उफ़! फिर से ये वक्री ग्रह

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर, नेशनल दुनिया

सारी दुनिया परेशानी में चल रही है। धरती के हर भाग पर कोई न कोई समस्या चल रही है। कहीं तूफान हैं, कहीं बर्फबारी है, कहीं जंगलों में आग है तो कहीं बाढ़ है। कोरोना ही नहीं और बहुत सारी आपदाएँ एक साथ चल रही हैं। ज्योतिष में इन सब का विश्लेषण उपलब्ध है और भविष्यवाणियाँ करना संभव है। ज्योतिष का एक भाग मेदिनी ज्योतिष कहलाता है जो कि राष्ट्र, मौसम, फसल, वर्षा, अकाल इत्यादि से सम्बन्धित है। मेदिनी ज्योतिष में हम यह अध्ययन करते हैं कि इन ग्रहों का राष्ट्र पर, प्रशासन पर, प्रशासन और जनता के सम्बन्धों पर और देश की माली हालत पर क्या प्रभाव पड़ेगा? मेदिनी ज्योतिष के अन्तर्गत ही हम ग्रहण, भूकम्प, अकाल, बाढ़, युद्ध, परराष्ट्र सम्बन्ध, मौसम, फसल उत्पादन व ग्रहों के उत्पात से घटने वाली घटनाएँ देखा करते हैं। इन सब की विवेचना में ग्रहों की गति व ग्रहों के योग अति महत्त्वपूर्ण होते हैं, बल्कि पूर्णिमा, अमावस्या और इन पर पड़ने वाले ग्रहण तो विशेष महत्त्व के होते हैं। ऐसे में अगर ग्रह अपनी गति बदलने लगे, कमी या ज्यादा करने लगें तो अन्तर्राष्ट्रीय जगत तक भी बुरी तरह प्रभावित हो जाते हैं।

 

जैसे शनि तो वक्री चल ही रहे थे, अब बृहस्पति भी वक्री हो गये हैं। शनि और बृहस्पति बड़े ग्रह हैं और इनकी कक्षाएँ भी पृथ्वी की कक्षा से बाहर हैं। अब ये दोनों ग्रह वक्री होकर एक ही राशि मकर में आ गये हैं। उस पर भी वृषभ राशि में बैठे राहु से दृष्ट हो गये हैं। मेदिनी ज्योतिष में यही बात महत्त्वपूर्ण है कि भारत की जन्म लग्न से तीनों त्रिकोण में 5 ग्रह हैं और भारत को बहुत अधिक प्रभावित करने वाले हैं। इतने ग्रहों का एक साथ केन्द्र में होना पूरी धरती को भी प्रभावित करेगा। घटनाओं का स्वरूप बड़ा हो जायेगा। ऐसी घटनाएँ आने वाले महीनों में घटेगी, जिसके बारे में सोचा भी नहीं होगा और बड़ी शक्तियाँ विचलित हो जाएंगी। घात-प्रतिघात और भी तीव्र हो जाएगा। कई देश व्यवहार में दिखाएंगे कुछ और तथा करेंगे कुछ और। मेदिनी ज्योतिष के अन्तर्गत कुछ बातें ऐसी हैं जो व्यक्तिगत ज्योतिष से मेल नहीं खाती, जैसे व्यक्तिगत ज्योतिष में ग्रहों का एक -दूसरे से केन्द्र में होना शुभ  माना गया है परन्तु मेदिनी ज्योतिष के अन्तर्गत एक दूसरे से केन्द्र में बैठे ग्रह खासतौर से 90 और 180 अंश पर बैठे ग्रह अशुभ परिणाम देते हैं। परन्तु त्रिकोण दृष्टि शुभ मानी गयी है। अभी-अभी हमने जो भारत और विश्व के संदर्भ में यह बात कही थी कि राहु से त्रिकोण में 4 और भी बड़े ग्रह हैं और ये शुभ फल भी देने वाले हैं, तो वह क्या हो सकते हैं? इसका सीधा सा अर्थ है कि शनि और बृहस्पति के वक्री होने से न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में सरकारों के चरित्र बदल सकते हैं, कई जगह शासन बदलने की प्रक्रियाएँ होंगी, कई जगत विद्रोही गतिविधियाँ बढ़ेंगी। हिंसा और प्राकृतिक दुघर्टनाएँ बढ़ेंगी परन्तु चूंकि ग्रह युति शुभ मानी गयी है, इसीलिए फसल उत्पादन बढ़ेगा, व्यावसायिक गतिविधियाँ बढ़ेंगी। सकल राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ेगा। सरकारों की आय बढ़ेंगी, प्रतिव्यक्ति आय बढ़ेंगी, मँहगाई में कमी आएंगी और नये-नये सत्ता समीकरण बनेंगे। कई राष्ट्रों की सम्पन्नता बढ़ेगी। भारत में भी प्रति व्यक्ति आय बढ़ेगी। सरकार की आय बढ़ेगी। व्यवसाय भी बढ़ेंगे। कोरोना की तीसरी लहर के डर के बाद भी व्यवसाय बढ़ेगा। मकर राशि में वक्री बृहस्पति कोरोना को बढ़ाते हैं और चूंकि भारत की प्रभाव राशि मकर में ही स्थित हैं, इसीलिए भारत में किसी न किसी रूप में यह लहर रहेगी और इसे सरकारें नियंत्रित भी कर लेगी।

