हमारे देवता

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया

देव शब्द से देवता निकला है। देव शब्द दिवु धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है चमकना या प्रकाशित होना। वाल्मीकि रामायण में 33 देवताओं का उल्लेख है। ये इस प्रकार है-

द्वादश आदित्य - 1. विवस्वान, 2. अर्यमा, 3. पूषा, 4. तवष्टा, 5. सविता, 6. भग, 7. धाता, 8. विधाता, 9. वरुण, 10. मित्र, 11. शक्र और 12. उरुक्रम - विष्णु तथा एकादश रुद्र - 1. रैवल, 2. अज, 3. भव, 4. भीम, 5. वाम, 6. उग्र, 7. वृषाकपि, 8. अजैकपात, 9. अहिर्बुध्न्य, 10. बहुरूप तथा 11. महान् और अष्ट वसु - 1. आप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धम्र, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्यूष और 8. प्रभाष एवं इन्द्र तथा प्रजापति - ये तैंतीस देवता हैं।  किसी अन्य मत से दो अश्विनी कुमार या द्यावा-पृथ्वी भी माने गये हैं।

इन 33 कोटि देवताओं से ही 33 करोड़ शब्द निकला है। कहीं - कहीं ऐसा विश्लेषण मिलता है कि ये देवता अपने स्त्री - पुत्रों और सेवकों सहित कुल मिलाकर 33 करोड़ हो जाते हैं।

सदारा विबुधा: सर्वे स्वानां स्वानां गणै: सह।

त्रैलोक्ये तत्त्रयस्त्रिंशत् कोटिसंख्या: यथाभावन्।।

कहीं - कहीं गणदेवताओं की विभूतियों की संख्या का उल्लेख है। एकादश रुद्रों की विभूति 3 करोड़ देवगण हैं, द्वादश आदित्यों की विभूति 10 करोड़ हैं। अग्निदेव की विभूतियाँ या वंशज बहुत अधिक संख्या में हैं। देवताओं की संख्या को लेकर इस तरह का बुद्धि-विलास शास्त्रों में खूब पाया जाता है।

देवताओं को नित्य और नैमित्तिक माना गया है। जिनका स्थाई पद है वे नित्य देवता हैं जैसे कि सूर्य, इन्द्र, वसु और रुद्र इत्यादि। नैमित्तिक देवताओं को किसी किसी निमित्त विशेष कारण से देव पद प्राप्त होता है जैसे कि ग्राम देवता, वास्तु देवता, वन देवता, ग्रहदेव, भौमियाजी इत्यादि।

इनके सब के अधिदेवता भी होते हैं।

देवताओं में भी वर्ण भेद की चर्चा की गई है। आङ्गिरस गणदेवता ब्राह्मण माने गये हैं, आदित्य गण देव क्षत्रिय माने गये हैं तथा मरुद्गण वैश्य कहे गये हैं।

कुछ को उपदेव माना गया है। इसके मुख्यत: 10 प्रकार हैं यथा- विद्याधर, अप्सरा, यक्ष, दानव, गंधर्व, किन्नर, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध और भूत।

वाल्मीकि रामायण में एक उल्लेख है कि जब भगवान राम विवाह के पश्चात् अयोध्या लौटते हैं तो परशुराम ने उन्हें रोक कर वैष्णव धनुष चढ़ाने के लिए कहा। इस वैष्णव धनुष को हाथ में लेते ही राम के स्वरूप का दर्शन करने हेतु ब्रह्मा सहित सभी देवता, ऋषि, गंधर्व, यक्ष, चारण, नाग एवं अप्सराएँ एकत्र हो जाते हैं।

वरायुधधरं रामं द्रष्टुं सर्षिगणा: सुरा:

पितामहं पुरस्कृत्य समेतास्तत्र सर्वश:।।

गन्धर्वाप्सरसश्चैव सिद्धचारणकिन्नरा:

यक्षराक्षसनागाश्च तद् द्रष्टुं महदद्भुतम्।।

यह प्रकरण तुलसीकृत रामचरित मानस से थोड़ा सा अलग है, परन्तु इससे देवताओं की प्रकृति का अनुमान लगता है।

