यू ही नही है नामकरण की व्यवस्था

                इस संसार में कोई व्यक्ति पूर्ण से सुखी और संतुष्ट कभी नहीं रहता। हर व्यक्ति हमेशा कई चिन्ताओं से ग्रस्त रहता है। किसी को धन की चिन्ता है, तो किसी को रोजगार की। मनुष्य की इच्छाएं अनेक हैं, सभी इच्छाएं पूरी हो नहीं पाती। यदि कोई इच्छा पूरी हो भी जाती है तो दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। इसीलिए भारतीय दर्शन में इस संसार को मृत्युलोक और भवसागर कहा है तथा इस भवसागर से पार उतरने के उपायों के लिए चिन्तन और मंथन होता रहा है। इस मृत्युलोक में कोई सुखी नहीं है। जो सुखी या सफल नजर आता है, उसके मन को टटोल कर देखा जाए तो पता चलता है कि वह भी अपने जीवन से घोर असंतुष्ट है, वह भी कई चिन्ताओं से ग्रसित है।

                जिसके पुत्र हैं, उसे पुत्रों के विवाह की चिन्ता है, जिसके विवाहित पुत्र हैं, उसे पौत्र उत्पन्न होने की चिन्ता है। जिसके पास करोड़ों की सम्पत्ति है, वह उससे संतुष्ट नहीं है, उसे अरबों रुपए की सम्पत्ति चाहिए। एक सेठजी मेरे पास अपने पौत्र का जन्म पत्र लेकर आए। मैंने जन्मपत्र देखकर कहा, 'यह बालक करोड़पति होगा।’ उन्होंने बड़े चिन्तित होकर कहा, 'करोड़पति होने से तो क्या होगा? अरबपति नहीं होगा क्या?’ मुझे बड़ा आश्चर्य और हैरानी हुई, इस संसार में तो कई सुखी हो ही नहीं सकता। जिसके पास धन है, उसे और धन कमाने की चिन्ता है, साथ ही उसे चोर, डाकू से धन की रक्षा की भी चिन्ता है।

                प्राचीन काल में न घड़ी और न कम्प्यूटर था। साधारण जन साधन सम्पन्न नहीं थे। उनकी संतान के जन्म समय का सही ज्ञान सम्भव नहीं था। अत: उनका सही जन्म पत्र बनाना सम्भव नहीं था। फिर उनको ज्योतिषी की पूरी सहायता उपलब्ध नहीं थी। हमारे मनीषियों ने उनकी आवश्यकता की ओर भी ध्यान दिया और नष्ट जातक के लिए जन्म पत्र बनाने की विद्या की भी खोज की। परन्तु इसके लिए योग्य ज्योतिषी की आवश्यकता होती थी। वह सर्वसाधारण को उपलब्ध होना कठिन था।

                हमारे मनीषियों ने सर्वसाधारण के भव्श्य कथन के लिए भी व्यवस्था की। सर्वसाधारण को बहुत अधिक स्पष्ट फलादेश की आवश्यकता नहीं थी। उन्हें युद्ध लड़कर विजय प्राप्त नहीं करनी थी, उन्हें दिग्ििवजय यात्रा भी नहीं करनी थी, साम्राज्य नहीं बढ़ाना था। उनको केवल रोजी, रोटी, स्वास्थ्य और संतान की चिन्ता थी। अत: उनके लिए गोचर के आधार पर भविष्य कथन की व्यवस्था की गई।

                भारतीय ज्योतिष के अनुसार इस संसार के प्राणियों पर नौ ग्रहों में सबसे अधिक प्रभाव चन्द्रमा का पड़ता है। इसीलिए भारतीय ज्योतिष में दशाओं की गणना भी चन्द्रमा के आधार पर की जाती है। सूर्य का प्रभाव भी व्यक्ति के जीवन पर काफी पड़ता है परन्तु सूर्य की गति काफी मन्द है। अत: चन्द्रमा को आधार बना कर काफी सही भविय कथन किया जा सकता है। प्राणियों के जन्म समय को ज्ञात करने के साधन प्राचीन काल में सामान्य जन को उपलब्ध नहीं थे परन्तु जन्म की तिथि तो सभी लोग जानते थे। जन्म तिथि के ज्ञान से चन्द्र कुण्डली बनाई जा सकती थी और काफी कुछ भविष्य कथन चन्द्र कुण्डली के आधार पर किया जा सकता था।