ग्रह अपनी सामान्य चाल में अच्छे रहते हैं। वे जब वक्री होते हैं तो विशेष परिणाम देने लगते हैं। एक से अधिक ग्रहों का तो वक्री होना अच्छा नहीं होता। 9 में से 2 ग्रह राहु और केतु तो सदा ही वक्री रहते हैं, अब मान लो शनि और गुरु वक्री हो गये तो 9 में से 4 ग्रह वक्री हो गये, अगर एक ग्रह और वक्री हो जाए तो एक साथ 5 ग्रह वक्री होने पर ग्रहों के मंत्रिमण्डल का संतुलन बिगड़ जायेगा, तो 27 सितम्बर को बुध ग्रह भी वक्री होने वाले हैं। बाद में बृहस्पति की तरह ही वह भी तुला से कन्या में वापिस आ जाएंगे और 2 अक्टूबर के बाद राहु से त्रिकोण में कई ग्रह हो जाएंगे। इनकी संख्या 5 हो जाएगी। यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है। अर्थात् इतने सारे वक्री ग्रह, ग्रहों के शक्ति संतुलन में असर डालने ही वाले हैं। तो हम यह अर्थ लें कि सितम्बर का आखिरी सप्ताह और अक्टूबर के पहले 15 दिन अति महत्त्वपूर्ण घटनाओं वाले सिद्ध होंगे। एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ग्रहों की एक दूसरे से त्रिकोण में जो स्थिति है, वह तो बहुत अधिक शुभ परिणाम लाने वाली है जो कि कृषि क्षेत्रों में, मँहगाई के मामले में, अन्न उत्पादन के मामले में, सकल राष्ट्रीय उत्पादन के मामले में अति शुभ फल प्रदान करने वाली है। परन्तु इतने सारे ग्रहों के वक्री होने का परिणाम खराब घटनाओं के रूप में सामने आने वाला है। हमें बहुत अधिक सावधान रहना पड़ेगा। पूरे देशवासियों को पूजा-पाठ का स्तर बढ़ा देना पड़ेगा। हिंसक घटनाओं से सावधान रहना पड़ेगा। राष्टाध्यक्षों को अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में तनाव हटाने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करनी पड़ेगी। भारत का प्रभाव क्षेत्र और व्यापक हो जाएगा। परन्तु शासक वर्ग में किसी न किसी कारण से बहुत अधिक बैचेनी देखने को मिलेगी।

 

 

 

 

