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सन्तान उत्पत्ति से सम्बन्धित बाधाएँ जन्म लग्र, चन्द्र लग्न व बृहस्पति से पंचम भाव में देखी जाती हैं। सूर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु जैसे ग्रह पाप ग्रह कहलाते हैं या क्रूर ग्रह कहलाते हैं और ये पाँचवें भाव में स्थित रहकर सन्तान उत्पत्ति में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। अगर सन्तान उत्पन्न हो गई है तो आगे उसके विकास में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं।
वैदिक ऋषियों ने वर्तमान जन्म की ग्रह स्थितियों के आधार पर यह तक पता लगा लिया कि पिछले जन्म में क्या पाप किये थे या किसका शाप लगा है जिसके कारण इस जन्म में सन्तान उत्पत्ति में बाधा आ रही है या गर्भ धारण के बाद भी सन्तान नष्ट हो जाती है और जन्म ही नहीं लेती।
यदि जन्म पत्रिका के पंचम भाव में बाधा कारक ग्रह सूर्य हो तो शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान शम्भू और गरुड़ के प्रति अपराध किया है या पितरों का शाप है। यदि यह बाधा कारक ग्रह चन्द्रमा हैं तो माता या किसी सधवा स्त्री के मन को दुःखी करने के कारण या देवी के शाप के कारण संतान में बाधा है। यदि पाँचवें भाव में मंगल हो तो ग्राम देवता या भगवान कार्तिकेय के प्रति अवज्ञा या भाई-बन्धुओं के शाप के कारण सन्तान नहीं हो रही है। यह सब कथाएँ पिछले जन्म की हैं और शाप प्रमुख कारण है।
यदि बाधाकारक ग्रह बुध है तो गत जन्म में बिल्ली के मारने के कारण या मछलियों के या अन्य प्राणियों के अण्डों को नष्ट करने के कारण या बालक-बालिकाओं के शाप से या भगवान विष्णु की नाराजगी से सन्तान नहीं हो रही है।
यदि पंचम भाव में बृहस्पति हैं तो इस व्यक्ति ने इस जन्म में या पूर्व जन्म में फलदार वृक्षों को कटवाया है या गुरु से द्रोह किया है। शुक्र के कारण यदि सन्तान नहीं हो रही हो तो पुष्प के वृक्षों को कटवाने के कारण या गाय के प्रति कोई अपराध करने के कारण या किसी साध्वी स्त्री के शाप से सन्तान उत्पन्न नहीं हो रही है या सन्तान नष्ट हो जाती है। यक्षिणी का शाप भी इसका कारण माना गया है। यदि शनि ग्रह अशुभ हैं तो गत जन्म में पीपल का पेड़ कटवाने के कारण या पिशाच, प्रेत या यमराज के शाप से सन्तान हानि का योग बना है।
यदि लग्र, चन्द्रमा या बृहस्पति से पंचम भाव में राहु हो या पाँचवे भाव के स्वामी के साथ राहु बैठे हों तो गत जन्म में सर्पों के प्रति अपराध करने के कारण उनका शाप मिला है। ब्राह्मण के प्रति अपराध करने से केतु नाराज हो जाते हैं। केतु का शाप भी सन्तान नहीं होने देता। शनि का ही एक छोटा भाग मांदि कहलाता है। यदि पाँचवें भाव में शुक्र और चन्द्रमा के साथ यदि मांदि मिले तो शास्त्र कहते हैं कि इस व्यक्ति ने गत जन्म में गाय या युवा स्त्री की हत्या की है। परन्तु यदि पाँचवें भाव में केतु या बृहस्पति के साथ मांदि भी हो तो इस व्यक्ति ने गत जन्म में किसी ब्राह्मण की हत्या की हुई है। मांदि की गणना में विद्वान ज्योतिषी की मदद लेनी ही चाहिए।
