राधे तू बड़ भागिनी, कौन तपस्या कीन,

तीन लोक तारण तरण सो तोरे आधीन

कृष्ण और राधा का प्रेम एक सात्विक, अलौकिक एवं आत्मिक है। भगवान के गोलोक में जिन राधा-कृष्ण का वर्णन है, वे नित्य, निर्गुण, निर्विकार, अनादि और अनन्त हैं। जिन मथुरा के राधा-कृष्ण को हम जानते हैं, वे अवतार हैं, आदि कृष्ण नहीं। यह बात सुनने में बहुत लोगों को विचित्र लग सकती है, परन्तु श्रीकृष्ण के संदर्भ में जो प्रामाणिक ग्रंथ हैं, उनमें यह विवरण मिलता है। सबसे अधिक प्रामाणिक गर्ग संहिता है, जो कि यदुकुल के आचार्य व कृष्ण के भी गुरु महर्षि गर्गाचार्य ने लिखी थी। गर्गाचार्य अपने समय के महान ज्योतिषी और वास्तु आचार्य थे, जिनका उल्लेख वराह मिहिर प्रभृति परवर्ती विद्वानों ने बार-बार किया है। द्वापर की राधा कृष्ण से बड़ी थी और उसने जिद करके भगवान कृष्ण के साथ ही अवतार लेने का उपाय कर लिया था।

अवतरण की वह कथा -

पृथ्वी पर जब बहुत पाप प्रभाव बढ़ गया, तब ब्रह्मा-विष्णु-महेश भगवान कृष्ण के गोलोक धाम में पहुँचे तो उन्हें कृष्ण सखी शतचन्द्रानना को अपना यह परिचय भी देना पड़ा कि करोड़ों ब्रह्माण्डों में से वे किस ब्रह्माण्ड से गोलोक धाम पहुँचे थे। अर्थात् असंख्य ब्रह्माण्डों का ज्ञान वैदिक ऋषियों तक को था, जिन्होंने यह ग्रन्थ रचे। उसी व्यवस्था के अनुसार भगवान कृष्ण ने अवतार लेने का आश्वासन दिया।

अन्य अवतार -

द्वापर में भगवान कृष्ण और गोपियों के अलावा एक साथ बहुत सारे अवतार हुए। भगवान कृष्ण सेे वैकुण्ठ में विराजने वाली जितनी भी सखियाँ, सहचरियाँ, देवियाँ थीं, उन्हें बृज में गोपियों के रूप में आने का वरदान मिला। बहुत सारी नाग कन्याएँ भी आयीं। कश्यप जी वासुदेव के रूप में, उनकी पत्नी अदिति, जो कि दक्ष प्रजापति की पुत्री थी, देवकी के रूप में आई, प्राण नाम के वसु सूरसेन और ध्रुव देवक के रूप में आए, वसु ऊधव के रूप में आए, मरुत देवता उग्रसेन के रूप में आए, दक्ष प्रजापति अक्रूर के रूप में आए, भग नाम के सूर्य ने धृतराष्ट के रूप में जन्म लिया, द्वादश आदित्य में से ही एक ऊषा ने पाण्डु के रूप में जन्म लिया, धर्मराज ने युधिष्ठर के रूप जन्म लिया, वायु भीमसेन हुए, स्वायम्भू मनु अर्जुन के रूप में आए, शतरूपा सुभद्रा के रूप में और सूर्यनारायण कर्ण के रूप में आए। अग्नि देव द्रोणाचार्य के रूप में और दुर्योधन कलि के अंश के रूप में आए। कालनेमि ने कंस के रूप में अवतार लिया और शेष ने बलराम के रूप में अवतार लिया। कृष्ण भगवान ने यह भी कहा कि पिछले जितने भी अवतार हैं, उनकी रानियाँ रमा का अंश रही हैं। वे 16 हजार रानियों के रूप में प्रकट होंगी।

यह विवरण बहुत बड़ा है और भगवान कृष्ण का वह अवतार अध्याय असंख्य छोटे-बड़े अवतारों से युक्त है।

