वास्तु शास्त्र में नैर्ऋत्य कोण

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

नैऋत्य कोण प्रेत-दोष का छिद्र कहा जाता है। इस कोण के दूषण से घर में जवान मौतें अधिक तथा आश्चर्य के साथ होती हैं। यदि मौतें नहीं हों तो पुत्र जीवित ही मृत्यु सम अर्थात् पिता का सबसे प्रबल शत्रु उसका पुत्र ही हो जाता है। परिवार में आसुरी प्रवृत्तियां बढ़ने लगती हैं। परिवार के सदस्यों को परिवार के पूर्वज स्वप्न में बार-बार दिखाई देने लगते हैं।

‘वराह मिहिर के अनुसार यदि नैऋत्य कोण में ‘सूची मुख’ (सूई बराबर) के समान भी यदि छिद्र हो तो उस स्थान पर आसुरी प्रवृत्तियां आने लगती हैं जिसके कारण परिवार में वैमनस्यता, वैचारिक मतभेद भी अत्यधिक होते हैं।

 

इसका एक और अन्य कारण यह है कि ठीक नैऋत्य को ‘पितृ’ का स्थान कहा जाता है। परिवार की सुख-शांति एवं वंशवृद्धि संतानोत्पत्ति बिना पितरों के आशीर्वाद व प्रसन्नता के संभव नहीं होती। इसलिए प्राचीन ग्रंथों में जहां सभी देवताओं के बड़े-बड़े पूजा विधानों को बतलाया गया है वहीं पितरों की शांति तथा उनकी प्रसन्नता हेतु भी यथोचित विधान बतलाए गए हैं। इसलिए यदि यह स्थान दूषित होगा तो पितरों को भी सुख प्राप्ति नहीं होगी। उनकी पुष्टि नहीं होगी। उनको दिया गया पदार्थ भी उनको प्राप्त नहीं होकर नष्ट हो जाता है और उनकी अप्रसन्नता से ‘प्रेत दोष’के परिणाम आने लगते हैं।

दक्षिण दिशा अति महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि अधिकाधिक दोष यदि किसी भूखण्ड में आते हैं तो वे दक्षिण से ही आते हैं। दक्षिण दिशा के स्वामी यम होते हैं। ‘यमराज’अति महत्त्वशाली देवता माने गए, ये काल स्वरूप माने गए हैं। अर्थात् जिसे ये दर्शन देते हैं वह फिर इस पृथ्वी पर नहीं रह सकता। यमराज पितरों (आत्माओं को) उनके लोक पितर लोक में ले जाने वाले हैं। जिन आत्माओं ने देह त्याग दी है और उन्हें यदि यमराज सामान्य रूप में मिल गए हैं तो निश्चित ही वे पितर लोक को चली जाती हैं लेकिन जिन्हें यमराज नहीं मिलते उनकी गति नहीं होती है। यम संबंधी क्रियाएं दक्षिणाभिमुख होकर की जाती है, यहां तक कि पितरों के निमित्त श्राद्धादि क्रियाएं या उनकी पुष्टि के लिए तर्पण आदि क्रियाएं भी दक्षिणाभिमुख होकर की जाती हैं।

जब किसी का दाह संस्कार किया जाता है तो कपाल क्रिया अर्थात् उस अंतिम यज्ञ की पूर्णाहुति के पश्चात पुत्र के द्वारा दक्षिण दिशा में ही आवाज लगाई जाती है। पिण्ड पितृयज्ञ में भी अध्वर्यु दक्षिणाभिमुख होकर पितरों को पिण्डदान करता है। तात्पर्य यह है कि पितर दोष के सुप्रभाव व कुप्रभावों के लिए दक्षिण दिशा अति महत्त्वपूर्ण होती है। पितर पितृ का ही अपभ्रंश है।

