प्राचीन ऋषि पातञ्जलि ने अपने योग सूत्र के प्रारम्भ में ही योग की परिभाषा दी है। उन्होंने ‘चित्तवृत्ति निरोध’ को ही योग बताया है। चित्त जिन बातों को सोचता और करता है, वह सब मानसिक उद्यम है और जीवन को प्रभावित करने वाली दूषित वृत्तियों और मनोच्छाओं को मानसिक एकाग्रता के माध्यम से चिन्तन प्रक्रिया दूर रखना ही योग है। आज की तारीख में इस देश के हजारों शारीरिक शिक्षक विभिन्न प्रकार के आसन करवाकर उसे योग बताते हैं। तरह-तरह के नये आसनों का आविष्कार भी कर लिया गया है। आधुनिक तेज संगीत, ड्रम म्यूजिक या बीट म्यूजिक को भी आसनों से जोड़कर योग का नाम दिया जा रहा है। अर्थात् अब आसन ही योग हो गये हैं।

योग यात्रा में विभिन्न आसन आवश्यक हैं, परन्तु इन आसनों को योग की सीमा तक ना ले जाया जाए या उन्हें ईश्वर से जोड़ने का माध्यम ना बनाया जाए या एकाग्रता के उस मुकाम तक ना ले जाया जाए, जहाँ से कि वह ईश्वर प्राप्ति का माध्यम बन सके, तब तक इन आसनों को योग कहना अनुचित है। बाबा रामदेव ने आसनों का प्रचार-प्रसार किया परन्तु उनकी पद्धतियों में कुण्डली जागरण, षटचक्रभेदन या योगियों में अत्यंत प्रचलित हठ योग की एक मुद्रा खेचरी जैसी मुद्राओं का अभाव है। अतः उनके आसनों के प्रचार-प्रसार को आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार के रूप में तो देखा जा सकता है, योग प्राप्ति की श्रेष्ठता नजर नहीं आती। इस देश में जो गुरु योगी हैं या योग प्राप्ति की शिक्षा देते हैं, वे बाजार में नहीं मिलते, विक्रय नहीं करते, बल्कि हिमालय में, सुदूर एकान्त में या गुप्त प्राय मिलते हैं और बाजारों में नहीं घूमते।

 

जिन लोगों ने धर्म दर्शन और आध्यात्म को बाजारू उत्पादन के रूप में बेचा और उससे अतुल धन अर्जित किया, उनको भारत का समाज 20-25 वर्ष से अधिक नहीं झेल पाया। अनुचित तरीकों से कमाया गया धन दूषित वृत्तियाँ भी लाता है, जो कि योग की मूल धारणा के विरुद्ध है। भारत के कुछ तथाकथित संतों का पतन इसलिए हुआ कि उन्होंने धर्म की आड़ में इतनी माया अर्जित कर ली कि उनके गत जन्मों का पुण्यबल भी समाप्त हो गया और एक सीमा के बाद वह शून्य हो गया तथा अब पतन के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा। पतन का माध्यम चाहे स्त्री रही हो, कानून का उल्लंघन रहा हो या स्वयंभू संतों का अहंकार रहा हो, पतन निश्चित हुआ।

बहुत सारे संतों के विरुद्ध भूमि पर अतिक्रमण करके उस पर नियम विरुद्ध निर्माण करने के आरोप हैं। अब दक्षिण भारत के भी एक बड़े गुरु चर्चा में हैं। एक सामान्य बुद्धि वाला मनुष्य यह तो पूछ ही सकता है कि संतों को लक्जरी आश्रम, हर शहर में आश्रम, राजनैतिक दलाली व बाल रंगकर टीवी पर बैठने की क्या आवश्यकता? टीवी पर बैठने वाले स्वयंभू गुरुओं को आप मँहगे रेशमी वस्त्रों में, हाथों में सोने के कड़े या गले में सोने की जंजीर धारण किए हुए देख सकते हैं। क्या पातञ्जलि योग सूत्र में वर्णित चित्तवृत्ति निरोध यही है? क्या यह संत पुराण नहीं पढ़ते, जिनमें तरह-तरह के नरकों का उल्लेख है।

