संत कैसे कैसे ?

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

पंडित रामचन्द्र जोशी संतों के बारे में बहुत ज्यादा व्यक्तिगत रुचि रखते थे। उन्हें साधु-संतों के आचार को देखकर बड़ा दुःख होता था। वामाचार उन्हें नापसंद थे।  एक बार किसी ज्योतिष सम्मेलन के बाद सम्मेलन से भाग लेकर लौटे ज्योतिषी ठहरने के स्थान पर बुद्धि विलास में रत थे। वहां एक तांत्रिक अपना ज्ञान बघारने में लग गए। पंचमकारों का वर्णन वे कर रहे थे। पंचमकारों में मदिरा का प्रथम स्थान है। मुद्रा, मद्य, मांस आदि मकारों में वामाचारी तांत्रिकों के रुचि रहती है। चूंकि ये तांत्रिक दैवज्ञ प्रथम मकार का सेवन करके दैवज्ञ मंडली में बैठ गए थे, तो उसका असर भी आना ही था। थोड़ी ही देर में जब वह मैथुन शब्द पर आए तो पंडित जोशी से रहा नहीं गया और उन्होंने उस दैवज्ञ को भला-बुरा कहना शुरु किया। मैंने उनको कभी क्रोध करते नहीं देखा, परंतु उस दिन जब तक उन दैवज्ञ ने क्षमा नहीं मांग ली और वहां से चले नहीं गए पंडित जोशी शांत नहीं हुए। लगभग ऐसा ही एक दृष्टांत किसी अन्य स्थान पर हुआ, जब चक्रपूजा जो कि एक सामान्य अनुष्ठान है और जिसमें वीरचक्र, राजचक्र, देवचक्र, महाचक्र, पशुचक्र इत्यादि क्रियाएं आती हैं। चक्रपूजा में आचार्य स्वयं भी अनुष्ठान में पूजा क्रिया इत्यादि करते हैं। तांत्रिक उपासनाओं में रज भी एक नैवेद्य हुआ करता है। जैसे ही एक दैवज्ञ जो कि बहुत साधारण ज्ञानी थे इस नैवेद्य की चर्चा पर आए, कि पंडित रामचन्द्र जोशी भड़क गए। मुझे तो इन शब्दों का पता तक नहीं था। उन दैवज्ञ को विदा करने के बाद पंडित जोशी ने रातभर मुझे इन सबके बारे में समझाया। चक्रानुष्ठान, शव साधना, भगयाग, अघोर और कौलाचार परमशिव को प्राप्त करने के साधन हैं। परंतु जो कोई भी इन्हें स्वयं या गुरु की मदद के बिना करेंगे, वे सफल नहीं हो सकेंगे। योगीराज अरविन्द बहुत कोशिश करने के बाद भी शव साधना में सफल नहीं हो पाए।

समाधि लगाने से पूर्व साधकों का खेचरीयोग मुद्रा सिद्ध करना अति आवश्यक है। खेचरी मुद्रा में कई साधक अपने जीभ के नीचे तालु को कुछ हद तक कटवा लेते हैं जिससे कि जीभ लंबी हो जाए और उसे उल्टा करके गले में अंदर का गले में फंसाया जा सके। इस प्रक्रिया में श्वसन तंत्र वाधित होता है और श्वाशोच्छास पर नियंत्रण स्थापित होने में मदद मिलती है। समाधि तक पहुंचने के लिए साधक शरीर की समस्त प्रक्रियाओं को स्थगित कर देता है तथा केवल उतनी ही प्राणवायु संकलित रखता है, जो कि मस्तिष्क के संचालन के लिए पर्याप्त है। इस स्थिति में डॉक्टर या वैद्य यदि नाड़ी देखना चाहें तो उन्हें निराशा हाथ लगेगी। समाधि के लिए जो गढा तैयार करवाया जाता है, उसमें इतनी वायु शेष रहती है जो पांच या दस दिन की समाधि के लिए पर्याप्त हो। कम वायु से ऊर्जा उत्पन्न करके मस्तिष्क संचालन की विधि उन्होंने आविष्कृत कर ली है, जो वैज्ञानिकों को चकित कर देने के लिए पर्याप्त है।

