ब्रह्मा के द्वारा रची गई सृष्टि में सप्तऋषि मण्डल का स्थान बहुत ऊँचा है। यह वो सात ऋषि हैं, जिन्हें सृष्टि कर्म को आगे बढ़ाने और मार्गदर्शन करने का श्रेय है। ब्रह्मा के मानस पुत्र और सप्तऋषि मण्डल के ऋषि भारतीय वाङ्गमय में उच्च कोटि का स्थान पाए हुए हैं। जो सर्वकालीन महान ऋषि हुए हैं उन्हें सप्तऋषि मण्डल में स्थान मिलता रहा है। ऋषियों की प्रतिष्ठा के लिए भारी प्रयास किये गये और कुछ व्यवस्थाओं ने जन्म लिया, जिन्हें आज हम सप्तऋषियों के रूप में जानते हैं, वे सब हर मनवन्तर में वे की वे नहीं थे।

हर मनवन्तर में सप्तऋषियों के नाम बदलते रहे हैं। आम जनता तो इन बातों को नहीं जानती परन्तु ऋषियों को या आध्यात्म में रूचि रखने वाले व्यक्तियों को यह जानकारी रहती ही है। एक रोचक बात सभी को जाननी चाहिए कि प्रथम मन्वन्तर जिसका नाम स्वायम्भुव था उसमें मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ सप्तऋषि थे। परन्तु विष्णु पुराण में ही दूसरे मन्वन्तर के ऋषि बदल गये कोई अन्य ही नाम आ गये। तीसरे मन्वन्तर में जिसका कि नाम उत्तम था महर्षि वशिष्ठ के ही सातों पुत्र सप्तऋषि कहलाये। परन्तु बाद में इस व्यवस्था का विकास हुआ और कुछ ऋषि तो स्थिर रूप से रहे और कुछ बदलते रहे। पृथु, ज्योतिर्धामा, काव्य, चैत्र, अग्नि, हिरण्यरोमा, पर्जन्य, वेदबाहु, सुमेधा, विरजा, मधु, अतिनामा और सहिष्णु नाम के ऋषि भी सप्तऋषि मण्डल में स्थान पाते रहे हैं।

वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्रि और भारद्वाज नाम के ऋषि सप्तऋषि मण्डल में हैं। अगला जो मन्वन्तर है उसका नाम सावर्णिक होगा और उसमें जो सप्तऋषियों के नाम हैं वे अलग ही होंगे। गालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वथामा, कृप, ऋष्यश्रृंग और व्यास होंगे। उससे जो अगला मन्वन्तर है, जिसका नाम दक्षसावर्णि होगा, उसमें यह सातों ऋषि बदल जाएंगे।

यहाँ यह जान लेना भी आवश्यक है 43 लाख 20  हजार वर्ष का एक महायुग होता है जिसके अन्तर्गत सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग का नाम शामिल होता है। ऐसे जब 71 महायुग होते हैं उन्हें एक मन्वन्तर माना गया है। ऐसे जब 14 मन्वन्तर हो जाते हैं तब ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है। इस हिसाब से ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष मानी गई है।

शतपथ ब्राह्मण में जो सप्तऋषि माने गये हैं उनके नाम है गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वशिष्ठ, कश्यप और अत्रि। परन्तु महाभारत में जो नाम हैं वे हैं कृतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरस, वशिष्ठ और मरीचि।

 

मजेदार बात यह है कि ध्रुव तारा सप्तऋषि मण्डल में ना होकर उसके ठीक सामने लघु सप्तऋषि मण्डल में स्थित है और बड़े सप्तऋषि मण्डल के पुलह और क्रतु तारे की सीध में देखने से ध्रुव तारा नजर आता है।

सप्तऋषि मण्डल में नये तारों के नाम क्यों बदले और नये नामों का क्यों समावेश हुआ उसको समझने के लिए खगोलीय घटनाक्रम को समझना जरूरी है। हम एक लाख वर्ष पहले के सप्तऋषि मण्डल, आज के सप्तऋषि मण्डल और एक लाख वर्ष बाद के सप्तऋषि मण्डल में तारों की स्थिति किस तरह बदलती है, इसे चित्र के माध्यम से समझने की चेष्टा करें।

 

