आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि स्वयं भगवान कृष्ण ने गीता के नवम अध्याय में यह कहा है कि प्रत्येक कल्प के अंत में अर्थात् ब्रह्मा की आयु के अंतिम दिन सारे भूत, जो कुछ भी बचता है, वह मुझ में आ मिलता है और फिर एक अवकाश काल के बाद, अगले कल्प के प्रथम दिन अर्थात् ब्रह्मा के दिन के आरम्भ में भगवान कृष्ण प्रकृति का पुन: निर्माण करते हैं। भगवान घोषणा करते हैं कि कल्प के आखिर में जिस-जिस के जो कुछ भीअभुक्त कर्म बचे हुए थे, उन समस्त समुदायों का वे पुन: निर्माण करते हैं और जैसे-जैसे लोगों के कर्म रहे होंगे, उसके हिसाब से वे लोगों को जन्म देते हैं। अव्यक्त सृष्टि ब्रह्मा के प्रथम दिन या कल्प के प्रथम दिन व्यक्त होने लगती है। भगवान के इस कथन में यह छिपा हुआ है कि कल्प के अंत में ऐसा नहीं है कि जो-जो भी जीवों का कर्म संचय है, वह समाप्त हो जाए और सभी जीव मुक्त हो जाएं और फिर पुन: जन्म ना लें, सब मोक्ष के अधिकारी हो जाएं और सृष्टि में कोई कार्य करने के लिए शेष ही न रहे। गीता की जितनी भी व्याख्याएँ हैं, उन सब में यही आशय प्रकट किया गया है कि सब कुछ परिवर्तनीय है, सब कुछ नष्ट हो सकता है, परन्तु कर्म नष्ट नहीं होता। भगवान कल्प के समाप्त होने पर और नये कल्प के प्रारम्भ होने पर कर्मों के आधीन ही पुन: सृष्टि उत्पन्न करते हैं।

गीता के नवम अध्याय में कही गई इस बात का हम ज्योतिष के संदर्भ में विवेचन करेंगे। ज्योतिष के महान ग्रंथ वृहत पाराशर होराशास्त्र में ऋषि पाराशर ने प्रारम्भ के अध्यायों में ही अवतार कथन अध्याय रचा है, जिसमें इस बात का विवरण है कि प्रत्येक जीव में परमात्मा अंश और जीव अंश विद्यमान होता है। अगर परमात्मांश या परमात्मा का अंश शत-प्रतिशत हो तो वह जीव, जीव न रहकर ईश्वर की श्रेणी में आ जाता है और उन्हें पूर्णावतार की संज्ञा प्रदान की गई है। भगवान राम और कृष्ण पूर्णावतार हैं और जिनमें थोड़ा बहुत भी जीव अंश विद्यमान है तो निश्चय है कि उसी अनुपात में उनमें परमात्मा अंश कम हो गया होगा। इसके कारण थोड़े से जीवांशयुक्त जीव पूर्णावतार ना होकर अवतारों की अन्य श्रेणियों में जन्म लेते हैं, जैसे कि भगवान परशुराम अंशावतार थे। वृहत पाराशर होराशास्त्र के इस कथन से गीता के इस कथन की पुष्टि होती है कि नए ब्रह्मा के जन्म के प्रथम दिन यानि कल्प के प्रथम दिन सृष्टि में प्रकट होने वाले प्रत्येक जीव में या परमात्मा में या तो सम्पूर्ण परमात्मांश उपस्थित होगा या कोई न कोई संचित कर्म किसी भी प्रमाण में उपस्थित होगा अर्थात् कर्म संचय प्रत्येक के कर्मानुसार ही शेष बचा रहता है और उसी के अनुरूप ईश्वर उसको पुन: उत्पन्न करते हैं, जीव की सृष्टि करते हैं। इसका यह आशय हुआ कि किया गया कर्म कभी भी नष्ट नहीं होता और उसे भोगना शेष रहता है। चाहे इसके लिए कल्प के अंत में ब्रह्मा की और समस्त अवयवों की ईश्वर में विलीन होने के बाद भी सत्ता बची रहे और एक ब्रह्मा के अवसान के बाद और बीच के अवकाश काल के बाद और जब पुन: सृष्टि जन्म ले तो अपने-अपने अवशिष्ट कर्मों सहित सृष्टि पुन: प्रकट हो।

 

 

विभिन्न देवताओं में आसक्ति -

गीता के सातवें अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा है कि भिन्न-भिन्न देवताओं की श्रद्धा भी परमेश्वर ही देता है। भक्ति मार्ग में जो मनुष्य लगा हुआ है, उसकी समत्व बुद्धि को उन्नत करने का काम भी परमेश्वर ही करता है। दसवाँ अध्याय तो अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है, जहाँ भगवान घोषणा करते हैं कि हे अर्जुन! सब भूतों के अन्दर रहने वाली आत्मा मैं ही हूँ। सब का आदि, मध्य और अंत मैं ही हूँ, द्वादश आदित्यों में से विष्णु मैं ही हूँ, मरुतों में मरीचि मैं ही हूँ, मैं ही वेदों में सामवेद हूँ, नक्षत्रों में चन्द्रमा मैं ही हूँ, देवताओं में इन्द्र हूँ, इंन्द्रियों में मन हूँ और प्राण की जो चालन शक्ति हैं वह भी मैं ही हूँ। यानि इस जगत में विद्यमान हर सत्ता में भगवान कृष्ण विद्यमान हैं, ऐसी उन्होंने घोषणा की हैं। वे कहते हैं कि 11 रुद्रों में शंकर मैं ही हूँ, यज्ञ और राक्षसों में कुबेर भी मैं ही हूँ, वसुओं में पावक हूँ, पर्वतों में मेरु हूँ, पुरोहितों में बृहस्पति हूँ, सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ, जलाशयों में समुद्र हूँ, महर्षियों में भृग हूँ, स्थिर पदार्थों में हिमालय भी मैं ही हूँ। तो उन्होंने लगभग हर वर्णन में अपने  आपको उपस्थित बताया है और सबको स्वयं भगवान में समाहित बताया है। जब सृष्टि का आदि, अंत और मध्य की घोषणा भी भगवान करते हैं तो यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि भगवान के अंतिम स्वरूप में और प्रकृति में व्याप्त सभी शक्तियों में कोई भेद नहीं हैं और भगवान के अतिरिक्त अन्य सत्ताओं में भी अगर आसक्ति उत्पन्न होती है तो उसकी प्रेरणा भी भगवान ही देते हैं।