पंडित जोशी कई भगवाधारियों के खिलाफ थे। एक बार राजस्थान के नागौर जिले के लोसल गांव में हम लोग किसी योग साधना केन्द्र के उद्घाटन के अवसर पर उपस्थित हुए। जो महात्मा जयपुर के आदर्श नगर से वहां गए, उन्होंने उद्घाटन के अवसर पर कहा कि योग साधना से निष्णात होने के बाद साधक धनार्जन भी ढंग से कर सकेंगे। बस, फिर क्या था। पंडित जोशी की भृकुटियां तन गई और उन्होंने अपने उपसंहार भाषण में कहा कि योग चित्तवृत्तियों के निरोध का नाम है। यह आध्यात्मिक साधनाओं के लिए एक सीढ़ी का काम करता है। उन्होंने उम्मीद जताई कि योग साधना केन्द्र लोगों की आत्मिक उन्नति का मार्ग दिखाएगा। भगवाधारी साधु की इतना बोलते ही हालत खराब हो गई। मैं आज भी उनकी कुछ बातों पर गौर करता हूं तो आजकल के प्रवचन करते घूम रहे बहुत सारे लोग ध्यानाकर्षित करते हैं। पंडित जोशी कहते थे कि हम गृहस्थ लोग ज्यादा अच्छे हैं जो कि बिना ढोंग किए अपना कर्त्तव्य निर्वहन करते हैं।

आजकल उपदेशकों के दल के दल देश में सर्वत्र विचरण कर रहे हैं। किसी एक शहर में उनके प्रायोजन करने वाले मिल जाते हैं, फिर बहुत सारी चीजों के ठेके छूटते हैं और शहर की प्रसिद्ध महिलाएं और उनके पीछे बैठने वालों में भी अधिकतर महिलाएं उन पांडालों की शोभा बढ़ाती हैं। लोग हर तरह से न्यौछावर करके अपने आपको कृतकृत्य समझते हैं। घर आकर शेखी बघारते हैं कि हमने इतना दान दिया, वह इस अखवार में छपेगा। स्वामी जी जेड-ब्लैक डाई करते हैं, कीमती मखमल के कुर्ते पहनते हैं, ऊंची गाड़ियों में चलते हैं, कुछ के गले में सोने की मोटी चैन होती है और अधिकांश मामलों में वे प्रायोजकों से अच्छी खासी राशि एडवांस में ही ले लेते हैं। किसी एक-दो उपदेशक को छोड़ दें तो बाकी सब यही धंधा कर रहे हैं। देश के व्यवसायों की श्रेणी में उपदेश देने को भी अब शामिल किया जाना चाहिए। डॉक्टरी या इंजीनियरिंग के पेशे अब गौण हो गए हैं। अब तो दादुर उपदेशकों की भरमार हो गई है। मैंने किसी साधु के बारे में सुना था कि वे लोगों को दर्शन नहीं देते और अत्यंत बीहड़ जंगलों में रहते हैं, परंतु आजकल तथाकथित साधु सर्वत्र उपलब्ध हैं। किसी-किसी शहर में तो एक वर्ष में 10-10 पांडाल सज जाते हैं।

वास्तु शास्त्र भी अच्छा धंधा हो जाएगा, यह हमने तब ही अनुमान लगा लिया था। 1988-89 के उन दिनों में जब मैं शेखावाटी जनपद के नगर-नगर में सेठों के बनाए हुए मकानों के वास्तु सर्वेक्षण में व्यस्त था तो बाद की पीढ़ियों के द्वारा की गई नादानियों के कारण उजड़ी हवेलियां भी देखने को मिलीं। ऐसा ही एक भवन रामगढ़ शेखावाटी में था जो पौद्दार की हवेली कहलाती थी। उसकी बिक्री के विरुद्ध वहां के कट्टरपंथी बहुसंख्य ब्राह्मण आबादी की हड़ताल चल रही थी और वे सब भवनों की बिक्री के विरुद्ध विक्रय पत्र निरस्त कराने की मांग को लेकर ज्ञापन देने मेरे कार्यालय में उपस्थित हुए। मैं कौतूहलवश उन भवनों को देखने चला गया और पाया कि नादान सेठ पुत्रों के उत्पन्न किए हुए वास्तु दोषों से ही स्थिति बिगड़ी थी। मैंने बाद में जब पंडित जोशी से इस बात पर चर्चा की तब उन्होंने कहा कि इस कार्य (वास्तु कार्य) को करो, तो ढंग से कर पाओगे। मैं तुरंत ही इस दिशा में सक्रिय हो गया।

