर सुदर्शन चक्र से काट दिया। सिर तो राहु कहलाया और धड़ केतु। परन्तु चूंकि अमृत गले से नीचे उतर चुका था इसलिए राहु और केतु दोनों ही अमर हो गये। सूर्य और चन्द्रमा से कुपित होने के कारण राहु और केतु दोनों ही सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण करा देते हैं।

मत्स्यपुराण के अनुसार केतु बहुत से हैं। इनमें धूमकेतु प्रधान है। केतु का वर्ण धूम्र, आयुध गदा तथा वाहन गीध। सभी केतु द्विबाहु हैं, उनके मुँह विकृत हैं और वे वरदान देने की मुद्रा में रहते हैं। केतु के अधिदेवता चित्रगुप्त हैं जो कि प्राणियों के कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। इसका विवरण स्कन्द पुराण में मिलता है।

ज्योतिष में केतु को आकस्मिक घटनाएँ देने वाला माना है। केतु ग्रहों के कारण दोषों का नाश भी करते हैं और जिस ग्रह के साथ होते हैं, उस ग्रह का परिणाम देते हैं। मनुष्य के शरीर में दाँत और त्वचा पर केतु का नियंत्रण होता है। जब केतु की दशा-अन्तर्दशा आती हैं, या तो दाँतों में चोट लगती है या नया दाँत लगता है या दाँतों पर कैप लगती है या दाँतों के रोग होते हैं।

अगर जन्म पत्रिका के दूसरे भाव से केतु का सम्बन्ध हो और शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो व्यक्ति की दंत पंक्ति बहुत सुन्दर होती है। जन्म पत्रिका के 12वें भाव या दूसरे भाव में केतु की स्थिति और केतु का प्रभाव दाँत से सम्बन्धित रोग उत्पन्न करता है।

केतु का सम्बन्ध ज्योतिष में ध्वजा से भी जोड़ा जाता हैं। यदि जन्म पत्रिका में केतु शुभ अवस्था में हो तो व्यक्ति को सम्मान दिलाता है, पुरस्कार दिलाता है। केतु शुभ होने पर अचानक बहुत बड़ा धन भी दिलाता है। केतु पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो समाज में, संस्थाओं में या राष्ट्र में व्यक्ति शीर्ष स्थिति पर पहुँच सकता है परन्तु केतु यदि अशुभ हो, पाप ग्रहों के बीच में हो, या शनि, मंगल जैसे ग्रहों से पीडि़त हो तो व्यक्ति का पतन भी करा देता है।

केतु की दशा-अन्तर्दशाओं में दाँत के रोग या त्वचा से सम्बन्धित रोग उत्पन्न होते हैं। केतु शल्य चिकित्सा के माध्यम से शरीर का कोई अंग निकाल देने में भी माध्यम बनते हैं। बैक्टीरिया या वायरस से होने वाले रोग त्वचा पर होते हैं और उनका इलाज मुश्किल हो जाता है। केतु का कुल महादशा काल 7 वर्ष का होता है और केतु के बारे में यह मान्यता है कि जिस ग्रह के साथ होते हैं, उस ग्रह का परिणाम देते हैं। परोपकार करने में केतु बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं और व्यक्ति को ईश्वर से नजदीक ले जाने में सहायक सिद्ध होते हैं। इस क्रम में व्यक्ति दान पुण्य और परोपकार अधिक मात्रा में करता है। दूसरे भाव से केतु का सम्बन्ध होना इसलिए विशेष है क्योंकि वह व्यक्ति सच्ची सलाह देता है और कटुवाणी में संकोच नहीं करता। इस कारण से उसके सम्बन्ध बहुत बड़ी संख्या में नहीं होते और लोग उससे कटने लगते हैं।

 

 

 

 

अंक विज्ञान

हिब्रू वर्णमाला में 22 अक्षर हैं, और उनमें से प्रत्येक के साथ विशेष रहस्य जुड़ा है। इन पंक्तियों में हम जिस पद्घति की बात कर रहे हैं, वह 9 मूलांकों से गहन संबंध रखती है और यह यहूदियों से भी प्राचीन काल की अंक विज्ञान पद्घति है। तथापि, शेष अंक, जो 10 से 22 तक हैं। (हिब्रू वर्णमाला के अंकों के समान है), की अनदेखी नहीं की जा सकती। हम इन्हें अनुवर्ती महत्व देते हैं, और तुलनात्मक रूप से इनके महत्व को तनिक कम आंकते हैं, यह मानते हुए कि इनमें से प्रत्येक को भी मूलांक में बदला जा सकता है। जहाँ तक कि जातक के प्रभावों का महत्व है, इनकी व्याख्या हम अनुवर्ती नामों में करेंगे जो कि अंग्रेजी नाम अथवा मध्य नाम हैं जिन्हें हम आरम्भ में प्रयुक्त करते हैं, और जिन्हें हम पूरा नाम लेते समय प्रयुक्त नहीं करते।