कहा भी गया है कि भूमि या भवन की दक्षिण दिशा नीची तथा उत्तरी दिशा ऊंची हो तो यमवीथि वास्तु कहलाती है अर्थात यम संबंधी दोष अधिक पाये जाते हैं। यमराज की असंतुष्टि से ही पितरों की गति नहीं होती और प्रेत दोष की अधिकता होती है। नैऋत्य से दोष आते हैं लेकिन दक्षिण से यमराज के द्वारा गति होती है, इसलिए पितर दोष में दक्षिण दिशा महत्त्वपूर्ण होती है।

वास्तु मंडल के बाहरी चारों कोणों में ईशानादि क्रम से 1. चरकी 2. विदारी, 3. पूतना 4. पाप राक्षसी आदि जो पूतनाएं हैं उनको कभी भी भवन के अंदर आमंत्रित (संरचनागत दोष से) नहीं करना चाहिए। वे हमारी वास्तु संरचना (अर्थात् वास्तु पुरुष की सहचरियां हैं) की रक्षक होती हैं आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं, केवल अपनी जगह रहकर ही।

लेकिन इन पूतनाओं के जहां स्थान हैं वहां पर यदि पूर्व वर्णित क्षेत्रों में से कोई भी दोष हो तो ये पूतनाएं घर में प्रवेश कर जाती हैं जिससे पारिवारिक कलह, अशांति, अविश्वास, पति-पत्नी के संबंधों में मधुरता की कमी, चोरी-चकारी, आश्चर्यजनक रूप से वस्तुओं का गुम होना, दुधमुंहे बच्चों में रोग जैसे मां का दूध न पीना, नींद न आना, नींद में चमकना या चिल्लाना आदि इस प्रकार के ये सभी रोग पूतना जन्य होते हैं। पूतनाएं होती तो चार ही हैं लेकिन इनके अतिरिक्त 12 पूतनाएं और भी होती हैं जो इनकी सहचरी हैं। ये क्रमशः योगिनी, सुनंदा, पूतना, मुखमंडिका, विडालिका, षट्कारिका, कालिका, कामिनी, मदना, रेवती, सुदर्शना, अद्भुता होती हैं।

इन सभी में से कोई भी पूतना दोष होने पर परिवार में उत्पात मचा सकने में सक्षम होती हैं।

इन दोषों के दुष्प्रभावों से बचने के लिए यथायोग्य विद्वान के द्वारा उन स्थानों का परीक्षण कराकरशास्त्रोक्त नियमों से दोष की निवृत्ति करें तथा वास्तुशोधन करें।

अवसाद और वास्तु दोष

डॉ. सुमित्रा अग्रवाल

 अवसाद या डिप्रेशन या मानसिक दबाव या उदासी एक तीव्र मानसिक रोग या सिंड्रोम है जिसमे सोचने समझने की क्षमता प्रभावित होती है। फलस्वरुप वह यथोचित निर्णय नहीं ले पता है और दु: में डूबा रहता है। अधिकतर यह अवस्था व्यक्ति के प्रेम संबंध में असफलता, अपने जीवनसाथी के प्रति बहुत अधिक लगाव और साथी से उतना प्रेम मिल पाना, प्रेम में धोखा या आपसी द्वन्द के कारण, घाटा, कर्ज या बीमारी उत्पन होती है। उग्र स्वभाव, कटु भाषा का प्रयोग, यहाँ तक की गाली-गलौज अत्यधिक शक करना, सर्वत्र निराशा, तनाव, अशांति, अरुचि आम लक्षण हैं। डिप्रेशन की अवस्था में व्यक्ति स्वयं को लाचार और निराश महसूस करता है। सुख, शांति, सफलता, खुशी सब बेमानी हो जाते हैं।

