नये वर्ष में ग्रहों की चाल  पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

ग्रहों की गति के हिसाब से वर्ष 2022 विशेष हो चला है। शनिदेव ढाई वर्ष मकर में रहने के बाद कुम्भ राशि में आ जाएंगे। बृहस्पति कुम्भ से मीन राशि में आ जाएंगे। चन्द्रमा हर सवा दो दिन में राशि बदलते हैं, सूर्य प्रत्येक महीने 14-15 तारीख के आसपास राशि बदलते हैं, मंगल वर्ष के प्रारम्भ में जहाँ वृश्चिक राशि में हैं वहाँ से वर्ष के अंत में 6 राशियाँ पार करके वृषभ राशि में पहुंच जाएंगे। बुध ग्रह वर्ष के आरम्भ में धनु राशि में हैं और वर्ष के अन्त में 12 राशि पार करके मकर राशि में पहुँच जाएंगे। शुक्र ग्रह वर्ष के आरम्भ में मकर राशि में हैं और 11 राशि पार करके धनु राशि में पहुँच जाएंगे। इसी तरह से राहु-केतु भी राशि बदलेंगे। राहु मार्च 2022 में मेष राशि में आ जाएंगे और केतु उसी दिन तुला राशि में आ जाएंगे। यह दोनों ग्रह इन राशियों में ढ़ेड वर्ष तक रुकेंगे। ग्रहों का राशि बदलना एक नियमित प्रक्रिया है, परन्तु ऐसे ग्रह जिनकी कक्षा में भ्रमण की अवधि अधिक है वे जब किसी एक खास वर्ष में ही राशि बदलते हैं तो विशेष घटनाएँ जन्म लेती हैं। उस पर भी यह ग्रह जब गति बदलते हैं अर्थात् वक्री होते हैं या सामान्य से अधिक या कम गति करते हैं तो पूरी पृथ्वी प्रभावित होती है और घटनाओं की संख्या बढ़ जाती है। प्रकृति में विक्षोभ होने से न केवल प्राकृतिक घटनाएँ घटती हैं अपितु प्राणि मात्र के मन-मस्तिष्क में विचलन उत्पन्न होता है और निजी या सामुदायिक घटनाएँ जन्म लेती हैं।

 

पृथ्वी पर जो भी परिवर्तन आते हैं वो ग्रहों की गति में परिवर्तन से आते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड एक महान आकर्षण बल से परस्पर गुँथा हुआ है या बँधा हुआ है। प्रकृति जब ईश्वर में विलीन होती है तो उस ईश्वरीय शक्ति के प्रबल आकर्षण में सब कुछ विलीन हो जाता है। ग्रह, नक्षत्र, मंदाकिनियाँ, आकाश गंगाएँ, ब्लैक होल और सब कुछ। और जब प्रकृति उस अनन्त आकर्षण बल और ऊर्जा से उक्त उस ईश्वरीय पुँज से जब पुनः विस्तार पाती है तो जितने भी भौतिक पिण्ड जन्म लेते हैं, कम या ज्यादा आकर्षण बल से युक्त होते हैं। स्थूल रूप में गुरुत्वाकर्षण बल और सूक्ष्म रूप में हम उसे चुम्बकीय बल कह सकते हैं। इसी के कारण ग्रह नक्षत्रों पर उपस्थित सभी वस्तुएँ या प्राणी उस ग्रह से चिपके हुए अपने - अपने कार्य सम्पादन करते हैं। परन्तु नक्षत्रों के परस्पर गुरुत्वाकर्षण और ग्रहों के परस्पर आकर्षण बल के कारण इनकी गतियों में परिवर्तन आते हैं और इसके कारण ग्रहों पर जन-जीवन में परिवर्तन आते हैं। हम चूंकि पृथ्वी पर रहते हैं, इसीलिए पृथ्वी के बारे में जानते हैं और ज्योतिष पृथ्वी पर इन बलों और गतियों में परिवर्तन के कारण उत्पन्न हुए प्रभावों का आकलन करती है