गीता के आठवें अध्याय में भगवान कृष्ण बताते हैं कि अग्नि, ज्योति अर्थात् ज्वाला, दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण के 6 महीनों में जो ब्रह्मवेत्ता मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे लोग लौटकर नहीं आते। अग्नि, धुँआ, रात्रि, कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन के 6 महीनों में जो लोग मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे चन्द्र के तेज में जाते हैं अर्थात् चन्द्र लोक में जाते हैं, जिसे ज्योतिष क्षेत्रों में पितृ लोक भी कहा गया है और पुण्य के अंश घटने पर पुन: पृथ्वी पर आकर जन्म लेते हैं। यानि भगवान कहते हैं कि संसार की शुक्ल और कृष्ण दो शास्वत गतियाँ हैं, स्थिर मार्ग हैं, शुक्ल मार्ग से जाने पर लौटना नहीं पड़ता और अंधकार मार्ग से जाने पर लौटना पड़ता है।

अगली योनियों में जन्म के सम्बन्ध में भगवान कृष्ण कहते हैं कि सत्व गुण के उत्कर्ष काल में यदि प्राणी की मृत्यु हो तो अच्छे लोक की प्राप्ति होती है। यदि मृत्यु तक या मृत्यु  काल में रजोगुण की प्रबलता हो अर्थात् राजसी वृत्तियाँ अधिक हों तो व्यक्ति जिन कर्मों में आसक्त होता है उन्हीं कर्मों से सम्बन्धित योनियों में जन्म लेता है। तीसरी कोटि तमो गुण की है। जीवन भर मनुष्य तामसी वृत्तियों में लिप्त रहे, मृत्यु काल में भी उन्हीं का प्राधान्य हो तो व्यक्ति मूढ़ योनियों में या हीन योनियों में, पशु-पक्षियों इत्यादि में जन्म लेता हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्व से ज्ञान और रजो गुण से केवल लोभ उत्पन्न होता है और तमो गुण से अज्ञान की उत्पत्ति होती हैं और वे निम्न लोक में जाते हैं। तामस गुण से युक्त व्यक्ति अधोगति को पाते हैं। 

ज्योतिष के किसी भी ग्रन्थ में यह नहीं लिखा हुआ है कि शनि की आराधना करने से शनि का लोक मिलता है। मंगल की आराधना करने से मंगल लोक मिलता है या बुध की आराधना से मनुष्य मृत्योपरान्त बुध को प्राप्त होता है। परन्तु भगवान कृष्ण ने गीता के आठवें अध्याय में इस विषय को एकदम स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने बताया है कि जो बात जन्म भर मन में रहती है, वह मरण काल में भी नहीं छूटती। यदि जन्म भर ईश्वर का स्मरण करते रहें तो मृत्यु काल में भी बनाये रखने की आवश्यकता है। परन्तु ऐसा संकेत भी है कि जन्म भर कुछ भी किया हो परन्तु यदि मरण काल में भी ईश्वर का स्मरण करे तो उससे लाभ होता है। भगवान कहते हैं कि अंतकाल में जो परमेश्वर को भजने वाले हैं वे परमेश्वर को प्राप्त होते हैं और देवताओं का जो स्मरण करते हैं वे देवताओं को प्राप्त होते हैं, जो ग्रहों का स्मरण करते हैं वे ग्रहों को प्राप्त होते हैं। छान्दोग्य उपनिषद में एक श£ोक मिलता है, उसके अनुसार मनुष्य का जैसा संकल्प होता है, उसे वैसी ही गति मिलती है। गीता यह जरूर स्मरण कराती हैं कि जन्म भर पाप करने वाले व्यक्ति को अंत काल के समय ईश्वर का स्मरण करना बहुत कठिन कार्य है और इसी का वो उपदेश देते हैं।

इस लेख में जो विषय स्पष्ट किया गया है उसका कुल मिलाकर उपदेश यह है कि हम लेाग जन्म भर शनि, राहु, केतु, लक्ष्मीजी इन सब की उपासना करते रहते हैं। जिस चीज की जीवन में कमी चल रही हो उसकी प्राप्ति के लिए ही तत्सम्बन्धित ग्रह या देवता की उपासना किया करते हैं। यह सब काम्य कर्म हैं। हम अपने अभावों की पूर्ति के लिए सम्बन्धित देवताओं की उपासना किया करते हैं। ज्योतिष एक महत्त्वपूर्ण वेदांग हैं और सामान्य जीवन में जो अभाव रह गये हैं उनकी पूर्ति के लिए उपाय बताये गये हैं। परन्तु वही ज्योतिष यह भी कहती हैं कि पूर्ण परमात्मा अंश प्राप्त करने की कोशिश करते रहना चाहिए। कम से कम पाराशर का तो यही उपदेश है। अर्थात् हम ग्रहों की और देवताओं की साधना ही करते रहें जो किसी न किसी कामना या लोभ के वशीभूत है तो वह हमें उन देवताओं का या ग्रहों का लोक अवश्य प्राप्त होगा। परन्तु गीता का जो परम उपदेश है-चारों पुरुषार्थों में से जो श्रेष्ठ है- मोक्ष, उसे प्राप्त करने के लिए हमें परमात्मा का ही स्मरण करना होगा और वह भी बिना किसी फल प्राप्ति की कामना के। स्वयं भगवान कृष्ण कहते हैं कि जितने भी देवता या ग्रह हैं उन तक पहुँची हुई उपासना अंत में मुझ तक ही पहुँचती है। परन्तु हमारा परम लक्ष्य तो ईश्वर को ही प्राप्त करना है। इसीलिए हमें अपने जीवन काल में ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि अंत समय में हमें केवल परमात्मा का स्मरण हो और मोक्ष मार्ग की ही कामना करनी चाहिए। अगर  अंत समय में स्मरण रहेगा तो निश्चित ही उत्तम लोक मिलेगा और ईश्वर की प्राप्ति होगी।

