भारतीय ज्योतिष अवधारणाएँ उस व्यवस्था से जुड़ी है जिसमें गत कई जन्मों के अभुक्त कर्म इस पृथ्वी पर शरीर के माध्यम से प्राणी के जीवन में प्रतिफलित होते हैं। जन साधारण ने यह मान लिया है कि यह कर्मफल मनुष्य को ही मिलते हैं,

जबकि सत्य तो यह है कि यह कर्मफल समस्त जीव जगत व निर्जीव जगत को भोगने होते हैं। प्राण तत्त्व, प्रकृति के कण-कण में व्याप्त हैं। जीव जगत में ही जितना हम नंगी आँखों से और माइक्रोस्कोप से देख पाते हैं उससे भी कई बहुत छोटी जीव सत्ताओं का अस्तित्व हैं। हमारी पहुँच पृथ्वी या अधिक से अधिक सौर मण्डल तक है परन्तु प्राण तत्त्व का अस्तित्व समस्त ब्रह्माण्ड में है।

भगवान कृष्ण के समय यादव कुल के कुलगुरु थे महर्षि गर्ग। गर्गाचार्य ने गर्ग संहिता में कृष्ण से जुड़े वृतान्तों का वर्णन किया है। अत: उन्हें प्रमाणित माना जा सकता है। एक वृत्तांत ब्रह्मा, विष्णु, महेश के नित्यधाम गोलोक में जाने का है। हम जिन्हें कृष्ण के नाम से जानते हैं, जिन्होंने गीता का उपदेश दिया था वे तो उन नित्य कृष्ण के अवतार हैं जो कि गोलोक में निवास करते हैं। वहाँ पहुँचने पर भगवान कृष्ण की अनुचरी और सखी शतचन्द्रानना ने इन त्रिदेव से यह प्रश्न किया कि आप लोग किस ब्रह्माण्ड से आये हो? यहाँ तो विरजा नदी में करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़के पड़े हैं। तब भगवान विष्णु ने जवाब दिया  कि वामन अवतार के समय आपके अँगूठे के प्रहार से जो ब्रह्म द्रव्य उत्सर्जित हुआ था उसके विस्तार का अनुगमन करते हुए हम लोग यहाँ तक पहुंचे हैं। इसको सुनते ही शतचन्द्रनना ने त्रिदेवों को पहचान लिया और भगवान कृष्ण से मिलाया।

इस प्रकरण से कई निष्कर्ष निकलते हैं-

1. जिन्हें हम मथुरा के कृष्ण के रूप में जानते हैं वे मूल कृष्ण नहीं हैं बल्कि कृष्ण के अवतार हैं।

2. भगवान विष्णु का उद्गम भी उन्हीं कृष्ण से हैं।

3. हम अंतिम ब्रह्माण्ड नहीं है बल्कि असंख्य ब्रह्माण्डों का अस्तित्व है।

4. गर्ग संहिता में जिस विरजा नदी का उल्लेख हैं वह बहुत बड़ी मंदाकिनी या गैलेक्सी का संकेत है, जिसमें हमारे जैसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं। आधुनिक खगोलशास्त्रियों को यह बात अब जाकर पता चली है।

5. अन्य ब्रह्माण्डों तक पहुँचने के लिए सूर्य की रोशनी की गति पर्याप्त नहीं है, क्योंकि ब्रह्मा विष्णु महेश की सत्ता हमारे सौर मण्डल से ऊपर है।

6. अवतार, सामान्य नक्षत्रों से चलकर पृथ्वी पर नहीं आते, बल्कि कृष्ण के नित्यधाम गौलोक या सत्यलोक जैसी सत्ता से आते हैं जो कि असंख्य आयामों से ऊपर है।

7. सामान्य जीव जगत इन लोकों तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि उनके साथ कर्म संचय रहता है। आत्मा जो कि निर्विकार है, वह कर्मों के भार के कारण उच्च लोकों में पहुँचने में सक्षम नहीं हैं। अगर बहुत कर्म भार है तो सामान्य नक्षत्रों तक ही पहुँच पाती है, जो कि गौलोक धाम के रास्ते में हैं।

जितना कर्म संचय नष्ट होगा, आत्मा का ऊघ्र्वगमन उतने ही उच्च लोकों की ओर होगा। सम्पूर्ण निर्विकार होने पर सत्यलोक की प्राप्ति हो सकती है।

क्या कर्म संचय नक्षत्रों में ही हैं?