अप्रयोज्य-प्रयोज्य

शासनाधिकारियों के, राजनीतिकों, नगर श्रेष्ठियों या साधारण जन के घर में हर चीज को प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। शास्त्रों में हर वस्तु का या चित्र का विश्लेषण किया गया है, उनमें से कुछ विषयों का उल्लेख इस लेख में किया जाता है।

सभी देवताओं को प्रयोज्य नहीं माना है। दैत्य, ग्रह, तारा गंधर्व, राक्षस, पिशाच, पितर, प्रेत, सिद्ध पुरुष, विद्याधर, नाग, चारण, भूतों का कुल व उनकी स्ति्रयां और पुत्र, उनके शस्त्र और अस्त्र व सभी अप्सराओं के गण इत्यादि के चित्र  या मूर्तियां इत्यादि भवन में प्रयोज्य या प्रशस्त नहीं माने गए हैं।

दीक्षित, वृती, पाखण्डी, नास्तिक, क्षुधा से व्याकुल, व्याधि, बंधन, शस्त्र, अग्नि, तैल, रुधिर, कीचड़, धूल, शूल और ज्वर से पीड़ित लोग, मत्त, उन्मत्त, जड़, नपुंसक, नंगे, अंधे और बहरे भी घर में चित्र, मूर्ति या साक्षात व्यक्ति प्रशस्त नहीं माने गए हैं। हाथियों का ग्रहण, महाभारत जैसे संग्राम, देवासुर जैसे संग्राम व युद्ध के दृश्य भी प्रशस्त नहीं माने गए हैं।

प्राणियों का युद्ध, उनका विमर्दन या शिकार भी प्रशस्त नहीं मानी गई है। रौद्र, दीन, अद्भुत, त्रास, वीभत्स और करुण रस भी प्रशस्त नहीं माने गए है। भवन के अलंकरण में हास्य और शृंगार रस ही शुभ माने गए हैं, अन्य रस शुभ नहीं माने गए हैं। आंतरिक सज्जा में या भित्ति चित्रों में शृंगार रस की प्रधानता शुभ मानी गई है परंतु प्रणय दृश्य अंतःवास में ही शुभ माने गए हैं, सार्वजनिक स्थानों में अशुभ माने गए हैं।

वन, पुष्प फल से रहित वृक्ष, पक्षियों के रहने से दूषित वृक्ष, केवल एक या दो शाखाओं वाले वृक्ष, रूखे, टूटे, सूखे हुए, खंडित और कोटर (पक्षियों के रहने का स्थान) वाले वृक्ष के साथ-साथ कदम्ब, शाल्मली, शैलु, तार, क्षार आदि वृक्ष भी भूतों के निवासियों के माने जाने के कारण शुभ नहीं माने गए हैं। कड़वे और कांटेदार वृक्ष भी प्रशस्त नहीं माने गए हैं। गिद्ध, उल्लू, कबूतर, बाज, कौआ और कंक आदि पक्षी भी अशुभ माने गए हैं। जो पक्षी रात्रि में जागते हैं, उन्हें भी भवन में शुभ नहीं माना है। हाथी, घोड़ा, भैंस, ऊंट, बिल्ली, गधा, बंदर, सिंह, व्याघ्र, सुअर, हिरन व सियार आदि पक्षी शुभ नहीं माने गए हैं।

परंतु कुछ वस्तुएं ऐसी है, जिनका प्रयोग घर में शुभ माना गया है। इष्टदेवता का एक हाथ तक का चित्र शुभ माना गया है। भवन के दरवाजों के दोनों तरफ दो अलंकृत प्रतिहारों का चित्र या मूर्ति बनाना चाहिए। दोनों प्रतिहार या रक्षक बेंत की छड़ी हाथ में लिए हों, तलवार और म्यान को धारण किए हों। रूप और यौवन से युक्त तथा अलंकृत वस्त्राभूषणों से सजे प्रतिहार शुभ माने गए हैं। बड़े भवनों में यह फैशन अब पुनः लौटने लगा है।