 

 

पंचमहाभूत फल

अग्नि, भूमि, आकाश, जल और वायु, ये पंच महाभूत कहे जाते हैं। इनके स्वामी पांच ग्रह माने गये हैं। मंगल अग्नि प्रकृति, बुध भूमि प्रकृति, गुरु आकाश प्रकृति, शुक्र जल प्रकृति और शनि वात प्रकृति के ग्रह माने गए हैं। जो ग्रह अधिक बलवान हो व्यक्ति उस महाभूत के विषयों में बलवान मिलेगा। यदि ये सारे ग्रह बलवान हों तो मिश्रित फल मिलेंगे।

सूर्य बलवान हों तो वह्नि स्वभाव होता है और चंद्रमा बलवान हो तो जल स्वभाव होता है। जब इन ग्रहों की दशा आती है तो ये ग्रह अपनी कांति जातक के शरीर को दे देते हैं। इसे ग्रह की छाया भी कहा जाता है।

वह्नि स्वभाव वाला पुरुष भूख से पीडि़त, चंचल, वीर, कृषकाय शरीर, विद्वान, बहुत भोजन करने वाला, तीक्ष्ण, गौरवर्ण और अभिमानी होता है।

पृथ्वी तत्त्व वाले पुरुष में बुध की छाया होती है और वह कपूर और कमल जैसी सुगंधि वाला, भोगी, हमेशा सुखी रहने वाला, बलवान, क्षमाशील और सिंह जैसी गर्जना वाला होता है।

आकाश तत्त्व वाला व्यक्ति बृहस्पति छाया से युक्त होगा और शब्द के अर्थ को समझने वाला, नीति निपुण, प्रतिभावान, ज्ञानी, अनावृत्त मुख वाला और लंबा कद होता है।

शुक्र की छाया उन व्यक्तियों पर मिलती है जो जल प्रधान व्यक्ति होते हैं। यह व्यक्ति कांतियुक्त, भार वहन करने वाला, प्रिय वचन बोलने वाला, भूमिधारी, बहुत मित्रों वाला और विद्वान होता है।

शनि प्रधान व्यक्ति वायु तत्त्व प्रकृति वाला होता है। ऐसा व्यक्ति दानी, क्रोधी, गौरवर्ण, भ्रमण में लगा रहने वाला, शत्रुओं को जीतने वाला, राजा और कृषकाय शरीर वाला होता है।

जब अग्नि तत्त्व की छाया होती है तो शरीर में स्वर्ण के समान कांति, दृष्टि में प्रसन्नता, सब कार्यों की सिद्धि, शत्रुओं पर विजय और धन लाभ होता है। पाराशर के उक्त कथन के विश्लेषण में जो बात आती है उसके अनुसार ये लोग महान संकल्पों को साधने वाले, अत्यधिक परिश्रमी, तेजस्वी, आत्मविश्वास से भरे हुए और शासन क्षमता से युक्त व्यक्ति होते हैं। इनका दमन करना बहुत मुश्किल होता है। तेज गति से किए गए कार्य में ये गलतियां छोड़ते हैं और कार्यसिद्ध न होने पर ये तनावग्रस्त हो जाते हैं। दीर्घकाल तक तनाव रहने पर ये अग्नि तत्त्व से संबंधित बीमारियों से ही पीडि़त होते हैं। अग्नि तत्त्व के सर्वाधिक निकट है पित्त प्रकृति।

बुध की महादशा में भूमि तत्त्व की प्रबलता रहती है। इस अवधि में बुध ग्रह की छाया शरीर पर रहती है तथा व्यक्ति सुंदर और सजग दिखने की चेष्टा करता है। सुगंधियुक्त वस्तुओं का प्रयोग करता है तथा शरीर के सभी अंगों को स्वच्छ रखने की चेष्टा करता है। धर्म, धन और सुख की प्राप्ति होती है और यदि व्यक्ति चेष्टा न भी करें तो भी उनके जीवन में अनायास ही ये सब चीजें आ जाती है।

बृहस्पति की महादशा में आकाश तत्त्व का उदय होता है। मनुष्य को बोलने में चतुरता तथा गीत, संगीत, प्रवचन इत्यादि सुनने को मिलते हैं।

जब शुक्र या चंद्र की महादशा होती है तो इनकी कांति चेहरे पर आती है तो जल तत्त्व का उदय होना माना गया है। शरीर में कोमलता, अच्छा स्वास्थ्य तथा सुस्वादु भोजन मिलने से सुख बढ़ता है। कार्य में तृप्ति होती है। जल तत्त्व की छाया जब शरीर पर होती है तो जीवन में शांति बढ़ती है, गंभीरता बढ़ती है और व्यक्ति सृजनशील हो जाता है। स्वभाव की निर्मलता, परस्पर संबंध, उग्र स्वभाव की तिलांजलि, वाणी में माधुर्य और जल तत्त्व से संबंधित रोगों की प्रधानता इस अवधि में बढ़ जाती है।

जब शनि का प्राबल्य होता है तो वायु तत्त्व का उदय होता है और शरीर में मलिनता, मूढ़ता, दरिद्रता, वात संबंधी रोग, शोक और संताप होता है। आयुर्वेद के वात प्रकृति के रोगों की लंबी सूची है, जिनमें सभी प्रकार के वात आते हैं। संधिवात उनमें से एक उदाहरण है।

ग्रह कितना फल देंगे? यह इस बात पर निर्भर करेगा कि ये ग्रह षड्बल या वर्गों में कितने बलवान हैं। यदि ग्रह बलवान हो तो अत्यंत शुभफल और नीच, शत्रु राशि या दुष्ट स्थान में हो तो विपरीत फल देंगे तथा जो ग्रह एकदम बलहीन हो उनका उक्त फल स्वप्न या मानसिक चिंता में प्राप्त होता है। पाराशर यह भी कहते हैं कि जिनका जन्म समय अज्ञात हो उस जातक का अध्ययन करके यह अनुमान लगाना चाहिए कि उस पर इस समय किस पंच महाभूत की छाया चल रही है। तत्संबंधी पंचमहाभूत यदि दुष्फल दे रहे हों तो उनकी शांति के लिए जप-तप, दान इत्यादि करने चाहिए।