अनुभव में आया है कि शनि और बृहस्पति जैसे ग्रह एक साथ वक्री हों तो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ जन्म लेने लगती हैं। एक-दो और ग्रह वक्री हो जाएं तो भूगर्भ के अन्दर भी परिवर्तन आते हैं और चट्टानें इधर से उधर खिसकती हैं। पृथ्वी के अन्दर का लावा बाहर आने की कोशिश करता है। कभी सुनामी आती है, तो कभी भूकम्प तो कभी भूस्खलन, तो कभी नदियों के मार्ग बदलते हैं। कभी नदियाँ भूगर्भ में समा जाती हैं तो कभी जल के नए स्रोत बाहर निकल पड़ते हैं। ज्वालामुखी का जागृत हो जाना एक सहज सी घटना है। पृथ्वी पर दुर्घटनाएँ, जलजला व प्राकृतिक उत्पात बढ़ जाता है। कभी जल युग आ जाता है तो कभी हिमयुग। उदाहरण के लिए वर्तमान में बहुत सारे हिमखण्ड, हिम पर्वत या बर्फ प्रदेश कई गुना तेज गति से पिघल रहे हैं और समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। जब समुद्र का जल स्तर बढ़ता है तो तटवर्तीय प्रदेश डूब जाते हैं। प्रकृति ने भगवान कृष्ण की द्वारिका को भी नहीं बक्शा और दक्षिण में पल्लव राजवंश के द्वारा बनाये गये महाबलिपुरम् के 7 मंदिरों में से 6 मंदिर समुद्र में डूब गये हैं और एक मंदिर आज भी दृश्यमान है।

कैसा रहेगा वर्ष 2022

अप्रैल, 2022 के अंत में शनिदेव मकर राशि से कुम्भ राशि में आ जाएंगे और जून के प्रथम सप्ताह में वक्री होकर उलट गति करते हुए एक बार फिर से मकर राशि में आ जाएंगे, जहाँ वे 2022 पर्यन्त रहेंगे। जनवरी, 2023 में ही वापिस कुम्भ राशि में जा पाएंगे। यह एक अद्भुत बात है। इसी तरह से 5 जून को शनि वक्री होंगे और उनके वक्री रहते हुए, बृहस्पति भी 29 जुलाई को वक्री हो जाएंगे। ये दो ग्रह जब एक साथ वक्री होते हैं तो इतिहास बदलने वाली घटनाएँ होती हैं। ये दोनों ग्रह काफी दिनों तक एक साथ वक्री रहेंगे। शनि 23 अक्टूबर को मार्गी हो जाएंगे परन्तु बृहस्पति और भी अधिक दिनों तक वक्री रहेंगे। परन्तु तब तक मंगल भी वक्री हो जाएंगे। यानि मंगल और बृहस्पति भी एक साथ काफी दिनों तक वक्री रहेंगे। बृहस्पति मीन राशि में 24 नवम्बर तक वक्री रहेंगे। वे उस दिन मार्गी हो जाएंगे परन्तु मंगल की वक्री गति वर्ष के अंत तक बनी रहेगी और वर्ष पूरा होने से पहले ही 2022 के अंतिम सप्ताह में बुध भी वक्री हो जाएंगे।

हमारा अनुभव कहता है कि जब शनि और बृहस्पति एक साथ वक्री रहें, वो भी इतने दिनों तक तो इतिहास बनाने वाली घटनाएँ घटती हैं और जब मंगल भी वक्री होते हैं तो हिंसक घटनाएँ आती हैं, सीमा पर तनाव आते हैं, जनधन की हानि होती है और जब बुध वक्री हो जाएं तो आर्थिक जगत में हलचल व्याप्त हो जाती है। बड़े ग्रहों के साथ मंगल का वक्री होना इसीलिए भी चिन्ताजनक रहता है क्योंकि भूमि की ऊपरी और निचली सतहों में स्खलन होते हैं, चट्टानें खिसकती हैं और प्राकृतिक घटनाएं जन्म लेती हैं। मंगल ही अग्नि हैं, आग्रेयास्त्र हैं, बम विस्फोट हैं, हथियार संचालन हैं और व्यापक रक्तपात हैं।

