पुष्य नक्षत्रों का राजा परंतु वैवाहिक कार्यों के लिए अभिशप्त

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर, नेशनल दुनिया

कर्क राशि के मध्य में स्थित पुष्य नक्षत्र बहुत चर्चित रहा है। कर्क का अर्थ है केकड़ा। केकड़े के कई पैर होते हैं और विशेष आकार होता है। ऋग्वेद में पुष्य को तिष्य भी कहा गया है। तिष्य का शाब्दिक अर्थ शुभ माना गया है। पौष माह की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र में होते हैं।

मुहूर्त्त कार्यों में पुष्य को श्रेष्ठ माना गया है। पाणिनि ने इस नक्षत्र के शुभत्व को जानकार इसका नाम सिद्ध्य भी रखा परन्तु बाद में पुष्य नक्षत्र को विवाह के लिए वर्जित कर दिया गया, क्योंकि पुष्य नक्षत्र में किया गया विवाह निष्फल हो गया था। वृहद्ददैवज्ञरंजनम् नामक ग्रंथ में पुष्य के बारे में वराहमिहिर ने लिखा है। ब्रह्मा ने अपनी कन्या शारदा का विवाह पुष्य नक्षत्र और गुरुवार को किया था। उस अवसर पर वे स्वयं अपनी पुत्री पर मोहित हो गए थे, परन्तु तुरन्त ही उनके रोमकूपों से 60 हजार बालखिल्य ऋषियों का प्रादुर्भाव हो गया। ये सारे ऋषि उच्च कोटि के सिद्ध हुए, परन्तु ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने पुष्य नक्षत्र को शाप दे दिया कि विवाह कार्य पुष्य नक्षत्र में नहीं हो सकेंगे।

पुष्य नक्षत्र से सम्बन्धित सारे मुहूर्त्त सफल सिद्ध होते हैं। इसलिए इसको नक्षत्र राज भी कहा गया है। परन्तु आश्चर्य की बात बात है कि जिस गुरु पुष्य नक्षत्र को आज इतनी प्राथमिकता दी जाती है, उसी गुरु पुष्य के दिन हुए विवाह के कारण पुष्य को शाप दे दिया।

उपरोक्त प्रकरण से यह सिद्ध हुआ कि जहाँ रोहिणी लावण्यमयी है, वहीं पुष्य नक्षत्र कर्क राशि में होने के कारण विवाह के लिए दूषित हो गया। वहाँ चन्द्रमा स्वयं रोहिणी नक्षत्र में हैं तो यहाँ पुष्य नक्षत्र चन्द्रमा की राशि में स्थित हैं। अतः इसे कामप्रद भी माना गया है। ऋषियों को इसका ज्ञान था। अतः उनके वैज्ञानिक गुणों का अध्ययन करने के बाद इन नक्षत्रों के लिए कार्य विधान तय कर दिये।

 

कर्क राशि के दक्षिण में लघु स्वान और हाइड्रा है। हाइड्रा को एक महासर्प समझा जाता है। एक यूनानी कथा के अनुसार यह एक जलवासी सर्प था और आरगोस राज्य में उसका आतंक था। इसका एक सिर काट दो तो दूसरा निकल आता था। हरकुलिस ने एक सिर काटने के बाद उसे गर्म लोहे से दागना शुरू किया, परन्तु सर्प का नौवाँ सिर अमर था। उसे हरकुलिस ने पत्थर के नीचे दबा दिया। जूनो ने हरकुलिस के पैर को काट खाने के लिए कर्क या केकड़ा भेजा। तब हरकुलिस ने सर्प और कर्क दोनों को मार डाला। जूनों ने इन दोनों को अर्थात् हाइड्रा (सर्प) और कैंसर (कर्क) दोनों को आकाश में नक्षत्र के रूप में स्थापित कर दिया। कई देशों में यह मान्यताएँ थी कि कर्क मण्डल से होकर ही स्वर्ग की आत्माएँ पृथ्वी तक पहुँचती है और जन्म लेती हैं।