उसी तरह से पंचमहाभूतों की दशा में मन की दशा बदल जाती है। कार्य करने की प्रवृत्ति में दिन-रात का अंतर आ जाता है। उदाहरण के लिए अग्नि तत्त्व की छाया होने पर जातक ने दुस्साहसपूर्ण कार्य किए और नई भूमि या खान की तलाश में भटकता रहा। उसने असंभव कार्य किए और सैकड़ों मजदूरों को लेकर दिन-रात कार्य किये। इस अवधि में उसने आग्नेयास्त्र रखे, सत्ताधारियों से संपर्क स्थापित किया और धन कमाने के नए-नए तरीके खोजे। परंतु कई वर्षों बाद में जैसे ही आकाश तत्त्व की छाया उसके शरीर पर आई उसने ये सारे काम छोड़ दिए। वह जीवन यात्रा में थक गया था और उसने लोक-परलोक की बात करना शुरु कर दिया और अब वह भीड़ से हटकर एकांतवास और आध्यात्मिक साधनाएं करना चाहता है। भागदौड़ अब उसे निरर्थक लगती है।

एक अन्य मामले में सूर्य महादशा में अग्नि तत्त्व की छाया थी और वह एक सरकारी अधिकारी जोखिम के काम किया करता था। सरकारी कार्य करते-करते वह स्मगलिंग करने लगा क्योंकि सूर्य षड्वर्गों में ज्यादा अच्छे नहीं थे। बाद में किसी साधु के प्रभाव से उसका मन परिवर्तन हो गया। जन्मपत्रिका देखने से ज्ञान हुआ, उस समय वह जल तत्त्व की छाया के प्रभाव में आ चुका था। उसकी गाड़ी की गति जो अग्नि तत्त्व पंचमहाभूत में 100 से कम नहीं रहती थी, वह जल तत्त्व की महादशा में 40-50 पर आ गई। अब वह सोचकर निर्णय लेने लगा था तथा निर्णय लेने से पूर्व लोगों की सलाह लेता था और हर निर्णय से पहले 10 बार चिंतन करता था।

आकाश तत्त्व पंचमहाभूत व्यक्ति को कई बार पलायन की ओर ले जाता है। बृहस्पति की छाया के समय में व्यक्ति लोक-परलोक, आध्यात्म जैसे विषयों की बात करता है और आत्म कल्याण के रास्ते खोजने लगता है। आकाश तत्त्व की छाया यदि असमय ही आ जाए तो दारुण-दुखों के वशीभूत उसका मन संसार से शीघ्र विरत हो जाता है एवं वह अपना परलोक सुधारने की दिशा में तैयारी करने लगता है। अत: इन पंच महाभूतों से यह अपेक्षा भी की जानी चाहिए कि इनमें से किसी की छाया असमय नहीं आवे, अन्यथा परेशानियां बढ़ जाएंगी।

एक अन्य उदाहरण में जब व्यक्ति की उम्र 28 वर्ष की थी तो वायु तत्त्व पंच महाभूत की छाया प्रारम्भ हो गई और जिसे कई वर्षों तक चलना था। यह छाया ऐसे शनि की थी जो षड्बल से हीन और षोडश वर्गों में भी अपेक्षाकृत कमजोर थे। 36 की उम्र तक व्यक्ति को गठिया बाय और रक्तार्श ने अपनी जकडऩ में ले लिया और उसके पास कोई उपाय नहीं बचा। मृत्यु की आशंका से पीडि़त उस व्यक्ति की ज्योतिष ने इतनी मदद की कि उसको यह पता चल गया कि वायु तत्त्व पंच महाभूत की छाया अगले 11 वर्ष और रहेगी तथा 7 या 8 वर्ष बाद यह छाया उतरने लगेगी। आश्चर्य कि 7-8 साल के बच रहे कष्टकाल के ज्ञान के बावजूद वह प्रसन्न हो गया क्योंकि उसे शेष जीवन में कुछ और अच्छे वर्ष मिलने की आशा थी।

बीमारियों के दौर कम वय में भी व्यक्ति को कांतिहीन बना देते हैं। दूसरी ओर कुछ लोग तमाम सांसारिक बाधाओं के बावजूद भी ओजस्वी बने रहते हैं। कुछ के चेहरे पर अतिरिक्त उत्साह नजर आता है। कुछ लोग अज्ञात भय से पीडि़त और आतंकित रहते हैं। कुछ लोग अग्नि तत्त्व पंच महाभूत के आविर्भाव के बाद अकारण भागते रहते हैं क्योंकि उनका लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता, तो कुछ लोग जल तत्त्व पंच महाभूत की छाया के बाद महान लक्ष्य होते हुए भी साहस नहीं कर पाते। पंच महाभूत की छाया व्यक्ति के स्वभाव, महत्त्वाकांक्षाएं और उत्साह में क्रांतिकारी परिवर्तन लाते हैं। व्यक्ति को स्वयं को यह ज्ञान नहीं रहता कि वह किन शक्तियों के वशीभूत काम कर रहा है। जो लोग इस छाया को नहीं पहचान पाते, वे उस पूरे कार्यकाल का ढंग से उपयोग नहीं कर पाते। अनुभव में आया है कि किसी छाया विशेष के कारण ही जातक अदम्य साहसी या अत्यंत महत्त्वाकांक्षी बनता है और ऐसे में जिस ग्रह की छाया है, वह यदि ज्योतिष की दृष्टि में बलवान हो तो जातक अपनी संपूर्ण क्षमताओं को उपभोग में ला सकता है एवं अपने रास्ते स्वयं तय करता है। छाया के विपरीत आचरण करने से वह नष्ट हो सकता है तथा सफलता का अनुपात काफी घट सकता है। छाया ज्ञान के लिए अनुभवी ज्योतिषी का मार्गदर्शन उचित रहता है।