ऋषियों के देवताओं से प्रत्यक्ष व्यवहार के उदाहरण मिलते हैं। जब भगवान श्रीराम सुतीक्ष्ण जी के साथ उनके गुरु अगस्त्य ऋषि के आश्रम में पहुँचते हैं तो भगवान लक्ष्मण से कहते हैं कि देखो यहाँ सभी देवता, गंधर्व और सिद्ध प्रतिफल में महर्षि अगस्त्य की भी उपासना करने लगे हैं। यहाँ देवता लोग उपासक से अगर प्रसन्न हो जाएं तो प्रसन्न होकर सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य और देवत्व भी प्रदान कर सकते हैं। उन्होंने वहाँ आकर देखा कि अग्नि, ब्रह्मा, वायु, वरुण, कुबेर, कार्तिकेय आदि के स्थान बने हुए हैं जहाँ देवता आकर ऋषि से प्रत्यक्ष व्यवहार करते थे।

हमारे शास्त्रों में कई देवताओं के अद्भुत या विचित्र स्वरूप का वर्णन किया गया है। ऋषियों ने इनके उन्हीं स्वरूपों से स्तुतियाँ की हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये देवता भी शरीरधारी हैं। विष्णु और नृसिंह अवतार के जो वर्णन मिलते हैं, सिद्ध ऋषियों ने आँखों से दिखाई देने वाले भगवान सूर्य के रूप से अलग उनका रूप स्मृतियों, पुराणों और धर्मशास्त्रों में बताया है। यह ऋषि साधारण नहीं थे। मंत्रों के ही दृष्टा नहीं थे, अपितु देवताओं के भी दृष्टा थे। उनके वचनों को सिद्ध वचन मानकर पालन किया जा सकता है।

भगवान वेद-व्यास ने देवताधिकरण प्रकरण में देवताओं के विग्रह का वर्णन किया है और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए तदनुसार ही पूजा-अर्चना, न्यास, भोग और बलि विधान किये हैं। इतिहासपुराण की श्रेणी में आने वाले रामायण और महाभारत में गंगा, यमुना और सरस्वती आदि नदी तथा हिमाचल, विंध्याचल आदि को सगुण साकार देवता मानकर उनकी संतानों का भी वर्णन किया है। पार्वती को हिमालय की पुत्री तथा भीष्म पितामह गंगा के पुत्र हैं। इतिहास पुराण को पाँचवा वेद भी माना गया है। इनके वर्णन सिद्ध ऋषियों द्वारा बताये गये हैं, जिससे देवताओं के विशद स्वरूप का विवरण मिलता है।

इतने बड़े ब्रह्माण्ड का पालन किसी एक सत्ता के द्वारा मुश्किल जा जान पड़ता है। इसलिए बहुत सारे देवताओं की मदद से उस ईश्वर यह सृष्टि संचालन करते हैं। गीता में इसका संकेत है-

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:

अहमादिश्च मध्यं भूतानामन्त एव च।।

अर्थात् समस्त प्राणियों में गुप्त रूप से व्याप्त एक ही देव है जो सर्वव्याप्त और सबकी अन्तर्रात्मा है। साकार और निराकार के भाव को प्रकट करने के लिए भगवान ने गीता के छठे अध्याय में स्वयं कहा है-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं मयि पश्यति।

तस्माहं प्रणश्यामि मे प्रणश्यति।।

जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझको ही व्यापक रूप में देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, मैं व वह एक दूसरे के लिए अदृश्य नहीं होते अर्थात् निराकार और साकार में कोई अन्तर नहीं है। जो भगवान निराकार हैं वही साकार बनते हैं।