भारत के लिए यह सुखद माना जा सकता है कि शनिदेव पुनः उस राशि में आ जाएंगे जो कि उनकी प्रभाव राशि है और भारत की 15 अगस्त, 1947 वाली वृषभ लग्न की जन्म पत्रिका के भाग्य भाव में रहेंगे, वक्री रहते हुए शत्रु नाश करेंगे, विरोधियों का दमन करेंगे और चाहे माहमारी का प्रभाव हो और चाहे सीमा पर तनाव हो, देश की उन्नति होगी, अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा यद्यपि देश के राजनीतिक परिदृश्य में कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे। आगामी चुनावों में भारी उथल-पुथल होने वाली है और नये परिणाम देखने को मिलेंगे।

चूंकि अप्रैल के अंतिम सप्ताह में शनिदेव कुम्भ राशि में आ चुके होंगे और उसका प्रभाव अभी से ही प्रारम्भ हो चुका है, ऐसी मान्यता है कि धर्म से सम्बन्धित, आध्यात्म से सम्बन्धित, कुम्भ से सम्बन्धित, जल क्षेत्रों से सम्बन्धित, धार्मिक आस्थाओं से सम्बन्धित विषयों में बढ़ोत्तरी होंगी। इस राशि के प्रतिनिधियों को लाभ होगा।

 

पुच्छलतारा या धूमकेतु

दो शताब्दी पहले तक इन धूमकेतुओं का दिखाई देना अशुभ शकुन माना जाता था। इनके दिखाई देने से बड़ी विपत्ति आने की आशंका होती थी। सत्रहवीं शताब्दी में जॉन कैपलर, आइजक न्यूटन और एडमंड हैली की खोजों से यह ज्ञात हुआ कि इन धूमकेतुओं की आभासीय गतियाँ यद्यपि अजीब मालूम पड़ती हैं मगर यह वास्तव में आकाशीय गोले (खगोल) में उन नियमों पर ही चलते हैं जिन पर दूसरे ग्रह। धूमकेतु दीर्घवृत्ताकार मार्ग में ही यात्रा करते हैं। उनके पथ की एक नाभि पर सूर्य है। धूमकेतुओं की कक्षा का दीर्घवृत्त अधिक बड़ा और अधिक उत्केन्द्रता वाला (चपटा) होता है। यह आकाश में अचानक कुछ दिन, सप्ताह या मास तक दिखाई देते हैं। नीचे दी हुई आकृति कुछ धूमकेतुओं के मार्ग को दर्शाती है।

पिछली दो शताब्दियों की खोजों ने यह विश्वास दिलाया है कि धूमकेतुओं की नाभि काफी छोटी है, जो बर्फ और धूल के कणों से बनी होती है। इनकी पूंछ इनकी नाभि से 10 लाख से 1 करोड़ गुणी तक बड़ी होती है। इस ठोस नाभि के कारण ही इनका पथ निर्धारित होता है। जब यह नाभि सूर्य नीच (सूर्य के अधिकतम समीप) हो उस समय यह ठंडी और नंगी होती है मगर जैसे ही यह सूर्य के समीप पहुंचती है इसकी बर्फ पिघलने लगती है और भाप और गैस बनकर उड़ने लगती है और यह इसके समीप करोड़ों किलोमीटर तक के धूल के कणों (जो इसके पीछे होते हैं) पर फैल जाती है और इसकी लम्बी पूंछ बना देती है। यह धूल के बादल ही सूर्य के प्रकाश में चमकते हैं।

सूर्य नीच पर इन धूमकेतुओं का द्रव्यमान काफी कम हो जाता है। एक सौ/ एक हजार बार सूर्य नीच पर आने पर यह धूमकेतु समाप्त हो जाते हैं। एन्के धूमकेतु जिसकी परिक्रमा की अवधि 3.3 वर्ष है, उसकी चमक धीरे धीरे कम हो रही है। यहाँ तक कि ऐसे धूमकेतु जिनकी परिक्रमा की अवधि बहुत अधिक है, उनका जीवन भी एक करोड़ वर्ष से अधिक नहीं होता जो कि सौर मंडल की आयु 4.6 x 100 वर्ष से बहुत कम है। जिनकी परिक्रमा की अवधि कम होती है उनकी आयु काफी कम है।  इनमें कुछ धूमकेतुओं की गति मार्गी और कुछ की वक्री होती है। सारे ग्रह एक ही दिशा में सूर्य की परिक्रमा करते हैं। धूमकेतुओं के नाम साधारणतया उनके खोजकर्त्ताओं के नाम पर ही रख दिए जाते हैं।