 

 

दिव्य औषधियाँ

हमारे प्राचीन विद्वानों ने समय-समय पर अपने अनवरत अन्वेषणात्मक अध्यवसाय के बल पर मानव कल्याण की परम्परा में कतिपय नूतन अध्याय जोड़े हैं, जिनमें तंत्र मंत्र से संबंधित चमत्कारिक प्रयोगों, पराप्राकृत वस्तु पदार्थों के मानवीय धरातल पर उपयोग एवं दिव्यौषधियों के प्रकरण अधिक व्यावहारिक और आकर्षक हैं।

इन उपलब्धियों में सामान्य किन्तु विशिष्ट गुणों से युक्त दिव्य औषधियों एवं सम्मोहन तंत्रादि का ही उल्लेख करना उचित  रहेगा।

वशीकरण की अनुभूतियाँ - इस दिशा में प्रयोग में लिए जाने वाले पदार्थ और औषधियां निम्न प्रकार हैं-

जहाँ तक औषधियों का संबंध है उनमें दिव्य शक्तियाँ केवल पुष्य नक्षत्र में ही रहती है। सामान्यत: गुरुवार या रविवार को पहले वाले पुष्य नक्षत्र में लाने की दिव्यौषधियाँ -

1.  चांडाली                         2.  पुत्रजीवी

3.  सहदेवी                         4.  श्वेतार्क

5.  विष्णुकांता                       6.  लक्ष्मण

7.  हस्त युग्मा-हाथ जोड़ी     8.  अपामार्ग

9.  लज्जालु-लाजवंती               10. श्वेत दूर्वा

11. रुद्रन्ती               12. रुद्रजटा

13. मेषश्रृंगी                         14. मयूर शिला

15. भृंगराज                         16. इन्द्रायण

इनके अतिरिक्त तिलक द्वारा वशीकरण में निम्रांकित औषधियों का भी इसी पुष्य नक्षत्र एवं शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा का ध्यान रखते हुए किया जाता है। घृताची, ग्वारपाठा, बड़ की दाड़ी-जड़, भाँग-भवानी, बेल पत्र, प्रियंगु, केसर, पद्मपत्र, आंवला, गूलर, पनर्नवा-साठी, सरसों, देवडाली-देवदार, शंख पुष्पी, चन्दन, ब्रह्मदण्डी, वच्छ, पूठ कुण्ठा तथा कुछ अन्य पदार्थों का उपयोग भी वशीकरण हेतु से तिलक करने में प्राचीनकाल से होता आया है तथा कपिला गाय का दूध, गोरोचन, मेन्सिल-मन शिला, कुंकुम, गूगल, कस्तूरी, चिता की भस्म, पान तांबूलकुमारी, प्रथम आर्तव- पहला मासिक धर्म का रक्त, शालिग्राम, एकमुखी रुद्राक्ष, एकाक्षी नारियल, श्यालासिंगी श्रंृगाल श्रृंगी, कपूर, काला धतूरा, स्वर्ण शिला, शिलाजीत आदि।

कतिपय अनुभूत प्रयोग प्राय: किसी भी प्रकार के वशीकरण मंत्र को सिद्ध किये जाने से घटित होते हैं, जिन्हें आवश्यकतानुसार आहुतियां डालकर अथवा जप करके सिद्घ करना होता है।

पराशक्ति और दिव्यौषधियाँ : शक्ति की परिसीमाओं के ऊपर रहकर जो दिव्य शक्ति दृश्यमान होती है, उसका प्रभाव ब्रह्माण्ड रश्मियों के माध्यम से सम्पूर्ण चर व अचर जगहों पर बरसता है। वही महादेवी चित्तिका कुण्डली जगत् विलास है। जो सिद्घ विद्यार्थी इस शरीर को 26 तत्वों से युक्त चित्तिका सार समझता है यानि इसको परमशिव रूप में देख सकता है, वह इस सिद्घ विद्या के नियमानुसार सर्वसिद्घि का अधिष्ठाता हो जाता है। उस स्थिति तक पहुंचने के पहले भी पराशक्तियों से लाभ उठाने की स्थिति नक्षत्रों के प्रभाव को समझ लेने पर प्राप्त होती है।

उक्त  सन्दर्भ में यह स्मरणीय है कि जब कभी संवत्सर में रविवार अथवा गुरुवार को पुष्य नक्षत्र का प्रभाव अवतरित होता है तब अपामार्ग, सहदेवी, हुलहुल, कागजंघा, हाथाजोड़ी, श्वेतार्क, काला धतूरा, सफेद रत्ती आदि 21 दिव्यौषधियों में निश्चयत: दिव्य शक्ति का प्रचुर संग्रह रहता है। एक प्रकार से उक्त मुहूर्त में दिव्यौषधियों अणु-अणु से दिव्यता का उद्रेकमय उच्छवास विकीर्ण होता है। जिस औषधि को साधक लाना चाहे उसे एक मास के ब्रह्मचर्य पूर्वक उस औषधि से संबंधित मंत्र एवं आह्वान का मन ही मन आयोजन करते हुए एक लोटा गंगाजल लेकर जाये। औषधि को सर्वप्रथम नमस्कार कर पवित्र मौली के द्वारा सदुपयोग का वचन देते हुए तथा अपनी कामना निवेदन करते हुए सात ग्रंथियां लगाते हुए सात बार तने पर लपेटे। पुन: प्रणाम करके चला आवे। लेने से पूर्व मुंह हाथ धो पोंछकर तीन माला औषधि से संबंधित मंत्रकी महामृत्युजंय बीज मंत्र ú ह्रीं ज्युं स: का संपुट लगाते हुए जप करें। प्रात: ब्रह्म मुहूर्त चार बजे से पांच बजे के मध्य दो बजे उठकर स्नान करके नग्न होकर प्रशांत भाव से श्रद्घापूर्वक उसी औषधि को जिसे की गत रात्रि गंगाजल से सींचा था मंत्र बोलते हुए उखाड़ कर ले आवे। पुन: गाय के गोबर से लिए हुए पवित्र एवं एकान्त स्थान पर जहाँ किसी मासिक धर्म युक्त महिला अथवा कुरोग ग्रस्त व्यक्ति की छाया न पड़े। वहाँ धूप दिखाकर सुरक्षित करें तथा केवल उपयुक्त समय पर ही प्रयोग में लेवे।