जिस तरह से सप्तऋषि मण्डल के ऋषियों को नक्षत्र रूप में स्थापित करने की परम्पराएँ रही हैं, यूनान में भी ऐसी बहुत सारी कथाएँ मौजूद हैं जिनमें कुछ अमर पात्रों को नक्षत्र के रूप में स्थापित किया गया है।

जहाँ कर्क राशि का पुष्य तारा इतना महत्त्वपूर्ण है वहीं कर्क राशि का अंतिम तारा आश्लेषा गण्डमूल नक्षत्रों में शामिल होने के कारण साधारण नहीं रहा। प्रत्येक जल राशि (कर्क, वृश्चिक, मीन) का अंतिम तारा तथा अग्नितत्त्व राशियों (मेष, सिंह, धनु)  का प्रथम नक्षत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गये हैं और गण्डमूल में शामिल हो गये हैं।

चीन के ज्योतिषियों ने 4 जुलाई, 1054 को वृषभ राशि मण्डल में एक सुपरनोवा विस्फोट देखा था, जो बाद में अदृश्य हो गया। उस सुपर नोवा विस्फोट से बिखरी सामग्री क्रेब नेबुला या कर्क नीहारिका के रूप में फैल गई। कर्क राशि के अन्तर्गत आने वाली इस निहारिका के नक्षत्रों का अध्ययन आज किया जा रहा है। इस निहारिका के केन्द्र भाग से प्रति सेकण्ड 33 पल्स रेडियो आवृत्ति प्रसारित हो रही है और यह एक आश्चर्यजनक वैज्ञानिक सूचना थी। खगोल शास्ति्रयों ने ऐसे आकाशीय पिण्डों को पल्सर (Pulsating Radio Sources) नाम दिया। कर्क राशि से अत्यधिक रेडियो तरगें जारी होने के कारण इस राशि के पुष्य जैसे नक्षत्र अत्यंत ऊर्जावान हो गये हैं इस कारण से इस राशि के अन्तर्गत आने वाले नक्षत्र राज पुष्य में शुरू किए गये कार्य अत्यंत ऊर्जावान सिद्ध होते हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि वृषभ राशि से कर्क राशि पर्यन्त अनन्त ऊर्जा के स्रोत इन नक्षत्र मण्डलों की ऊर्जा काम ऊर्जा को भी बढ़ाती है। वृषभ चन्द्रमा की उच्च राशि है, जैमिनी ऋषियों ने मिथुन राशि में दूसरे विवाह के संकेत ढूँढें हैं तथा कर्क राशि भी चन्द्रमा की है और पुष्य नक्षत्र भी चन्द्रमा में हैं जिसके विवाह निष्फल होते माने गये। चन्द्रमा स्वयं को चंचल चित्त का माना गया है और गुरु पत्नी तारा के अपहरण का आरोप उन पर है।

वैदिक ऋषियों को इन नक्षत्र मण्डलों का गहरा ज्ञान था और इसलिए उन्होंने तदनुसार ही प्रावधान किए और धर्मभीरु भारतीय जनता को समझाने के लिए इनसे सम्बन्धित पुराण कथाओं की रचना की।