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ब्यूटी पार्लर

आजकल ब्यूटी पार्लर केवल सौंदर्य की बढ़ोतरी नहीं करते, चिकित्सा के भी अच्छे माध्यम बने हैं। मेरे पास आने वाले लोगों में अब ऐसे लोग अधिक आ रहे हैं जो सुंदरता बढ़ाने के उपायों के साथ-साथ वजन घटाना, जिम व शरीर के अन्य विकारों को दूर करने के उपकरण रखना चाहते हैं। अत: ब्यूटी पार्लर त्वचा से संबंधित विकार और वसा को नष्ट करने के उपायों के साथ-साथ सुंदर देहयष्टि के लिए किया गया उपक्रम भी माना जाने लगा है। ज्योतिषी भी अब इतना बुद्धिमान होना चाहिए कि ब्यूटी पार्लर में किस विषय से अधिक आय होगी, उसका निर्णय जन्मपत्रिका देखकर भी कर सके।

जिनके शुक्र ग्रह प्रबल होते हैं वे ऐसे सौंदर्य उपकरणों का सहारा लेंगे जो बाह्यï सौंदर्य को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होते हैं। उन्नत शुक्र में केश-विन्यास पर अधिक ध्यान देने की प्रवृत्ति होती है। कृत्रिम केश-विन्यास, गुम्फित केश, वेणी-विन्यास, आई-ब्रो सैटिंग, ट्रिमिंग, वैक्सिंग, ब्लीचिंग, रंगीन चश्मा धारण करना त्वचा की कांति के अनुरूप वस्त्राभरण पहनना, सौंदर्य उपयोगी वस्तुओं को धारण करना व रत्न चयन शुक्र के प्रिय विषय हैं।

जिन ब्यूटी पार्लर स्वामियों के स्वामी शनि प्रधान होते हैं, वे व्यक्ति को धीर-गंभीर बनाने में अधिक रुचि लेते हैं और उनके व्यक्तित्व में उन गुणों का समावेश करते हैं जो उसके आंतरिक या दार्शनिक सौंदर्य को उभार कर सामने लाएं।

बृहस्पति ज्ञान से उत्पन्न सौंदर्य व त्वचा की गरिमामय कांति के पक्षधर है व इनके प्रभाव में व्यक्ति आत्म-विश्वास को बढ़ाने के उपाय करता है। इनके सौंदर्य उपकरणों में लापरवाह रहना, लापरवाह दिखना और आसपास के वातावरण की परवाह न करना शामिल है। ऐसे लोग खानपान में उचित चयन एवं ज्ञान वृद्धि से उपजे आत्मविश्वास पर अधिक भरोसा करते हैं। बृहस्पति से प्रभावित व्यक्तियों में दूसरों की उपेक्षा करने की महत्त्वपूर्ण क्षमता होती है और उसके व्यक्तित्व में प्रबल आकर्षण उत्पन्न होता है। ऐसे ब्यूटी पार्लर मनोवैज्ञानिक चिकित्सा भी करते हैं।

राहु से प्रभावित व्यक्ति विष चिकित्सा या शरीर से विष निकालने का कार्य अधिक उत्तम ढंग से करते हैं। बृहस्पति जहां जिम की ओर अधिक प्रेरित करते हैं, वहीं राहु आयुर्वेद के कफ, पित्त, वात के निवारण वाली पद्धतियों और अंग सौष्ठव के लिए किए गए अन्य उपायों पर भरोसा करते हैं। अन्न प्रयोग, एक-दूसरे के विरोधी भोजन से संबंधित उपाय व प्राकृतिक भोजन राहु के कार्य क्षेत्र में आते हैं तथा विपरीत प्रकृति के भोजन को करने की मनाही इनमें की जाती है। उदाहरण के लिए ऐसे पार्लर्स सलाह देंगे कि रात में दही नहीं खाना चाहिए। दिन में खाएं तो दही में घी, खांड, मूंग का पानी, शहद या आंवला मिलाकर खाना चाहिए। दही को गर्म नहीं करना चाहिए। इसी भांति गर्म और ठंडे पानी से चिकित्सा, चंदन व खीरे से बने फेसपैक इत्यादि से चिकित्सा, मुंह की त्वचा से सिष्ट (एक तरह की गांठ) को निकालना, घोड़े के बाल या कत्थे इत्यादि से मस्सों को निकालना इसके अंतर्गत आते हैं। गीली मिट्ïटी का लेप एवं भाप चिकित्सा भी इसी के अंग है। आयुर्वेद के पंचकर्म (यथा शिरोधारा इत्यादि) भी इसी के अंतर्गत आते हैं। जड़ी-बूटियों या पत्तियों से लुगदी बनाकर चिकित्सा या सौंदर्य बढ़ाना प्राचीनकाल में होता रहा है। इस तरह के उपायों को चरक संहिता का समर्थन है।