इसके पश्चात मैंने पुराने मिस्ति्रयों से मिलता जिन्हें वास्तु का परम्परागत ज्ञान था और जिन्होंने उन सेठों के भवन बनाए हैं, जो आज भारतीय अर्थव्यवस्था में अपना दबदबा रखते हैं। ऋषियों ने जो बातें कही हैं वे जनश्रुतियों के रूप में आज भी उपलब्ध है। उनमें से कुछ का भी पालन अगर अपन कर लें तो भूमि-भवन सफल हो जाते हैं।

परशराम जयंती के अवसर पर सर्वब्राह्मण महासभा द्वारा किए गए कवि सम्मेलन के अवसर पर मुझे परशुराम जी के बारे में कुछ कहना था। परशुराम का अध्ययन करते समय मैं हमेशा रोमांचित रहता था कि एक ब्राह्मण क्षत्रिय के विरुद्ध शस्त्र कैसे उठा सकता है? परंतु तात्कालिक व्यवस्था इतनी जड़ हो गई थी कि सहस्त्रार्जुन जैसा सर्वसमर्थ राजा महर्षि जमदग्नि की गौ का अपहरण कर सका। उनका शासकीय अहंकार तत्कालीन समाज में फैल गए अनाचार का द्योतक था। उन्होंने उस व्यवस्था के खिलाफ अस्त्र उठाए और जर्जर हो गई शासन व्यवस्था को पुनः स्थापित करने की ओर कदम बढ़ाए। ऐसा नहीं है कि उनके पिता ने उन्हें न रोका। क्योंकि सहस्त्रार्जुन वध महर्षि जमदाग्नि को भी पसंद नहीं आया। अपने पुत्र के कृत्य की उन्होंने भर्त्सना की। परंतु पुराणों में उल्लेख मिलते हैं कि भगवान परशुराम ने क्षत्रियों के विरुद्ध शस्त्र उठाने से पूर्व भगवान शिव तक को अवगत करा दिया था। शस्त्र बुद्धि के साथ उनमें शास्त्र बुद्धि भी थी। ऐसे कई अवसर आए जब इतिहास में इन घटनाओं की पुनरावृत्ति हुई। परंतु हम यही समझ बैठे हैं कि केवल इन घटनाओं के पीछे यही साधारण बातें थी कि यह सब पूर्णतया सच नहीं है। ऋषियों के समूह में भी विवाद चलते थे। सप्तर्षि मंडल में स्थापित होने के लिए ऋषियों के समूह में बहुत वाद-विवाद हुआ करते थे। परंतु ऋषियों ने ही इस बारे में कुछ व्यवस्थाएं दे दी थी।

 

 

आंगन

आंगन और देहली पहले किसी भी भवन का आवश्यक अंग हुआ करते थे। एक कहावत है कि घर की इज्जत देहली से बाहर नहीं जानी चाहिए। अर्थात देहली एक आवश्यक निर्माण था जो घर और बाहर के बीच में विभाजक के रूप में कार्य करता था। देहली पर पैर रखे बिना घर में प्रवेश करना संभव नहीं था। आजकल मकानों में देहली और आंगन दोनों ही नहीं होते। फ्लैट संस्कृति ने शास्त्रोक्त भवन योजनाओं को असम्भव बना दिया है। यदि बहुमंजिला भवन निर्माण के समय स्ट्रक्चरल प्लान या कॉलम प्लान(स्तंभ योजना) पर ध्यान नहीं दिया जाए तो व्यक्तिगत फ्लैट्स में वास्तु योजना लागू करना संभव ही नहीं है। जब स्तंभ योजना में वास्तु शास्ति्रयों द्वारा संशोधन प्रस्तावित किए जाते हैं तो आर्किटेक्ट की योजना में बदलाव आता है और वे विरोध करते हैं।