राधा -कृष्ण का विवाह -

मुझसे बहुत लोगों ने यह पूछा है कि क्या राधा और कृष्ण का विवाह भी हुआ था? राधा - कृष्ण के विवाह का सबसे बड़ा प्रमाण गर्ग संहिता ही है। गर्गाचार्य के अनुसार भाण्डीर वन में बाल्यकाल में ही नंदजी जब गये तो उन्होंने राधा को अपने दिव्य रूप में देखा और ऐसा करते ही वहाँ एक दिव्य धाम की सृष्टि हुई और भगवान कृष्ण भी अपने उस दिव्य मूल स्वरूप में प्रकट हो गये। अब कुछ भी अलौकिक नहीं रहा था। ब्रह्मा प्रकट हुए और उन्होंने लोक व्यवहार की सिद्धि के लिए अग्नि कुण्ड और अग्नि प्रकट करके उनका विवाह सम्पन्न कराया। देवताओं ने पुष्प वर्षा की और मंगल गान गाये। दक्षिणा के रूप में ब्रह्मा जी ने युगल चरणों की भक्ति ही माँगी। गर्ग संहिता में और भी विशद् विवरण है। जैसे ही भगवान ने अपना दिव्य रूप त्यागा वे पुन: शिशु रूप में आ गये।

16 हजार रानियों की कथा -

प्राचीन भारत में 2 राजाओं के बीच में जब युद्ध होता था, विजय तब सम्पूर्ण मानी जाती थी जब विजित राज्य की राज महिषियाँ, कन्याएँ, खजाना व हाथी-घोड़े विजेता के अधिकार में आ जाएँ। रामराज्य की कल्पना में राजा का यह धर्म होता था कि राजरानी रही हुई स्त्रियाँ अपमानित ना हों और उनके अन्य सुख तो समाप्त हो गये, परन्तु एक सम्मानजनक जीवन के दृष्टिकोण से कोई ना कोई व्यवस्था की जाती थी। अत: उनके लिए अलग से महल और उनका दर्जा सुनिश्चित कर दिया जाता था। इस कर्म में विजेता राजा का सांकेतिक या प्रतीकात्मक विवाह सम्पन्न करा दिया जाता था। इससे विजित नारियों का सम्मान सुरक्षित रह जाता था। मध्य भारत मेें भी विजित देश की नारियों को विजेता के हरम में शामिल किये जाने के प्रमाण मिलते हैं।

भगवान कृष्ण ने 16 हजार नारियों को शत्रु राजा से मुक्त कराकर उनसे सांकेतिक विवाह कर लिया था। यद्यपि गर्ग संहिता उन 16 हजार नारियों को भी अवतार ही मानती है। भौमासुर को पराजित करके भगवान कृष्ण ने 16 हजार 100 रानियों को मुक्त कराया था। जिन्हें बाद में भगवान कृष्ण की राजधानी में ले आया गया, जहाँ स्वयं श्रीराधा ने उनका सत्कार किया।

वृन्दावन -                                                                        

भगवान के अनन्त धाम गोलोक से पृथ्वी पर कृष्ण नहीं आना चाहते थे। अत: गोलोक या वैकुण्ठ धाम से सौ योजन लम्बा - चौड़ा भूखण्ड लाकर द्वारका की सृष्टि की गई। इसी तरह से वृन्दावन को प्रकट किया गया। वैकुण्ठ धाम में वृन्दावन का उल्लेख किया गया है और उस वृन्दावन की ही सृष्टि पृथ्वी पर की गई। गोवर्धन पर्वत भी अवतार के रूप में ही आया है। 84 कोस भूमि एवं यमुना नदी भी भूतल पर आई।

क्या राधा ही लक्ष्मी थी?