एक प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं मंत्रेश्वर। ये 13वीं शताब्दी में हुए थे। इन्होंने अपने ग्रंथ फलदीपिका में सन्तान बाधाकारक ग्रहों को शांत करने के उपाय बताये हैं।
सेतुस्नानं कीर्तनं सत्कथायाः
पूजां शंभोः श्रीपतेः सदूव्रतानि।।
दानं श्राद्धं कर्जनागप्रतिष्ठां
कुर्यादेतैः प्राप्नुयात्सन्ततिं सः।।
अर्थात् समुद्र स्नान, सत्कथाओं का आयोजन, शिवजी की पूजा, भगवान विष्णु के व्रत्त, दान, श्राद्ध और नाग पूजा करने से सन्तान प्राप्ति हो सकती है। ऋषि पाराशर भी कहते हैं कि बहुत सारे मामलों में सर्प शाप के कारण सन्तान प्राप्ति में बाधा आती है। इसीलिए नागमण्डल की प्रतिष्ठा कराकर एक बहुत छोटा सा सोने का नाग बनाकर उनकी पूजा की जानी चाहिए, जिससे सर्प प्रसन्न देवता होकर कुल बढ़ने का आशीर्वाद देते हैं।
मैंने पंचम भाव से पीड़ा में राहु को जब कारण पाया तो इस बात की पुष्टि होती है कि ज्योतिष में राहु का समीकरण सर्प से किया गया है। हमारी शोध के विषय यह रहे कि किसी शरीर में जो - जो भी सर्पाकृति की रचनाएँ हैं उन पर राहु का प्रभाव है। सन्तान के मामले में स्त्री के शरीर में फैलोपियन ट्यूब जो कि गर्भाशय के पास होती है, वह फैलोपियन ट्यूब के माध्यम से ही पुरुष का स्पर्म प्रवेश करता है व ओवम् से मिलन करता है, तब गर्भ धारण होता है। जब-जब मैंने जन्म पत्रिका में राहु को दोषी पाया तब-तब उस स्त्री की फैलोपियन ट्यूब में इन्फेक्शन देखने को मिला।
बृहस्पति - बृहस्पति को संतान कारक माना गया है। जिसकी जन्म पत्रिका में बृहस्पति कमजोर हों उसके या तो संतान होती ही नहीं है या होने के बाद भी सुख नहीं देती है। ऐसे मामलों में बृहस्पति का पूजा-पाठ मदद कर जाता है। जहाँ राहु का दोष सन्तानोत्पत्ति में बाधा उत्पन्न करता है वहीं बृहस्पति जन्म के बाद सन्तान सम्बन्धी कष्टों को बताता है। जिन लोगों की संतानें उनके साथ नहीं रहती हैं, एक ही शहर में रहते हुए भी सन्तान पास नहीं आती हैं या माता - पिता का ध्यान नहीं रखती हैं या किसी अन्य तरह से कष्ट देती है तो बृहस्पति का पूजा - पाठ इसमें मदद कर सकता है। चूंकि स्ति्रयों की जन्म पत्रिका में तो बृहस्पति पुत्र और पति दोनों के ही कारक होते हैं इसलिए उनके लिए तो बृहस्पति का व्रत और पूजा पाठ बहुत मदद करने वाला है। प्रायः करके बृहस्पति वार के व्रत में केले का पूजन करके जल चढ़ाया जाता है और व्रत खोलते समय बिना नमक का भोजन किया जाता है। इसके अलावा केले के वृक्ष पर ही चने की दाल, हल्दी और गुड़ अर्पण किया जाता है और पीले वस्त्र धारण किये जाते हैं।
यदि गर्भ धारण से पूर्व ही राहु और बृहस्पति का मंत्र पाठ स्ति्रयाँ कर लें तो राहु और गुरु सम्बन्धित समस्याएँ नहीं आएंगी। इनके यह मंत्र लाभकारी होंगे।
बृहस्पति के लिए -
देवानां च ऋषीणां च गुरुं काक्नसंनिभम्।
बुद्घि भूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥
राहु के लिए -
अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्।
सिंहिकागर्भ सम्भूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥
ये मंत्र गर्भाधान से पूर्व ही उचित रहते हैं। परन्तु संतान जन्म लेने के बाद राहु की भूमिका कम हो जाती है और बृहस्पति का पूजा-पाठ चाहे व्यक्तिगत और चाहे अनुष्ठानिक रूप में घर-परिवार में करवाया जा सकता है।