धूमकेतु दो प्रकार के होते हैं। 1. सावधिक (स+अवधिक), 2. अनावधिक (अन+अवधिक)।

सावधिक धूमकेतु वह होते हैं जो निश्चित अवधि के पश्चात् पुनः आकाश में दिखाई देते हैं। जिनकी सूर्य की परिक्रमा करने की अवधि होती है। सावधिक में हेली का धूमकेतु व एन्के का धूमकेतु प्रसिद्घ हैं। यद्यपि ऐसे धूमकेतुओं की संख्या भी काफी है।

हेली का धूमकेतु

हेली धूमकेतु की परिक्रमा करने की अवधि 2-1/2 वर्ष कम या अधिक भी हो सकती है। यह अन्तर दूसरे ग्रहों में गुरुत्वाकर्षण के कारण आता है। इसकी वर्तमान अवधि 76.09 वर्ष है और सूर्यनीच पर 0.5872 खगोलीय इकाई और सूर्य उच्च पर 35.33 खगोलीय इकाई की दूरी है। इसकी गति वक्री है। अंग्रेज खगोलविद् एडमोंड हेली जब केवल 26 वर्ष के ही थे तब वह 1682 ई. में इस धूमकेतु को देखकर बड़ी कठिनाई में पड़ गए कि यह क्या है? और उन्होंने आइजक न्यूटन, जो आकर्षण शक्ति और ग्रहों के पथ पर कार्य कर रहे थे, से कहा कि वह उसकी खोज को प्रकाशित करा दें। हेली ने न्यूटन के सिद्घांतों को 24 धूमकेतुओं की गणनाओं में काम में लिया। उसने पाया कि ऐसा धूमकेतु 1531 व 1607 में भी देखा गया था और वह धूमकेतु भी यही था। उसने भविष्यवाणी की यह पुनः 1759 में देखा जावेगा। यह धूमकेतु 25 दिसम्बर, 1958 को देखा गया और उसकी गणना के अनुसार की गई भविष्यवाणी सही उतरी। यह 1986 ई. में भी देखा था और इसके 2061 में पुनः दिखाई देने का अनुमान है।

एन्के का धूमकेतु

यह न्यूनतम अवधि में परिक्रमा करने वाला ज्ञात धूमकेतु है। यह सूर्य की 3.3 वर्ष में एक परिक्रमा करता है। जब यह सूर्यनीच पर होता है, तब इसकी सूर्य से दूरी बुध से भी कम हो जाती है। इसकी चमक धीरे धीरे कम होती जा रही है। यह मार्गी चलता है।

अनावधिक धूमकेतु

अनावधिक धूमकेतुओं का पथ बहुत बड़ा दीर्घवृत्त होता है और एक बार दिखाई देने के बाद सूर्य से इतनी दूर पहुंच जाते हैं कि इनका पथ किसी कारणवश इतना बदल जावे कि वह सूर्य की आकर्षण शक्ति से बंधे नहीं रह पावें। तब इनका पथ परवलय की तरह हो जाता है और पुनः सौर मंडल में वापिस नहीं आते। कुछ ऐसे भी होते हैं जो किसी ग्रह के काफी समीप से गुजरते समय उसकी आकर्षण शक्ति के कारण उसके चारों और छोटे पथ पर परिक्रमा करने लगते हैं। ऐसे धूमकेतुओं की संख्या सावधिक धूमकेतुओं से बहुत अधिक है।

उल्का

सौर मंडल में ग्रह, उपग्रह, लघुग्रह, धूमकेतुओं के अलावा मध्य का स्थान पूर्णरूप से रिक्त नहीं है बल्कि उसमें धूल के कण, शिला-खण्ड और गैस आदि भी हैं। धूल के कण जो बालू के कण से भी छोटे होते हैं, इनके कम घनत्व के कारण यह पृथ्वी तक नहीं पहुंच पाते। इनके पथ की रचना से ज्ञात होता है कि यह धूमकेतुओं के अवशेष हैं। ये कण जब 45 मील प्रति सैकिंड तक की गति से पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं तब वायु के कणों से घर्षण होने के कारण यह गर्म होकर जलने लगते हैं और चमक पैदा होती है। इन्हें टूटता तारा साधारण भाषा में कहते हैं।