धार्मिक मान्यताएँ -

ब्रह्मा ने सृष्टि प्रक्रिया में 10 प्रजापतियों को उत्पन्न किया। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष तथा कर्दम। इन प्रजापतियों में से मरीचि के पुत्र कश्यप हुए, जिनको दक्ष प्रजापति की 60 कन्याओं में से 13 विवाही गईं। आज जितना भी जीव जगत है, वह दक्ष प्रजापति और कश्यप की संतानों से है। दक्ष पुत्रियों में अदिति से देवता हुए, दिति से दैत्य हुए, दनु से दानव हुए और कद्रु से सर्पादि हुए। इसी तरह से अन्य पुत्रियों से छोटे-बड़े जीव, कीट-पतंग आदि उत्पन्न हुए। तो हम एक स्पष्ट विभाजन देखते हैं कि सप्तऋषि मण्डल के ही कुछ ऋषियों ने सृष्टि के विस्तार में अपनी बड़ी भूमिका निभाई।

पर्याप्त खगोलीय ज्ञान के अभाव में ध्रुव तारे को स्थिर मानते हुए नवविवाहित जोड़े को धु्रव दर्शन कराया जाता था और उन्हें तारों की छाव में इसीलिए विदा किया जाता था कि उनका विवाह धु्रव जैसा स्थिर हो। बालक ध्रुव की अटल विष्णु भक्ति से तो आप परिचित हैं ही। एक अन्य रोचक कथा सप्तऋषि मण्डल के ही वशिष्ठ तारे से जुड़ी है। वास्तव में वशिष्ठ और अरुन्धति पति-पत्नी हैं और चूंकि ये जुड़वाँ तारों के रूप में स्थापित हंै, इन्हें भी दम्पत्तियों के लिए आशीर्वाद प्रदान करने वाला माना गया है।

सप्तऋषि मण्डल हमारी आकाश गंगा से बाहर के तारे हैं। सप्तऋषि मण्डल के अन्तर्गत ही अरबों तारे हैं, बहुत सारी मंदाकिनियाँ हैं। आप कल्पना करें कि कृतु तारे के वायव्य कोण में एम.ई.टी. 1 नाम की मन्दाकिनी हम से एक करोड़ प्रकाश वर्ष दूर है।

सप्तऋषि मण्डल उत्तरी अक्षांशों में ही स्थित हैं और धु्रव तारे को प्राचीन काल से ही उत्तर दिशा की पहचान के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है।

 

तुला राशि और आप

आपका व्यक्तित्व

राशि चक्र की सातवीं राशि तुला है। यह एक वायु तत्व राशि है। वह वायु जो प्राणदायी है व तपते हुए रेगिस्तान में पेड़ के नीचे बैठे यात्री के लिए मन्द पवन है, जिसमें वह राहत की साँस लेता है और चाहता है कि यह वायु यूँ ही बहती रहे। तुला राशि के व्यक्ति भी इसी पवन की भांति सामाजिक, सबका भला करने व सोचने वाले होते हैं। एक बार इनसे मिलने पर व्यक्ति पुनः इनका साथ पाना चाहता है, अर्थात् इस राशि के व्यक्तियों का साथ छोड़ना कठिन होता है। वायु स्वभाव से निर्भीक होती है और इसे बाँधना या रोक पाना संभव नहीं होता, इसी भांति तुला राशि के व्यक्ति भी निर्भीक होते हैं, इन्हें इनके कार्यों से रोकना व बाँध सकना लगभग असंभव है। वायु समानता का भाव लिए सभी के लिए जीवनदायी है, अतः इस राशि के व्यक्ति भी सभी के साथ एक सा संतुलित व्यवहार रखते हैं, सत्य वक्ता होते हैं। सत्य बोलते समय हवा की निर्भीकता इनकी बातों से प्रकट होती है। बिना परिणाम की परवाह किए सत्य बोल देते हैं।

ज्योतिष में तुला की संज्ञा चर राशि भी है। ‘चर’अर्थात् चलना या क्रियाशीलता। ऐसे ही तुला राशि के व्यक्ति सतत् क्रियाशील होते हैं लगातार कार्य करना इनका विशेष गुण होता है। इनकी क्रियाशीलता इनके मस्तिष्क को अधिक प्रभावित करती है, तेज गति से निर्णय लेने के कारण इनकी निर्णय प्रक्रिया में दोष रह जाते हैं।