तिथियाँ
किसी भी पंचांग में तिथि को बड़ा महत्व दिया गया है। भारत वर्ष में सबसे पहले तिथि को ही पूछा जाता है। ज्योतिष के दृष्टिकोण से शुक्ल पक्ष की तिथियाँ अच्छी मानी गयी हैं, बल्कि शुक्ल पक्ष की दशमी से लेकर पूर्णिमा के बाद कृष्ण पक्ष की पंचमी तक भी चन्द्रमा को किरणों से युक्त और बलवान मानने के कारण यह तिथियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गई हैं।
हर तिथि के स्वामी माने गये हैं। प्रतिपदा के अग्नि, द्वितीया के ब्रह्मा, तृतीया की पार्वती, चतुर्थी के गणेशजी, पंचमी के स्वामी सर्प, छठी के कार्तिकेय, सप्तमी के सूर्य, अष्टमी के महादेव, नवमी के दुर्गाजी, दशमी के यमराज, एकादशी के विश्वेदेव, द्वादशी के विष्णु, त्रयोदशी के कामदेव, चतुर्दशी के भगवान शिव तथा पूर्णिमा व अमावस्या के देवता चन्द्रमा होते हैं।
प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथियों के नाम नंदा है। द्वितीया, सप्तमी का नाम भद्रा है। तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी का नाम जया है। चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी का नाम रिक्ता है। पंचमी, दशमी, पूर्णिमा या अमावस्या का नाम पूर्णा है। इनमें से नन्दा तिथियों में उत्सव, वास्तु, तांत्रिक कार्य, घर का आरम्भ और नाचने का काम कर सकते हैं। भद्रा तिथि (विष्टिकरण वाली नहीं) में विवाह, सजावट, यात्रा, गाड़ी बनाने का काम व पौष्टिक कार्य किया जा सकता है। जया तिथियों में लड़ाई और बल से सम्बन्धित कार्य किये जा सकते हैं। रिक्ता तिथि में विद्वता, ब्राह्मण, बंधन, घात, जहर, अग्नि और शस्त्र सम्बन्धी कार्य किये जा सकते हैं। पूर्णा तिथियों में मांगल्य, विवाह, यात्रा, पौष्टिक कार्य और शान्ति कर्म किये जा सकते हैं। 5, 10 और 15 पूर्णा तिथियाँ होती हैं। इनमें से अमावस्या को केवल पितृ कर्म किया जाता है अन्य कार्य वर्जित हैं। आमतौर से द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी और पूर्णा को शुभ माना गया है।
द्वितीया, दशमी और त्रयोदशी को उबटना नहीं लगाते और सप्तमी, नवमी और अमावस्या को आँवला से स्नान नहीं करना चाहिए। आश्चर्य की बात यह है कि द्वितीया, दशमी और त्रयोदशी में उबटने से स्नान को शुभ नहीं माना गया है।
वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया को कृतयुग का प्रारम्भ हुआ, कार्तिक शुक्ला नवमी को त्रेता, भादौ कृष्ण त्रयोदशी को द्वापर और माघ शुक्ल पूर्णिमा को कलियुग का प्रारम्भ हुआ। कोई - कोई फाल्गुन कृष्ण अमावस्या को भी कलियुग का प्रारम्भ मानते हैं।
यदि एक दिन के सूर्योदय के बाद अगली सुबह के सूर्योदय से पहले ही तिथि पूरी हो जाए तो उसे क्षय तिथि मानते हैं परन्तु यदि आज के सूर्योदय से पहले तिथि शुरु हो जाए और अगले दिन के सूर्योदय के बाद तक चलती रहे तो इसे अधिक तिथि मानते हैं। अधिक तिथि या वृद्धि तिथि चन्द्रमा की धीमी गति के कारण होती है।
कष्टकारक महादशाएँ