कन्याकुमारी की देवी कुमारी कन्या

वीरेन्द्र नाथ भार्गव

कन्याकुमारी अथवा केप कोमोरिन भारतीय भूभाग का दक्षिणी छोर पर अंतिम बिंदु है जो हिंद महासागर को स्पर्श करता है। कन्याकुमारी के छोर पर खड़े होकर भारत के चार आयामों को एक साथ प्रत्यक्ष देखा जा सकता है यथा उत्तर में बढ़ता हुआ भूभाग, पूर्व में बंगाल की खड़ी, पश्चिम में अरब सागर तथा दक्षिण में हिंद महासागर हैं। एक ही स्थान से तीनों समुद्रों की अलग-अलग रंग वाली जलराशियों को एक-दूसरे से संयोग होते देखा जा सकता है। यहां की समुद्री रेत में लाल, काली तथा पीले रंग की छोटे कंकर वाली रेत को अलग-अलग लहरों के आगमन के साथ देखा जा सकता है जिसमें रेडियोधर्मी धातु थोरियम का खनिज मोनाजााइट है। यहां से एक ही स्थान से सूर्योदय तथा सूर्यास्त को देखा जा सकता है। चैत्र पूर्णिमा के दिन क्षितिज पर पूर्ण चंद्र और सूर्य को एक साथ देखने की अनूठी स्थिति बनती है। भारत के स्वाधीन होने के पश्चात यहां गांधी मंडपम नामक स्मारक बनाया गया है जहां महात्मा गांधी की अस्थियों को सागर में प्रवाहित करने से पूर्व तीन दिनों के लिए रखा गया था। खगोलीय गणनाओं और वास्तुशिल्प की विशेष घटना इस स्मारक में प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को देखने को मिलती है, जब सूर्य की किरणें मंडप के अंदर उसी स्थान का स्पर्श करती हैं जहां अस्थियों का कलश रखा गया था। मुख्य भूमि से लगभग एक किलोमीटर दूर हिंद महासागर में उभरी हुई चट्टानों में से एक पर रामकृष्ण मिशन के स्वामी विवेकानंद का भव्य स्मारक बना हुआ है जहां एक शताब्दी से भी पहले स्वामी विवेकानंद ने तीन दिनों तक वहां पहुंचकर समाधिस्थ रहकर साधना की थी। विवेकानंद, स्मारक के परिसर में देवी कन्याकुमारी का स्वयंभू पदचिह्न लाल रंग की आभा लिए स्वतः उभरा था जिस पर एक मंडप बना दिया गया है। विश्वास किया जाता है कि यह वही पवित्र स्थान है जहां पुराकाल में देवी ने एक पांव पर खड़े रहकर ईश्वर की उपासना की थी। आज भी श्रद्धालुगण यहां आकर स्वामी विवेकानंद की दर्शन यात्रा के साथ ही देवी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। कदाचित स्वामी विवेकानंद को इस समुद्र में चट्टान पर ध्यान-समाधि हेतु प्रेरणा के पीछे देवी का मूक आशीर्वाद था जिससे कालांतर न केवल संपूर्ण भारत में अपितु अमेरिका तक में आध्यात्मिकता को नया संबल प्राप्त हुआ था।