                शास्त्रों में कहा है-

                लग्नम देहो वर्गषडकोङ्ग कानि,

                प्राणश्चन्द्रो धातवो ऽ न्ये ग्रहेन्द्रा:।

                प्राणे नष्टे देहघात्वङ्गनाशो,

                यस्मात् स्माच्चन्द्र वीर्य प्रधान:।।1।।

                मान सागरी पद्धति, प्रथम अध्याय, नवांश फलम् श्लोक प्रथम अर्थात जन्म लग्न शरीर है और षडवर्ग अंग है और चन्द्रमा प्राण है। अन्य ग्रह धातु है। प्राण नष्ट हो जाने से देह धातु और अंग सभी नष्ट हो जाते हैं। इसलिए चन्द्रबल को ही प्रधान माना गया है।

                इस तरह हम देखते हैं कि हमारे मनीषियों ने जन साधारण के हित के लिए राशि फल का अविष्कार किया। जन्म चन्द्रमा जातक के फल कथन के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि चन्द्रमा प्राण है। लग्न तो केवल देह है। जन्म चन्द्र निर्धारण करना भी आसान है क्योंकि इसका ज्ञान प्राच: केवल जन्म तिथि से ही हो जाता है।

                अब जातक अपनी जन्म चन्द्र राशि भी यदि भूल जाए तो हमारे मनीषियों ने इसकी भी व्यवस्था की है। जन्म के समय  की राशि के अनुसार ही जातक का नामकरण करने की भी व्यवस्था कर दी गई। कोई भी जातक अपना नाम तो भूल नहीं सकता। फिर नामकरण और भी अधिक सूक्ष्म हो जाता है। नामकरण करते समय जन्म के चन्द्र नक्षत्र के पद तक का ज्ञान हो जाता है। अत: जातक का नाम पूछकर भविष्य वक्ता जातक के भविष्य के सम्बन्ध में बहुत कुछ बलता सकता है।

                परन्तु आज माता-पिता देवज्ञ के परामर्श के बिना ही शिशु का नामकरण कर लेते हैं। ऐसे जातक के सम्बन्ध में गोचर के आधार पर सही राशिफल कहना सम्भव नहीं है।

वास्तुशास्त्र: वैदिक काल की मास्टर प्लानिंग

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया

प्राचीन काल में ब्रह्मा ने विश्व की सृष्टि से पूर्व वास्तु की सृष्टि की तथा लोकपालों की कल्पना की। ब्रह्मा ने जो मानसी सृष्टि की उसे मूर्तरूप देने हेतु विश्वकर्मा ने अपने चारों मानस पुत्र जय, विजय, सिद्धार्थ व अपराजित को आदेशित करते हुए कहा कि 'मैंने देवताओं के भवन इत्यादि (यथा इन्द्र की अमरावती) की स्थापना अब तक की है। अब वेन पुत्र पृथु के निवास हेतु राजधानी का निर्माण मैं स्वयं करूंगा। तुम लोग समस्त भूलोक का अध्ययन करो। सामान्य जन की आवश्यकताओं के अनुरूप स्थापनाएं करो’ विश्वकर्मा के इस संवाद से उच्चकोटि के चिंतन योजना व प्रबंधन का संकेत मिलता है। एक तरफ नगर निवेशन व दूसरी तरफ आंतरिक रचनाओं में वास्तु पुरुष के देवत्व का आरोपण करते हुए भौतिक सृष्टि में दार्शनिक सौंदर्य की समष्टि करते हुए उससे चारों पुरुषार्थ की अभीष्ट सिद्धि की कामना की गई थी वृहत्संहिता के अनुसार जिस भांति किसी घर में वास्तुपुरुष की कल्पना करते हुए कार्य किया जाता है, उसी भांति नगर व ग्रामों में ऐसे ही वास्तुदेवता स्थित होते हैं व उस नगर ग्रामादि में ब्राह्मण आदि वर्णों को क्रमानुसार बसाने की