जन्मपत्रिकाओं में ग्रहों की महादशा का विचार बहुत किया जाता है। सूर्य की महादशा 6 वर्ष, चन्द्रमा की 10 वर्ष, मंगल की 7 वर्ष की, राहु की 18 वर्ष की, बृहस्पति की 16, शनि की 19 वर्ष की, बुध की 17 वर्ष की, केतु की 7 वर्ष की और शुक्र की 20 वर्ष की विंशोत्तरी महादशा मानी गई है।
आपको जन्म के समय कौन सी दशा चल रही थी उसका ज्ञान होना ही चाहिए। उस दशा को पहली दशा मानकर कुछ दशाएँ खराब मानी गयी हैं, वे इस प्रकार हंै-
यदि चौथी दशा शनि की हो, बृहस्पति की छठी, राहु और मंगल की पाँचवीं हो तो खराब जाती है।
मान लो कोई ग्रह किसी भाव के आखिरी अंश पर है अर्थात् 30वें अंश पर तो उसकी दशा भी खराब जाती है।
जिस ग्रह की महादशा चल रही है, उस ग्रह की दिशा का भी ज्ञान कर लेना चाहिए। बुध और बृहस्पति पूर्व दिशा में बलवान होते हैं, चन्द्रमा और शुक्र उत्तर दिशा में, शनि पश्चिम दिशा में तथा मंगल और सूर्य दक्षिण दिशा में बलवान होते हैं। ग्रह अपनी दशा में अपनी ही दिशा में ले जाते हैं और अपने ही विषयों से लाभ करवाते हैं। उस दशाकाल में किसी की भी नहीं चलती, खाली उस ग्रह की चलती है। पर यदि वह ग्रह खराब हुआ और कष्ट देने वाला हुआ तो उसकी दशा में बर्बादी भी आ सकती है।
कोई भी ग्रह अपनी सम्पूर्ण महादशा में पूरा फल देता है। परन्तु प्रत्येक महादशा में सभी ग्रह बारी-बारी से अन्तर्दशा के रूप में भी आते हैं। उस समय अन्तर्दशा वाले ग्रह के परिणाम ही अधिक देखने को मिलते हैं।
कितने चन्द्रमा हैं सौर मण्डल में
एक फिल्मी गीतकार ने गीत गढ़ा ‘‘एक रात में दो-दो चाँद खिले, एक घूँघट में एक बदली में...’’। यदि गीतकार को पता होता कि बदली में बहुत ज्यादा चाँद हैं तो शायद यह गीत नहीं गढ़ता। अमेरिकन खगोल शास्ति्रयों ने आसमान में, हमारे सौर मण्डल में चन्द्रमाओं की जो संख्या बताई है, वह विस्मित करने वाली है। शनि और बृहस्पति में तो जैसे मुकाबला चल रहा हो। अब शनि ग्रह के चन्द्रमाओं की संख्या 82 है और बृहस्पति के चन्द्रमाओं की संख्या 79 है। शनि के चक्कर लगाने वाले चन्द्रमाओं में से 17 तो मनमौजी हैं और शनि की विपरीत दिशा में चक्कर लगाते हैं। मंगल के 2 चन्द्रमा हैं। हमारी पृथ्वी का तो एक ही चन्द्रमा है। बुध और शुक्र का कोई चन्द्रमा नहीं है। अरुण या यूरेनस के 27 चन्द्रमा खोज लिये गये हैं। वरुण ग्रह के 14 चन्द्रमा खोज लिये गये हैं।
हम अपने एक चन्द्रमा को लेकर ही बहुत खुश हैं। तमाम साहित्य, चन्द्रमा की उपमाओं से भरा हुआ है। सौन्दर्य के सारे प्रतिमान चन्द्रमा को लेकर गढ़े गये हैं और फिल्मी गानों की बात तो आप पूछिये ही मत।
शनि ग्रह का एक चन्द्रमा टाइटन एकमात्र ऐसा चन्द्रमा है, जिस पर नहर, सागर और नदियों के ठोस प्रमाण उपलब्ध हुए हैं। हालाँकि अब घना वायुमण्डल है और यह सब दूर से नहीं दिखते। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ में ऐसे प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं जिसमें पृथ्वी के साथ टाइटन की समानता दिखाई गई है।
अगर छोटे-बड़े सारे ही उपग्रहों की गिनती कर ली जाए तो उनकी संख्या 2 हजार से ऊपर चली जाती है। भारतीय ज्योतिषियों के लिए यह बड़ी दुविधा हो सकती है कि हमारे चन्द्रमा को जो पितृ लोक माना हुआ है, तो अन्य ग्रहों के चन्द्रमाओं पर भी क्या मृतात्माओं का वास हो सकता है?