पुरावेत्ताओं ने ई.पू. 4000 काल के पाषाण उपकरण कन्याकुमारी क्षेत्र में ढूंढ निकाले हैं। पौराणिक आख्यानों के अनुसार इसी क्षेत्र में पराशक्ति का अवतार देवी कुमारी कन्या और बाणासुर के मध्य संघर्ष हुआ था जिसमें बाणासुर का वध हुआ था। इस स्थान की महत्ता से परिचय पाकर परशुरामजी ने सर्वप्रथम कन्याकुमारी का मंदिर बनाया था। कालांतर अनेक राजाओं ने योगदान करके वर्तमान मंदिर बनाया। इस मंदिर में देवी की विलक्षण प्रतिमा है जिसके एक हाथ में वरमाला है जिसका निहितार्थ यही है कि देवी वरमाला किसी को नहीं पहना सकी थीं और वे कुमारी (कुंवारी) हैं। अध्यात्म साहित्य में सतयुग की युगावतार कुमारी देवी हेमवती थीं जिनके द्वारा धरती पर बसंत पंचमी के दिन सर्वप्रथम परा विद्या (आत्मविद्या) का अवतरण हुआ था। कुमारी देवी की महत्ता को संपूर्ण हिंदू समाज ने अपना रखा है। विगत शताब्दी में भारत के एक महान संत डॉ. चतुर्भुज सहायजी ने अपने आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर राखी के धागे, यज्ञोपवीत के धागों को कुमारी कन्याओं के हाथों काता जाने की व्याख्या प्रस्तुत की थी। कुमारी कन्याओं में ओज की मात्रा अत्यधिक होती है तथा उनकी उंगलियों से निकली ओज शक्ति को कपास सोखने का विशेष गुण रखता है। अतः सम्पूर्ण समाज में ओजस्विता के अनुरूप पापरहित शक्तिशाली बनाए रखने में राखी और यज्ञोपवीत के धागों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। विभिन्न देवियों के मंदिरों में कन्याओं का पूजन और अष्टमी-नवमी को कन्याओं को जिमाने (भोजन करवाने) की परम्परा तभी से चली आ रही है। कुमारी कन्यादेवी के बारे में पौराणिक आख्यानों के अनुसार उनके हाथों से ही बलशाली असुर बाणासुर मारा जा सकता था अन्यथा वह अजेय था। देवी कन्या का विवाह क्यों नहीं हुआ था, इसकी रोचक गाथा है। देवी कन्या के योग्य संसार में केवल दो वर ही उपयुक्त थे- विष्णु और बाणासुर। देवी विष्णु से विवाह हेतु तैयार हो गई तो नारदजी को चिंता हुई कि यदि विवाह हो गया तो धरती से असुरता कैसे हटेगी। अतः उन्होंने प्रथम देवी को समझाया कि कहीं कोई आसुरी माया से विवाह में धोखा नहीं हो जाए इसलिए विष्णुजी से कहो कि वे आंख न होने वाला नारियल, गांठ न होने वाला गन्ना तथा नस न होने वाला पान लेकर आएं। नारदजी जानते थे कि ये वस्तुएं धरती पर नहीं है इसलिए विवाह में व्यवधान हो गया। ऐसी नारदजी ने कूटनीति खेली, किंतु विष्णु जी ये वस्तुएं जुटाकर शुभ मुहूर्त अर्थात सूर्योदय से पहले ही विवाह स्थल पर पहुंचने वाले ही थे कि नारदजी ने चतुराई से विघ्न डाल दिया- मुर्गेकी असमय बांग हुई और विष्णुजी वहीं रास्ते में रुक गए। विवाह टल गया। कालांतर बाणासुर ने देवी से विवाह की प्रार्थना की। देवी ने युद्ध में पराजित करने की शर्त पर ही विवाह होने की सहमति दी। युद्ध में बलशाली बाणासुर मारा गया। मरते समय बाणासुर ने देवी के परा रूप को पहचान कर स्तुति की जिसके कारण देवी ने उसे मरते समय आशीर्वाद दिया तथा बाणासुर पूज्य हुआ।

आज भी देवी की पूजा-अर्चना में नक्षत्र, तिथि, पर्व तथा मंत्रोच्चार का परम्परागत महत्व है। विजयदशमी के दिन इस मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना होती है। दोपहर की आरती के पश्चात पट बंद कर दिये जाते हैं, उसके तुरंत बाद वे पुनः खोले जाते हैं और बंद कर दिये जाते हैं। दो बार पट बंद करने की इस परम्परा के पीछे एक विख्यात जनश्रुति है कि एक बार भरतपुर (राजस्थान) के वीर राजा सूरजमल की धर्मप्राण रानी किशोरी ने कन्याकुमारी देवी के दर्शन करने के बाद ही नवरात्र व्रत तोड़ने का संकल्प किया था। जैसे ही रानी ने कन्याकुमारी देवी के दर्शन हेतु मंदिर में प्रवेश किया था कि पट बंद करने का समय हो गया और पुजारियों ने पट बंद कद दिये। रानी ने दर्शन हेतु पुजारियों से प्रार्थना की किन्तु वह व्यर्थ रही। भूखी रानी के अंतर्मन की प्रार्थना से कदाचित देवी का प्रभाव रहा कि अचानक मंदिर के पट खुल गए और रानी ने श्रद्धापूर्वक देवी के दर्शन किये। इस चमत्कार को देखकर पुजारी हतप्रभ रह गए। इस चमत्कारी घटना की स्मृति में आज भी कन्याकुमारी मंदिर में किशोरी-दर्शन की परम्परा का निर्वाह किया जाता है कि देवी का भक्त अंतिम क्षणों में दर्शन से वंचित नहीं रह जाए।