उड्डीश तंत्र में सुगंधि बनाने वाले द्रव्यों के विवरण मिलते हैं। यदि सौंदर्य साधन में इनका प्रयोग किया जाए तो अधिक सफलता मिलती है। आजकल केवल खीरा या संबंधित वस्तुओं का उपयोग त्वचा चिकित्सा के लिए किया जाता है। बहुत कम लोग जानते हैं कि मुगलकाल में महारानी नूरजहां ने गुलाब की पंखडिय़ों का आसवन करके इत्र-गुलाब को अपना प्रमुख सौंदर्य उपकरण बनाया। दुर्गंध नष्ट करने के बहुत सारे उपाय बाजीकरण ग्रंथों में मिलते हैं। सफेद चंदन, कश्मीरी केशर, पुष्कर मूल, छोटा लोध, नगर बालछड, सफेद खस, कालीमिर्च सबको बराबर लेकर इनको कूट छानकर इसमें तिल्ली या सरसों का तेल मिलाकर उबटना बना लेना चाहिए। इस इस उबटने को आधा घंटा भी लगाकर स्नान करें तो यह दुर्गंध को भी मिटाएगा और खुश्की भी नहीं करेगा। सफेद चंदन, खस, बिल्वपत्र, बेर या बहेड़ा की गिरी,  नागकेशर इनका इनका लेप भी बदबू दूर करता है। इलायची, कपूर, तेजपात, चंदन, नागरमोथा इन सबको कूट-छानकर मालिश करें तो सब तरह की बदबू दूर हो जाती है।

इस तरह के बहुत सारे उपाय ग्रंथों में मिलते हैं। हमें बाजीकरण उपाय का वास्तु नियमों से सम्मिश्रण करके सौंदर्य को बढ़ावा देना चाहिए। यदि ब्यूटी पार्लर के उत्तर दिशा में बैठकर यदि ग्राहक को उत्तर दिशा में मुंह करके बिठाएं तो कोई भी चिकित्सा सफल हो सकती है। यदि इस दिशा में मसूर को कपूर के साथ पीसकर लेप किया जाए तो मुंह की फुंसियां नष्ट हो जाएंगी। गोरोचन और कालीमिर्च पीसकर लगाने से भी मुहांसे दूर हो जाते हैं। रक्त चंदन, मजीठ, कूट, लोध, प्रियगु, बड़ के अंकुर और मसूर को पीसकर इनका लेप करने से फुंसी दूर होती हैं और मुख की झाइयां दूर होती है। आजकल झाइयां दूर करने के उपायों में एल्कोहल का प्रयोग किया जाता है जो कि अंतत: त्वचा को हानि पहुंचाता है। प्राकृतिक साधन त्वचा को हानि नहीं पहुंचाते। इसी तरह के अन्य उपायों में मजीठ, मुलैठी, लाख, विजौरा की जड़ को समान भाग में लेकर चार गुने तेल में पकावें फिर उससे दोगुना बकरी का दूध लेकर मंदी आंच में पकावें। इसका लेप फुंसी, झाईं आदि को दूर करता है और मुख की त्वचा को कांतियुक्त करता है।