अपने अनुरूप शंख और कमल से चित्र मुख से निकलते हुए रत्न और अशर्फियों के ढेरों को धारण करते हुए खजाने भी शुभ माने गए हैं। इसी भांति पद्म पर बैठी हुई पूर्ण कुंभ वाली रत्न और वस्त्रों से विभूषित टेढे एवं ऊंचे उठे हुए पुष्प, फल और पत्तों से भरे हुए पूर्ण कुंभ, अंकुश, छत्र, बिल्ववृक्ष, आदर्श अर्थात शीशा और शंख और मछलियों की मालाओं से अलंकृत अष्टमंगला गौरी से द्वार को सुशोभित करना प्रशस्त माना गया है।

पिंजरे में बैठे हुए चकोर, तोते, सारिकाएं, कोयल, मयूर और मुर्गी भी शुभ बताए गए हैं। ये जीवित या मूर्ति रूप में भी शुभ माने गए हैं।

 

भूत-प्रेत-पितर-पिशाच

डालचंद प्रजापति

ज्योतिष के विभिन्न ग्रंथों में जातकों को भूत, प्रेत, पितर, पिशाच जैसी आसुरी शक्तियों से पीड़ित होने का वर्णन मिलता है। मन में प्रश्न उठता है कि ऐसे कौन से लक्षण या कारण होते हैं जब किसी जातक की जन्मपत्रिका के आधार पर व्यक्ति को भूत-प्रेत जैसी बाधा से पीड़ित माना जा सकता है। विभिन्न ज्योतिष गं्रथों के अनुसार भूत, प्रेत, पितर, पिशाच आदि दोषों अथवा बाधाओं से पीड़ित व्यक्ति की जन्मपत्रिका में ऐसे योग मिलते हैं। ज्योतिष में पाप एवं कू्रर ग्रहों को मानसिक संताप आदि बाधाओं का कारक माना जाता है। पाप-कू्रर ग्रहों में मुख्यतः राहु, केतु, शनि, सूर्य, मंगल आते हैं। किसी भी मानसिक या आत्मिक कष्ट, पीड़ा, संताप, दुःख आदि के लिए मन या आत्मा का दूषित प्रभाव में आ जाना मुख्य कारण होता है, उपर्युक्त कारण की पुष्टि करने पर भूतादि बाधाओं का पता स्वतः ही चल जाता है।

ज्योतिष में मन के कारक चंद्रमा और आत्मा के कारक सूर्य  माने जाते हैं। जन्मपत्रिका में जब ये मन और आत्मा के प्रतिनिधि ग्रह कू्रर-पाप ग्रहों से पीड़ित हो जाते हैं तो भूतादि बाधाएं होने के संकेत मिल जाते हैं। विभिन्न शास्त्रों में दिए गए भूत, पिशाच, प्रेत, पितृ आदि बाधाओं के निम्र (योग, युति) कारण माने जाते हैः-

1.   लग्र में स्थित सूर्य, राहु से युत या दृष्ट हों।

2.   लग्न में स्थित चंद्र, राहु से पीड़ित या युत हों तथा पंचम-नवम भाव में शनि आदि कू्रर ग्रह हों।

3.   लग्न में शनि-राहु की युति हो।

4.   अष्टम भाव में शनि-चंद्र अथवा राहु-चंद्र युति हो।

5.   अष्टम भाव में पाप दृष्ट शनि हों तथा सप्तम भाव में राहु या केतु हों।

6.   अष्टम भाव में केतु, पाप ग्रह से युत या दृष्ट हों।

7.   शनि-राहु की द्वितीय भाव में युति हो।

8.   लग्न में केतु और बुध की युति हो।

9.   कुंडली में सर्प योग बनता हो।

10.  नवांश कुंडली में राहु-गुरु से चांडाल योग हो।

11.  मांदि (गुलिक) बाधक भाव में स्थित हो।

भूत प्रेतादि बाधा के अन्य कारण

1.   जिनके निवास स्थान की भूमि में शल्य (अशुभ वस्तुएँ)हो।

2.   कोई विशेष वास्तु दोष हो।

3.   जो जातक भूत, प्रेत, पिशाच, जिन्न आदि की आराधना (वामाचार) करते हों।

4.   जो जातक निरंतर तामसिक भोजन, मांस-मदिरा, व्यभिचार आदि करते हों।

5.   खाली मकान, दूषित स्थान, एकांत स्थान, आक, पीपल आदि के पेड़ों में भी समय विशेष में इनका निवास माना जाता है।