आंगन के स्थान पर फ्लैट्स में लॉबी या लाउंज की प्रस्तावना की जाती है। उसे आंगन कहा नहीं जा सकता। आंगन खुला भी होना चाहिए। धूप और हवा मकान में प्रवेश करे, इसके लिए आंगन सर्वश्रेष्ठ माध्यम हो सकता है, परंतु फ्लैट योजनाओं में यह संभव नहीं है। अतः किसी भी फ्लैट में कुछ बातों से वंचित रहना ही पड़ता है। यदि आंगन की व्यवस्था किसी भांति मकान में कर ली जाए तो शास्त्रों में इसकी बड़ी प्रशंसा की गई है।

पिंड, आंगन और घर तीनों में मंडल और मंडलेश का विचार किया जाता था। इस पद्धति में पिंड की लंबाई और चौड़ाई को गुणा करके 9 का भाग देकर शेष अंक से शुभ-अशुभ का विचार किया जाता है। यदि गृहस्वामी के हाथ या फुट या मीटर में पिंड की लंबाई और चौड़ाई को गुणा करके 9 का भाग दिया जाए तो शेष जो बचे उसका फल शास्त्रों में बताया गया है। यदि अवशेष 1 हो तो दाता, 2 हो तो भूपति, 3 हो तो क्लीव (नपुंसक), 4 हो तो चोर, 5 हो तो पंडित, 6 हो तो भोगी, 7 धनाढ्य, 8 दरिद्र और 9 धनी ये नौ मंडल होते है। आंगन के बारे में भी ऐसी ही गणना है।

आंगन की लंबाई और चौड़ाई को गुणा करके 9 का भाग दिया जाए तो अवशेष राशि के आधार पर विभिन्न फल मिलते हैं। 1 बचे तो दाता, 2 बचे तो पंडित, 3 भीरू, 4 कलह, 5 नृप, 6 दानव, 7 नपुंसक, 8 चोर और 9 धनी होते हैं, ये आंगनों के नाम होते हैं। जैसा नाम बताया गया है वैसे ही फल मिलते हैं।

बीच में नीचा और चारों ओर से ऊंचा आंगन पुत्रनाश कराता है। परंतु बीच में ऊंचा हो और चारों ओर से नीचा हो तो ऐसा आंगन शुभ फल करता है।

ब्रह्मस्थान से संबंधित दोषों से बचाने के लिए आंगन की व्यवस्था ऋषियों द्वारा किया गया सर्वश्रेष्ठ उपाय था। ब्रह्मस्थान में झूठन इत्यादि नहीं डालनी चाहिए। गढा, बीम, केन्द्रीय स्तम्भ, जलाशय इत्यादि की वर्जना की गई है। प्राचीन काल में विवाह मंडप के लिए आंगन के बीचों बीच जगह बचाकर रखी जाती थी। अभी भी जहां आंगन पक्का कराया जाता है, वहां भी विवाह मंडप के लिए थोड़ा सा स्थान कच्चा छोड़ दिया जाता है। प्रारम्भ में वैदिक यज्ञवेदियों में केन्द्रीय यूप स्थापन के लिए यह भूमि प्रशस्त बताई गई थी, परंतु यह रचना अस्थायी होती थी। बाद में वास्तु ग्रंथों में केन्द्रीय स्तम्भ योजना का निषेध कर दिया गया और उसे ब्रह्मा का स्थान मानते हुए उसकी रक्षा करने के निर्देश दिए गए।

ब्रह्म स्थान कितना?