इस राशि के स्वामी दैत्यगुरु, सौंदर्य प्रिय, कला-प्रवीण और शिष्ट शुक्र हैं। तुला राशि के व्यक्तियों का प्रत्येक व्यवहार कलात्मकता लिए प्रतीत होता है। शुक्र समस्त शास्त्रों के प्रवक्त हैं।  इस राशि के व्यक्ति भी शुक्र के गुणों युक्त अर्थात् दार्शनिक, नीति शास्त्र ज्ञाता, धार्मिक सुधारवादी एवं वायु संबंधी विज्ञान के भी ज्ञाता हो सकते हैं। शुक्र सौंदर्य प्रेमी एवं कला प्रवीण हैं। इस राशि के व्यक्तियों में सौंदर्य के प्रति आकर्षण, गीत-संगीत, नृत्य, कला आदि की ओर विशेष झुकाव रहता है। अच्छे वक्ता एवं कवि होते हैं। स्वयं को व्यक्त करने के लिए भी कई बार काव्यमयी भाषा का प्रयोग करते हैं। इनका सौंदर्य के प्रति आकर्षण इन्हें प्रकृति की ओर खींच ले जाता है अर्थात् यह प्रकृति के बहुत करीब होते हैं। प्रकृति की सी कोमलता व शीतलता इनके स्वभाव में स्पष्टतः अनुभव की जा सकती है।

संबंधों व रिश्तों को बनाए रखना इनकी विशिष्टता होती है। उनको बचाए रखने के लिए यह कई बार यह मिथ्यारोप भी सह लेते हैं तथा व्यवहार में बहुत सरल होते हैं। शुक्र ऐश्वर्य प्रिय हैं।

इस राशि का चिह्न तराजू है। तराजू अर्थात् संतुलन। जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन बनाना तुला राशि के व्यक्तियों के स्वभाव का मुख्य गुण है। तुला की ही भांति दोनों पलड़ों को बराबर रखना अर्थात् प्रत्येक दृष्टिकोण से सोच समझकर कार्य के परिणाम का अच्छा-बुरा तोलकर ही कार्य को करते हैं, अतः यह निष्पक्ष न्यायकर्ता होते हैं, न केवल कार्यस्थल पर अपितु निजी संबंधों में भी यह अद्भुत संतुलन का परिचय देते हैं। यह विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हैं इसलिए तथ्यों को समझने की क्षमता भी अद्भुत रखते हैं। यह अच्छे मध्यस्थ की भूमिका भी अक्सर निभाते देखे जाते हैं। स्वभाव के संतुलन के कारण ही ये लोग अति से बचते हैं, अतः कूटनीति इनके स्वभाव में आ जाती है परंतु राजनीति इनके बस की बात नहीं होती।

तुला राशि शरीर में जननांगों का प्रतिनिधित्व करती है। इस राशि में चित्रा, स्वाति और विशाखा नक्षत्र सम्मिलित होते हैं, अतः तुला राशि के व्यक्तियों के जीवन में इन नक्षत्रों के स्वामी मंगल, राहु एवं गुरु की महादशाएं आ सकती हैं।

 

वास्तु के शकुन

     लगभग सभी वास्तु ग्रंथों में शकुन को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। सूत्रपात करते समय या सीमा रेखा की कील गाड़ते समय के शकुनों को अत्यधिक प्रतिष्ठा दी गई है।

सीमा रेखाएँ निर्धारित करते समय जब शंकु को थोड़ा सा भूमि में गाड़ दिया जाए, उस समय सूर्य की दिशा की तरफ बैठा हुआ कोई पक्षी कठोर या रूखा शब्द करता हो तो भूमि में जिस स्थान पर गृह स्वामी बैठा हो उस स्थान के नीचे शल्य (अशुद्धि) का संदेह करना चाहिए।

इसी भाँति यदि कोई प्रश्न करे और उस समय वह अपने किसी अंग का स्पर्श करें तो वास्तु पुरुष के उस अंग भाग में नीचे शल्य (अशुद्धि) का संदेह करना चाहिए।

भूमि परीक्षण के समय या सीमांकन करने के लिए सूत्रपात्र करते समय हाथी, घोड़ा, कुत्ता जैसा कोई प्राणी यदि उस भूमि में आकर बैठ जाए तो उस स्थान के नीचे शल्य अर्थात् हड्डी इत्यादि वस्तुओं का संदेह करना चाहिए अथवा भूमि से बाहर कोई भी प्राणी या पक्षी शब्द करे, उस समय ग्रह स्वामी यदि किसी भूमि का स्पर्श कर रहा हो तो उस स्थान के नीचे हड्डी का संदेह करना चाहिए। यदि कुत्ते जैसा कोई प्राणी सूत्रपात के समय यदि सूत्र का उल्लंघन करे तो ठीक उसी स्थान के नीचे शल्य का संदेह करना चाहिए।