उल्का पिण्ड

यह बडे आकार के पत्थर जैसे टुकड़े होते हैं। जो वायुमण्डल में पूर्णतया जल नहीं पाते और पृथ्वी पर गिरकर गड्ढा बनाते हुए पृथ्वी में घुस जाते हैं। अब यह अनुमान है कि 1 किलोमीटर से अधिक द्रव्यमान के उल्कापिण्ड लघुग्रहों के टुकउे हैं। इनके वायुमण्डल में आने की कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

 

शिव-पूजन के लिए विहित पत्र-पुष्प

भगवान शंकर पर फूल चढ़ाने का बहुत अधिक महत्व है। बतलाया जाता है कि तपःशील सर्वगुणसंपन्न वेद में निष्णात किसी ब्राह्मण को सौ सुवर्ण-दान करने पर जो फल प्राप्त होता है, वह भगवान शंकर पर सौ फूल चढ़ा देने से प्राप्त हो जाता है। कौन-कौन पत्र-पुष्प शिव के लिये विहित हैं और कौन-कौन निषिद्ध हैं, इनकी जानकारी अपेक्षित है। अतः उनका उल्लेख यहां किया जाता है-

पहली बात यह है कि भगवान विष्णु के लिए जो-जो पत्र और पुष्प विहित हैं, वे सब भगवान शंकर पर भी चढ़ाये जाते हैं। केवल केतकी-केवड़े का निषेध है।

शास्त्रों ने कुछ फूलों के चढ़ाने से मिलने वाले फल का तारतम्य बतलाया है, जैसे दस सुवर्ण-माप के बराबर सुवर्ण-दान का फल, एक आक के फूल को चढ़ाने से मिल जाता है। हजार आक के फूलों की अपेक्षा एक कनेर का फूल, हजार कनेर के फूलों के चढ़ाने की अपेक्षा एक बिल्वपत्र से फल मिल जाता है और हजार बिल्वपत्रों की अपेक्षा एक गूमाफूल (द्रोण-पुष्प) होता है। इस तरह हजार गूमा से बढ़कर एक चिचिडा, हजार चिचिडों (अपामार्गों) से बढ़कर एक कुश का फूल, हजार कुश-पुष्पों से बढ़कर एक शमी का पत्ता, हजार शमी के पत्तों से बढ़कर एक नीलकमल, हजार नीलकमलों से बढ़कर एक धतूरा, हजार धतूरों से बढ़कर एक शमी का फूल होता है। अंत में बतलाया है कि समस्त फूलों की जातियों में सबसे बढ़कर नीलकमल होता है।

भगवान व्यास ने कनेर की कोटि में चमेली, मौलसिरी, पाटला, मदार, श्वेतकमल, शमी के फूल और बड़ी भटकटैया को रखा है। इसी तरह धतूरे की कोटि में नागचम्पा और पुनांग को माना है।

शास्त्रों ने भगवान शंकर की पूजा में मौलसिरी (बकबकुल) के फूल को ही अधिक महत्व दिया है।

भविष्यपुराण ने भगवान शंकर पर चढ़ाने योग्य और भी फूलों के नाम गिनाए हैं।

करवीर (कनेर), मौलसिरी (आक), धतूरा, पाढर, बड़ी कटेरी, कुरैया, कास, मन्दार, अपराजिता, शमी का फूल, कुब्जक, शंखपुष्पी, चिचिडा, कमल, चमेली, नागचम्पा, चम्पा, खस, तगर, नागकेसर, किंकिरात (करंटक अर्थात पीले फूल वाली कटसरैया) गूमा, शीशम, गूलर, जयन्ती, बेला, पलाश, बेलपत्ता, कुसुम्भ-पुष्प, कुंकुम अर्थात केसर, नीलकमल और लाल कमल। जल एवं स्थल में उत्पन्न जितने सुगंधित फूल हैं, सभी भगवान शंकर को प्रिय हैं।