आंगन की गणना के लिए ब्रह्म स्थान के क्षेत्राधिकार का ज्ञान होना अतिआवश्यक है। प्रायः लोगों को एक बिन्दु विशेष को इंगित करते हुए देखा है जिसे वे ब्रह्म स्थान बताते हैं, जबकि वास्तु शास्त्र के अनुसार एकाशीतिपद (81) योजना में ब्रह्मा के 9 पद होते है। अर्थात ब्रह्मा भूखण्ड के लगभग नवें भाग के बराबर के क्षेत्राधिकारी होते हैं। यदि 90 मीटर वर्गमीटर का भूखण्ड है तो 10 वर्गमीटर ब्रह्मा के क्षेत्राधिकार में आता है। आंगन का क्षेत्र ब्रह्म स्थान के क्षेत्र से कुछ बड़ा होना चाहिए। शेखावाटी जनपद में कई चौक की हवेलियों में जब परीक्षण किया गया तो पाया गया कि उपरोक्त चित्र के अनुसार चौक योजना, पृथ्वीधर और ब्रह्मा को आधार मानकर ही बनाई जाती रही है। अर्थात नौ पद ब्रह्मा के व 6 पद पृथ्वीधर के। 81 में से 15 पद कुल भूमि का 18.5 प्रतिशत क्षेत्रफल होता है। परंतु इतनी भूमि में निर्माण के लालच को त्यागने से उन घरानों में धन और सत्ता दोनों आई है अतः आंगन का महत्त्व बहुत अधिक है। आंगन योजना वस्तुतः बिना निर्माण किए दोष निवारण की सर्वश्रेष्ठ पद्धति है।

बुजुर्ग मिस्त्री कहते हैं कि यदि आंगन में विवाह की भट्टी लगाने की परम्परा हो तो वंश आगे नहीं बढता है।  कई आधुनिक कारखानों में जब ब्रह्म स्थान से स्मैल्टर व फर्नेस हटवा दिए गए तो तेजी से सुधार हुआ। तात्पर्य कि ब्रह्म स्थान में जलाशय नहीं हों तथा अत्यधिक गर्मी भी नहीं हो, गढा नहीं हो तो भारी निर्माण भी नहीं हो तो ही प्रशस्त होता है। यदि आंगन भूमध्य के लगभग मध्य में या ब्रह्मस्थान में हो तो ये ही नियम आंगन पर भी लागू होते हैं।

भूमि के अभाव में यदि आंगन का स्थान पक्का कराना पड़े तो करा सकते हैं, परंतु फाउंडेशन बहुत गहरा नहीं होना चाहिए। प्रथम तल की छत में आंगन के ठीक ऊपर पक्का निर्माण न कराकर लोहे का जाल या पारदर्शी शीट्स (रिफ्लेक्टर) लगाना भी एक अच्छा उपाय है। आजकल आर्किटेक्ट आंगन के ऊपर डबल हाईट देना पसंद करते हैं। यदि वे भवन के एकदम मध्य को सबसे ऊंचा न रखकर डबल हाईट के दक्षिण व पश्चिम में एक मंजिल और चढ़ा लें तो भवन की गुणवत्ता भी बढ़ जाएगी और आंगन के नियमों की रक्षा भी हो जाएगी।

 

ऋषि भृगु

भृगु ब्रह्मा के मासपुत्रों में से एक हैं। ये एक प्रजापति भी हैं। चाक्षुष मन्वन्तर में इनकी सप्तर्षियों में गणना होती है। इनकी तपस्या का अमिट प्रभाव है। दक्ष की कन्या ख्याति को इन्होंने पत्नीरूप से स्वीकार किया था। उनसे धाता, विधाता नाम के दो पुत्र और श्रीनाम की एक कन्या हुई। इन्हीं श्री का पाणिग्रहण भगवान नारायण ने किया था। इनके और बहुत सी संतान हैं जो विभिन्न मन्वन्तरों में सप्तर्षि हुआ करते हैं। वाराहकल्प के दसवें द्वापर में महादेव ही भृगु के रूप में अवतीर्ण होते हैं। कहीं-कहीं स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षियों में भी भृगु की गणना है। सुप्रसिद्ध महर्षि च्यवन इन्हीं के पुत्र हैं। इन्होंने अनेकों यज्ञ किये-कराये हैं और अपनी तपस्या के प्रभाव से अनेकों को संतान प्रदान की है। ये श्रावण और भाद्रपद दो महीनों में भगवान सूर्य के रथपर निवास करते हैं। प्रायः सभी पुराणों में महर्षि भृगु की चर्चा आयी है। उसका अशेषतः वर्णन तो किया ही नहीं जा सकता। हां, उनके जीवन की एक बहुत प्रसिद्ध घटना, जिसके कारण सभी भक्त उन्हें याद करते हैं, लिख दी जाती है-