अभी-अभी बाबा रामदेव ने ज्योतिष के विरुद्ध कुछ ऐसा कह दिया कि देश भर के ज्योतिषी उनके विरुद्ध हो गये। प्रथम तो बाबा रामेदव आसन कराते हैं, न कि योग। उस पर भी उन्होंने आसनों को आयुर्वेद से कमाई का जरिया बना लिया। बात यहीं तक नहीं रहती अगर वे छः वेदाङ्गों में सर्वश्रेष्ठ वेदाङ्ग कहे गये ज्योतिष का विरोध नहीं करते। ज्योतिष और वास्तु पर वे निरंतर प्रहार करते हैं। उनकी आर्य समाज की पृष्ठभूमि इसका एक कारण माना जा सकता है। परन्तु बाबा केवल आर्य समाजी ही नहीं हैं, वे आयुर्वेद का सहारा लेते हैं, जिसमें ‘आयु’ और ‘वेद’ 2 शब्द सम्मिलित हैं। भला ऐसे कैसे हो सकता है कि कोई व्यक्ति एक वैदिक विद्या का सहारा लेकर दूसरी वैदिक विद्या का खण्डन करे। यह बात तो तब है जब ज्योतिष और आयुर्वेद दोनों को ही अर्थकारी विद्या माना गया है। इसलिए एक को दूसरे की निंदा करने का अधिकार ही नहीं है।

देश का प्रत्येक ज्योतिषी आयुर्वेद का उतना ही सम्मान करता है, जितना कि अपनी ज्योतिष का। आज से कुछ सौ साल पहले तक गुरुकुलों में सभी वेदाङ्गों को एक साथ ही पढ़ना पड़ता था। जो ज्योतिषाचार्य है, वह आयुर्वेदाचार्य भी होता था और जो आयुर्वेदाचार्य होता था, वह ज्योतिषाचार्य भी होता था। शरीरलक्षण अध्याय में यह दोनों अन्योन्याश्रित थे। प्राचीन ज्योतिषियों में सर्वश्रेष्ठ पाराशर ने तो वनस्पति शास्त्र या आयुर्वेद पर एक श्रेष्ठ रचना कर डाली थी, जिसका नाम वृक्ष आयुर्वेद था।

परम्परावादी, शास्त्रवादी या हिन्दू मानसिकता के लोग कभी कल्पना भी नहीं कर सकते कि कोई व्यक्ति कभी किसी वेद या वेदाङ्ग की आलोचना करेगा। अभी 3 वर्ष पहले उत्तराखण्ड के एक प्रमुख अखबार द्वारा आयोजित ज्योतिष महाकुम्भ में आचार्य बालकृष्ण ने ज्योतिष को लेकर कुछ ढंग की बातें कही थी, परन्तु कार्यक्रम से बाहर निकलते ही फिर वही ‘ढाक के तीन पात’।

ऐसा नहीं है कि ज्योतिष के विरुद्ध बोलने वाले केवल बाबा रामदेव ही हैं। परन्तु बड़ी चतुराई से उन्होंने ज्योतिष के प्रति पूर्वाग्रह को आयुर्वेद की अच्छाई से ढक दिया है। परन्तु चूंकि उनकी यह कोशिश एक वेदाङ्ग पर आक्रमण की है तो बात बहुत दूर तक जायेगी। देश का ज्योतिषी कभी भी आयुर्वेद का विरोध नहीं करेगा परन्तु सफलता के अहंकार से ग्रस्त हर व्यक्ति और संस्था का विरोध करेगा। वर्तमान संदर्भ को संस्कृति के विरोध में की गई चेष्टा के रूप में देखा जा रहा है।

लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति पर यह आरोप है कि उसने भारतीय युवा को भारत की सांस्कृतिक परम्परा से दूर करने का कार्य किया। अभी भी देश में एक-आध राजनैतिक दल और संस्थाएँ ऐसी हैं जो चरित्र से नास्तिक हैं। ऐसी भी विचार धाराएँ हैं जिनकी मानसिक सत्ता के केन्द्र भारत से बाहर हैं। कुछ लोग परम्पराओं का उपहास करने में अभी भी संकोच नहीं करते। कोरोना की त्रासदी में हाथ बार-बार धोना, हाथ मिलाने की जगह नमस्कार मुद्रा में होना, जूतों को बाहर खोलकर आना, कंधे पर हमेशा ही एक तौलिया रखना, बासी भोजन ना खाना, बड़े बुजुर्गों के और सम्मानीय व्यक्तियों के पैर छूना, बर्तनों को मिट्टी से माँजना, नीम या बबूल की दातून से दाँतों को साफ करना, प्राकृतिक चिकित्सा की जलनेति जैसी क्रिया को करना आदि से इन प्राचीन परम्पराओं को पुनर्जीवित होते देखा गया है। हल्दी और मेथी की गुणवत्ता को पुनः पहचाना गया। आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा इस देश में हजारों वर्षों से है, इसे किसी आधुनिक बाबा ने नहीं सिखाया। इसलिए नये व संशोधित व धन कमाने के उद्देश्य से प्रचारित किये जा रहे संदेश, तभी तक सार्थक हैं जब तक कि वे मूल शास्त्रों के अनुरूप हैं। शास्त्रों से दूर होते ही जनता इनके विरुद्ध प्रतिक्रिया करने लगती है। गत 2 वर्षों में कोरोना ने आयुर्वेद की प्रतिष्ठा तो बढ़ाई ही है, हमारी दाह संस्कार की प्रक्रिया पर भी मोहर लगाई है। समाजिक होने की आवश्यकताएँ उभर कर सामने आई हैं तो संतानों को यह भी समझ में आया है कि माँ-बाप के पास रहना जरूरी है।

भारत वर्ष ने सहज भाव से यूनानी चिकित्सा पद्धति, होम्योपेथी व एलोपेथी को स्वीकार किया है। भारतीय ज्योतिषी ने कभी इनका विरोध नहीं किया, क्योंकि ये जीवन रक्षक प्रणालियाँ हैं और सार्वभौम प्रकृति की हैं। इस देश में कुछ भी हो जाए, भारतीय संस्कृति इतने विदेशी आक्रमणों के बाद भी इसीलिए सुरक्षित रही कि ज्योतिष के रूप में, गाँव के पण्डित जी के रूप में, शास्त्रों का और परम्पराओं का प्रवाह हर देशवासी तक पहुँचता रहा। ज्योतिष इस देश की जनता के मन और प्राण में बसी हुई है। गाँव का ज्योतिषी भी आस्था का इतना बड़ा केन्द्र हो गया कि समूचा राष्ट्र अनेकों सांस्कृतिक आक्रमणों को झेल गया और संस्कृति अक्षुण्ण बची रही।

पर यह भी सत्य है कि कुछ अप्रशिक्षित और नादान ज्योतिषियों के कारण इस वेदाङ्ग पर आलोचना के अवसर बढ़े हैं। अतः समय की आवश्यकता है कि देश के श्रेष्ठ ज्योतिषी ज्योतिष पर आये हुए उपालम्भ को अपनी योग्यता से और संगठन शक्ति से नष्ट कर दें। जय ज्योतिष। जय आयुर्वेद।।

 

 

आज भी सशरीर विद्यमान हैं श्री हनुमान

भारतीय मनीषा ने सार प्रखर व्यक्तित्वों को उनके द्वारा सम्पादित कार्य की महत्ता के आधार पर चिरंजीवी संज्ञा दी है :-

अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनुमांश्च विभीषण।

कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीवी॥

राजा बलि के द्वारा दिये दान, महर्षि वेद व्यास द्वारा महाभारत लेखन, विभीषण के द्वारा रावण के अधर्म राज्य के स्थान पर धर्म राज्य के स्थापन, परशुराम के द्वारा अनाचारी क्षत्रिय शासकों के संहार तथा अश्वत्थामा एवं कृपाचार्य के उल्लेखनीय कार्य मानव की सामान्य जीवन अवधि में संभव नहीं था। अत: उन्हें चिरंजीवी होने का अवसर प्रदान किया गया ताकि वे कठिन लक्ष्य को उन्हें प्रदत्त दीर्घायु में प्राप्त कर सकें और वस्तुत: उन्होंने किया भी वैसा ही।

इसी श्रृंखला में हनुमान जी का लक्ष्य इनसे बडा है, बल्कि अनन्त है। उसे एक सामान्य मानव जीवन अवधि तो क्या ऊपर वर्णित दीर्घायु में भी प्राप्त करना संभव नहीं। यह तो तभी संभव है जब प्राणी अनन्त समय तक पर अहर्निश सशरीर प्रयासरत रहे। अब प्रश्र उठता है कौनसा है वह लक्ष्य? क्यों होती है आवश्यकता उसे पाने के लिए अहर्निश प्रयास की? वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के चालीसवें सत्र में इस बारे में प्रकाश डाला गया है।

लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम उन्हें  युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को कृतज्ञता स्वरुप उपहार देते हैं तो हनुमान जी श्रीराम से याचना करते हैं कि-

यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले।

तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:॥

''अर्थात हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।‘’

इस पर श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते है कि-

एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:।

चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका॥

तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा।

लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा॥

अर्थात् ''हे कपिश्रेष्ठ। ऐसा ही होगा। इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेंगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेगी।‘’

स्पष्ट है हनुमान जी ने जब श्रीराम कथा के प्रचलित रहने तक शरीर में प्राण रखने की कामना प्रकट की तो श्रीराम ने उन्हें न केवल तब तक उनके शरीर में प्राण रहने का आर्शीवाद दिया अपितु इन लोकों अर्थात्ï ब्रह्माण्ड के बने रहने तक रामकथा के स्थिर रहने का वचन भी दिया। इसे सीधे शब्दों में यंू कहा जा सकता है कि जब तक यह ब्रह्माण्ड रहेगा रामकथा स्थिर रहेगी और रामकथा की स्थिरता तक हनुमान जी सशरीर विद्यमान रहेगें। माँ जानकी ने भी उन्हें अजर एवं अमर होने का आर्शीवाद राम चरित मानस के अनुसार निम्र प्रकार दिया है।

अजर अमर गुन निधि सुत होहु।

करहु बहुत रघुनायक छोहु॥

स्पष्टï है हनुमान जी 6 चिरंजीवियों से भी आगे बढकर अजर एवं अमर हैं और फिर वे अजर एवं अमर क्यों नहीं हो जब इन्होंने संकल्प लिया है कि -

वांछितार्थ प्रदस्यामि भक्तानां राघवस्य तु।

सर्वदा जागरुको स्मि, राम कार्य धुरंधर:॥

उनकी यह घोषणा है कि वह श्रीराम के भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए संकल्पित एवं मनसा-वाचा-कर्मणा सचेष्ट हैं। वह राम काज करने में न केवल धुरंधर हैं अपितु सदैव सजग एवं क्रियाशील भी हैं। रामकाज प्रारम्भ करने पर उसे पूर्ण किये बिना विश्राम लेना उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं।