महाराजा सवाई जयसिंह

ज्योतिष के उद्भट विद्वान और वेधशालाओं के संस्थापक

ओम प्रकाश शर्मा, भूतपूर्व अधीक्षक, जयपुर वेधशाला

महान योद्घा, कुशल प्रशासक एवं खगोलीय ज्योतिष गणना के विद्वान महाराजा सवाई जयसिंह ने नक्षत्र गणना के आधार पर शुभ मुहूर्त्त में दिनांक 18 नवम्बर, 1727 को विश्व प्रसिद्घ जयपुर शहर की आधार शिला का मुहूर्त सम्पन्न किया।

सवाई जयसिंह का जन्म 3 नवम्बर, 1688 ई. में हुआ। इनके पिता बिशन सिंह जो आमेर के राजा थे, की असमय मृत्यु हो जाने के कारण इन्हें 11 वर्ष की आयु में राज-सिंहासन का दायित्व ग्रहण करना पड़ा। राजनीतिक सूझ-बूझ के कारण मुगल सामाज्य में सवाई जयसिंह का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा। सम्राट फारुख शियर ने 12 जुलाई, 1713 में ‘सवाई’की पदवी से अलंकृत किया। सवाई जयसिंह ने वास्तुकला के मूर्धन्य विद्वान विद्याधर चक्रवर्ती के सान्निध्य में जयपुर शहर का निर्माण करा कर आमेर राज्य की स्थापत्य कला के इतिहास में एक नया मोड़ दिया, उन्होंने अनेक कवियों, साहित्यकारों, दार्शनिकों एवं तांत्रिकों को आमंत्रित किया और उनके निवास हेतु एक विशिष्ट स्थान निर्धारित किया- जो आज तक ‘ब्रह्मपुरी’के नाम से जाना जाता है।

जयसिंह के शासन काल में संस्कृत व तंत्र विद्या के प्रसिद्घ विद्वान रत्नाकर भट्ट भी थे, जो पौण्डरिक नामक यज्ञ कराने के पश्चात् रत्नाकर पौण्डिरिक कहलाये। इनके द्वारा रचित ग्रन्थ ‘जयसिंह कल्पद्रुम’ आज भी व्रतोत्सव निर्णयों में जयपुर की जनता के लिए उपयोगी सिद्घ हो रहा है।

महाराजा सवाई जयसिंह के शासन काल में विद्वानों को पूर्ण सम्मान दिया जाता था। जयसिंह के समय प्रमुख विद्वानों में ‘कवि कला निधि’ श्रीकृष्ण भट्ट भी थे। ये संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी व बृज भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। राम क्रीड़ाओं पर लिखे ‘राघव गीतम्’ पर जयसिंह ने इन्हें ‘राम रसाचार्य’ की उपाधि से अलंकृत किया। ‘राघव गीतम्’ जयदेव की गीत गोविन्द की शैली पर आधारित है। यह श्रीकृष्ण भट्ट की सर्वोत्तम रचना मानी जाती है। उनके लिखे अन्य ग्रन्थों में ‘ईश्वर विलास’ महाकाव्य नामक ग्रन्थ भी है। जो 14 सर्गों में विभक्त है। इस ग्रन्थ में महाराजा सवाई जयसिंह के कृतित्व एवं व्यक्तित्व वर्णन के साथ-साथ जयपुर में उनके द्वारा बनवाये गये जयगढ़,  जय सागर, अश्वमेध यज्ञ, विष्णु मन्दिरों के निर्माण एवं कल्कि अवतार के मन्दिर की स्थापना एवं गोविन्द देव की आराधना आदि का उल्लेख किया गया है।