 डिप्रेशन के ज्यादातर रोगियों में नींद की समस्या होती है। डिप्रेशन के अनेक और भी कारण हैं - बैलेंस्ड डाइट नहीं खाना, शरीर में किसी मिनरल या विटामिन का अभाव, कुपोषण, आनुवांशिकता, हार्मोन में गड़बड़ी, मौसम के प्रभाव से, अप्रिय स्थितियों में लंबे समय तक रहना जैसे कि अभी के समय में कोरोना में कई करोड़ लोग डिप्रेशन से ग्रसित हो गए हैं, तनाव, गंभीर बीमारी के फलस्वरूप, नशा, मस्तिष्क के ट्यूमर  या कैंसर, जैवरासायनिक असंतुलन, कुछ औषधियों के साइड इफेक्ट (हाई ब्लड प्रेशर की दवा) आदि। डिप्रेशन लाइलाज रोग नहीं है, यह समय के साथ ठीक हो सकता है। यह अवसाद स्वाभाविक होता है किन्तु यदि यह दु: मन की गहराइयों में उतर जाता है तो इसका रोगी के शरीर एवं मानसिक दशा पर प्रभाव पड़ने लगता है और उसके व्यक्तित्व में परिवर्तन आने लगता है। भूख मर जाती है, वजन कम होने लगता है, अकारण ही चिंतित रहता हैविचित्र ध्वनियां सुनायी देने लगती हैं, अपने कार्य को सुचारु रूप से करने में असफल होता है।

स्त्री-पुरुष में महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा डिप्रेशन की शिकार अधिक होती हैं, इसके कई कारण होते हैं -

व्यक्तिगत, सामाजिक, विवाह के बाद ससुराल में अक्सर लड़कियों को डिप्रेशन का शिकार होते देखा गया है। आंकड़ों के अनुसार दस पुरुष में एक को डिप्रेशन होता है जबकि दस महिलाओं में हर पाँच को डिप्रेशन होता है।

डिप्रेशन ज्यादा होने से रोगी आत्महत्या तक कर सकते हैं, इसलिए घर वालों को ध्यान रहना चाहिए कि रोगी को अकेले में गुमसुम रहने दें, सकारात्मक बातें करें, अच्छे मनोचिकित्सक के पास ले जाएं।

डिप्रेशन सिर्फ आज के मानव को हो रहा है ऐसा नहीं है। श्रीमद् भगवत गीता जो कि हमारा धार्मिक ग्रन्थ है। उस महान ग्रन्थ का निर्माण भी अवसाद के कारण ही हुआ था। कुरुक्षेत्र में जब अर्जुन अपने प्रियजनों को युद्ध भूमि में देखते हैं तब श्री कृष्ण से दोनों सेनाओं के बीच रथ को ले जाने का आग्रह करते हैं और अवसाद में कर अपना गांडीव रख देते हैं। गीता का ज्ञान अर्जुन को अवसाद से निकलने के लिए ही श्री कृष्ण ने कहा था। आज छोटे-छोटे बच्चों को भी अवसाद होता है, वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारा खान-पान हमारी आंतों को इर्रिटेट करता है, हमारा भोजन आज सात्विक नहीं रह गया है और हम चिडचिड़े और अवसाद ग्रस्त पहले की अपेक्षा अधिक रहने लगे हैं। यहाँ तक की अनाज या फल या सब्जी में अधिक कीटनाशकों के इफेक्ट से भी अवसाद बढ़ रहा है। चीनी का सेवन भी इस रोग को बढ़ाता है।

उपचार - रोगी के अवसाद का कारण जानने की कोशिश करें और उसके निदान का प्रयास करें।  अगर रोगी चरमसीमा में हो तो आत्महत्या से बचाव से रास्ते करें।  रोगी के मनोबल को बढ़ाने का प्रयास करें, एलोपैथिक या होम्योपैथिक दवाओं का सहारा लें।

आहार - आहार, व्यवहार और विचार का सीधा सम्बन्ध है।  अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को बहुत ज्यादा स्पाइसी खाना नहीं खाना चाहिए, चीनी की मात्रा एक दम कम, सुबह उठ के गरम पानी, रात में भिगोए हुए बादाम, अखरोट खाना चाहिए। नाश्ते में - इडली, उपमा, दलिया, सेवई, दही, बेसन की रोटी जैसी चीजें खानी चाहिये।  फूड़ एलर्जी टेस्ट करके जिन चीजों से एलर्जी मिलें उनको बंद करना चाहिए। रक्त की जाँच करानी चाहिए और देखना चाहिए किन विटामिन्स या मिनरल्स की कमी है शरीर में, उनका सप्लीमेंट्स या मेडिसिन्स लेना चाहिए।