भूतादि बाधा के दुष्परिणाम

1.   जातक के मन में निरंतर भय बना रहता है, तनाव, अवसाद, अनिद्रा आदि होते रहते हैं।

2.   व्यक्ति की कार्यक्षमता निरंतर क्षीण होती जाती है, मनोरोगी हो जाता है तथा उसे विभिन्न प्रकार के स्वप्र आने लगते हैं।

ऐसी और भी अनेक परिस्थितियाँ हैं जो पैशाचिक बाधाओं के कारण व्यक्ति को भोगनी या सहनी पड़ती हैं तथा ऐसा ही नहीं है कि इन सभी समस्याओं की एकमात्र कारण ये आसुरी शक्तियां ही हों, अन्य परिस्थितियाँ रोग आदि भी हो सकती हैं परंतु सामान्यतः इन आसुरी शक्तियों (भूतादि) द्वारा ये समस्याएं उत्पन्न की जाती है।

पैशाचिक बाधाओं के निवारण के धार्मिक-शास्त्रोक्त उपाय

1. इन बाधाओं से पीड़ित व्यक्ति अथवा उस व्यक्ति की ओर से अन्य व्यक्ति निम्र स्तोत्रों का पाठ करें तो लाभ मिलता है-

     क.   सुंदरकाण्ड का पाठ

     ख.   हनुमान चालीसा का पाठ

     ग.   बजरंग बाण का पाठ

     घ.   राम-रक्षा स्तोत्र का पाठ

     च.   शिव-कवच, दुर्गा-कवच, नृसिंह-कवच आदि का ब्रह्म मुहूर्त में पाठ

     छ.   महामृत्युञ्जय मंत्र का विधिपूर्वक जाप

     ज.   रामायण की चौपाइयों या विष्णु सहस्रनाम का पाठ

2.   भागवत कथा का श्रवण करें।

3.   पितृ दोष होने पर नारायणबलि, श्राद्ध कर्म विधानपूर्वक कराएँ।

 

नान्दि-श्राद्ध

नान्दि श्राद्ध एक विशेष पूजन प्रक्रिया होती है, जो पितरों के निमित्त की जाती है। कोई भी शुभ मांगलिक कर्म हो, देवताओं के साथ पूजा के प्रारम्भिक कृत्यों में ही नान्दि श्राद्ध किया जाता है। नान्दि पितर दिव्य पितरों की श्रेणी में आते हैं।

शास्त्रों में जहां कहीं पितरों की चर्चा की गई हैं, वहां पितरों के तीन प्रकार बतलाये हैं। ‘पर-मध्यम और अवर’इन्हें ही क्रमशः नान्दि, पार्वण और प्रेत पितर भी कहा जाता है। तीनों प्रकार के पितरों का निवास भी पृथक-पृथक स्थानों पर होता है। नान्दिमुख पितर अंतरिक्ष से ऊपर स्थित द्युलोक में निवास करते हैं, पार्वण पितर अंतरिक्ष में होते हैं विशेषतः चन्द्रमा के ऊर्ध्व भाग में जो कि हमें कभी दिखाई नहीं देता। जिन्हें अश्रुमुख पितर और प्रेत-पितर भी कहा जाता है इनका निवास स्थान पृथ्वी पर माना गया है। नान्दि पितर और पार्वण पितर, दिव्य पितरों की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें कि नित्य-पितर कहा जाता है जबकि प्रेत-पितरों को कर्म-पितर कहा जाता है।