यह प्रमाणित कर दिया है कि ज्योतिष शास्त्र एक प्रत्यक्ष शास्त्र है जो आज के वर्तमान वैज्ञानिक युग से पूर्व व प्राचीन काल से ही भारत वर्ष में चला आ रहा है। महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित खगोलीय वेधशालाएँ भारतीय ज्योतिष में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हैं- जिसके माध्यम से हम आज भी आकाशीय ग्रह स्थिति का पूर्ण प्रत्यक्षीकरण कर सकते हैं।

वर्तमान में जयपुर वेधशाला ज्योतिष विषय के छात्रों एवं शोधार्थियों के लिए प्रायोगिक अध्ययन एवं शोध केन्द्र का कार्य कर रही है। ज्योतिष विषय के विद्यार्थी एवं देश-विदेश के पर्यटक वेधशाला के यंत्रों से प्राप्त ग्रह स्थिति की गणना को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। अतः हम यह गर्व के साथ कह सकते हैं कि सवाई जयसिंह जैसा विद्वान महाराजा ‘न भूतो न भविष्यति’ अर्थात् न हुआ है और न ही होगा। हम महाराजा सवाई जयसिंह एवं उनकी वेधशालाओं के प्रति जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगे।

निर्मित वेधशालाएँ (जन्तर-मन्तर) : जयपुर शहर के निर्माता महाराजा सवाई जयसिंह जिनको बाल्यकाल से ही ज्योतिष शास्त्र के प्रति रुचि थी, उन्होंने दृश्य गणित के उद्देश्य को समझा और ग्रह गणित के आंकड़ों को आकाशीय ग्रह स्थिति से मिलाकर देखने की इच्छा प्रकट की। उन्हें सिद्घान्त ग्रंथों का पूर्ण ज्ञान था, आर्ष ग्रन्थ ‘सूर्य सिद्घान्त’व अन्य सिद्घान्त ग्रन्थों में निरुपित ज्योतिष यंत्रों का पूर्ण रूप से अध्ययन किया और निश्चय किया कि इन सिद्घान्त ग्रन्थों को आधार मानकर निर्मित सारणियों द्वारा साधित ग्रहों का वेध द्वारा प्रत्यक्षीकरण होना चाहिए परन्तु इसकी पूर्ति यंत्रों के अभाव में संभव नहीं थी। सन् 1718 में ज्योतिष संबंधित वेधशालाओं के निर्माण का विचार उत्पन्न हुआ और तब से ही उन्होंने इस विषय से संबंधित विभिन्न ग्रन्थों का अध्ययन तथा अन्य भाषाओं में लिखित ग्रंथों का अनुवाद भी अनेक भाषाओं के ज्ञाता मराठी पं. जगन्नाथ सम्राट द्वारा कराया। ये दोनों ही विद्वान विभिन्न भाषाओं की पूर्ण जानकारी रखते थे और इनका वेधशालाओं के निर्माण में पूरा सहयोग रहा। इसके अतिरिक्त यूरोप, पुर्तगाल, ग्रीक, ब्रिटेन आदि सुदूर देशों में विद्वानों को भेजकर वहाँ ज्योतिष संबंधित सारभूत ग्रन्थों का अध्ययन कराया, 6 वर्षों के निरन्तर परिश्रम के बाद ग्रहों व अन्य खगोलीय वेध कार्यों से संतुष्ट होने पर भारत वर्ष के प्रमुख स्थानों दिल्ली (1724), जयपुर (1728), उज्जैन (1734), बनारस (1737), मथुरा (1738) में खगोलीय वेधशालाओं का निर्माण कराया। जयपुर व दिल्ली वेधशालाओं के अतिरिक्त  अन्य तीनों वेधशालाओं की तिथि अनुमान पर आधारित है।