वास्तु दोष - आज का मानव ज्यादा विषाद ग्रस्त है, एक कारण खाना है और दूसरा कारण हमारा फ्लैट सिस्टम के घरों में रहना भी है। वास्तु पुरुष वास्तु के देव हैं और वह वास्तु सम्मत घरों में समृद्धि लाते हैं और उलंघन होने से देवता सम्बन्धी समस्याएं। नार्थ वेस्ट में  बना हुआ बेडरूम अवसाद देगा। नार्थ वेस्ट एक ऐसा जोन है जहाँ आपको सावधानी रखना ही चाहिए, तो यहाँ बेडरूम बनाएं, स्टडी रूम सामान रखने की जगह, मुख्य द्वार। अगर आपके घर में किसी को डिप्रेशन है तो अपना नार्थ वेस्ट को चेक करें और किसी सशाक्त वास्तु शास्त्र से सालाह लें।

 

चाणक्य के रत्न

नास्त्यर्धं: पुरुष रत्नस्य ।

 न स्त्रीरत्न समं रत्नम्।

सुदुर्लभं रत्नम्।

पुरुषरत्न से अधिक मूल्यवान कोई पदार्थ नहीं।

स्त्री रत्न के समान कोई रत्न नहीं।

रत्न बहुत दुर्लभ होते हैं।

साधारण तौर पर रत्न शब्द का व्यवहार मूल्यवान मणियों या जवाहर के अर्थ में होता है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में नव रत्नों का उल्लेख :- मोती, स्वर्ण, वैदूर्य (लहसुनिया), पद्मराग (माणिक्य), पुष्पराग (पुखराज), गोमेद, नीलम, गारुत्मत (पन्ना) तथा विद्रूम (मूंगा)। आजकल हीरा भी नवरत्नों में गिना जाता है।

प्राचीन काल में किसी बहुमूल्य तथा दुर्लभ वस्तु को भी रत्न की संज्ञा दी जाती थी। पौराणिक आख्यान के अनुसार देवों तथा असुरों ने अमृत की प्राप्ति के लिए समुद्र का मंथन किया था। इस मथन से अमृत सहित चौदह वस्तुएं प्राप्त हुई थी, जिन्हें चतुर्दश रत्न कहा जाता है। लक्ष्मी सहित चौदह वस्तुएं प्राप्त हुई थी, जिन्हें चतुर्दश रत्न कहा जाता है। लक्ष्मी, कौस्तुभमणि, सुरा, धन्वन्तरि, चन्द्रमा, कामधेनु, पारिजात वृक्ष, सुरेश्वर गज, रंभा अप्सरा, सप्तमुखी अश्व, विष, धनुष तथा शंख।

वैदिक काल की राज्य-व्यवस्था में राजा के मुख्य परामर्शदाता रत्न या रत्नी कहलाते थे। तैत्तिरीय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थों में इनकी सूचियाँ दी हुई हैं। इनमें राजपुरोहित, सेनापति, पटरानी, ग्रामप्रधान, कोषाध्यक्ष आदि गिने जाते थे। राज्याभिषेक तथा राजसूय यज्ञ में इनकी महत्वपूर्ण  भूमिका होती थी।

इसी वैदिक परम्परा के अनुसार विक्रमादित्य की सभा में नवरत्न थे। धनवन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शुक, बेताल भट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि। अकबरी दरबार के भी नौ रत्न प्रसिद्घ हैं।

चाणक्य ने जल, अन्न तथा सुभाषित को भी संसार के तीन रत्न कहा है।

रत्न बहुमूल्य तथा दुर्लभ होते हैं, उनकी आभा कभी कम नहीं होती तथा उनमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। इन्हीं गुणों को लेकर कालान्तर में ऐसे लोगों को भी नर-रत्न कहा जाने लगा जिन्होंने जीवन के किसी भी क्षेत्र में अक्षय कीर्ति प्राप्त की हो। भारत सरकार की ‘भारत-रत्न’ की सर्वोच्च उपाधि इसी प्रसंग में रखी गयी है।