उनकी रामकथा सुनने की आतुरता एवं रामकाज के प्रति उत्साह की झलक हमें हर युग में मिलती है। त्रेता युग में दशरथ पुत्र श्रीराम की सेवा में अपलक समर्पित हैं तो द्वापर  में अर्जुन के रथ के ध्वज पर आसीन होकर महाभारत के चक्षुदर्शी साक्षी हैं। महाभारत की समाप्ति पर भीम के बल दर्प को दूर करने के लिए वृद्घ वानर के रूप में प्रस्तुत हैं तो कलियुग में भक्त कवि तुलसीदास को चित्रकूट के घाट पर श्रीराम के दर्शन कराने के लिए विप्ररूप में उपस्थित हैं। ये कुछ घटनाएं मात्र उदाहरण स्वरुप गिनाई हैं वरना वे प्रतिदिन उन करोडों लोगों की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहायता करते हैं जो श्रीराम का स्मरण करते हैं और हाँ वे उनके सामने सशरीर प्रकट होने को भी आतुर हैं जो उन्हें अपने दृढ संकल्प, अगाध श्रद्घा एवं पूर्ण समर्पण से प्राप्त करने की क्षमता एवं पात्रता रखते हैं।

 

भद्रा रहस्य

ज्योतिष शास्त्र में पंचांग सबसे महत्वपूर्ण विषय है। जिसके पांच अंग है उसे पंचांग कहते हैं, वे हैं- वार, तिथि, नक्षत्र, योग तथा करण। विष्टि करण को ही भद्रा कहते हैं। भद्रा के संबंध में कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय विष पान करके शिवजी ने जब हुंकार भरी तथा अपने शरीर पर दृष्टि डाली तो उनके दृष्टिï आघात से गर्दभ-मुख, तीन चरण, सप्त भुजा, काला कर्ण, लम्बे व टेढे दाँत, प्रेतवाहन तथा मुख से अग्नि उगलती हुई देवी प्रकट हुई जिसे देवताओं ने 'भद्रा देवी’ के नाम से संबोधित किया। 'भद्रा देवी’ की पूँछ भी थी जो शुभ एवं कल्याणकारी थी। ऐसी भद्रा देवी ने दैत्यों का वध करके देवताओं की सहायता की। ऐसी भद्रा देवी सर्व कार्य विनाशक नहीं हो सकती। फिर भी ज्योतिषी गण भद्रा से आतंकित रहते हैं। इस करण को इतना महत्व दिया है कि प्रत्येक पंचांग में भद्रा के आरम्भ और अंत का समय स्पष्ट रूप से अंकित किया जाता है।

हमारे मनीषी किसी भी योग और ग्रह के लिये बुरे शब्द का प्रयोग नहीं करते थे। जैसे ढ़ैया और साढ़ेसाती को उन्होंने लघु-कल्याणी और वृहद कल्याणी का नाम दिया है। घोर पापग्रह 'कुज’ को मंगल नाम दिया है। यद्यपि विष्टि करण को बुरा मानते हैं, परन्तु उसको भी शुभ नाम 'भद्रा’ दिया है। इसमें रहस्य की बात यह है कि भद्रा नाम की देवी थीं जिसने दैत्यों का विनाश किया और देवताओं की विजय करायी।

करण : तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। इस तरह एक तिथि के पूर्वाद्र्ध में एक करण और उत्तराद्र्ध में दूसरा करण आता है। एक माह में दो पक्ष होते हैं। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। दोनों पक्षों में 15-15 तिथियां होती हैं। इस तरह एक माह में 30 तिथि और प्रत्येक पक्ष में दो करण होने से एक माह में साठ (60) करण होते हैं।

करण कुल 11 होते हैं। इनके नाम 1. बव, 2. बालव, 3. कौलव, 4. तैतिल, 5. गर, 6. वणिज, 7. भद्रा (विष्टि), 8. शकुनि, 9. चतुष्पाद, 10. नाग और 11. किंष्तुघ्न। इनमें से पहले सात करण हर माह में आठ (8) बार आते हैं और अंतिम चार करण हर माह में एक-एक बार आते हैं।

भद्रा : विष्टि करण को ही भद्रा कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि भद्रा में कोई कार्य नहीं करना चाहिये क्योंकि भद्रा में प्रारम्भ किया हुआ कार्य असफल होता है। इसलिए ज्योतिषी भद्रा में कोई मुहूर्त नहीं देते परन्तु ऐसा विचार अधूरे ज्ञान का सूचक है।