शिवार्चा में निषिद्ध पत्र-पुष्प

कदम्ब, सारहीन फूल या कठूमर, केवड़ा, शिरीष, तिन्तिणी, बकुल (मौलसिरी), कोष्ठ, कैथ, गाजर, बहेड़ा, कपास, गंभारी, पत्रकंटक, सेमल, अनार, धव, बसंत ऋतु में खिलने वाला कंद-विशेष, कुंद, जूही, मदन्ती, सर्ज और दोपहरिया के फूल भगवान शंकर पर नहीं चढ़ाने चाहिए। वीरमित्रोदय में इनका संकलन किया गया है।

 

कर्मठ हाथ

जैनेन्द्र कुमार

सक्रिय या कर्मठ हाथ

इस हाथ को परिश्रमी, अध्यवसायी, उत्साही, उद्यमशील, कर्मण्य, कर्मनिष्ठ, कर्मशील, खोजी, विज्ञानी, चमसाकार, क्रियाशील, दृढ़कारी, पराक्रमी, पुरुषार्थी, प्रयासी, मशक्कती, मेहनती, श्रमी, वर्चस्वी, साहसी, समुद्यमी, गतिशील, सक्रिय, हिम्मती, जानदार, क्रियमाण, चर, चल, सचल, कर्मी, मौलिक, स्वतंत्र, अनुसंधानी आदि नामों से भी जाना जाता है।

 

पहचान : सक्रिय हाथ चौड़ाई की तुलना में लंबा अधिक होता है। हथेली पर पाए जाने वाले पर्वत मांसल, कठोर और भारी होते हैं फिर भी ऐसे हाथों में पाए जाने वाले पर्वत अविकसित ही होते हैं, बनावट की दृष्टि से उन्हें उन्नत या विकसित नहीं कहा जा सकता। अधिकतर पर्वत करतल की सतह के बराबर या धंसे होते हैं। करतल का आरंभ थुलथुल और भारी होता है, जबकि करतल का अग्र भाग तुलनात्मक रूप से हल्का और कम थुलथुल होता है। सक्रिय हाथ में अंगुलियों का अग्रभाग अर्थात तृतीय पोर आगे से फैले होते हैं। हथेली के पृष्ठ भाग पर बाल पाए जाते हैं, जो सघन नहीं होते बल्कि दूर-दूर होते हैं और नरम होते हैं जो प्रायः सीधे खड़े नहीं होते बल्कि त्वचा पर लेटी अवस्था में रहते हैं। देखने पर ऐसा लगता है जैसे इन बालों को कंघी से संवारा गया हो। बालों का रंग गहरा काला नहीं होता या फिर ये गहरे कत्थई रंग के होते हैं। सक्रिय हाथों की अंगुलियों के प्रथम पोर के पृष्ठ भाग पर भी सामान्यतः बाल पाए जाते हैं। सक्रिय हाथ आकार की दृष्टि से बड़ा होता है और अंगुलियां सुविकसित और लंबी होती हैं। विशेषताएं, गुण, लक्षण, प्रभाव- कर्मठ हाथ सख्त और दृढ़ होने पर जातक का स्वभाव उत्तेजनायुक्त और अधैर्यवान होता है, साथ ही उसमें कार्यशक्ति एवं उत्साह प्रचुर मात्रा में होता है।

सक्रिय हाथ में करतल कोमल, पिलपिला और शिथिल होने पर जातक का चित्त अस्थिर और स्वभाव चिड़चिड़ा होता है। इस प्रकार के जातक का कोई निश्चित स्वभाव नहीं होता और इसे समझना बहुत ही मुश्किल होता है। ऐसे जातक कभी तो कार्य को पूरे जोश-खरोश और अति-उत्साह से करते हैं और कभी बिलकुल ही निराश व निरुत्साही नजर आते हैं। वह एकाग्रचितता के साथ किसी कार्य को लंबे समय तक करने में असमर्थ होता है। ऐसा जातक अल्पावधि के कार्य तो कुशलता व शीघ्रता से कर लेता है पर लंबी अवधि के कार्य संपन्न नहीं कर पाता क्योंकि चित की अस्थिरता व चंचलता उसे कार्य में बदलाव के लिए प्रेरित करती है और वह कार्य को अनवरत नहीं कर पाता बल्कि लक्ष्य प्राप्ति से पूर्व ही वह अमुक कार्य को छोड़ कर किसी अन्य कार्य में संलग्न हो जाता है।