अनुषंगी अंकों के प्रभाव इतने प्रबल या निश्चित नहीं होते जितने कि मूलांकों के होते हैं।

अंक-10

यह अंक 1 + शून्य या नगण्य से मिलकर बना है, वास्तव में मूलांकों में एकाकी (एक अंकी) का ही रूप है। इसका बहुत अल्प महत्व है, यद्यपि यह पूर्णता अथवा समग्रता का सूचक है।

अंक-11

यह अंक पराबुद्घि या ज्ञान का अंक भी माना जाता है। इसे ''भाग्यशाली'' अंक की संज्ञा भी देते हैं और यह सफलता में विकास के द्वार खोलता है।

अंक-12

निराशा, अनिश्चितता और धीमी प्रगति का अंक है। दूसरी ओर, इस अंक वाले में संतुलन और भाइचारे की भावना भी होती है जो बनी रह सकती है।

अंक-13

यह रहस्यात्मक अंक है। कुछ लोग इसे भाग्यांक मानते हैं वही कुछ लोग इसे दुर्भाग्य का अंक भी मानते हैं। यह 4 अंक वाले जातकों के लिए भौतिक सम्पन्नता देता है। यह मानने का कोई ठोस कारण नहीं है कि यह सामान्य जीवन में दुर्भाग्यशाली होता है। तथ्य यह है कि संभवत: यह अंधविश्वास प्रचलित रहा है कि जुडास इजकेरियट ''तेरह महानोंÓÓ में से तेरहवाँ था। संक्षेप में, यह अंक व्यावसायिक मामलों में प्रगति करता है परन्तु आत्मिक विकास बहुत कम करता है।

अंक-14

दुर्भाग्य और परेशानियों के पहाडों का सूचक है। यह आत्म संयम और स्वार्थहीनता का अंक है।

अंक-15

यदि यह अंक 5 अंक वाले का साहचर्य पा जाए तो इसमें विचार शून्यता और हठधार्मिता के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। यदि 4 अंक वाले का साहचर्य करता है तो इसमें शांति का भाव उत्पन्न हो जाता है।

अंक-16

इसके कोई विशेष प्रभाव नहीं हैं, यह अहंकारी और अति आत्मविश्वासी बनाता है।

अंक-17

यह हमेशा प्रसन्नता और सहृदयता देता है। यह कल्पनाशक्ति को विशेष बल प्रदान करता है और इस प्रकार लेखक, चित्रकार, मूर्तिकार एवं अन्य कलाकार बनाता है।

अंक-18

इस अंक वाले व्यक्ति 9 मूलांक वाले व्यक्तियों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं डाल सकते हैं परन्तु यह अन्य अंक वालों को बलवान एवं शक्तिशाली बनाता है। इस प्रकार यह अन्य अंक वालों  की प्रतिकूल विशेषताओं को कम करता है।

अंक-19

इस अंक वालों में दूरदर्शिता और स्वप्रेरणा पाई जाती है। यह किसी अन्य तरीके से ''अद्ïभुत विचारोंÓÓ को जन्म देता है बजाए ऐसे जातकों के जो सुस्त और प्रेरणाहीन स्वभाव के होते हैं।

अंक-20

10 अंक की भाँति इस अंक में भी बहुत कम प्रभाव पाया जाता है। कभी कभी यह उतावले और विवेक शून्य जातक पर अच्छा प्रभाव छोडता है परन्तु ''गर्म मिजाजÓÓ व्यक्ति के सामने कभी नहीं टिकता।

अंक-21

यह अंक वाला जातक उन जातकों में स्वाधीनता और स्वतंत्रता के साथ साथ महत्वाकांक्षा उत्पन्न करता है जिनका मूलांक 3 नहीं हो। 3 अंक वालों पर यह कोई विशेष प्रभाव नहीं छोडता है। यह विपरीत अधीरता और अतिविश्वास जैसे विपरीत दोषों में वृद्घि कर देता है।

अंक-22

हिब्रू वर्णमाला का यह अंतिम अक्षर है। यह अंक महान सफलता और उपलब्धियों का द्योतक अंक है। इसके प्रभाव लम्बे समय तक प्रबल रहते हैं, कहने का तात्पर्य यह है कि यह जातकों में मूल अंकों से जनित गुण दोषों में वृद्घि करता है। यह जीवन के चरमोत्कर्ष और अध:पतन दोनों के द्वार खोल सकता है।