भारतीय ज्योतिष में कर्मो का अवतरण नक्षत्रों से सूर्य या चन्द्रमा के माध्यम से ही पृथ्वी पर आना बताया गया है। फलित ज्योतिष जो कि वेदाङ्ग का ही एक भाग है, के अनुसार चन्द्रमा की भूमिका केवल इतनी ही है कि वे अपनी कक्षा में भ्रमण करते रहते हैं। अगर किसी नक्षत्र ने कृपा की तो नक्षत्र से उत्सृजित कर्म चन्द्रमा के माध्यम से पृथ्वी तक या प्राणी तक पहुँचते हैं। चन्द्रमा जिस नक्षत्र के आगे से गुजर रहे होते हैं, उस नक्षत्र से उत्सृजित कर्म चन्द्रमा से परावर्तित होकर पृथ्वी तक पहुँचते हैं। अखिल ब्रह्माण्ड में बहुत सारे कर्म नक्षत्र ऐसे हैं जो चन्द्रमा के कक्षा पथ में नहीं पड़ते परन्तु सूर्य उन्हें ग्रहण करके सौर मण्डल में प्रेषित करते है। बहुत सारे पृथ्वी पर आपतित नहीं होकर अन्य ग्रहों पर या अन्य नक्षत्रों की ओर चले जाते होंगे और उन कर्मों को इस जन्म में फलित ना होकर बाद के असंख्य जन्मों में से किसी एक में फलित होने का मौका मिलेगा। यहाँ चौरासी लाख योनियों की सत्ता महत्त्वपूर्ण हो जाती है। सुदर्शन चक्र का आविष्कार एक दार्शनिक व्यवस्था है जिसमें जन्म लग्न, चन्द्र लग्न और सूर्य लग्न नक्षत्रों से उत्सृजित केवल उन कर्मों का संचय या प्रतिग्रहण कर पाती है जिनको कि जीव के इसी जन्म में परिणाम देने होते हैं। अन्य जो कर्म विकीर्ण हो गये होते हैं और पृथ्वी पर आपतित नहीं हो पाते उन्हें अन्य जन्मों में या अन्य योनियों में फलित होने की व्यवस्था शेष रह जाती है।

चन्द्रमा में पितृलोक -

चन्द्रमा का वह अदृश्य भाग जो हमें कभी नहीं दिखता पितृ लोक कहलाता है। पृथ्वी से मुक्त सौर प्राण अधिकांशत: वहीं वास करते हैं, क्योंकि सबसे अधिक कर्म संचय वाले सौर प्राण अन्तरिक्ष में इससे आगे गमन नहीं कर पाते। अधिकांश सौर प्राण यहीं से पुनर्जन्म के लिए प्रेरित होते हैं। शतपत ब्राह्मण में ऐसे उल्लेख मिलते हैं। परन्तु यह सौर प्राण बिना नक्षत्र के प्रभाव के पृथ्वी पर वापिस आने में असमर्थ हैं। इसका सीधा सा अर्थ हुआ कि साधारण श्रेणी के विकार युक्त प्राण भी नक्षत्रों की अनुमति के बिना पृथ्वी पर आपतित नहीं हो सकते। यह बात अन्य ग्रहों पर भी लागू होती है। चूंकि ग्रह नक्षत्रों की तुलना में लघुकाय हैं इसीलिए नक्षत्रों का उन पर पूर्ण नियंत्रण हैं। क्या इससे यह तात्पर्य है कि ग्रहों की ऊपर की कोई सत्ता नक्षत्रों में वास करती है और उनकी अनुमति के बिना ग्रह अपना पूर्ण प्रभाव पृथ्वी तक प्रेषित करने में समर्थ नहीं है। क्या वे देवता पूर्णावतार से कुछ हीन योनि के देवता हैं?

27 या 28 नक्षत्र ही क्यों ?