प्राणियों की आयु
शास्त्रों में कई प्राणियों की आयु का उल्लेख मिलता है। यह बड़ा रोचक है। मनुष्य तथा हाथी की परम आयु 120 वर्ष, घोड़ों की 32 वर्ष, ऊँट व गधों की परम आयु 25 वर्ष, कुत्ते की 12 वर्ष तथा भेड़ वगैरह की परम आयु 16 वर्ष मानी गयी है।
हमारी पृथ्वी
शास्त्रों में उपदेश है कि सुबह पहले उठते ही पृथ्वी की वन्दना करना चाहिए-
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।
बह्मवैवर्त पुराण में एक उल्लेख मिलता है कि समस्त देवता वाराह कल्प में पृथ्वी देवी का दर्शन प्राप्त कर सकते थे। हम आजकल पृथ्वी के स्थूल रूप को ही जानते हैं, उनके दैवीय स्वरूप को नहीं जानते। भगवान ने जब वराह अवतार लिया तो सबसे पहले भगवान वराह ने ही पृथ्वी की पूजा की और बाद में मुनियों, मनुओं, दानवों तथा मानवों ने पृथ्वी की पूजा की। भगवान वराह से पृथ्वी को यही वरदान मिला था।
स्कन्द पुराण में यह उल्लेख है कि वैंकटगिरि पर स्वामी पुष्करिणी नदी के तट पर भगवान वराह भू-देवी के साथ आज भी विराजमान हैं।
पुराणों में भगवती सीता और मंगल ग्रह को पृथ्वी देवी की सन्तान माना गया। चन्द्रमा को पृथ्वी का सहोदर माना गया है और इसीलिए उसे चन्दा मामा की संज्ञा दी गई है। खगोल वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी और चन्द्रमा की उत्पत्ति का काल एक ही है और वे एक ही पिण्ड से उत्पन्न हुए हैं।
जल प्रलय के समय सम्भवतः समस्त पृथ्वी के चहुँओर जल हो गया था और भगवान वराह ने अवतार लेकर अपने थूथन से पृथ्वी को बाहर निकाल लिया था। आधुनिक वैज्ञानिक इस घटना का समीकरण किसी खगोलीय घटनाक्रम से करते हैं।
तुलसी माहात्म्य
पुराणों में उल्लेख है कि जहाँ तुलसी के पौधे होते हैं या तुलसी वन होता है वह जगह पवित्र हो जाती है। जहाँ भगवान की तुलसी मभ्रियों से पूजा होती है वहाँ के लोग मोक्ष प्राप्त करते हैं और पुनर्जन्म नहीं होता।
तुलसी वृक्ष की जड़ से लेकर उसकी छाया तक में भी देवताओं का वास होता है। तुलसी के पत्ते डालकर उस जल से शालिग्राम या अन्य देवताओं का अभिषेक करने से बड़ा पुण्य मिलता है। तुलसी वन में या तुलसी वृक्ष के समीप किया गया कोई भी अनुष्ठान जप या तप भगवान को बहुत प्रिय लगता है। तुलसी वृक्ष के नीचे की मिट्टी भी अत्यंत पवित्र मानी गयी है। तुलसी की माला या तुलसी की कण्ठी पहनना बहुत शुभ माना गया है। इससे यमदूतों का भय नहीं होता।