राधा लक्ष्मी नहीं थी। त्रेतायुग में माता सीता लक्ष्मी का अवतार थीं और द्वापर में राजा भीष्मक के घर लक्ष्मी का अवतार रूक्मणि के रूप में हुआ। पार्वती ने जामवन्ती के रूप में अवतार लिया। यह जामवन्त की पुत्री थी जो कि त्रेता और द्वापर दोनों में ही उपस्थित थे। कृष्ण की एक अन्य पत्नी सत्यभामा थी जिनके कई प्रकरण प्रचलित हुए।

गीता का उपदेश -

पहला उपदेश अर्जुन को नहीं मिला था। भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि उन्होंने पहला उपदेश विवस्वान को दिया था जो कि बाद में इक्ष्वाकु और मनु को मिला।

विराट स्वरूप के दर्शन -

भगवान के उस विराट स्वरूप के दर्शन दिव्य दृष्टि के बिना संभव नहीं थे। अगर दिव्य दृष्टि ना होती तो अर्जुन नष्ट हो जाता। परन्तु यह रहस्य का विषय है कि धृतराष्ट को महाभारत युद्ध का आँखों देखा हाल सुनाने वाले संजय ने भी क्या उनके विराट स्वरूप के दर्शन किये थे? इसी तरह से क्या घटोत्कच पुत्र बर्बरीक के सिर ने भगवान के विराट स्वरूप के दर्शन किये थे? यह बर्बरीक कलियुग में श्याम बाबा के नाम से प्रसिद्ध हैं। कृष्ण के विराट स्वरूप के प्रदर्शन की एक - दो और भी कथाएँ प्रचलन में हैं, जिनमें सबसे प्रमुख दुर्योधन की सभा में शान्ति प्रस्ताव को अस्वीकार करने पर क्रुद्ध कृष्ण ने राजसभा ने निकलते हुए दिखाया था।

राधा को शास्त्रों में कृष्ण से भी पूजित बताया गया है। कृष्ण को पाना है तो राधा को पाइये। वृन्दावन को छोड़ते समय कृष्ण ने उनके आने तक राधा को वहीं वास करने का निर्देश दिया था और वह छलिया कभी वापिस लौटे ही नहीं। इसीलिए वहाँ राधा का नित्य वास है। कहते हैं अगर किसी की मृत्यु वृन्दावन में हो जाए तो बाद में किसी प्राणी का कहीं अन्यत्र जन्म हो ही नहीं सकता।

मुझे दिवंगत हो गये एक संत बावला बाबा ने बताया था कि अगर राधा की कृपा पानी हो तो गोवर्धन में राधा कुण्ड है, उसमें राधा कृपा कटाक्ष का पाठ करें। मेरे वास्तु प्रयोगों से बावला बाबा का गोवर्धन स्थित आश्रम काफी पनप गया था परन्तु मैं आश्रम व्यवस्था में जुड़ जाने के उनके आग्रह को स्वीकार नहीं कर पाया था। गत जन्मों के ऋणों को मैं और नहीं बढ़ाना चाहता था। बावला बाबा ने अपने अंतिम क्षणों में भी मुझे याद किया, परंतु राधा वाला रहस्य वह मुझे पहले ही बता चुके थे।

 

 

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कर्क राशि के लिए रत्न

आपके लिए मोती, मूँगा रत्न शुभ हैं।

1. मोती पहनने से बीमारी से लडऩे की क्षमता में बढ़ोत्तरी होगी। आपको मानसिक शांति मिलेगी, मनोबल बढ़ेगा और सही समय पर सही निर्णय लेंगे, अपने कार्यों में सफलता प्राप्त करेंगे। आपके स्वभाव में कई बार जो लोगों से बदला लेने की भावना जन्म ले लेती है और उसमें आप अपना ही नुकसान कर बैठते हैं, उस भावना में कमी आएगी और आपका स्वभाव शांत होगा। लोगों से संबंध अच्छे रहेंगे और व्यक्तित्व में निखार आएगा।

आप सवा पाँच रत्ती का मोती, चाँदी की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के सोमवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की अनामिका अँगुली में पहनें। (सूर्योदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी  को धों लें। इसके बाद ॐ सोम सोमाय नम: मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।

2. मूँगा पहनने से आपमें साहस और उत्साह बढ़ेगा, आपके पद और सम्मान में बढ़ोत्तरी होगी, भाईयों और दोस्तों से ज्यादा फायदा मिलने लगेगा। अपने आजीविका के क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन कर सकेंगे और आपके अधिकार बढ़ेंगे। आप अधिक अनुशासित हो जाएंगे और अपने  साथ उठने-बैठने वाले व्यक्तियों को भी अनुशासन में ले आएंगे, जिससे आपके अधिकारी भी संतुष्ट रहेंगे। अगर आप प्रशासनिक परीक्षा दे रहे हैं तो उसमें भी सफलता के मौके बढ़ सकते हैं।