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अशुभ नहीं साढ़े साती

साढ़े साती के नाम से शायद ही कोई व्यक्ति परिचित न हो। यह शब्द एक ऐसा हौआ है जिसके नाम से ही हम भविष्य के अशुभ परिणामों के बारे में सोचना शुरु कर देते हैं। आखिर यह साढ़े साती क्या है? क्या साढ़े साती के समय में अशुभ परिणाम ही मिलते हैं? ये ऐसे प्रश्न है जो हम सभी के मस्तिष्क में आते हैं। आइये इस साढ़े सााती को समझें और इसके बारे में सभी गलत धारणाओं का निदान करें।

साढ़े साती के ज्योतिष स्वरूप को समझने के हमें एक दृष्टि इस बात पर डालनी पड़ेगी कि ज्योतिष में शनि ग्रह का क्या अर्थ है। ‘चन्द्र’ सौम्य अर्थात शांत व्यवस्था का ग्रह है। यह मन, बुद्धि, मानसिक भाव, माता, राजा की प्रसन्नता, बालपन, उत्तर-पश्चिम दिशा का कारक है। चन्द्र ग्रह की वस्तुएं माता का दूध, मक्खन, दही, चीनी, चांदी, पानी, मोती, नमक आदि है। शनि ग्रह स्थिरता का प्रतीक है।

कार्यकुशलता, गंभीर विचार, ध्यान और विमर्श शनि के प्रभाव में आते हैं। यह शांत, सहनशील, स्थिर और दृढ़ प्रवृत्ति का होता है। उल्लास, आनंद, प्रसन्नता में गुण स्वभाव में नहीं है। शनि को यम भी कहते हैं। शनि की वस्तुएं नीलम, कोयला, लोहा, काली दालें, सरसों का तेल, नीला कपड़ा, चमड़ा आदि है।

यह कहा जा सकता है कि चन्द्र मन का कारक है तथा शनि बल या दबाव डालता है। ‘शनि’ बहुत धीमी गति से चलने वाला ग्रह है तथा एक राशि में गोचर करने में यह लगभग ढ़ाई वर्ष का समय लेता है। जब शनि चन्द्र राशि से बारहवें स्थान में प्रवेश करता है तब जातक की साढे साती की शुरुआत कही जाती है।

‘चन्द्र’ से बारहवें, पहले तथा दूसरे स्थानों में शनि का लगभग साढ़े सात वर्ष का गोचर का समय ‘साढ़े साती’ कहलाती है। प्रत्येक व्यक्ति को 30 वर्ष में इस साढ़े सात वर्ष के समय का सामना करना पड़ता है।

यह एक आम विश्वास है कि प्रत्येक व्यक्ति को साढ़े साती में अनेक दुख भोगने पड़ते हैं, लेकिन यह धारणा साढ़े साती के बारे में ठीक नहीं है। सच तो यह है कि जिस व्यक्ति की कुण्डली में ‘शनि’ बलवान, शुभ भावों का स्वामी, कारक ग्रहों से युक्त  राशि, नवांश, शुभदृष्ट हो तो शनि की साढ़े साती अपने सामथ्र्यानुसार राजयोग करती है। इसके विपरीत यदि शनि शत्रुक्षेत्री, पापदृष्ट युक्त, अशुभ भावेश में हो तो शनि की साढ़े साती में अशुभ फलों की प्राप्ति होती है। सही बात तो यह है कि साढ़े साती के परिणाम इस बात पर निर्भर करेंगे कि ‘शनि का गोचर किस-किस नक्षत्र में हो रहा है और शनि का उस नक्षत्र के स्वामी से क्या संबंध है।’ इसलिए जन्मकालिक नक्षत्र और गोचर में शनि प्रवेश नक्षत्र के अनुसार ही शुभ-अशुभ फल का अनुमान करना चाहिए।

ज्योतिष शास्त्र में जहां किसी ग्रह के कारण अनिष्ट फलों का वर्णन किया गया है, वहां अनिष्ट फल को कम करने के उपाय भी बताये गये हैं।

दोष शांति के सभी उपाय ‘भक्ति’ और ‘दान’ सिद्धांत पर आधारित है।

दोष शांति का उपाय ज्योतिष के लिये बताना इतना आसान कार्य नहीं है। इसके अतिरिक्त साढ़े साती जैसे अरिष्ट फलों को कम करने के लिये यह अति आवश्यक है कि उपाय की शुरुआत साढ़े साती शुरु होने से कम से कम 6 माह पहले कर दी जाये।