दिल्ली वेधशाला का निर्माण 1724 में तत्कालीन जयसिंहपुरा नामक स्थान पर कराया गया। वर्तमान में उक्त वेधशाला जन्तर-मन्तर के नाम से प्रसिद्घ है। इस वेधशाला में लगभग 6 यंत्र उपलब्ध हैं जिनमें मिश्र यंत्र प्रमुख है।

उज्जैन वेधशाला का निर्माण 1734 में किया गया। इस वेधशाला को उज्जैन में बनाने के पीछे उनका उद्देश्य यह था कि उज्जैन से ही ‘विक्रम व शक संवत्’ का प्रादुर्भाव हुआ था और इस स्थल का महत्त्व 00 देशान्तर पर होने के कारण ‘ग्रीनविच’ की भाँति मानक समय (स्टेण्डर्ड टाइम) के लिये प्रयोग किया जाता था। इस वेधशाला में लगभग 5 यंत्र उपलब्ध हैं।

बनारस वेधशाला का निर्माण 1737 में किया गया। बनारस प्राचीन विद्या का केन्द्र होने के कारण विद्वानों व विद्यार्थियों के उपयोगार्थ इस वेधशाला का निर्माण मणिकर्णिका घाट अवस्थित मान मन्दिर की छत पर कराया गया। वर्तमान में यह वेधशाला जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है।

मथुरा वेधशाला का निर्माण सन् 1738 में कंस के किले की छत पर कराया गया, जो यमुना नदी के किनारे स्थित थी। ऐसा मानना है कि यह वेधशाला वर्तमान में नष्ट प्रायः हो चुकी है।

जयपुर वेधशाला का निर्माण कार्य सन् 1728 में प्रारम्भ हुआ जो लगभग सन् 1734 में पूरा हुआ। जयपुर वेधशाला उक्त पाँचों वेधशालाओं में सबसे बड़ी है एवं इसमें अवस्थित सभी यंत्र वेध कार्य करने की क्षमता में हैं। वर्तमान में भी इस वेधशाला में स्थित यंत्रों से समय समय पर वेध कार्य कर पंचांग संबंधित विवादों का निर्णय, ग्रह-नक्षत्रों का वेध व उनके उन्नतांश, नतांश, दशम लग्न-दिनमान-शरज्या-कोटिज्या तथा स्थानीय समय आदि ज्ञात किये जा सकते हैं।

इस प्रकार महाराजा सवाई जयसिंह ने 273 वर्ष पूर्व भारत में वेधशालाओं का निर्माण किया।

 

श्राद्ध जरूरी क्यों?

ज्योति शर्मा

ब्रह्म पुराण के अनुसार अपने पितृगणों के उद्देश्य से पितरों के लिए श्रद्धा पूर्वक किए जाने वाला विशेष कर्म श्राद्ध कहलाता है। श्रद्धा से ही श्राद्ध कायम रहते हैं। पितृ पक्ष का आरम्भ अश्विनी मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से शुरु होकर अमावस्या तिथि को समाप्त होता है। शास्त्रों के अनुसार देवताओं की पूजा सुबह व शाम को की जाती है, वहीं पितृगणों की पूजा दोपहर में की जानी चाहिए।

हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी सेवा बतायी गयी है, इसलिए पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गयी है। माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त संतान विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का एक विशेष विधान बताया गया है। श्राद्ध पक्ष 16 दिनों का होता है। पूर्णिमा से अमावस्या तक की 16 तिथियों को श्राद्ध पक्ष माना गया है। अपने-अपने पूर्वजों की तिथि के अनुसार श्राद्ध निकाला जाता है। जैसे कि किसी व्यक्ति की मृत्यु तिथि चतुर्दशी है तो श्राद्ध भी चतुर्दशी तिथि को ही किया जाएगा। किसी कारण से अपने पूर्वजों की मृत्यु की तिथि याद नहीं होने पर अमावस्या के दिन उनके निमित्त श्राद्ध निकाला जाता है। वैसे सभी को चाहिए कि अमावस्या तिथि को श्राद्ध जरूर निकालें, जिससे कि कोई हमारे पूर्वज स्मृति से छूट गए हों, वह भी तृप्त हो जाएं। मनु स्मृति के अनुसार श्राद्ध द्वारा मृत आत्मा को शांति, सद्गति व मोक्ष मिलने की मान्यता के पीछे यही सत्य है। इसके अलावा श्राद्धकर्त्ता को भी विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है।