शुक्ल पक्ष की 8, 15 तिथि के पूर्वाद्र्ध, 4, 11 तिथि के उत्तराद्र्ध में तथा कृष्ण पक्ष की 3, 10 तिथि के उत्तराद्र्ध में और 7, 14 तिथि के पूर्वाद्र्ध में भद्रा रहती है। तिथि के पूर्वाद्र्ध में दिन की भद्रा और उत्तराद्र्ध में रात्रि की भद्रा होती है। पूर्वाद्र्ध की भद्रा दिन में और उत्तराद्र्ध की भद्रा रात्रि में त्याज्य हैं। इसके विपरीत पूर्वाद्र्ध की भद्रा रात्रि में और उत्तराद्र्ध की भद्रा दिन में समस्त कार्यों में प्रशस्त है।

कृष्ण पक्ष की भद्रा को वृश्चिक और शुक्ल पक्ष की भद्रा को सर्पिणी संज्ञक कहते हैं। भद्रा का अंग चक्र निम्न प्रकार होता है, एक घटी 24 मिनट की होती है।

भद्रा -

मुख

गला

छाती

नाभि

कमर

पुच्छ

घटी-

5

1

11

4

6

3

फल-

कार्य हानि

भरण

धननाश

वृद्धिनाश

कलह

विजय कारक

आवश्यक कार्यों में भद्रा का मुख त्याग देना चाहिये क्योंकि सर्प के मुख में विष होता है, अत: सर्पिणी भद्रा का मुख छोड़ देना चाहिये। वृश्चिक (बिच्छू) भद्रा की पूंछ त्याग देनी चाहिये।

भद्रा फल

1. सोमवार और शुक्रवार की भद्रा को कल्याणी, शनिवार की भद्रा को वृश्चिकी, गुरुवार की भद्रा को पुष्पवती और रविवार, बुधवार तथा मंगलवार की भद्रा को भद्रिका कहते हैं। शनिवार की भद्रा सबसे अधिक अशुभ मानी जाती है।

2. देवगण वाले नक्षत्र में सोम, बुध, गुरु और शुक्र को भद्रा हो तो वह कल्याणी नामक भद्रा होती है। कल्याणी भद्रा सभी कार्यों में सिद्धिदायक है।

3. भद्रा जब स्वर्ग में वास करती है तो राज्य देती है और पाताल में होती है तो धन प्राप्ति में शुभ एवं जब भद्रा मृत्युलोक में होती है तब सभी कार्यों में हानि करती है। भद्रा एक तिथि का आधा भाग होने से लगभग 30 घटी की होती है। इसमें से पहली 8 घटी स्वर्ग में, 16 घटी मृत्यु लोक में और शेष 6 घटी पाताल में रहती है। तिथि का मान कम या ज्यादा होने से स्वर्ग, मृत्यु लोक और पाताल की भद्रा का घटी अनुपात से कम या ज्यादा हो जाता है।

4. भद्रा की पूंछ में कार्य करने पर सभी कार्यों में सफलता मिलती है।

भद्रा पूंछ का समय : दशमी और अष्टमी की भद्रा की प्रथम पाँच घटी के बाद की तीन घटी भद्रा की पूंछ का समय होता है। एकादशी और सप्तमी की भद्रा की 13 घटी के पश्चात की 3 घटी भद्रा की पूंछ संज्ञक होती है। तृतीया और पूर्णिमा की 21 घटी के बाद की तीन घटी भद्रा की पूंछ होती है और चतुर्थी और चतुर्दशी की भद्रा की पूंछ होती है।

भद्रा का वास : मुहूर्त चिंतामणि के शुभाशुभ नामक प्रथम-प्रकरण के श्लोक 45 के अनुसार भद्रा का वास निम्न लिखितानुसार है-