भारतीय ज्योतिष वाङ्गमय की धारणा है कि नक्षत्रों का जीव पर प्रभाव सौर मण्डल की अनुमति के बिना नहीं हो सकता। इसीलिए उन्होंने सूर्य परिक्रमा पथ या क्रांतिवृत्त के मार्ग में पडऩे वाले नक्षत्रों का ही उपयोग भारतीय ज्योतिष में किया है। आधुनिक ज्योतिष जगत इस बात पर शोध कर सकता है कि क्या उस आकाश गंगा जिसमें कि हमारा सूर्य है, के कक्षा पथ में  पडऩे वाले बाह्य अंतरिक्ष के ब्रह्माण्डों से पृथ्वी पर आने वाले उन प्रभावों का भी आकलन कर सके जो कि अब तक के अज्ञात नक्षत्रों के माध्यम से पृथ्वी के जीव जगत तक पहुंचते हैं। यह बहुत रोचक होगा परन्तु इस शोध कार्य के लिए उन ज्योतिषियों को कार्य करना होगा, जिनकी बुद्धिमत्ता का स्तर पराशर, वशिष्ठ, गर्ग या अत्रि जैसा हो। असंभव कुछ भी नहीं है। हमें प्रतीक्षा रहेगी। इस युग में भी कम बुद्धिमान पुरुष नहीं है।

 

स्त्रियों के शुभ और अशुभ लक्षण

पूर्वकाल में ऋषियों ने स्त्रियों के जो शुभ-अशुभ लक्षण बतलाये हैं, वे इस प्रकार है-

जिस स्त्री के चरण लाल कमल के समान कान्ति वाले अत्यन्त कोमल तथा भूमि पर समतल रूप से पड़ते हों अर्थात् बीच में ऊँचे न रहें, वे चरण उत्तम एवं सुख-भोग प्रदान करने वाले होते हैं।

जिस स्त्री के चरण रूखे, फटे हुए, मांस रहित और नाडिय़ों से युक्त हों, वह स्त्री दरिद्रा और दुर्भगा होती है।

यदि पैर की अंगुलियाँ परस्पर मिली हों, सीधी, गोल, स्निग्ध और सूक्ष्म नखों से युक्त हों तो ऐसी स्त्री अत्यन्त ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाली और राजमहिषी होती है। छोटी अंगुलियाँ आयु को बढ़ाती हैं, परन्तु छोटी और विरल अंगुलियाँ धन का नाश करने वाली होती हैं।

जिस स्त्री के हाथ की रेखाएँ गहरी, स्निग्ध और रक्त वर्ण की होती हैं, वह सुख भोगने वाली होती है, इसके विपरीत टेढ़ी और टूटी हुई हों तो वह दरिद्र होती है।

जिनके हाथ में कनिष्ठा के मूल से तर्जनी तक पूरी रेखा चली जाए हो ऐसी स्त्री सौ वर्ष तक जीवित रहती है और यदि न्यून हो तो आयु कम होती है।

जिस स्त्री के हाथ की अँगुलियाँ गोल, लम्बी, पतली, मिलने पर छिद्ररहित, कोमल तथा रक्त वर्ण की हो, वह स्त्री अनेक सुख-भोगों को प्राप्त करती है।

जिसके नख बन्धुजीव-पुष्प के समान लाल और ऊँचे और स्निग्ध हों तो वह ऐश्वर्य को प्राप्त करती हैं तथा रूखे, टेढ़े अनेक प्रकार के रंग वाले अथवा श्वेत या नीले-नीले नखों वाली स्त्री दुर्भाग्य और दारिद्रय को प्राप्त होती है।

जिस स्त्री के हाथ फटे हुए, रूखे और विषम अर्थात् ऊँचे-नीचे एवं छोटे बड़े हों वह कष्ट भोगती है।

जिस स्त्री की अँगुलियों के पर्वों में समान रेखा हो अथवा यव का चिह्न होता है, उसे अपार सुख तथा अक्षय धन-धान्य प्राप्त होता है।

जिस स्त्री का मणिबन्ध सुस्पष्ट तीन रेखाओं से सुशोभित होता है, वह चिरकाल तक अक्षय भोग और दीर्घ आयु को प्राप्त करती है।