यद्यदृदाति विधिवत् सम्यक् श्रद्धासमन्वितः।

तत्तत् पितृणां भवति परत्रानन्तमक्षयम्।।

अर्थात् मनुष्य श्रद्धावान होकर जो पदार्थ विधि पूर्वक पितरों को अर्पण करते हैं, वह परलोक में पितरों को अनन्त व अक्षय के रूप में प्राप्त होता है। कृष्ण पक्ष में यमराज सभी पितरों को अपने यहां से छोड़ देते हैं, ताकि वह अपनी संतानों से श्राद्ध के निमित्त भोजन कर सकें। यदि कोई अपने पितरों को श्राद्ध अर्पण नहीं कराता तो अतृप्त पितृ उन्हें श्राप देकर पुनः पितृलोक चले जाते हैं, जिससे उसे व आने वाली पीढ़ी को कष्ट उठाना पड़ता है। इस दोष को ही पितृदोष कहते हैं। पितरों के समस्त दोषों की शांति के लिए पूर्वजों की मृत तिथि के दिन श्राद्ध कर्म किया जाना चाहिए। इसके अलावा गरूड़ पुराण में उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें तृप्त करके दक्षिणा प्रदान करनी चाहिए। ऐसा करने पर पितृ परिवारजनों के लिए लम्बी आयु, पुत्र, यश, मोक्ष, स्वर्ग, शांति, कीर्ति व धन-वैभव का आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

देवताओं के लिए जो हव्य और पितरों के लिए जो कव्य दिया जाता है यह दोनों देवता व पितरों को कैसे प्रदान होता है, इसके लिए यमराज ने अपनी स्मृति में उल्लेख किया है।

यावतो ग्रसते ग्रासान् हव्यकव्येषु मंत्रवित्।

तावतो ग्रसते पिण्डान् शरीरे ब्रह्मणः पिता।।

अर्थात् मंत्रवेत्ता ब्राह्मण श्राद्ध के समय अन्न के जितने कोर अपने पेट में खाते हैं, उन कोरों को श्राद्धकर्त्ता के पिता ब्राह्मण के शरीर में प्रवेश करके ग्रहण करते हैं। अथर्ववेद में पितरों तक सामग्री पहुंचाने के अलग-अलग मार्ग बताए गए हैं। पितरों के लिए श्राद्ध करने वाला व्यक्ति आहुति देते समय अग्नि देव से प्रार्थना करते हैं कि हे! अग्नि देव हमारे पितृगण जिस योनि में, जहां भी हो तुम उनको यह अर्पण कर देना।

ब्राह्मण को पृथ्वी का देव (भूदेव) कहा गया है। अतः ब्राह्मण की जठाराग्नि भी यज्ञाग्नि ही कहलाती है। जिस प्रकार यज्ञ की अग्नि कव्य पितरों तक भोग पहुंचाने का कार्य करती है, उसी प्रकार ब्राह्मण की जठाराग्नि भी कव्य पितरों तक भोजन पहुंचाने का कार्य करती है, इसलिए ब्राह्मणों को भोजन कराने व दक्षिणा देकर संतुष्ट करने का प्रावधान है।

ब्राह्मण भोजन से पहले पंचवलि यानि देवता, गाय, कुत्ता, कौआ व चीटियों के निमित्त भोजन अवश्य निकालना चाहिए, जिससे जिस रूप में वह हैं, जिस योनि में वह रहते हैं, उन्हें उसी रूप में प्रदान हो जाए।