आप सवा पाँच रत्ती का मूँगा, सोने या ताँबे की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के मंगलवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की अनामिका अँगुली में पहनें। (सूर्योदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी को धोलें। इसके बाद ॐ अं अंगारकाय नम: मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।

 

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सिंदूर

            सिंदूर से सभी परिचित हैं। हिन्दू-समाज के तो घर-घर में इसका प्रयोग होता है। महिलाएं इसे सौभाग्य (सुहाग-पति की जीवितावस्था) का प्रतीक मानकर, माथे और सिर पर (माँग में) धारण करती हैं। कुमारी कन्याएँ माँग नहीं भरती। माँग भरने (माँग में सिंदूर लगाने) का अधिकार केवल विवाहित स्त्री (सधवा) को होता है। वैधव्य की स्थिति में पति से वंचित होने के साथ साथ वह पति के इस गौरवशाली चिह्न (सिन्दूर धारण, माँग भरना) से भी वंचित हो जाती है।

            किन्तु सिन्दूर को महिलाओं के लिए सौभाग्य-चिह्नï होने के अतिरिक्त अन्य कारणों से भी महत्त्व प्राप्त है। विभिन्न पूजा प्रसंगों में भी सिन्दूर प्रयुक्त होता है। लगभग सभी देवी प्रतिमाओं पर यह अर्पित किया जाता है। सीताजी, राधाजी, पार्वतीजी और दुर्गाजी तथा उनके समस्त प्रतिरूप सिंदूर से अलंकृत किये जाते हैं। गणेशजी और हनुमान जी को भी सिंदूर अर्पित किया जाता है।

            सिंदूर दो प्रकार का होता है - लाल और पीला। महिलाओं द्वारा प्राय: लाल सिंदूर ही प्रयोग किया जाता है, परन्तु पूजन-विधान में पीले सिंदूर को विशेष महत्त्व प्राप्त है।

            सिंदूर विष भी है, और अमृत भी। प्रयोग-भेद से यह दोनों तरह के (पोषक और मारक) प्रभाव दिखाता है। अब यह बात अलग है कि प्रयोग किया जाने वाला सिंदूर असली है या नकली। नकली सिंदूर का प्रभाव- आशा के प्रतिकूल भी हो सकता है। वह चाहे-तंत्र से संबंधित हो, चाहे आयुर्वेद से। श्रृंगार के लिए भी शुद्घ सिंदूर ही ठीक रहता है। मिलावटी चीजें बाद में, हानिकारक हो जाती है।

            सिन्दूर से अनेक प्रकार के घाव-पूरक मरहम आदि बनाये जाते हैं। बन्दर, कुत्ता जैसे जानवरों के काट लेने पर, घाव भरने के लिए सिंदूर का प्रयोग किया जाता है।

तान्त्रिक प्रयोग

मंगलवार के दिन, शुद्घ घी में सिंदूर मिलाकर वह लेप यदि हनुमानजी की प्रतिमा पर चढ़ाया जाये तो इससे वे भक्त पर प्रसन्न होते हैं।

प्रत्येक पूजा में गौरी, गणेश, दुर्गा, पार्वती, सीता, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियों (उनके चित्र, यंत्र, प्रतिमा) पर सिंदूर अवश्य अर्पित किया जाता है। ध्यान रहे कि देवी-प्रतिमा पर श्वेत चन्दन का लेप वर्जित है, इन्हें केवल सिंदूर ही चढ़ाना चाहिए। कहीं-कहीं प्रयोग भेद से दुर्गाजी तथा उनके प्रतिरूपों पर लाल चन्दन का लेप अर्पित करने का विधान है।

सिंदूर धनदायक भी होता है।

हाथाजोड़ी पर सिंदूर चढ़ाकर पूजा करने से वह समृद्घि और सम्मोहन प्रदान करती है।

सियारसिंगी पर चढ़ाया गया सिंदूर भी वशीकरण और सम्मोहन का प्रभाव उत्पन्न करता है।

हनुमानजी की प्रतिमा पर चढ़ा हुआ सिंदूर माथे पर टीका के रूप में लगाने से ओज तेज की वृद्घि होती है।