वास्तुशास्त्र: वैदिक काल की मास्टर प्लानिंग

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया

प्राचीन काल में ब्रह्मा ने विश्व की सृष्टि से पूर्व वास्तु की सृष्टि की तथा लोकपालों की कल्पना की। ब्रह्मा ने जो मानसी सृष्टि की उसे मूर्तरूप देने हेतु विश्वकर्मा ने अपने चारों मानस पुत्र जय, विजय, सिद्धार्थ व अपराजित को आदेशित करते हुए कहा कि 'मैंने देवताओं के भवन इत्यादि (यथा इन्द्र की अमरावती) की स्थापना अब तक की है। अब वेन पुत्र पृथु के निवास हेतु राजधानी का निर्माण मैं स्वयं करूंगा। तुम लोग समस्त भूलोक का अध्ययन करो। सामान्य जन की आवश्यकताओं के अनुरूप स्थापनाएं करो’ विश्वकर्मा के इस संवाद से उच्चकोटि के चिंतन योजना व प्रबंधन का संकेत मिलता है। एक तरफ नगर निवेशन व दूसरी तरफ आंतरिक रचनाओं में वास्तु पुरुष के देवत्व का आरोपण करते हुए भौतिक सृष्टि में दार्शनिक सौंदर्य की समष्टि करते हुए उससे चारों पुरुषार्थ की अभीष्ट सिद्धि की कामना की गई थी वृहत्संहिता के अनुसार जिस भांति किसी घर में वास्तुपुरुष की कल्पना करते हुए कार्य किया जाता है, उसी भांति नगर व ग्रामों में ऐसे ही वास्तुदेवता स्थित होते हैं व उस नगर ग्रामादि में ब्राह्मण आदि वर्णों को क्रमानुसार बसाने की व्यवस्था की गई। राजा भोज रचित समराङ्गण सूत्रधार के पुर निवेश प्रकरण में वर्गों के आधार पर बसावट करने के विस्तृत निर्देश दिये हैं।

अग्नि कोण में अग्नि कर्मी लोग, स्वर्णकार, लुहार इत्यादि को बसाना चाहिए। दक्षिण दिशा में वैश्यों के सम्पन्न लोगों के, चक्रिकों अर्थात् गाड़ी वाले नट या नर्तकों के घर स्थापित करने चाहिए। सौकारिक (सूकरोपजीवी) मेषीकार (गडरिया), बहेलिया, केवट व पुलिस इत्यादि को नैऋत्य कोण में बसाना चाहिए। रथों, शस्त्रों के बनाने वालों को पश्चिम दिशा में बसाना चाहिए। नौकरों व दलालों को वायव्य दिशा में बसाना चाहिए। संन्यासियों को, विद्वानों को, प्याऊ व धर्मशाला को उत्तर दिशा में बसाना चाहिए। ईशान में घी, फल वालों को बसाना चाहिए। आग्नेय दिशा में वे बसें जो सेनापति, सामन्त या सत्ताधारी व्यक्ति हों। धनिक व व्यवसायी दक्षिण, कोषाध्यक्ष महामार्ग, दण्डनायक व शिल्पियों को पश्चिम दिशा में व उत्तर दिशा में पुरोहित, ज्योतिषी लेखक व विद्वान बसें।

आजकल शहर योजनाओं में या बड़ी सोसायटियों में इस योजना पर ध्यान नहीं दिया जाता। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण पुराने जयपुर की बसावट में आज भी देखा जा सकता है।

क्या हैं वास्तु पुरुष?

वास्तु पुरुष की कल्पना भूखण्ड में एक ऐसे औंधे मुंह पड़े पुरुष के रूप में की जाती है, जिसमें उनका मुंह ईशान कोण व पैर नैऋत्य कोण की ओर होते हैं। उनकी भुजाएं व कंधे वायव्य कोण व अग्निकोण की ओर मुड़ी हुई रहती हैं। देवताओं से युद्ध के समय एक राक्षस को देवताओं ने परास्त कर भूमि में गाड़ दिया व स्वयं उसके शरीर पर खड़े रहे। मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा से प्रार्थना किए जाने पर इस असुर को पूजा का अधिकार मिला। ब्रह्मा ने वरदान दिया कि निर्माण तभी सफल होंगे जब वास्तु पुरुष मंडल का सम्मान करते हुए निर्माण किये जाएं। इनमें वास्तु पुरुष के अतिरिक्त 45 अन्य देवता भी शामिल हैं। इन 45 अतिरिक्त देवताओं में 32 तो बाहरी ओर भूखण्ड की परिधि पर ही विराजमान हैं व शेष 13 भूखण्ड के अन्दर हैं।