सक्रिय हाथ के स्वामियों में अटूट लगन, अद्भुत कार्यशक्ति, आत्मनिर्भता व प्रबल इच्छाशक्ति होती है। प्रकृत्ति से संबंधित नए-नए सिद्ंधान्तों, नियमों के निर्माण में इनकी विशेष रुचि होती है। नवीन स्थानों, देशों की खोज में रुचि रखने वाले, समुद्री जहाजों के चालक, आविष्कारकर्ता व प्रकृति से संबंधित तथ्यों के विश्लेषणकर्ताओं के हाथ सामान्यतः सक्रिय ही पाए जाते हैं। ये स्वतंत्र और मौलिक सोच के धनी होते हैं। आत्मनिर्भरता इनमें कूट-कूट कर भरी होती है। आत्मनिर्भरता के कारण ये दूसरों का मुंह नहीं ताकते वरन् अपने स्वतंत्र व मौलिक विचारों को अपनी कर्मठता से यथार्थ रूप देकर नवीन तथ्यों का पता लगाने और खोज करने में सफल हो जाते हैं। आत्मनिर्भरता व उत्साह के सहारे वे नए सिद्धांत बनाते हैं, नए आविष्कार व खोज करते हैं एवं नई-नई बातों व तथ्यों के जन्मदाता कहलाते हैं। वे स्थापित कानून-कायदों को तजकर अपनी मौलिक सोच व स्वनिर्मित पद्धतियों को अपनाकर खोज करना पसंद करते हैं और इसी विशेषता के बल पर वे संसार को कुछ नया गढ़ने में सफलता अर्जित कर लेते हैं।

 

 

वाहन पूजन

भारतीय संस्कृति पर्व और त्यौहारों की संस्कृति है। यहां सात वार और नौ त्यौहारकी मान्यता पायी जाती है। तिथि, नक्षत्र आदि मुहूर्तों से भी अधिक कोई-कोई त्यौहार विशेष शुभ माने जाते हैं। उन्हीं में से एक पर्व दीपावली होता है। कई लोगों की मान्यता यह है कि वे अपने घर में जब भी कोई नया वाहन लाते हैं तो उसकी खरीद दीपावली को ही करते हैं। दीपावली को ही उसका पूजन करते हैं।

वाहन पूजन में सर्वप्रथम आदि गणेश का पंचोपचार पूजन किया जाता है। पश्चात नवग्रह, मातृका देवी, कुलदेवी व महाकाली की पूजा भी की जाती है। वाहन में विश्वकर्मा भगवान की पूजा की जाती है। वाहन के यंत्रों में सिंदूर आदि का टीका लगाया जाता है और प्रार्थना की जाती है कि हे विश्वकर्मा भगवान आप इस वाहन के यंत्रों को हमेशा चलित रूप में रखना तथा महाकाली से प्रार्थना की जाती है कि इस वाहन की व इस वाहन पर सवार साधक की आप रक्षा करती रहें। क्षेत्रपाल और भैरव बाबा को भी नमस्कार किया जाता है कि वह शहर के या परशहर के सभी चौराहों पर, दौराहों पर, तिराहों पर इस वाहन की व सवार की रक्षा करें।

श्री गणेश मंत्र

ॐ गं गणपतये नमः। (अथवा द्वादश नाम से)

श्री मातृका पूजन

गौर्यादि षोडशमातृकेभ्यः नमो नमः।

(इति नाम मंत्रेण पूजनम्)

नवग्रह पूजन

ब्रह्मामुरारिस्ति्रपुरांतकारि भानुः शशि भूमिसुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्रः शनि राहु केतवः सर्वे ग्रहाः शान्ति कराः भवन्तु॥

 

महाकाली पूजन

नमोदेव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।

नमः प्रकृत्यै भद्रायै नीयताः प्रणतः स्मृताम्॥

विश्वकर्मा पूजन

विश्वकर्मणे नमः। इति वाहन पूजनम्।