जिस स्त्री की ग्रीवा में चार अंगुल परिमाप में स्पष्ट तीन रेखाएँ हों तो वह सदा रत्नों के आभूषण धारण करने वाली होती है। दुर्बल ग्रीवावाली स्त्री निर्धन, दीर्घ ग्रीवा वाली बन्ध की, ह्रस्वग्रीवा वाली मृतवत्सा होती है और स्थूल ग्रीवावाली दु:ख-संताप प्राप्त करती है। जिसके दोनों कंधे और कृकाटिका (गर्दन का उठा हुआ पिछला भाग) ऊँचे न हों, वह स्त्री दीर्घ आयु की तथा उसका पति भी चिरकाल तक जीता है।

जिस स्त्री की नासिका न बहुत मोटी, न पतली, न टेढ़ी, न अधिक लम्बी और न ऊँची होती है वह श्रेष्ठ होती है।

जिस स्त्री की भौंहें ऊँची, कोमल, सूक्ष्म तथा आपस में मिली हुई न हों, ऐसी स्त्री सुख प्राप्त करती है। धनुष के समान भौंहें सौभाग्य प्रदान करने वाली होती हैं।

स्त्रियों के काले, स्निग्ध, कोमल और लम्बे घुँघराले केश उत्तम होते हैं।

हँस, कोयल, बीणा, भ्रमर, मयूर और वेणु (वंशी) के समान स्वर वाली स्त्रियाँ अपार सुख-सम्पत्ति प्राप्त करती हैं और दास-दासियों से युक्त होती हैं। इसके विपरीत फूटे हुए काँसे के स्वर के समान स्वर वाली या गर्दभ और कौवे के सदृश स्वर वाली स्त्रियाँ रोग, व्याधि, भय, शोक तथा दरिद्रता को प्राप्त करती हैं।

हँस, गाय, वृषभ, चक्रवाक व मदमस्त हाथी के समान चाल वाली स्त्रियाँ अपने कुल को विख्यात बनाने वाली और राजा की रानी होती हैं। श्वान, सियार और कौवे के समान गतिवाली स्त्री निन्दनीय होती है। मृग के समान गति वाली दासी तथा दु्रतगामी स्त्री बन्ध की होती है।

स्त्रियों का फलिनी, गोरोचन, स्वर्ण, कुंकुम अथवा नये-नये निकले हुए दूर्वाङ्कुर के सदृश रंग उत्तम होता है। जिन स्त्रियों के शरीर तथा अंग कोमल, रोम और पसीने से रहित तथा सुगन्धित होते हैं, वे स्त्रियाँ पूज्य होती हैं।

बड़े परिणाम हैं कनिष्ठा अंगुली के

कनिष्ठा अंगुली के नीचे बुध पर्वत होता है और यह अंगुली व बुध पर्वत मिलाकर आपकी बुद्धिमत्ता का स्तर तय करते हैं और आपके अवचेतन मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करते हैं। अंगुली लम्बी हुई तो आपका डेटा बैंक बड़ा हो जाएगा, अधिक सूचनाएँ संगृहीत करके उनका विश्लेषण कर सकेंगे, जबकि यह अंगुली छोटी हुई तो आप जल्दबाज हो जाएंगे। सब चीजों को एक झलक में ही देख लेना चाहेंगे, कई बातों की अपेक्षा भी कर सकते हैं, परन्तु यदि आपकी अंगुली नुकीली हो गई तो कम्प्यूटर की सी गति से निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं।

टेढ़ी अंगुली योग्यता का प्रतीक है, जबकि सीधी और सामान्य लम्बाई वाली अंगुली योग्यता का प्रमाण होती है। नुकीली अंगुली होना चालाकी और बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। अँगुली जब मुड़ी हुई होती है तो यह माना जाता है कि व्यक्ति किसी भी विधि से पैसा कमाएगा। उसमें बेइमानी का अंश भी आ सकता है।

इसके पास वाली अंगुली अनामिका कहलाती है। यदि अनामिका के बराबर लम्बाई की कनिष्ठा अंगुली हो तो व्यक्ति या तो राजनीति में जाता है या सामाजिक दृष्टि से अत्यंत प्रभावशील हो जाता है। यदि कनिष्ठा अंगुली का झुकाव अनामिका की ओर हो जाए तो वह व्यक्ति बुद्धिमानी से व्यापार करता है, उसकी लाभ की प्रवृत्ति हो जाती है और मूर्ख नहीं बनता। परन्तु यही अंगुली यदि अनामिका से दूर हो जाए तो व्यक्ति लोगों का सहयोग नहीं ले पाता, अकेला काम करना पड़ता है और संगठन शक्ति कमजोर होती है।