शंकु स्थापना करते समय या सूत्रपात करते समय (सूत्रपात शब्द से ही सूत या धागे शब्द का प्रचलन हुआ है, प्रायः भूमि के माप में एक लम्बे धागे का प्रयोग होता है, जिसे सूत्र कहते हैं। साधारण मिस्त्री भी भूखण्ड या भवन को सम्पूर्ण में लाने के लिए सूत्र व कील का प्रयोग करते हैं और गुणियां नामक औजार का प्रयोग करते हैं जो कि एक तरफ से समकोणीय होता है और त्रिभुजाकृति भी हो सकता है।) के शकुन अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं।

यदि प्रश्न करते समय हाथी, गाय, घोड़ा, गधा, ऊँट, कुत्ता, बिल्ली, सियार इत्यादि जो भी जीव शब्द करें या उस भूमि पर आ जाएं तो या तो भूमि स्वामी जिस स्थान पर है उस भूमि के नीचे या उस भूमि पर कोई प्राणी आ जाए तो उस स्थान के नीचे शल्य या अशुद्धि होगी, ऐसी धारणा करनी चाहिए।

शंकु स्थापना या सूत्रपात के समय यदि शांतिप्रिय या शुभ माने गये पक्षी यदि मधुर ध्वनि करें तो जहाँ गृहस्वामी स्थित है या उसी भूमि में यदि वह पक्षी भी स्थित है तो ठीक उस स्थान के नीचे कोई खजाना छिपा हुआ हो सकता है। इसी प्रकार यदि कोई शंख ध्वनि हो, शहनाई या मृदंग का वादन हो, मधुर संगीत ध्वनि या वैदिक मंगलाचरण जैसी ध्वनि हो तो इसे शुभ माना जाता है।

पूजा-पाठ के समय काम में लिये जा रहे सूत्र के टूटने पर मृत्यु की संभावना होती है, कील गाड़ते समय टेढ़ी हो जाए तो रोग होता है, कलश यदि कंधों से खिसक जाए तो सिर में रोग होता है, कलश टूट जाए तो आसपास किसी न किसी की मृत्यु होती है और कलश हाथ से गिर जाए तो गृह स्वामी की मृत्यु होती है। कलश के लुढ़क जाने को भी अशुभ माना गया है।

 

हमारे गणेश जी

स्कन्दपुराण में एक उल्लेख मिलता है कि माता पार्वती ने अपने उबटन से बत्तियाँ बनाकर एक शिशु का रूप दे दिया और उसमें प्राण डाल दिये। उसे द्वारपाल बनाकर स्वयं स्नान करने चली गईं। पीछे से शिवजी आये और बालक गणेश ने शिवजी से युद्ध किया। शिवजी क्रोधित हो गये और बालक का मस्तक काट दिया। उसी समय पार्वती बाहर आईं और पुत्र-पुत्र कहकर रुदन करने लगीं। इस पर शिवजी को शोक हुआ। ठीक उसी समय गजासुर शिवजी से लड़ने आया। शिवजी ने गजासुर का मस्तक काटकर बालक के सिर के स्थान पर लगा दिया, तो गणेश जी गजानन के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस बात का उल्लेख शिवपुराण में भी है। माता पार्वती अत्यंत क्रोधित हो गईं। उन्होंने रौद्र शक्तियों को उत्पन्न किया ओर विश्व संहार का उपक्रम शुरु किया। सारे देवता-ऋषि-मुनि भयभीत हो गये और माता से याचना की। माता पार्वती ने कहा कि यदि मेरा पुत्र जीवित हो जाए और आप सभी के लिए पूजनीय मान लिया जाये तब यह विश्व संहार रुक सकता है।

शिवपुराण में उल्लेख हैं कि देवताओं ने एक हाथी को ढूँढा, जिसका एक ही दाँत था और उसका सिर लाकर गणेश के सिर से जोड़ दिया गया और अभिमंत्रित जल से सिंचन किया गया। शिव पुराण में उस समय का वर्णन है-

सुभगः सुन्दरतरो गजवस्त्रः सुरक्तकः।

प्रसन्नवदनश्चातिसुप्रभो ललिताकृतिः।।

यह सौभाग्यशाली बालक अत्यन्त सुन्दर था। उसका मुख हाथी का सा था। उसके शरीर का रंग लाल था, मुख मण्डल पर अत्यन्त प्रसन्नता खेल रही थी। उसकी कमनीय आकृति से सुन्दर प्रभाव फैल रहा था।