गौरी (पार्वती) की प्रतिमा पर चढ़ाये गये सिंदूर को धारण करने वाली महिलाएं सौभाग्य सम्पन्न होती है। उसे वे पार्वतीजी का प्रसाद मानकर उनकी कृपा की आकांक्षा रखती है।

आयुर्वेद में सिंदूर के शोधन का विधान है। शोधित सिंदूर अनेक रोग-विकार दूर करता है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति सावा (नित्य प्रयोग में आने वाला) सिंदूर खा ले (चाट ले) तो वह अनेक व्याधियों से ग्रस्त हो सकता है।

सिंदूर भार में अधिक होता है, अत: पूजा या औषधि के लिए हल्का सिंदूर कभी नहीं लेना चाहिए। वह नकली होने के कारण वाञ्छित प्रभाव नहीं दे पाता।

 

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पशुपतिनाथ मन्दिर

चार धामों की यात्रा में श्रद्घालु हिमालय क्षेत्र में जिन भगवान केदारनाथ के दर्शन करते हैं, उनका भगवान पशुपतिनाथ  से विशेष संबंध माना जाता है। शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव के एक ही शिव विग्रह का शिरोभाग पशुपतिनाथ है। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि चार धाम यात्रा करने के बाद भी पशुपतिनाथ के दर्शन किए बिना यात्रा पूरी नहीं होती।

अतीत से ही हिमालय का पूरा भू-भाग महेश्वर दर्शन का केन्द्र रहा है। महाभारत के वन पर्व में भगवान पशुपतिनाथ के क्षेत्र को महेश्वरपुर की संज्ञा दी गई है और कहा गया है कि महेश्वरपुर में जाकर भगवान शंकर की अर्चना करके उपवास रखने से  सभी कामनाएं पूरी होती है।

माहेश्वरपुर गत्वा अर्चयित्वा वृषध्वजम्।

ईप्सितांल्लभते कामानुपवासान्न संशय॥

शिवपुराण में पशुपतिनाथ व केदारनाथ के महत्व का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। शिवपुराण के अनुसार जब पाण्डव हिमाचल के पास पहुंचकर केदारनाथ के दर्शन करने के लिए आगे बढ़े तो पाण्डवों को देखकर भगवान शिव ने भैंसे का रूप धर लिया और भागने लगे। पाण्डवों ने उनकी पूंछ पकड़कर बार-बार प्रार्थना की तो नीचे की ओर मुंह कर शिव विराजमान हुए तथा भक्तवत्सल नाम से इसी रूप में स्थित हुए भगवान केदारनाथ का शिरोभाग नेपाल में पहुंचकर पशुपतिनाथ के रूप में प्रतिष्ठिïत हुआ।

पशुपतिनाथ मंदिर के बारे में स्कन्द पुराण में उल्लेख है। इसके अनुसार भगवान सदाशिव को शेष्मान्तक वन विशेष प्रिय था। भगवान शंकर पार्वती के साथ मृग बनकर विहार करते रहे। भगवान शिव को सभी देवतागण अपने बीच न पाकर दुखी हुए तथा खोजते खोजते शेष्मान्तक वन पहुंचे। वहाँ भगवान शिव एक सींग वाले त्रिनेत्र मृग के रूप में विचरण करते दिखाई दिए। ब्रह्मा, विष्णु व इन्द्र ने उन्हें पहचाना और सींग से पकड़कर वश में करना चाहा परन्तु भगवान शिव उछलकर वाग्मती नदी के पार पहुंच गए व वाग्मती के पश्चिम तट पर पशुपति के रूप में रहने लगे।

ऐसा माना जाता है कि पशुपति मंदिर के ज्योतिर्लिंग की प्रतिष्ठा ग्वालों ने करवाई थी। ग्वालों के बाद किरात राजाओं, लिच्छवि वंश व मल्ल वंश के नरेशों ने इस पवित्र मंदिर का निर्माण समय-समय पर करवाया तथा शाहवंश के राजाओं के समय तक आकर इसने वर्तमान स्वरूप प्राप्त किया।