एक बार सरस्वती नदी के तट पर ऋषियों की बहुत बड़ी परिषद बैठी थी। उसमें यह विवाद छिड़ गया कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीनों में कौन बड़ा है? इसका जब कोई संतोषजनक समाधान नहीं हुआ तब इस बात का पता लगाने के लिये सर्वसम्मति से महर्षि भृगु ही चुने गये। ये पहले ब्रह्मा की सभा में गये और वहां अपने पिता को न तो नमस्कार किया और न स्तुति की। अपने पुत्र की इस अवहेलना को देखकर ब्रह्मा के मन में बड़ा क्रोध आया परंतु उन्होंने अपना पुत्र समझकर इन्हें क्षमा कर दिया। अपने क्रोध को दबा लिया। इसके बाद ये कैलाश पर्वत पर अपने बड़े भाई रुद्रदेव के पास पहुंचे। अपने छोटे भाई भृगु को आते देखकर आलिङ्गन करने के लिये वे बड़े प्रेम से आगे बढ़े, परंतु भृगु ने यह कहकर कि तुम उन्मार्गगामी हो उनसे मिलना अस्वीकार कर दिया। उन्हें बड़ा क्रोध आया और वे त्रिशूल उठाकर मारने के लिये दौड़ पड़े। अन्ततः पार्वती ने उनके चरण पकड़कर प्रार्थना की और क्रोध शांत किया। अब विष्णु भगवान की बारी आयी। ये बेखटके बैकुण्ठ में पहुंच गये। वहां ब्राह्मण भक्तों के लिये कोई रोक-टोक तो है नहीं। ये पहुंच गये भगवान के शयनागार में। उस समय भगवान विष्णु सो रहे थे औरभगवती लक्ष्मी उन्हें पंखा झल रही थीं, उनकी सेवा में लगी हुई थीं। इन्होंने बेधड़क वहां पहुंचाकर उनके वक्षःस्थल पर एक लात मारी। तुरन्त भगवान विष्णु अपनी शय्या से उठ गये और इनके चरणों पर अपना सिर रखकर नमस्कार किया और कहा- ‘भगवन’ आइये, आइये, विराजिये, आपके आने का समाचार न जानने के कारण ही आपके स्वागत से वंचित रहा। क्षमा कीजिये! क्षमा कीजिये! कहां तो आपके कोमल चरण और कहां यह मेरी वज्रकर्कश छाती! आपको बड़ा कष्ट हुआ।’ यह कहकर उनके चरण अपने हाथों से दबाने लगे। उन्होंने कहा-‘ब्राह्मण देवता! आज आपने मुझपर बड़ी कृपा की। आज मैं कृतार्थ हो गया। अब ये आपके चरणों की धूलि सर्वदा मेरे हृदय पर ही रहेगी।’ कुछ समय बाद महर्षि भृगु वहां से लौटकर ऋषियों की मण्डली में आये और अपना अनुभव सुनाया। इनकी बात सुनकर ऋषियों ने एक स्वर से यह निर्णय किया कि जो सात्विकता के प्रेमी हैं, उन्हें एकमात्र भगवान विष्णु का ही भजन करना चाहिये। महर्षि भृगु का साक्षात् भगवान से संबंध है, इनकी स्मृति हमें भगवान की स्मृति प्रदान करती है।

मेरा प्राचीनता में बहुत अधिक विश्वास है जैसे कि एक मन्वन्तर में 71 चतुर्युग होते हैं। आधुनिक वैवस्वत मन्वन्तर 14 में से 7वां हैं जिसके 71 महायुगों में 28 सतयुग, 28 त्रेता, 28 द्वापर तथा 27 कलियुग बीत चुके हैं। वर्तमान कलियुग 28वां है, जिसका प्रथम चरण चल रहा है। यदि गत कल्प के विगत वर्ष गणना करें तो वे एक अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 100 से ऊपर चले जाते हैं। मानव सभ्यता का इतिहास जो कि अधिकतम 5 हजार वर्ष जान पड़ता है, ऐसा प्रतीत होता है कि बार-बार सभ्यताएं नष्ट होती रही, छोटी-बड़ी प्रलय आती रहीं और हमारा प्राचीन ज्ञान किसी न किसी पद्धति के माध्यम से सुरक्षित आगे पहुंचता रहा। हम वराह अवतार के बारे में जानते हैं कि उन्होंने लुप्त वेदों को समुद्र से लाकर वापस दिया था। इस तरह के प्रकरण और भी मिल जाएंगे।