श्राद्ध वाले भोजन में तुलसी के प्रयोग से पितृ बहुत प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध तर्पण में तुलसी का प्रयोग किया जाना चाहिए। भारत में परम्परा रही है कि मृत्यु काल में मुख में तुलसी, गंगाजल या सोने की कोई चीज रखी जाती थी। बहुत सारे लोग मृत्युकाल में तुलसी के पौधे का गमला पास में रख देते थे। मान्यता है कि वहाँ पर यमदूत नहीं फटकते और विष्णु के दूत उसे स्वर्ग में ले जाते हैं।
भगवान शंकर ने नारद को बताया कि यदि मृतक का शरीर तुलसी काष्ठ से जलाया जाता है तो वह विष्णु लोक को प्राप्त करते हैं। इसी धारणा के वशीभूत चिताओं में तुलसी काष्ठ रखी जाती है। पद्मपुराण में एक श£ोक मिलता है-
यद्येकं तुलसीकाष्ठं मध्ये काष्ठशतस्य हि।
दाहकाले भवेन्मुक्तिः कोटिपापयुतस्य च।।
इस श£ोक का अर्थ है कि यदि दाह संस्कार के समय अन्य लकड़ियों के साथ-साथ तुलसी का एक भी काष्ठ हो तो व्यक्ति करोड़ों पाप करने के बाद भी मुक्त हो जाता है।
पद्म पुराण यह भी कहता है कि कलियुग में जिनके घर में तुलसी वृक्ष हो और उसके नीचे शालिग्राम शिला हो और उसका पूजन नित प्रति होता हो तो वह व्यक्ति विष्णु लोक को प्राप्त करता है।
आयुर्वेद ने तुलसी को बहुत बड़ी औषधि माना है। समस्त ज्वर, कास, श्वास आदि रोगों में तुलसी बहुत शानदार कार्य करती है। दूषित कीटाणुओं का नाश होता है। शूल इत्यादि पीड़ाओं में भी तुलसी मदद करती है। दही और तुलसी का लगातार प्रयोग वायरस जन्य बीमारियों को नष्ट करता है।
तुलसी कभी बासी नहीं होती और उसका बार-बार उपयोग किया जा सकता है। पूजा में बासी जल और बासी पुष्प वर्जित होते हैं, परन्तु तुलसी दल और गंगाजल बासी होने पर भी प्रयोग किया जा सकता है। रविवार, अमावस्या, द्वादशी एवं जिस दिन सूर्य राशि बदले, उस दिन तुलसी का चयन निषिद्ध है, परन्तु पूजा निषिद्ध नहीं है। अतः इन दिनों से पहले दिन ही तुलसी का चयन कर लेना चाहिए। ग्रहण के समय तथा आधी रात के बाद तीन घंटे तक भी तुलसी पत्र को वृक्ष से अलग नहीं करना चाहिए। तुलसी की पत्तियों को तभी हाथ लगाया जाए जब स्नान कर लिया जाए। बिना स्नान किये तुलसी दल चयन से पूजा निष्फल हो जाती है।
तुलसी का यह जो नामाष्टक है इसे करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है, ऐसा देवी पुराण में उल्लेख है-
वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी।
पुष्पसारा नन्दिनी च तुलसी कृष्णजीवनी।।
एतन्नामाष्टकं चैव स्तोत्रं नामार्थसंयुतम्।
यः पठेत्तां च सम्पूज्य सोऽश्वमेधफलं लभेत्।।
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