रत्न बहुमूल्य होते हैं, इसी प्रकार नर-रत्न भी समाज की बहुमूल्य संपत्ति होते हैं। इनका महत्व अन्य सभी संपदाओं की अपेक्षा अधिक होता है।

फिर कहा है कि स्त्री के समान कोई रत्न नहीं होता। इससे पता लगता है कि प्राचीन काल में नारी को कितना महत्व दिया जाता था। मनु ने कहा हैः ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः,’’ अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं।  नारी को रत्न इसलिए कहा है कि भार्या पत्नी के रूप में वह गृहस्थ का संचालन करती है और माता के रूप में सन्तान उत्पन्न करती है तथा उनका लालन पालन करती है।

जिस प्रकार रत्न दुर्लभ होते हैं उसी प्रकार नर-रत्न तथा नारी-रत्न भी दुर्लभ होते हैं। इसका अर्थ यह है कि धर्म के अनुसार अपने कर्त्तव्यों का सच्चाई से पालन करने वाले नर-नारी बहुत कम मिलते हैं।

 

पंचांग में करण

स्व. पं. रामचंद्र जोशी

‘तिथ्यर्द्घम् करणमुच्यते’के अनुसार तिथि के आधे भाग का नाम करण है। करण कुल ग्यारह हैं। इनमें चार स्थिर तथा सात की संज्ञा चल है। स्थिर करण - 1. शकुति, 2. चतुष्पाद, 3. नाग, 4. किंस्तुहन है।

कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्द्घ में शकुनि, अमावश्या में चतुष्पाद और नाग तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्द्घ में किंस्तुहन करण प्रतिमाह देखे जा सकते हैं।

चर या चल करण सात हैं यथा -

1. बव, 2. बालव, 3. कौलव, 4. तैतिल, 5. गर, 6. वणिज, 7. विष्टि या भद्रा

शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के उत्तरार्द्घ में बालव करण रहता है फिर क्रमशः प्रतिलिपि दो दो करण चक्र चलता रहता है।

विष्टि करण का नाम ही भद्रा है। मध्यमान से इसका काल  30 घटि का है परन्तु तिथिमान से यह कम-अधिक होता रहता है।

विष्टि करण अशुभ है। इसे त्यागना चाहिए।

शुक्ल पक्ष की अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वाद्घ में भद्रा या विष्टि रहती है। समुद्र तट के निकट रहने वाले ज्वार-भाटा का प्रभाव प्रत्यक्ष देखते हैं। इसी पक्ष में चतुर्थी और एकादशी के उत्तरार्द्घ में विष्टि या भद्रा रहती है। शुक्ल पक्ष की भद्रा की संज्ञा वृश्चिक (बिच्छु) है। बिच्छु की पूंछ घातक होती है। ठीक इसी तरह इसकी पूंछ भी विशेष अशुभ प्रभावी है। पूंछ से आशय 3 घटि का अशुभ समय है। पुच्छ या पूंछ निकालने के लिए गणित की क्रिया करनी पडती है।

कृष्ण पक्ष की तृतीया और दशमी के परार्द्घ में, सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्वार्द्घ में भद्रा रहती है। कृष्ण पक्ष की भद्रा की संज्ञा सर्पिणी है। सर्पिणी का मुख घातक रहता है। मुख विशेष अशुभ फलदायी है। यह मुख पांच घटी का होता है।

विष्टि या भद्रा के मध्यमान 30 घटिका विभाजन इस प्रकार हुआ है यथा

                मुख =  5 घटि                         नाभि = 4 घटि

                गला =  1 घटि                       कमर = 6 घटि

                छाती = 11 घटि                    पूंछ  = 3  घटि

यदि तिथिमान 60 घटि से अधिक है तो इनका मान बढ जाता  है और 60 घटि से कम है तो इनका मान घट जाता है। गणित की प्रक्रिया से इसे ज्ञात कर लेना है। भद्रा के छः अंगों का फल इस प्रकार है यथा :-