काठमांडू शहर से 5 किलोमीटर दूर वाग्मती के पश्चिम तट पर स्थित पशुपतिनाथ मंदिर आकर्षक नेपाली वास्तुकला के नमूने के रूप में अवस्थित है। इस भव्य मंदिर की छतें स्वर्णमण्डित और दीवारें रजत जडि़त हैं। पशुपतिनाथ क्षेत्र का यह पावन परिसर हिन्दू संस्कृति के साथ साथ विभिन्न सम्प्रदायों का विशिष्टï साधना स्थल भी रहा है। दो सौ चौसठ हेक्टेयर जमीन में फैले पशुपतिनाथ क्षेत्र में आज दो सौ पैंतीस विविध शैली के मोहक मंदिर है, जो शैव, वैष्णव, शाक्त आदि वैदिक धर्म की विभिन्न शाखाओं से संबंधित हैं। बौद्घों के दो विहार तथा एक स्तूप व दो नानक मठ भी इसी क्षेत्र में स्थित हैं। श्रद्घालुओं व संतों के आवास के लिए अनेक मठ, आश्रम व धर्मशालाएं यहाँ हैं। गौरी, किरातेश्वर, गृह्यïकाली, बाबा गोरखनाथ, सीताराम, लक्ष्मी नारायण, भगवान विष्णु, नील सरस्वती, मंगलगौरी, भस्मेश्वर, माता वत्सला, मृगेश्वर आदि मन्दिर प्रमुख हैं।

पशुपति नाथ मंदिर की दर्शन विधि भी विशिष्ट है। दर्शन के क्रम में सबसे पहले भगवान पशुपतिनाथ की परिक्रमा पूरी की जाती है। तब मंदिर में प्रवेश करने की परम्परा है। भगवान शिव की केवल आधी परिक्रमा करने का निर्देश है। उत्तर की ओर बहने वाली जलधारा को भी लांघा नहीं जाता है।

पशुपतिनाथ मंदिर क्षेत्र में पूरे वर्ष भर विभिन्न धार्मिक आयोजन, पर्व मनाए जाते रहते हैं। महाशिवरात्रि, शीतलाष्टमी, हरिशयनी एवं हरि बोधनी एकादशी, श्रीव्यास जयंती, गुरु पूर्णिमा, हरि तालिका तीज, नवरात्र, वैकुण्ठ चतुदर्शी, बाला चतुदर्शी आदि पर्वों में भगवान पशुपति नाथ व क्षेत्र के अन्य मंदिरों में विशेष पूजन होने के कारण श्रद्घालुओं का तांता लगा रहता है।

इन पर्वों के अतिरिक्त पशुपतिनाथ क्षेत्र में चलाई जाने वाली यात्राएं भी प्रसिद्घ हैं। जिनमें वैशाख शुल्क पूर्णिमा को छंदों चैत्य यात्रा, आषाढ़ कृष्ण अष्टमी को त्रिशूल यात्रा, आषाढ़ शुक्ला सप्तमी को सूर्य तथा गंगा माई यात्रा, गाई यात्रा, खड्ग यात्रा, चन्द्र विनायक यात्रा, श्वेत भैरव यात्रा, नवदुर्गा यात्रा, गुहेश्वरी यात्रा आदि प्रमुख हैं।

पशुपतिनाथ के दर्शन के साथ साथ श्रद्घालु नेपाल के अन्य धार्मिक स्थलों के दर्शन हेतु भी जाते हैं। सुंसरी का वराह क्षेत्र, खोटाड़ का हलेसी महादेव, धनुषा का जानकी मंदिर, चितवन का देवघाट, काठमांडू का ब्रजयोगिनी, दक्षिण काली, बुढानील कण्ठ, स्वयंभूनाथ, बौद्घनाथ, गौरखा का मनकामना व गोरख काली, कपिल वस्तु व वाल्मिकी आश्रम प्रमुख हैं।

भगवान पशुपति नाथ देवों के भी देव यानी महादेव हैं। उनका महिमागान समग्र वैदिक, पौराणिक ग्रंथों में पाया जाता है। शुक्ल यजुर्वेद का 16वां अध्याय तो पूरा का पूरा भगवान-पशुपतिनाथ की स्तुतियों से भरा पड़ा है।