एक किस्सा ब्रह्मवैवर्तपुराण में मिलता है। एक बार भगवान कृष्ण वृद्ध ब्राह्मण का रूप धरकर माता पार्वती के पास गये और उनकी स्तुति करके कहने लगे कि गणेश के रूप में जो श्रीकृष्ण हैं वे प्रत्येक कल्प में तुम्हारे पुत्र के रूप में आते हैं। अभी भी वे शिशु होकर शीघ्र तुम्हारी गोद में आ जाएंगे। विप्र रूपधारी श्रीकृष्ण अर्न्तध्यान हो गये और भवन में शैय्या पर एक बालक प्रकट हो गया। उसे देखने के लिए सारे देवता और ऋषि-मुनि आने लगे। शनिदेव भी आये। शनिदेव को उनकी पत्नी ने शाप दिया हुआ था कि तुम जिसकी ओर देखेगो उसका सिर धड़ से अलग हो जायेगा। माँ पार्वती यह बात नहीं समझ पाई कि शनि बालक को देख क्यों नहीं रहे हैं। शनि ने शाप वाली बात बताई परन्तु माँ पार्वती नहीं मानी। माँ पार्वती की जिद पर शनिदेव ने उस बालक को देखा, वैसे ही बालक का सिर धड़ से अलग हो गया। इस पुराण के अनुसार भगवान विष्णु पुष्पभद्रा नदी के वन से एक हाथी के शिशु का मस्तिक काट लाये और गणेश जी के सिर पर लगा दिया।

लिङ्गपुराण में एक अन्य कथानक मिलता है। दैत्यों से परेशान देवता और उनके गुरु बृहस्पति भगवान शिव के समक्ष उपस्थित हुए और अपनी व्यथा कही। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि कुछ ऐसा करें कि असुरों का नाश हो जाए। उनके आशीर्वाद स्वरूप भगवान गणेश का स्वरूप प्रकट हुआ। उस बालक का मुख हाथी का, एक हाथ में त्रिशूल तथा दूसरे हाथ में पाश था। वह बालक प्रसन्न मुद्रा में अपनी माता-पिता के सम्मुख नृत्य करने लगा। भगवान महादेव ने उसका जातकर्मादि संस्कार करवाया और प्रेम पूर्वक गोद में उठा लिया। प्रसन्न मुद्रा में भगवान शिव ने गणेश को कहा -

‘‘हे पुत्र! तुम्हारा अवतार दैत्यों का नाश करने के लिए हुआ है। तुम देवता, ब्राह्मण एवं ब्रह्मवादियों का उपकार करोगे। यदि कोई बिना दक्षिणा के यज्ञ करें तो तुम स्वर्ग के मार्ग में स्थित हो जाओ और उस व्यक्ति के धर्मकार्य में विघ्र उत्पन्न करो। जो संसार में अनुचित ढ़ंग से व अन्याय से अध्ययन करें, अध्यापन करें, व्याख्यान करें और ऐसे ही कार्य करें, तुम उसका संहार करो। वर्ण धर्म च्युत स्त्री-पुरुष तथा स्वधर्म रहित व्यक्तियों का भी तुम संहार करो। जो स्त्री-पुरुष ठीक समय पर सदा तुम्हारी पूजा करें, तुम उनका कल्याण करो। तुम अपने भक्तों की लोक-परलोक में रक्षा करो और चूंकि तुम विघ्रगणों के स्वामी रहोगे इसलिए तीनों ही लोक में पूजे जाओगे। जो लोग मेरी, भगवान विष्णु की या ब्रह्मा जी की यज्ञों द्वारा या ब्राह्मणों के माध्यम से पूजा करते हैं उन सब के द्वारा तुम सबसे पहले पूजे जाओगे। तुम्हारी पूजा किये बिना जो स्रौत, स्मार्त या लौकिक कल्याणकारक कर्मों का अनुष्ठान करेगा, उसका कार्य अनिष्ट में बदल जायेगा। तीनों लोकों में जो चंदन, पुष्प, धूप, दीप आदि के द्वारा तुम्हारी पूजा किये बिना ही कुछ पाने की चेष्टा करेंगे, चाहे वे देवता ही हों, उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। जो लोग फल की कामना से ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र अथवा अन्य देवताओं की भी पूजा करेंगे किन्तु तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे उन्हें तुम विघ्रों द्वारा बाधा पहुँचाओगे।’’