मैं स्वयं कभी-कभी इस बात से आश्चर्यचकित हूं कि वास्तु का जो ज्ञान पुराण रचनाकाल तक संपूर्णता पर पहुंच चुका था उसके लिए कम से कम 20 हजार वर्षों का अनुभव आवश्यक है। सम्राट अशोक के समय भारत की आबादी करीब 8 लाख मानी जाती थी। उस समय बहुत बड़े शहर न होकर छोटी-छोटी आबादी जगह-जगह स्थित थी। ऋषियों ने सांख्यिकीय सर्वेक्षण के आधार पर ज्योतिष या वास्तु के नियम बनाए तो कितना अधिक श्रम उन्हें करना पड़ा होगा, यह जानकर हमें आज भी आश्चर्य होता है।

 

 

 

अस्थि भंग (फ्रेक्चर)

मथुरा लाल द्विवेदी

                द्वितीय भाव तथा वृष राशि दांये पैर तथा बारहवाँ भाव तथा मीन राशि बाँये पैर के अधिपति होते हैं। तृतीय भाव तथा मिथुन राशि दांये हाथ तथा दांई हंसली एवं एकादश भाव तथा कुंभ राशि बांये हाथ तथा बांयी हंसली की अधिपति होती है।

                कर्क राशि दांये घुटना तथा मकर राशि बांया घुटना की अधिपति होती है। मिथुन राशि दांयी  पिडलियाँ तथा कुंभ राशि बांयी पिंडलियों की अधिपति होती है।

                कर्क राशि तथा चतुर्थ भाव पसलियाँ तथा दशम भाव व मकर राशि बांयी पसलियों की अधिपति होती है। सप्तम भाव तथा तुला राशि शरीर के पृष्ठ भाग की अधिपति होती है।

                वृष, कन्या, मकर राशियाँ हड्डियों की अधिपति होती हैं तथा लग्न, द्वितीय, षष्ठ तथा दशम भाव से हड्डियों की व्यवस्था, बल, बढ़ोतरी के संबंध में निर्णय किया जाता है। शनि एड्डी का कारक होता है। जब वृष, कन्या तथा मकर राशियाँ तथा द्वितीय, षष्ठ, दशम भाव व उनके स्वामी तथा शनि पीड़ित होता है अथवा निर्बल या अनुपयुक्त स्थान गत होते हैं तो जातक की हड्डी टूटती है।

                बुध छोटी हड्डी के टूटने तथा मंगल एवं सूर्य बड़ी हड्डी टूटने के लिए उत्तरदायी होते हैं। सूर्य, बुध, मंगल सब प्रकार की हड्डी टूटने के लिए उत्तरदायी  होते हैं। हड्डियों के भाव के अधिपति या उनके स्वामी या कारक ग्रह या तो मंगल, सूर्य और बुध से योग या संबंध स्थापित करने पर हड्डी टूटने के योग बनते हैं।

                शनि हाथ पैरों तथा मंगल गर्दन का तथा राहु पांव का कारक होता है। अगर द्वितीय भाव, द्वितीय राशि तथा द्वितीयेश, शनि पीडित हो तो दांया पैर तथा बारहवाँ भाव, मीन राशि, व्ययेश एवं शनि पीड़ित हो तो बांये पैर में हड्डी टूटने के योग बनते हैं। जब राहु भी पीड़ित हो जाता है तो पांव में  हड्डी टूटने के योग बनते हैं।

 

                कर्क राशि दांये घुटने तथा मकर राशि बांये घुटने, मिथुन दांयी पिडलियाँ एवं कुंभ बांयी पिडलियों की अधिपति होती है। जब ये राशि तथा भाव व उनके अधिपति ग्रह पीड़ित होते हैं तो इन्हीं पीडित भावों की हड्डियाँ टूटने के योग बनते हैं।