कुम्भ अर्क अये मत्र्ये स्वर्गेडब्जेऽजात्त्रयेऽलिगे।

स्त्री धनुर्ज कनक्रेऽधो भद्रा तत्रेव तत्फलम॥

अर्थात् कुम्भ, मीन, कर्क और सिंह राशि में चन्द्रमा होते हैं तब भद्रा मृत्युलोक में रहती है और अनिष्टकारी होती है। मेष, वृष, मिथुन और वृश्चिक राशि में चन्द्रमा होते हैं तो भद्रा का निवास स्वर्ग में होता है जो कि शुभफल देती है और कन्या, धनु, तुला और मकर राशि में चंद्रमा हों तो भद्रा का निवास पाताल में होता है जो धन प्रदान करने वाली होती है।

 

 

शिवलिङ्ग और शालिग्राम के हाथ-पैर क्यों नहीं?

यत्र तत्र हम भगवान शंकर के शिवालय जहां शिवलिङ्ग की प्रतिष्ठा है और भगवान विष्णु के और उनके अवतारों (श्रीराम-कृष्ण आदि) के मंदिरों को देखते हैं, मंदिरों में दर्शन करने जाते हैं। सभी मंदिरों में भगवान का मनोहर श्रृंगार देखने को मिलता है। श्री हरि के मंदिरों में देवमूर्ति के साथ शालिग्राम शिला की प्रतिष्ठा अवश्य होती है।

शिवलिङ्ग और शालिग्राम शिला सर्वत्र गोल ही रखे जाते हैं। शंका यह है कि इन देव प्रतीकों के हाथ-पांव, मुंह, नाक आदि क्यों नहीं होते? जहाँ भी देखो वहां शिवलिङ्ग और शालिग्राम जी गोल मटोल, अण्डाकार ही मिलते हैं। इन्हें भगवान शंकर और श्रीहरि के प्रमुख प्रतीक माना जाता है। इन प्रस्तर खण्डों की मानवीय आकृति नहीं होती। ये जिस अवस्था में भी मिलें सदा पूज्य होते हैं। इनकी प्राप्ति के भी प्रमुख स्थान बतलाये हैं-

'नर्मदा का कंकर, हर एक शंकर

अर्थात् नर्मदा नदी के जल घर्षण से बनी प्रस्तर शिला की गोल अण्डाकार पिण्डी साक्षात् शंकर भगवान का ही रूप होती हैं। इन्हें नर्मदा तट से लाकर सीधे ही घर में पूजा जा सकता है। कर्मकाण्ड मीमांसक यह कहते हैं कि नर्मदेश्वर (नर्मदा से निकला शिवलिङ्ग) और शालि पर्वत का शिलाखण्ड (शालिग्राम) और बाणलिंग जिस अवस्था में प्राप्त हों, वे सदा पूज्य होते हैं। उनमें प्राण प्रतिष्ठा आदि भी करने की आवश्यकता नहीं होती। वे साक्षात् श्री हर और श्री हरि के ही अंश होते हैं।

शालिग्राम शिला (असली) की उपलब्धता कैलाश पर्वत के ऊपरी भाग में एक शालि पर्वत है जो पूर्ण श्याम वर्ण का है, उस पर्वत से एक नदी झील रूप में निकलती है जिसका जल अमृत तुल्य स्वच्छ और निर्मल व आर्त (कुछ गर्म) होता है। संत लोग ऐसा कहते हैं कि इस स्थान तक केवल तुलसी के पौधे को साथ लेकर ही जाया जा सकता है। वहीं से असली शालिग्राम शिला प्राप्त होती है। यहां की शालिग्राम शिला श्री चक्र से युक्त होती हैं। ये शिलायें ईश्वर की साक्षात्ï प्रतीक हैं। ऐसा भी कहा है कि इनमें किसी भी देवता का आह्वान कर पूजा की जा सकती है। चूंकि ईश्वर की साक्षात् जीवित प्रतीक ये शिलाएं होती हैं इसलिए इन्हें शस्त्रों से गढ़ा भी नहीं जाता।