1.            मुखकाल में कार्य करने से हानि।

2.            गले के काल में मृत्यु।

3.            छाती के काल में दरिद्रता।

4.            नाभि के काल में च्युति या पतन।

5.            कमर के काल में उन्मत्तता या पागलपन

6.            पूंछ के काल में जय या सफलता।

इस तरह विष्टि या भद्रा का पुच्छ काल शुभ माना गया है।

श्रावणी (रक्षाबंधन) फाल्गुनी (होलिका दहन) ये दो कार्य भद्रा में कदापि नहीं करने चाहिए। श्रावणी करने से शासक का विनाश और फाल्गुनी करने से राष्ट्र का विनाश कहा गया है।

ज्योतिष, दर्शन एवं धर्मशास्त्र का संबंध

डा. कैलाश नाथ शर्मा

सामान्यतः जब कोई दुख या समस्या सामने आती है तो अनेक व्यक्ति जन्म-पत्र लेकर ज्योतिषी के पास जाते हैं। यदि एक ज्योतिषी गणित ज्योतिष से पूर्ण रूप से परिचित नहीं है तो भी फलित ज्योतिष के आधार पर आगन्तुक को ग्रहों का फल, ग्रहों के आधार पर दुख अथवा समस्या का कारण बतला देता है। इस प्रक्रिया में वह जन्मांग में लग्र चन्द्रमा तथा भावों के परिप्रेक्ष्य में वहाँ की स्थिति, उनका स्वामित्व एवं दृष्टि और उनके बल पर विचार करता है। किस ग्रह की दशा चल रही है और गोचर में ग्रहों की स्थिति  क्या है- ये दोनों प्रश्न आगन्तुक की वर्तमान परिस्थिति को स्पष्ट करने में सहायक होते हैं।

यदि आगन्तुक की समस्या साधारण है और ग्रहदशा  और गोचर के अनुसार शीघ्र हल हो जायेगी तो उसे मानसिक शान्ति मिल जाती है। परन्तु प्रायः दुख या समस्या का निदान दीर्घकालीन है अथवा निदान है ही नहीं तो आगन्तुक की समस्या हल नहीं होती। वह केवल यह जानकर क्या करेगा कि अमुक ग्रह की दशा के बाद समस्या हल हो जायेगी। वह प्रतीक्षा नहीं करना चाहता है। इसलिए ज्योतिषियों का कर्तव्य हो जाता है कि ग्रहों की शान्ति के उपाय भी बतायें। इसके लिए ज्योतिषी को धर्म शास्त्र का सहारा लेना पडता है। फिर  भी मन की शान्ति सरल नहीं होती। इसलिए ग्रहों के फल से  जुडे हुए दार्शनिक पक्ष का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है, ताकि आगन्तुक  को वस्तुस्थिति को सहर्ष स्वीकार करने में कुछ सहारा मिले।

                ज्योतिष के सन्दर्भ में दार्शनिक विचार इस प्रश्न से जुडे हैं कि क्या ग्रहों की मनुष्यों से शत्रुता या मित्रता होती है।  यदि नहीं तो उनके प्रतिकूल अथवा अनुकूल फल क्यों होते  हैं? इन प्रश्रों का उत्तर कर्म-सिद्घान्त से ही दिया जा सकता है। कर्म सिद्घान्त के कई पहलू हैं! पहला यह है कि कर्ता को अपने कर्म के फल भोगने पडते हैं। अच्छे (पुण्य) कर्मों का फल अच्छा होता है और खराब (पाप) कर्मों का फल बुरा होता है। कर्मफल के इस सूत्र के विस्तार में बहुत सी बातें आती हैं। उनकी चर्चा इस छोटे लेख में सम्भव नहीं।