हनुमान-साधना के शतावर पत्ते : शतावर पत्ता का पेड़ द्रोणगिरि के जंगलों में भ्रमण करने पर उपलब्ध हो सकता है। यद्यपि घने जंगलों में इस प्रकार के पेड़ों की संख्या कम होती है या दूसरे शब्दों में ऐसे पेड़ मिलना दुर्लभ है। इस पेड़ की यह विशेषता है कि यह पेड़ जब बड़ा होता है तो और पेड़ों की भांति इसकी शाखाओं में पत्ते फूटने लगते है पर पेड़ इस स्थिति में मुरझाकर समाप्त हो जाते हैं। प्रकृति की कोई अनुपम लीला ही हो तो सौ में एक-आध पेड़ पत्ते आने के पश्चात समाप्त नहीं होता। कहा जाता है कि ये पत्ते श्याम रंग लिए होते हैं। इसका आकार-प्रकार बड़ के पत्ते के समान होता है।

इसके प्रत्येक पत्ते पर द्रोण पर्वत उठाए हुए हनुमान की शक्ल अंकित रहती है। इसका परीक्षण इस प्रकार किया जा सकता है कि इस पत्ते को पानी में कई दिनों पड़ा रखें, फिर भी इसमें अंकित चित्र मिटता नहीं है यद्यपि अन्य पत्ते पानी में डालने पर क्षीण हो जाते हैं। हनुमान साधना में इस पत्ते को विशेष महत्व दिया जाता है। बलाबल साधना ही सिद्घि इस पत्ते के प्रयोग से होती है, ऐसा कहा जाता है।

पारद शिवलिंग : विज्ञान में पारे के विषय में बताया गया है कि पारा घुलनशील नहीं है। वह निर्मल होता है।

श्वेतार्क : श्वेतार्क को गाय के दूध में घिसकर पीने से (एक वर्ष तक) यदि वृद्घ हो तो जवान हो जाए, सूजन हो तो दूर हो जाये। यदि ऐसे दूध को 72 दिन तक पिया जाए तो बुद्घि की वृद्घि हो और कामदेव जैसा रूप हो। सर्व प्रकार के रोगों का नाश हो। श्वेतार्क, गोरोचन और चन्दन अपने वीर्य के अन्दर मिलाकर तिलक करें सभी मनुष्य वशीभूत हो जाये।

अक्षय पदार्थ विज्ञान : हमारे बुद्घिमान पूर्वजों ने अकाल, बाढ व अग्निकांड की भयानक स्थितियों से मुक्ति की दिशा में प्रयत्न करते हुए उक्त अक्षय वस्तु विज्ञान की उपलब्धियों का लाभ उठाया। प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों के अनुसार हम उक्त जानकारी पर पहुंचते हैं।

अक्षय वस्तु से तात्पर्य है कि किसी वस्तु का संग्रह कभी रिक्त न हो चाहे हजारों व्यक्ति भोजन कर जायें फिर भी मंत्र-सिद्घ वस्तु जिस पदार्थ में डाल दी गई है, कभी समाप्त नहीं होता। इसके लिए बहुत से उपाय पाये जाते हैं। प्रमुख सिद्घान्त यह है कि ब्रह्मचर्य पूर्वक संबंधित अनुष्ठान से जुड़ा मंत्र सिद्घ करना होता है। मंत्र आहुतियों और जप से सिद्घ होता है। मंत्र सिद्घ होने पर विशेष मुहूर्त में औषधियां एक दिन पहले निमंत्रित करके विधिपूर्वक लानी होती है। ये औषधियां प्राय: शुक्ल पक्ष में गुरु-पुष्प अथवा रवि-पुष्प के अमृत सिद्धि योग में लानी होती है। उनके उपयुक्त स्थान में पवित्र सिन्दूर लगाकर रखने से अक्षय वस्तु सिद्घ होती हैं।

उक्त अनेक उपायों में से गृहस्थियों के लिए  एक अतिशय उपयोगी उपाय यहाँ अंकित किया जा रहा है। जो उपाय यहाँ लिखा जा रहा है, वह अनपढ़ आदिवासियों में आज भी कहीं कहीं देखने सुनने को मिल जाता है। यू कहना चाहिये कि अकाल, बाढ़ के समय प्रकृति-पुत्र बिना किसी तात्कालिक सहयोग के आवश्यक वस्तुओं के अभाव में नष्ट न हो जाये। अत: प्रकृति माता ने उनके मध्य ऐसी प्रतिभाएं उत्पन्न की है जिन्होंने ऐसे आविष्कार किये जिनके द्वारा वस्तुओं के कोष को अक्षय बनाना संभव हो सका।

 

 

कार्यालय प्रबंधन

किसी भी कार्यालय में सबसे अधिक ध्यान इस बात पर दिए जाने की आवश्यकता है कि कर्मचारी काम के पूरे घंटे दें व उनका मन काम में लगा रहे। ऐसा कार्यालय प्रभारी की प्रबंधकीय क्षमताओं के कारण संभव है, परंतु कई बार ऐसे प्रबंधक स्थान बदलते ही निष्फल हो जाते हैं। निश्चित ही इसका वास्तु से संबंध है। कार्यालय प्रबंधन से इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है। कार्यालय प्रबंधन में कुल मिलाकर जो दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए, उसका उद्ïदेश्य कर्मचारियों से निष्ठापूर्वक व पूरा कार्य लिया जाना तथा अधिकारी वर्ग का नियंत्रण कर्मचारियों पर बना रहे, इस प्रकार का होना चाहिए। इसके अतिरिक्त कर्मचारी षड्ïयंत्रकारी नहीं हो जाएं या कुछ रहस्य पता चलने पर उच्चाधिकारियों को ब्लैकमेल नहीं करें इन बातों का समाधान वास्तु से किया जाना संभव है।