प्रेत-पितर की व्याख्या इस प्रकार की जाती है कि जीवों के शरीर में उपस्थित पितर तत्व जिसमें कि आनुवांशिक गुण भी रहते हैं। जीव के मरणोपरांत यह तत्व देह से मुक्त होता है तो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल जो कि पृथ्वी की कक्षा में व्याप्त रहता है। पृथ्वी के आकर्षण से इस तत्व को पार्थिव कक्षा से बाहर जाने में कठिनाई होती है, इसे दुःख होता है अतः मरणोपरांत परिवार के लोगों द्वारा मरणोत्तर क्रियाएं की जाती हैं, जिससे इस तत्व को पार्थिव कक्षा से बाहर जाने में सुविधा होती है। पार्थिव मण्डल में जब तक यह तत्व रहता है, इसकी प्रेत संज्ञा होती है। पार्थिव कक्षा के बाहर अंतरिक्ष में जाते ही इसकी पार्वण संज्ञा हो जाती है। ये पार्वण पितर नाम से जाने जाते हैं। पूर्व में मरे हुए प्राणियों के निमित्त परिवार के लोगों द्वारा जो क्रियाएं (श्राद्धादि) की जाती हैं, उन क्रियाओं से इन पितरों को अपने गन्तव्य (सौर लोक) स्थान तक पहुंचने में आसानी रहती है। पार्वण पितर पीढ़ी क्रम के बढ़ने के साथ अंतरिक्ष लोक को पार कर द्यु लोक में प्रविष्ट हो जाते हैं। जहां इनकी नान्दि मुख संज्ञा हो जाती है और ये शुभ मांगलिक कर्मों के प्रारम्भ में देवों की भांति पूजे जाते हैं। यह नान्दि मुख अन्य नान्दि मुख (पितरों) के साथ शामिल हो जाते हैं। वास्तव में परिवार के ये ही पितर होते हैं जो नान्दि मुख श्रेणी में होते हैं। परिवार की वृद्धि और पुष्टि हेतु भगवान से प्रार्थना करते हैं। इस अवस्था में पार्थिव आकर्षण कम हो जाता है और ये समयानुसार कर्मबल की सामर्थ्य पर ऊर्ध्व गमन की चेष्टा करने लगते हैं। पार्थिव आकर्षण क्षीण हो जाने से ये सुखी हो जाते हैं। इस श्राद्ध को करने का आधार यह भी है कि हमारे पूर्व पितर नान्दि मुख हो जाएं।

श्राद्धों में यह परम्परा वर्षों से चली आ रही है कि आगे की चौथी पीढ़ी (प्रपौत्र का जन्म) विकसित हो जाने पर पूर्व की चौथी पीढ़ी (प्रपितामह-पिता के दादा) की श्राद्ध क्रियाएं बंद कर दी जाती है। इसका प्रमुख आधार यह है कि यदि प्रत्येक पीढ़ी में पुत्र संतति होना अनिवार्य है क्योंकि अभी भी पुत्रियों को श्राद्ध क्रियाओं को करने का अधिकार नहीं  मिला है। शास्त्रों ने आज्ञा नहीं दी दूसरा आधार यह है कि पूर्व पितरों (प्रपितामह की श्रेणी) को नान्दि मुख संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे देवतुल्य हो जाते हैं।

उनका समूह रूप में नान्दि मुख श्राद्ध प्रक्रिया में पिता (यदि मृत्यु हो गई हो), बाबा और पड़बाबा आदि के साथ आह्वान और पूजन होता है। ये पितर स्व कर्मानुसार और समयानुसार द्यु लोक से ऊर्ध्व गमन करते हैं जहां पार्थिव आकर्षण समाप्त हो जाता है और ये सौर लोक में पहुंचकर अग्नि-सोम में प्रतिष्ठित हो जाते हैं इसलिये अग्नि और सूर्य को प्रधान पितर कहा गया है। इसीलिए भूमण्डल पर जब सूर्य सर्वोच्च स्थिति में होते हैं अर्थात् मध्याह्न काल में, तभी पितरों की श्राद्धादि क्रियाएं सूर्य की साक्षी में की जाती हैं। नान्दि मुख पितरों को धर्ममूर्ति कहा गया है।