कनिष्ठा का पहला पर्व जिसे पोर्वा भी कहते हैं यदि लम्बा हो तो व्यक्ति की बुद्धिमत्ता का स्तर ऊँचा होता है और वह अच्छा वक्ता हो सकता है। दूसरा पर्व लम्बा हो तो व्यवहार कुशल होता है, वाणिज्य कुशल होता है। यदि तीसरा पर्व लम्बा हो तो व्यक्ति चालाक होता है और व्यवसाय में हर हथकण्डे अपनाता है।

कनिष्ठा पर चिह्न-

क्रॉस का निशान अच्छा नहीं होता, अशांति रहती है और एकाग्रता भंग हो जाती है।

पहले पोरवे पर नक्षत्र का चिह्न बुद्धिमानी देता है, दूसरे पोरवे पर नक्षत्र अपयश देता है और दूसरे पर्वत का त्रिभुज मनोवैज्ञानिक बना देता है। यदि यही त्रिभुज पहले पोरवे पर हो तो व्यक्ति को उच्च पद दिलाता है।

क्रॉस के निशान अशुभ होते हैं। जाली के निशान भी अशुभ होते हैं। गोल वृत्त और धब्बे भी अशुभ होते हैं। आड़ी रेखाएँ भावुकता की ओर ले जाती हैं, खड़ी रेखाएँ ही शुभ मानी गयी हैं।

तीनों पर्वों पर खड़ी रेखाएँ हों तो व्यक्ति को तकनीक कुशल, विश्वसनीय और सैद्धान्तिक बनाती हैं।

बुध पर्वत से सम्बन्ध -

कनिष्ठा अंगुली से ठीक नीचे बुध पर्वत होता है जिस पर विवाह और सन्तान रेखाएँ भी होती हैं। यह पर्वत उन्नत हो तो कनिष्ठा के गुणों में वृद्धि हो जाती है, बुध पर्वत पर कोई तिल निकल आवे तो अचानक नुकसान होता है और कनिष्ठा अंगुली के गुण दोष में बदल सकते हैं। बुद्ध पर्वत से ठीक नीचे हृदय रेखा प्रारम्भ होती है जो कि बृहस्पति की अंगुली या तर्जनी तक पहुँचती है। कनिष्ठा अंगुली के गुणों में वृद्धि हो जाती है अगर बुध पर्वत का झुकाव सूर्य पर्वत की ओर हो जाए। इसे ज्योतिष में बुधादित्य योग कहते हैं।

पंचतत्त्वों में से अंगूठे को अग्नि, तर्जनी को वायु, मध्यमा को आकाश, अनामिका को पृथ्वी और कनिष्ठा को जलतत्त्व से सम्बन्धित माना जाता है।

 

 

पूजन की विधि

ब्रह्म मुहूत्र्त में उठें। उठकर धर्म और अर्थ का चिन्तन करें। तत्पश्चात् शय्या से उठकर मल त्याग के बाद कुल्ला-दाँतन कर लें। फिर स्नान करके द्व्जि सन्ध्योपसना करें। विद्वान द्विज को उचित है कि वह शान्तिचित्त, संयमी तथा पवित्र होकर पूर्व सन्ध्या की उपासना उस समय प्रारम्भ करें जब कि प्रात:काल आकाश के तारे अभी कुछ दिखायी देते हों तथा पश्चिम संन्ध्या सूर्यास्त होने से पहले ही प्रारम्भ करे। इस प्र्रकार न्यायपूर्वक सन्ध्योपासना करते रहें। आपत्ति काल के सिवा कभी भी सन्ध्योपसना करते रहें। आपत्ति काल के सिवा कभी भी सन्ध्या कर्म का परित्याग नहीं करना चाहिए।