यद्यपि साढ़े साती के दोष शांति के लिये कुछ उपाय बताये गये हैं, इन उपायों को किसी ज्योतिषी की सलाह से ही लागू करें-

उपाय

1. नव ग्रह मंदिर में हर शनिवार को शनि की पूजा व अर्चना करें।

2. शनि के मंत्र को 19000 बार जाप करना इसके लिये संध्या के समय कम से कम एक माला का जाप करें।

शनि मंत्र इस प्रकार है-

ओम् प्रां प्रीं प्रों सां शनैश्चराय नम: या

 ओम् शं शनैश्चराय नम:

3.         नीलम की अंगूठी सोने या पंचधातु में बीच की अंगुली में पहनना।

4.         काले घोड़े की नाल या नाव की कील का छल्ला बनाकर पहनना।

5.         इस समय शराब न पियें। पर स्त्री से संबंध न बनायें।

6.         शनिवार को काला सुरमा जमीन में दबायें।

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पुरुष लक्षणाध्याय

इन दिनों नौकरियों के किसी भी साक्षात्कार में मनोवैज्ञानिकों को अवसर दिया जाता है कि वे प्रत्याशी का मनोवैज्ञानिक परीक्षण करें।  एच.आर.डी. या मानव संसाधन में प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति भी इस तरह के परीक्षण के लिए उपयुक्त माने जाते हैं। परंतु यह सब तो केन्द्र या राज्य सरकारों के लोक सेवा आयोग या बहुत धनी संस्थान के नियुक्ति विभाग में ही होना संभव है। साधारण मामलों में या व्यवसायों में इस तरह के व्यक्ति परीक्षण ज्योतिषियों के माध्यम से किए जाते रहे हैं। सभी निजी कार्यों में प्राय: नियोक्ता ज्योतिषी के पास जाते रहे हैं, जिनमें उनका विश्वास रहा है और वे नियुक्ति दिए जाने वाले व्यक्ति की जन्मपत्रिका दिखाकर यहपूछते हैं कि यह व्यक्ति कितना विश्वास योग्य तथा धोखा इत्यादि तो नहीं करेगा। मेरे पास विदेश भेजे जाने वाले जातकों के परीक्षण के लिए सैकड़ों जन्मपत्रिकाएं आईं। वहां पर गया हुआ व्यक्ति दो साल भी निभा जाए तो इसे पर्याप्त माना जाता है, जबकि भारत में यही अवधि करीब 20 वर्ष मानी जाती है।

मेरा मानना है कि ऋषियों ने पुरुष लक्षणाध्याय और  स्त्री लक्षणाध्याय के माध्यम से पुरुष या स्त्री के बारे में ज्ञान प्राप्त करने की अद्ïभुत प्रणालियां विकसित की है जिनके आधार पर आधुनिक मनोविज्ञान के नियमों की अपेक्षा कहीं अधिक सूक्ष्म परीक्षण किए जा सकते हैं। मनोवैज्ञानिक भविष्य नहीं बता सकते जबकि ज्योतिष और सामुद्रिक नियमों के आधार पर जातक का भविष्य भी बताया जा सकता है। किसी व्यक्ति को ज्योतिष का 10 वर्ष का भी व्यावहारिक अनुभव हो तो वह उच्चकोटि के मनोवैज्ञानिक की अपेक्षा ज्यादा अच्छा परिणाम दे सकता है।