सबसे पहले कार्यालय के बिल्कुल मध्य में खड़े होकर कम्पास से दिशा साधन कर लें। इसके बाद कार्यालय के नक्शे पर कम्पास के अनुरूप ही दिक्ïसाधन करके आठों दिशाओं के स्थान ज्ञात कर लें। किसी भी वास्तु खंड में सर्वश्रेष्ठ स्थिति दक्षिण दिशा की मानी गई है। वास्तु संबंधी किसी भी पुराने वास्तु शास्त्र में दक्षिण-पश्चिम को प्रमुख स्थान नहीं दिया गया है। प्राचीन योजनाओं में दक्षिण-पश्चिम में शस्त्रागार के लिए स्थान बताया गया है। लगभग सभी शास्त्रों में वास्तु खंड में दक्षिण दिशा तथा जन्मपत्रिका में दशम भाव (दक्षिण दिशा) को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। अत: स्वामी, मैनेजिंग डायरेक्टर, चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर या स्वामी की अनुपस्थिति में कार्यालय में द्वितीय स्थान रखने वाले अधिकारी को बैठाना चाहिए। उन्हें यदि उत्तर की ओर मुंह करके बैठाया जाए तो श्रेष्ठ रहता है, अन्यथा पूर्व में मुख करके भी बैठाया जा सकता है। यदि गलती से मुख्य कार्यकारी अधिकारी अग्निकोण में बैठे व उसका अधीनस्थ अधिकारी दक्षिण में बैठे तो थोड़े दिनों में ही दोनों का अहम टकराने लगेगा और अधीनस्थ अधिकारी अपने वरिष्ठ की आज्ञा का उल्लंघन करने की स्थिति में आ जाएगा। इसी भांति यदि मुख्य अधिकारी उत्तर, पश्चिम या पूर्व में बैठे तथा अन्य कनिष्ठ अधिकारी दक्षिण, दक्षिण-पूर्व या दक्षिण पश्चिम में बैठे तो भी वरिष्ठतम अधिकारी का नियंत्रण कार्यालय पर नहीं रह पाएगा तथा कार्यालय में अराजकता फैल जाएगी।

वायव्य कोण में बैठने वाले कर्मचारी प्राय: थोड़े समय बाद  वहां कम बैठना शुरु कर देते हैं तथा कुछ अधिक समय बीत जाने के बाद वे अन्यत्र कहीं नौकरी पकडऩे की कोशिश करते हैं। उन्हें अधिक वेतन पर काम मिल भी जाता है। यह कोण मार्केटिंग करने वाले व्यक्तियों के लिए श्रेष्ठ है। कोई भी कार्यालय प्रभारी यह चाहेगा कि मार्केटिंग से संबंधित व्यक्ति हमेशा मार्केट में ही रहे। वायव्य कोण में कुछ गुण ही ऐसा है कि व्यक्ति के मन में उच्चाटन की भावनाएं पैदा होती है, इसीलिए मकान मालिक का पक्ष लेते हुए शास्त्रों में गेस्ट-रूम की व्यवस्था वायव्य कोण में किए जाने का प्रावधान है। इसीलिए विवाह योग्य कन्याओं के लिए भी यही जगह प्रशस्त बताई गई है। परंतु 10वीं, 12वीं में पढऩे वाली लड़कियों के लिए वायव्य कोण में सोना खतरनाक है, क्योंकि उनका मन घर में नहीं लगेगा।

अग्निकोण में उन कर्मचारियों को स्थान दिया जा सकता है जिनका दिमागी कार्य है तथा जो शोध कार्य करते रहते हैं। नित नवीन योजनाएं बनाने वाले कर्मचारियों को भी वहां स्थान दिया जा सकता है। टैस्टिंग लेबोरेटरी भी यहां स्थापित की जा सकती है। अग्निकोण में यदि अधिक वर्षों तक बैठना पड़े तो स्वभाव में आवेश आने लगता है। इसका नुकसान अधीनस्थ को तो झेलना पड़ेगा ही, संस्थान को भी झेलना पड़ सकता है। अग्निकोण में उन्हीं कर्मचारियों को बैठाया जाना चाहिए जिनसे पब्लिक रिलेशंस के कार्य नहीं कराए जाते हों। ऐ से कर्मचारियों को किसी बीम या तहखाने के ऊपर भी नहीं बैठाया जाना चाहिए।

ईशान कोण में यदि वरिष्ठ अधिकारी बैठें तो भी उत्तम नहीं माना जाता क्योंकि आवश्यक रूप से अन्य शक्तिशाली स्थानों पर अधीनस्थ कर्मचारियेां को बैठना पड़ेगा। ईशान कोण में अपेक्षाकृत कनिष्ठ एवं उन लोगों को बैठाया जाना चाहिए जो वाक्ïपटु हों और मुस्कराकर अभिवादन कर सकें। प्राय: सभी स्थितियों में कर्मचारियों को उत्तराभिमुख बैठना चाहिए और ऐसा न हो सकते की स्थिति में पूर्वाभिमुख बैठना चाहिए।

भारी-भरकम अलमारियां या रैक्स नैऋत्यकोण में रखा जाना उचित होता है। ऊंचे या भारी सामान को उत्तर या ईशान कोण में रखने से कार्यालय में बाधाएं उत्पन्न हो जाती है। बीच में, मध्य स्थान में अर्थात ब्रह्मïस्थान में भी भारी-भरकम सामान या स्थायी स्ट्रक्चर नहीं बनाया जाना चाहिए। बीम या गढ़ा भी यहां नहीं होना चाहिए।

 

वास्तु शास्त्र में ऐसे बहुत सारे नियमों का समावेश है जिनका मानव मनोविज्ञान से संबंध है। अनुभव के आधार पर जिन परिस्थितियों से असुविधा उत्पन्न होती थी, उनको नियमों के आधार पर वर्जित कर दिया गया तथा जिन अनुभवों से लाभ मिलता था उन्हें शास्त्रीय नियमों का रूप देकर आवश्यक रूप से लागू किया गया। कार्यालय प्रबंधन में ऐसे कुछ नियमों की चर्चा हम करेंगे।