नान्दि श्राद्ध- पंच श्राद्धों में से एक है, जिसे वृद्धि श्राद्ध कहा जाता है। परिवार में पुत्र के जन्म पर, विवाह के अवसर पर अथवा मांगलिक या अनुष्ठानिक कर्मों में यह श्राद्ध विशेष रूप से किया जाता है। कर्मकाण्ड ग्रंथों में ऐसी व्यवस्था है कि गणपति पूजन के उपरांत मातृकाओं का पूजन किया जाता है जिसके अंतर्गत कुलदेवी और कुलदेवता का भी पूजन होता है। मातृकाओं के पूजन के साथ ही नान्दि श्राद्ध करना अनिवार्य होता है, ऐसा विधान शास्त्रों में मिलता है कि नान्दि श्राद्ध किए बिना मातृका पूजन पूर्ण नहीं होता। पांच प्रकार के श्राद्ध निम्न होते हैं-

1. नित्य श्राद्ध - प्रतिदिन किये जाने वाला श्राद्ध।

2. नैमित्तिक श्राद्ध - एकोद्दिष्ट प्रभृति श्राद्ध को नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं।

3. काम्य श्राद्ध - अपनी अभिलाषा की पूर्ति हेतु किया जाने वाला श्राद्ध।

4. वृद्धि श्राद्ध - वृद्धि काल में अर्थात् पुत्र जन्म और विवाह के अवसर पर किया जाने वाला श्राद्ध (नान्दि श्राद्ध)।

5. पार्वण श्राद्ध - अमावस्या तिथि या पर्वकाल में किया जाने वाला श्राद्ध। इनके अतिरिक्त और भी होते हैं, पर प्रमुख तो उपरोक्त होते हैं जो प्रत्येक के द्वारा किये जाते हैं।

सपिण्डि श्राद्ध - मृत जीव के पिण्ड का पूर्व मृत पिण्डों के साथ सम्मेलन इस विधि द्वारा सम्पन्न होता है।

इसलिए भारतीय संस्कृति जो सनातन धर्म पर आश्रित है, उसके अनुसार प्रत्येक गृहस्थ को समयानुसार मृत पूर्वजों के निमित्त श्राद्ध करना चाहिये।

यदि वर्ष भर न कर सकें तो, आश्विन मास में जब पितृपक्ष आवे तब तो अवश्य ही श्राद्ध करना चाहिये। महर्षि कार्ष्णाजिनि ने कहा है कि-

वृश्चिके समनुप्राप्ते पितरो देवेतै सह।

निःश्वस्य प्रतिगच्छन्ति शापे दत्वासुदारुणम्॥

अर्थात् सूर्य के कन्या राशि में आने पर पितृपक्ष में जो पितृगणों के लिए श्राद्ध नहीं करता है तो वृश्चिक राशि में सूर्य के आने पर ये पितृगण दुःखभरी श्वास छोड़ते हुए, गृहस्थ को दारुण शाप देकर अपने-अपने लोक को चले जाते हैं अर्थात् पितृपक्ष में पितरगण अपने लोकों से श्राद्ध ग्रहण करने आते हैं। प्राप्त हो जाने पर आशीर्वाद देकर और श्राद्ध अप्राप्त होने पर दुःख प्राप्ति का शाप देकर अपने लोक में चले जाते हैं। इसलिए प्रत्येक गृहस्थ को वंशवृद्धि और धन-धान्य वृद्धि हेतु श्राद्ध अवश्य करना चाहिये। एक संत ने तो कहा है कि जिस पर उसके पितरों की प्रसन्नता नहीं हों, उसे देवता भी सुखी बनाने में असमर्थ होते हैं।