                अब प्रश्र उठता है कि कर्ता कौन है? पाणिनि ने अपनी ‘अष्टाध्यायी’में एक सूत्र दिया- ‘स्वतन्त्रः कर्ता’! कर्ता स्वतन्त्र होता है! इस स्वतन्त्रता को स्पष्ट किया भट्टोजी दीक्षित ने ‘सिद्घान्त कौमुदी’ में! उन्होंने कहा ‘क्रियायाम् स्वातन्त्रयोग विवक्षितो अर्थः कर्ता स्यात्’! जो व्यक्ति अपनी क्रिया के द्वारा अपने जिस मन्तव्य को व्यक्त करना चाहता है और उसने अपना मन्तव्य स्वयं तय किया है, स्वतंत्रता से किया है तो वही कर्ता है। इस व्याख्या से यह स्पष्ट है कि बाह्य क्रिया, कर्ता के मन में उसका अर्थ तथा स्वतन्त्रता से अपना अर्थ निश्चित करना- ये तीनों बातें महत्वपूर्ण हैं! अक्सर यह भी होता है कि एक क्रिया किसी लक्ष्य से की गई पर अप्रत्याशित फल भी मिल गया और जिस फल को कर्ता पाना चाहता था वह नहीं मिला।

                इसका उत्तर पाने के लिए पुनर्जन्म के सिद्घान्त को समझाना पडेगा। यह जन्मांग में अन्तर्निहित है। एक व्यक्ति के जन्म के देश-काल के अनुसार जन्मांग बना। जन्म के समय उस व्यक्ति ने कोई कर्म नहीं किया, जिसका फल उसे सारे जीवन मिलता रहे! अतः जन्मांग में अन्तर्निहित है। जन्मांग केवल पिछले जन्म या जन्मों के कर्मांे के फलों को ही स्पष्ट करता है। जब एक व्यक्ति मरता है तो उसकी आत्मा के साथ ‘लिंग शरीर’ (सूक्ष्म रूप में) जाता है। यह उसके कर्मों का रिकार्ड है। विशेष रूप से उन अच्छे बुरे कर्मों का जिनका फल पिछले जन्म में पूरा नहीं हुआ। इनका फल भोगने के लिए अनुरुप माता-पिता परिवार एवं परिस्थितियाँ मिलती हैं।

अब प्रश्न उठता है कि यदि कर्मफल ही सब कुछ है तो ग्रहों का क्या प्रभाव है? न्याय दर्शन के अनुसार सभी घटनाओं के दो कारण माने जाते हैं- ‘उपादान’और  ‘निमित्त’। उपादन कारण कार्य में रहता है। उदाहरण के लिए मिट्टी के घडे में है। निमित्त कारण बाहरी होते हैं। इसी उदाहरण में कुम्हार, चाक और चाक घुमाने का डण्डा निमित्त कारण है। इसी प्रकार एक व्यक्ति के पूर्वजन्म एवं इस जन्म के कर्म उपादान कारण है। ग्रह केवल निमित्त कारण है। ग्रहों की शान्ति निमित्त कारणों पर प्रभाव डाल सकती है। परन्तु उपादान कारणों के उपाय के रूप में प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों पर विचार करना पडेगा।

यथासंभव उन्हें सुधारना होगा तभी पूर्ण यथेच्छ फल प्राप्त हो सकता है।

                उपर्युक्त विवेचन से दो निष्कर्ष निकलते हैं। पहला निष्कर्ष यह कि ज्योतिष के ज्ञान का दर्शनों एवं धर्मशास्त्र से घनिष्ठ संबंध है। एक सफल ज्योतिषी को इनका भी ज्ञान होना चाहिए। दूसरा निष्कर्ष यह है कि प्रश्रवाचक आगन्तुक  को ग्रहों एवं कर्म के फलों के ज्ञान के आधार सान्त्वना देना, परामर्श देना भी ज्योतिषी का कर्तव्य है। दार्शनिक आधार पर मन की शान्ति की युक्तियाँ बताना समुचित परामर्श की आत्मा है।