झूठ, असत्-प्रलाप तथा कठोर भाषण सदा के लिये त्याग दें। दुष्ट पुरुषों की सेवा, नास्तिकवाद तथा असत्शास्त्रों को भी सदा के लिये छोड़ दें। दर्पण में मुँह देखना,दाँतन करना, बाल सँवारना और देवताओं की पूजा करना- इन सब कार्यों को महर्षियों ने पूर्वाह्व में करने योग्य बताया है। पलाश की लकड़ी का असन, खड़ाऊँ ओर दाँतन भी वर्जित है। विद्वान पुरुष आसन को पैर से न खींचें। एकसा ही साथ जल और अग्नि को न ले जांय। गुरु देवता तथा अग्नि के सन्मुख पाँव न फैलायेें। चौराहा, चैत्य-वृक्ष, संन्यासी, विद्या में बढ़े हुए पुरुष, गुरु तथा वृद्धजल - इन सबको अपने दाहिने करके चलना चाहिए। धार्मिक पुरुष को आहार, विहार ओर मैथुन ओट में रहकर ही करने चाहिये। इसी प्रकार अपनी वाणी और बुद्धि की शक्ति, तपस्या, जीविका तथा आयु को अत्यन्त गुप्त रखना चाहिये। दिन में उत्तर दिशा की ओर मुँह करके मल और मूत्र का त्याग करना चाहिये तथा रात में दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके करना चाहिए। ऐसा करने से आयु नहीं घटती।

 

 

कर्क राशि और आप

राशि चक्र की चतुर्थ राशि कर्क है। यह जल तत्व राशि है। जल के गुणों निर्मलता, सौम्यता और लगातार बहते रहना या चलते रहना इस राशि के व्यक्तियों की विशिष्ट पहचान होती है। जल प्राणीमात्र के जीवनदायी है, आसन्न संकट से उबार लेना व जीवनी शक्ति बनकर मदद के लिए आ जाना ही इस राशि के व्यक्तियों का स्वभाव होता है और परोपकार के लिए जीन इनका उद्देश्य। यदि जल के प्रवाह को रोक दिया जाए तब भी बड़ी से बड़ी दीवार को गिराकर अपने लिए मार्ग खोज ही लेता है और बाँधों (Dams) के रूप में रुका हुआ यही जल विद्युत उत्पादन करता है। ठीक इसी तरह ‘कर्क’ राशि के व्यक्ति मुसीबत आने से पूर्व सक्रिय नहीं होते परंतु यदि ये कुछ करने की ठान लें तो इन्हें रोकना लगभग असम्भव है। भारत के अधिकांश प्रधानमंत्री व विशिष्ट व्यक्ति इसी राशि से किसी न किसी रूप में प्रभावित थे व हैं।

यह एक ‘चर’ राशि है। इसके स्वामी ग्रहों में रानी माने जाने वाले चंद्रमा हैं। चंद्रमा माता हैं इसलिए इस राशि के व्यक्तियों में दूसरों के प्रति कोमल भावनाएं सदैव रहती हैं व इनका Caring Attitude होता है, जिनसे ये स्नेह करते हैं उनकी सुरक्षा अपनी जिम्मेदारी मान लेते हैं। उन पर कोई आँच इन्हें बर्दाश्त नहीं होती। यह बहुत भावुक होते हैं, दूसरों को कष्ट में देखकर स्वयं को उस तराजू में तोलते हैं, इसलिए दूसरों के दर्द को अधिक समझते हैं परन्तु एक माँ की भांति यह भी कई बार केवल भावनाओं के वशीभूत होकर गलत निर्णय भी ले लेते हैं। साथ ही ये व्यक्ति जिनसे जुड़े होते हैं उन्हीं की बात मानना व सुनना पसंद करते हैं इसलिए इनके निर्णय कभी एकतरफा भी हो जाते हैं। इस राशि का चिह्न केकड़ा है। कर्क राशि के व्यक्तियों को जल के स्रोतों के निकट बहुत सुकून मिलता है। जल से संबंधित व्यापार या उत्पादनों से इन्हें लाभ होता है। हृदय की आकृति केकड़े के समान होती है। शरीर में कर्क राशि हृदय का प्रतिनिधित्व करती है।

इस राशि में पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषा नक्षत्र सम्मिलित होते हैं। पुनर्वसु नक्षत्र के स्वामी बृहस्पति, पुष्य के शनि तथा  आश्लेषा नक्षत्र के स्वामी बुध हैं। ‘पुष्य नक्षत्र’ के मुहूर्त कर्क राशि में पड़ते हैं, इसलिए बहुत शक्तिशाली होते हैं।