किसी भी कार्यालय में मुख्य प्रभारी ऐसी स्थिति में नहीं बैठा होना चाहिए जिसमें बाहर से आने वाला व्यक्ति सीधा उसी से संपर्क करे। इस स्थिति में आने वाला उसे स्वागत करने वालों में से एक समझकर उचित सम्मान नहीं कर पाएगा। अत: मुख्य चैम्बर कार्यालय में थोडा गहराई में जाकर बनाया जाना चाहिए या कोई ऐसी व्यवस्था की जाए कि आगंतुक पहले किसी अन्य से संपर्क स्थापित करे तथा वह व्यक्ति उसे कार्यालय प्रभारी तक ले जाए। जो व्यक्ति आगंतुक का स्वागत करे, वह यह अवश्य पूछे कि आगंतुक कहां से आए हैं तथा उन्हें क्या काम है? यदि कुछ सैकंड अधिक मिल जाएं तो कोई कॉम्पलिमेंट जैसे कि आपकी टाई बडी अच्छी है भी दे सकते हैं। यदि आगंतुक को कुछ देर बैठना पडे तो कम से कम पानी के लिए अवश्य पूछा जाना चाहिए।

ऐसा माना जाता है कि मुख्य  प्रभारी या गृह स्वामी तक पहुंचने में जितनी देर लगे या दूरी तय करनी पडे उतना ही आगंतुक मानसिक रूप से कार्यालय प्रभारी का सम्मान करने के लिए उद्यत हो जाता है।  बहुत बडे कार्यालय या फार्म हाउसों में कार-पार्किंग इसीलिए काफी अंदर जाकर कराई जाती है। कोई रहस्य जितना देर से खुले उतनी ही जिज्ञासा तीव्रतर होती जाती है।

किसी भी कमरे में ठीक दरवाजे के सामने टेबल होना अच्छा नहीं माना गया है। कमरों के किसी भी दीवार के मध्य में दरवाजा नहीं रखना चाहिए। अच्छा हो यदि जिस कोण में दरवाजा हो उसके विपरीत कोण (कर्ण) में बैठने की टेबल हो। टेबल पर सामान अस्त-व्यस्त फैला हुआ नहीं हो तथा कमरे में कागज के टुकडे फैले हुए न हों। डस्टबिन का प्रयोग अच्छा माना जाता है। टेबल पर पेपर टे्र होना अच्छा माना गया है। द्वार में घुसते ही कोई अवरोध नहीं होना चाहिए। कुर्सियां इस भांति नहीं लगी हों कि हाथ से हटाए बिना प्रवेश ही न कर सकें।

मुख्य प्रभारी कार्यालय की ऐसी स्थिति में बैठे जहां से प्रत्येक कर्मचारी को यह महसूस हो कि उसकी गतिविधि का ज्ञान प्रभारी अधिकारी या मैनेजर को है। कई बडे उद्यम बडे से बडे अधिकारी पर भी ऐसे नियम लागू कर पाए है। गुडगांव स्थित मारूति उद्योग में जनरल मैनेजर, मैनेजर व अन्य कर्मचारियों की बैठने की योजना इस प्रकार है।

इन सभी की ड्रेस भी एक समान होती है तथा यथासंभव चाय भी टेबल पर ही आती है। कार्यालयों में गहरे रंग जैसे कि एक्वामेरिन (हरा) रोशनी को खा जाने वाले रंग है, अत: उनसे बचना चाहिए। आसमानी नीला, सफेद या हल्का पीला रंग रोशनी को बढाते हैं। इनमें परावर्तन की क्षमता अधिक होती है। आंखों को भाने वाले रंग अच्छे माने गए हैं।

कार्यालयों में पानी ईशान कोण में हो, यह भ्रम है। ईशान कोण में पानी तभी परिणाम देता है, जब उसका संबंध भूमि से हो। भूमि से अलग मटकों में रखा गया पानी या गमला शुभ-अशुभ की क्षमता खो देता है, अत: उसे सुविधानुसार कहीं भी रखा जा सकता है। परंतु केंटीन या पेंट्री असर करती है, अत: इसे कार्यालय के अग्निकोण में ही होना चाहिए।

समान प्रकृति का कार्य करने वाले व्यक्तियों को वर्गीकृत करके एक स्थान पर बैठाना चाहिए। कैशियर को ऐसे स्थान पर नहीं बिठाया जाए जहां से कार्य करते हुए उसे अधिकाधिक कर्मचारी या सामान्यजन देख सकें। कैशियर और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को एक पद पर बहुत अधिक दिन तक नहीं रखना चाहिए। कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के कैशियर को व्यक्तिगत परेशानियां होने पर प्रभारी अधिकारी को उसकी समस्याओं का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। कार्यालय के दक्षिण या दक्षिण-पश्चिम में बैठने वाले कैशियर आलसी हो जाते हैं और कैश बुक प्रतिदिन नहीं भरते। बातों को रहस्यमयी बनाना भी उनको आ जाता है। यदि गैरकानूनी वित्तीय लेनदेन इनके हाथ लग जाएं तो मालिक के लिए समस्या पैदा हो सकती है। कैशियर को कार्यालय के ठीक उत्तर दिशा में बैठाना अच्छा रहता है। कार्यालय के ठीक पश्चिम दिशा में बैठने वाले कर्मचारी गोपनीय बातों को छिपा नहीं पाते और अधिक समय बैठने पर बातूनी हो जाते है। प्रशिक्षण संबंधी कार्यवाहियां भी पश्चिम दिशा में ही अच्छी मानी गई है।

कार्यालय का अग्निकोण कम्प्यूटर या कंट्रोल पैनल के लिए उत्तम माना गया है। शोध कार्य भी अग्निकोण में ही उत्तम माने गए है। कांफरेंस हॉल वायव्य कोण में उत्तम माना गया है। वेटिंग रूम भी वहीं ठीक माना गया है। गर्म मिजाज कर्मचारियों को ईशान कोण में बैठाना लाभदायक माना गया है तथा कम प्रतिभाशाली लोगों को प्रथम तो पश्चिम दिशा और बाद में अग्निकोण में बैठाना अच्छा रहता है।