महाभारत में -

गणेश जी का सबसे रोचक किस्सा तब का है जब महर्षि वेदव्यास महाभारत की रचना करने के उद्यत हुए। उनकी इच्छा जानकर ब्रह्मा जी उनके आश्रम पर पधारे। वेदव्यास जी ने अपनी पीड़ा बताई कि पृथ्वी पर कोई भी ऐसा नहीं है जो मेरी मानसी रचना को लिख सके। ब्रह्मा जी ने गणेश जी से प्रार्थना करने के लिए आदेश किया। गणेश जी ने भी शर्त लगा दी कि जब मैं बोलूँ तब एक क्षण भी रुके तो वहीं काम रुक जायेगा। व्यास जी भी चतुर थे। उन्होंने गणेश जी से कहा कि भगवनत् आपकी बात ठीक है परन्तु बिना प्रसंग को समझे आप एक भी अक्षर मत लिखियेगा। व्यास जी कहीं न कहीं गणेश जी को अटका देते और गणेश जी को सोचना पड़ जाता और इस तरह से महाभारत का लेखन पूर्ण हुआ।

दिशाशूल

सोमवार और शनिवार को पूर्व दिशा में दिशाशूल होता है। सोमवार चंद्र का वार है और शनिवार शनिदेव का। चंद्रमा उत्तर में बली होते हैं और शनिदेव पश्चिम दिशा में। पूर्व में दोनों ही अल्पबली होते हैं, इसलिए सोमवार व शनिवार को पूर्व दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। यात्रा में दिशा अपने घर से गन्तव्य स्थान की ही देखनी चाहिए। ऐसा नहीं करें कि घर से निकलकर शुभ दिशा में मंुह करके चले जाएं या घर की अन्य दूसरी दिशा में स्थित द्वार से निकलकर परिहार की पूर्ति करें। इन गतिविधियों से कभी भी दिशाशूल का परिहार नहीं होता। यात्रा से तात्पर्य है विशेष उद्देश्य से दूर देश की यात्रा करना।

प्रतिदिन या अक्सर जहां जाना होता है वह यात्रा नहीं है। दिशा शूल बली वाली दिशा में यात्रा करने पर अनावश्यक असुविधाएं, स्वास्थ्य में नरमी, चोरी आदि का अंदेशा रहता है।

सोम शनिवार पूरब वासा, रवि शुक्र पश्चिम कर वासा।

मंगल बुध उत्तर कर वासा, दक्षिण गुरु एकला निवासा।।

दिशाशूल वाली दिशा को अपने बांयी तरफ लेकर जो यात्रा करता है उसकी यात्रा जिस किसी भी कार्य के लिए हो, सफल होती है। सुविधाएं व सहयोग प्राप्त होते हैं।

जिन व्यावसायियों के बाहर से व्यवसाय होते हैं, उन्हें भी यात्रा के दौरान तथा फोन से ऑर्डर देते समय भी दिशा शूल देखना चाहिए।

वार शूल का परिहार इस तरह हो सकता है। यदि वार के साथ नक्षत्र शूल नहीं हो तो अति आवश्यकता में शूल का परिहार करना चाहिए, अन्यथा यात्रा टाल देनी चाहिए।

रविवार को पश्चिम में यात्रा करनी पड़े तो यात्रा देशी घी खाकर और अपने प्रिय को ताम्बूल (पान) दान कर (खिलाकर) यात्रा कर लेनी चाहिए।

सोमवार को दूध पीकर और चंदन का दान करके और चंदन लगाकर।

मंगलवार को गुड़ खाकर और मृगचर्म या ऊनी कम्बल का दान करके।

बुधवार को तिल या तिल से बनी वस्तु खाकर और कुछ पुष्प देवता को चढ़ाकर और एक पुष्प साथ लेकर।

गुरुवार को दही खाकर और दही का ही दान करके।

शुक्रवार को जौ से बना पदार्थ खाकर और घी का दान करके।

शनिवार को उड़द से बना पदार्थ खाकर और तिल का दान करके आवश्यक यात्रा की जाए तो यात्रा में शूल उत्पन्न नहीं होते या व्यक्ति कठिनाइयों को दूर कर पाने में सक्षम बना होता है अथवा अच्छा सहयोगी प्राप्त होता है, जिसकी सहायता से यात्रा सकुशल हो जाती है।