                तृतीय भाव तथा मिथुन राशि दांये हाथ तथा दांई हंसली एवं एकादश भाव तथा कुंभ राशि बांये हाथ व बांयी हंसली का अधिपति होने से जब ये भाव अथवा राशियाँ अथवा इनके स्वामी पीड़ित होते हैं अथवा अनुपयुक्त स्थान पर होने से या त्रिकेश या त्रिक भाव से संबंध स्थापित होने से हाथ या हंसलियों की हड्डी टूटने के योग बनते हैं।

                चतुर्थ भाव तथा कर्क राशि दांयी पसलियों तथा दशम भाव तथा मकर राशि बांयी पसलियों की अधिपति होती है। शनि तथा सूर्य पंसलियों के कारक होते हैं। जब चतुर्थ भाव, चतुर्थेश, कर्क राशि, दशम भाव, दशमेश तथा मकर राशि, सूर्य शनि निर्बल अनुपयुक्त स्थानगत या पापग्रह से अथवा त्रिकेश से योग अथवा संबंध स्थापित करते हैं अथवा हड्डी के अधिपति पीडित या संबंध स्थापित करने पर पसलियाँ टूटने के योग बनते हैं।

 

                सप्तम भाव तथा तुला राशि शरीर के पृष्ठ भाग की अधिपति है। बुध सुषुम्ना नाड़ी का अधिपति होता है। जब सप्तम भाव, सप्तमेश तुला राशि बुध तथा भाव एवं हड्डी के अधिपति पीड़ित, अनुपयुक्त स्थानगत या पाप ग्रहों त्रिकेश से योग बनाते हैं तो सुषुम्रा नाड़ी के टूटने के योग बनते हैं।

                कुंडली क्रमांक प्रथम में व्ययेश बृहस्पति शनि से, मीन राशि सूर्य व मंगल तथा राहु से पीड़ित है। लग्नेश त्रिकस्थ है तथा बुध भी पीड़ित है। अतः जातक की बांये पैर की हड्डी टूटने के योग बने।

 

                कुंडली क्रमांक द्वितीय में वृष, कर्क, मकर राशियाँ राहु, मंगल एवं सूर्य से तथा द्वितीय भाव एवं षष्ठ भाव केतु से एवं दशम भाव केतु, मंगल, सूर्य से पीड़ित है। मीन राशि केतु से तथा वृष राशि से पीड़ित है। अतः बांये पैर की हड्डी टूटने के योग बने। तुला राशि शनि तथा मंगल से पीड़ित है तथा बुध त्रिकेश होकर शनि तथा मंगल, केतु से पीड़ित है। अतः रीड़ की हड्डी व सुषुम्रा नाड़ी पीडित है।

                कुंडली क्रमांक तृतीय में वृष, कर्क तथा मीन राशियाँ क्रमशः केतु, राहु एवं मंगल से पीड़ित है। द्वितीय, षष्ठम एवं दशम भाव राहु,सूर्य, केतु एवं मंगल से पीड़ित है। मकर राशि सूर्य, राहु तथा केतु से तथा दशम भाव मंगल एवं केतु से पीड़ित है। अतः बांयी पिंडली में हड्डी टूटने के योग बने।

 

                कुंडली क्रमांक चतुर्थ में वृष राशि, मकर राशि शनि तथा मंगल एवं सूर्य से पीड़ित है। द्वितीय भाव एवं दशम भाव शनि तथा राहु से पीड़ित है। अतः राहु के कारक पंजे में हड्डी टूटने के योग बने।

                कुंडली क्रमांक पंचम में कन्या राशि मंगल से तथा कुंभ राशि शनि व केतु से पीड़ित है। अतः बांयी हंसली की हड्डी टूटने के योग बने।

                कुंडली क्रमांक षष्ठ में द्वितीय भाव मंगल से, चतुर्थ व दशम भाव शनि से, कर्क राशि एवं मकर राशि मंगल से व बुध त्रिकस्थ होकर बलहीन है। अतः दांयी तथा बांयी पंसलियों की हड्डी के टूटने के योग बने।