किसी भी देव के प्रतीक मुख्यतया 4 प्रकार के होते हैं-

1. स्वयम्भु विग्रह : स्वत: ही प्रकट होने वाले ईश्वर रचित पदार्थ- जैसे सूर्य-चन्द्र, अग्नि, पृथ्वी, दिव्य नदी आदि।

2.निर्गुण विग्रह : जो भगवान के निर्गुण और निराकार रूप को व्यक्त करते हैं, जैसे- शिवलिङ्ग, शालिग्राम, नर्मदेश्वर, शक्ति पिण्डी, मिट्टी पिण्डी या सुपारी से बने गणेश जी आदि।

3.सगुण विग्रह : शंख-चक्र-गदा-पद्म, हाथ-पांव मुख आदि से युक्त और सुसज्जित देव प्रतिमाएं जैसे चतुर्भुज, श्री विष्णु, पंचमुख शिव, सिंंह सवार माँ दुर्गा एवं मूषक वाहन लम्बोदर गणेश जी आदि की प्रतिमाएं।

4.अवतार विग्रह : श्री नृसिंह, वामन, कूर्म-मत्स्य, वराह-धनुर्धारी श्रीराम और वंशी से युक्त श्रीकृष्ण आदि की प्रतिमाएं।

स्वयंभु विग्रह तो उत्पत्ति के समय जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं अर्थात् ईश्वर ने जैसा इनको बनाया, आज भी ये उसी रूप में पूजे जाते हैं। ईश्वर की सगुण प्रतिमूर्ति भी भावनात्मक आवरण से आवरित, गुणों पर आधारित बनाई जाती हैं, अवतार विग्रहों का भी यथावत बनाना आवश्यक है लेकिन शिवलिङ्ग-शालिग्राम प्रतिमाएं जब निर्गुण और निराकार की ही प्रतीक हैं तो उनमें हाथ- पांव-नेत्र-मुख आदि की कल्पना भी कैसे की जा सकती है? इसलिये इन्हें मूर्ति नहीं कहा जाता। इन्हें लिङ्ग या शिला कहा जाता है।

अत: ईश्वर को निराकार मानते हुए उन्हें गोल-अण्डाकार रूप में स्वीकार कर पूजा जाता है, इसलिए शिवलिङ्ग और शालिग्राम के हाथ-पैर-मुख नहीं होते।

 

 

सिंह राशि के लिए रत्न

आपके लिए माणिक और मूँगा रत्न शुभ हैं।

1.माणिक को पहनने से आपका बौद्धिक स्तर बढ़ेगा। आपके व्यक्तित्व में निखार आएगा, स्वास्थ्य अच्छा होगा और आत्म-विश्वास भी बढ़ेगा। राजसी लोगों से संपर्क बढ़ेंगे, उन संपर्कों से फायदा भी होगा।

आप सवा पाँच रत्ती का माणिक सोने या ताँबे की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के रविवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की अनामिका अँगुली में पहनें। (सूर्योदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी को धो लें। इसके बाद ॐ घृणि: सूर्याय नम: मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।

2. मूंगा पहनने से आपके भाग्य में बढ़ोत्तरी होगी और कार्यों में आ रही रुकावटें दूर होंगी। आपके धन और ऐश्वर्य में बढ़ोत्तरी होगी, परिवार का सुख बढ़ेगा, भूमि और अचल संपत्ति अधिक रहेगी और उससे लाभ भी मिलेगा। आपको मिलने वाली सुख-सुविधाओं में भी बढ़ोत्तरी होगी। पद और सम्मान बढ़ेगा। आपकी आजीविका के साधन आसानी से मिलेंगे और मिलने वाले अवसरों का पूरा फायदा उठा पाएंगे।

आप सवा पाँच रत्ती का मूँगा, सोने या ताँबे की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के मंगलवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की अनामिका अँगुली में पहनें। (सूर्योदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी को धोलें। इसके बाद  ॐ अं अंगारकाय नम: मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।