वराहमिहिर ने इन आधारों पर पुरुष का वर्णन करना बताया है।

उन्मानमानगतिसंहतिसारवर्णस्नेहस्वरप्रकृतिसत्वमनूकमादौ।

क्षेत्रं मृजां विधिवत कुशलोऽवलोक्य सामुद्रविद्वदति यातमनागतं वा।।

उन्मान (अंगुलियों के आधार पर ऊंचाई), भार, गति या गमन, संहति या व्यक्तिगत घनत्व, सार, वर्ण या स्निग्धता, स्वर, प्रकृति, सत्व, अनुक या जन्मांतरागमन, क्षेत्र(वक्ष्यमाण दस प्रकार के पाद इत्यादि), मृजा जो कि पंचमहाभूत पर आधारित शरीर की छाया है, इत्यादि को जानकर सामुद्रिक शास्त्र के अंदर पुरुष के लक्षणों का वर्णन किया गया है।

पांव

पसीने रहित, कोमल तल, कमलोदर के समान अर्थात कमल का उदर जैसे गोलाकृति लिए हुए रहता है, उस भांति सम्मिलित अंगुलियों युत अर्थात अंगुलियां एक-दूसरे से उचित अनुपात में युत हों। ताम्रवर्ण के सुन्दर नख अर्थात नखों पर ऐसी लालिमा हो कि उसमें ताम्रवर्ण आ जाए, एडियां सुन्दर हों, गरम, शिराओं से रहित अर्थात पांव के ऊपर नसें बहुत अधिक उभरी हुई नहीं हों, छिपी हुई पांव के गांठी वाले और कूर्म की तरह उन्नत पृष्ठ जिन व्यक्तियों के होते हैं, वे राजा के समान होते हैं।

शूर्पाकार (छाज के जैसे) चिकने पसीने सहित, पाण्डूर नख वाले अर्थात पीत आभा लिए हुए, टेढी-मेडी नसों से युक्त, सूखे और विरल अंगुलियों वाले पांव दरिद्रता और दुख देते हैं। केवल मध्य में उन्नत पीले रंग के पांव मार्ग के लिए होते हैं अर्थात वे हमेशा व्यक्ति को चलायमान रखते हैं। कषायवर्ण का पांव अर्थात कृष्णलोहित ऐसा गाढ़ा लाल रंग हो कि काला जैसा दिखे दरिद्रता और वंश का नाश लाते हैं।  जिसके आग में पकी हुई मिट्ïटी के समान पांव की कांति हो, वह ब्रह्मïघाती होता है। यदि पांव के तल पीले हों तो अगम्या स्त्री में रत होता है अर्थात उस स्त्री में उसकी प्रीति होती है, जिसके पास उसको नहीं जाना चाहिए।

आजकल साक्षात्कार के समय बहुत कीमती जूते पहनकर जातक आते हैं। यह परीक्षण संभव ही नहीं रह गया। पांव की कांति का पता लगाना तभी संभव है, जब साक्षात्कार के लिए आए व्यक्तियों को नंगे पैर साक्षात्कार कक्ष में बुलाया जाए।

जंघा और उरु का लक्षण

सूक्ष्म रोम हों, उनका घनत्व बहुत अधिक न हों, हाथी की सूंड के समान उरु हों तथा पुष्ट और आकार में समान घुटने हों तो मनुष्य राजा होते हैं। जिन व्यक्तियों की जंघा कुत्ते और सियार जैसी होती है, वे निर्धन होते हैं।

पुरुष की जंघा में जो रोम होते हैं, उनका विशद वर्णन किया गया है। जिनके रोम छिद्रों में एक-एक रोम हो, वे राजा के समान होते हैं। पंडित और श्रोत्रिय की जंघा के रोम छिद्रों में दो-दो रोम होते हैं। यदि रोम छिद्र या रोम कूप में तीन-तीन, चार-चार रोम छिद्र पाए जाएं तो यह निर्धनता की निशानी है, इससे जीवन में दुख आता है।

जानु

जिस मनुष्य के जानु में मांस नहीं हो तो वह प्रवास करते समय ही मरता है। छोटे जानु वाला भाग्यशाली, अत्यधिक विस्तार जानु वाला दरिद्र, नीचे जानु वाला स्त्रियों से पराजित होने वाला, मांसयुक्त जानु वाला राज्य भोगने वाला और बड़े जानु वाला दीर्घजीवी होता है। जानु घुटने को कहते हैं।

क्रमश...