पद वास्तु

वास्तु पुरुष का आविर्भाव इतिहास में कब हुआ इसका समय ज्ञात नहीं हैं, परन्तु वैदिक काल से ही यज्ञवेदी का निर्माण पूर्ण विधान के साथ किया जाता था। क्रमश: यहीं से विकास कार्य शुरु हुआ। एक पदीय वास्तु (जिसमें वास्तुखण्ड के और विभाजन न किये जाएं) जिसे सकल कहते हैं, पेचक मण्डल जिसमें एक वर्ग के चार बराबर विभाजन किए जाएं, वर्ग को नौ बराबर भागों में विभाजित किया जाए उसे पीठ, फिर 16, 64, 81, 100 भाग वाले वास्तुचक्र का विकास हुआ। इसी क्रम में यह निश्चय भी किया गया कि चतु:षष्टिपद वास्तु या एकाशीतिपद वास्तु या शतपद वास्तु में क्रमश: किन वर्णों में बसाया जाए। समराङ्गण सूत्रधार के अनुसार मुख्य रूप से 64,81,100 पद वाले वास्तु का अधिक प्रचलन हुआ। उक्त ग्रंथ के अनुसार चतुषष्टिपद वास्तु का प्रयोग राजशिविर ग्राम या नगर की स्थापना के समय करना चाहिए। एकाशीतिपद वास्तु (81 पद) का प्रयोग सामान्यघरों में करना चाहिए। शतपद वास्तु का प्रयोग स्थपति (आर्किटेक्ट) को महलों, देवमंदिरों व बड़े सभागार इत्यादि में करना चाहिए। आजकल बहुत बड़ी सोसायटियों में भी इन नियमों का पालन किया जा सकता है। पद विभाजन की स्वीकृति 11 वीं शताब्दी तक वृत्त वास्तु, जो कि राजप्रासादों हेतु प्रयुक्त की जाती थी, में भी दी गई है। वृत्त वास्तु में मुख्यत: चतुषष्टि वृत्त व शतपद वृत्त वास्तु प्रचलन में बने रहे। त्रिकोण, षटकोण, अष्टकोण, सोलहकोण वृत्तायत  व अद्र्धचंद्राकार वास्तु में भी वृत्त वास्तु के समान पद विभाजन तथा तदनुसार ही वास्तु पुरुष स्थापन का प्रावधान रखा गया है।

देवता

एकाशीतिपद वास्तु में जो कि सर्वाधिक प्रचलन में है, 81 पद या वर्गाकार खानों में 45 देवता विराजमान रहते हैं। मध्य में 13 व बाहर 32 देवता निवास करते हैं। ईशान कोण से क्रमानुसार नीचे के भाग में शिखि, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य, भृंश व अंतरिक्ष तथा अग्निकोण में अनल विराजमान हैं। नीचे के भाग में पूषा, वितथ, गृहत्क्षत, यम, गंधर्व, भृंगराज और मृग विराजमान हंै। नैऋत्य कोण से प्रारंभ करके क्रमानुसार दौवारिक (सुग्रीव), पुष्पदंत, वरुण, असुर, शोष और राजयक्ष्मा तथा वायव्य कोण से प्रारंभ करके रोग, नाग, भल्लाट, सोम, भुजंग, अदिति व दिति आदि विराजमान हैं। बीच के नवें पद में ब्रह्मा जी विराजमान हैं। ब्रह्मा की पूर्व दिशा में अर्यमा, उसके बाद सविता दक्षिण में विवस्वान्, इंद्र, पश्चिम में मित्र फिर राजयक्ष्मा तथा उत्तर में शोष व आपवत्स नामक देवता ब्रह्मा को चारों ओर से घेरे हुए हैं। आप ब्रह्मा के ईशान कोण में, अग्नि कोण में सावित्र, नैऋत्य कोण में जय व वायव्य कोण में रुद्र विराजमान हैं। इन वास्तु पुरुष का मुख नीचे को व मस्तक ईशान कोण में है। इनके मस्तक पर चरकी स्थित हंै। मुख पर आप, स्तन पर अर्यमा, छाती पर आपवत्स हैं। पर्जन्य आदि बाहर के चार देवता पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र और सूर्य क्रम से नेत्र, कर्ण, उर:स्थल और स्कंध पर स्थित हैं।

सत्य आदि पाँच देवता भुजा पर स्थित हैं। सविता और सावित्र हाथ पर विराज रहे हैं। वितथ और बृहदांत पाश्र्व पर हैं, विवस्वान उदर पर हैं, उरू पर गंधर्व, जानु पर भृंगराज जंघा पर और मृग स्फिक के ऊपर हैं। ये समस्त देवता वास्तुपुरुष के दायीं ओर स्थित हैं। बायें स्तन पर पृथ्वीधर नेत्र पर दिति, कर्ण पर अदिति, छाती पर भुजंग, स्कंध पर सोम, भुज पर भल्लाट, मुख्य, रोग व पापयक्ष्मा, हाथ पर रुद्र व राजयक्ष्मा, पाश्र्व पर शोष असुर, उरू पर वरुण, जानु पर, पुष्पदंत, जंघा पर सुग्रीव और स्फिक पर दौवारिक हैं। वास्तुपुरुष के लिंग पर इंद्र व जयंत स्थित हैं हृदय पर ब्रह्मा व पैरों पर पितृगण हैं। वराहमिहिर ने यह वर्णन परमशायिक या इक्यासी पद वाले वास्तु में किया है। इसी भांति मंडूक या चौसठ पद वास्तु का विवरण किया गया है। ये सभी देवता अपने-अपने विषय में गृहस्वामी को समृद्धि देते हैं। इन्हें संतुष्ट रखने में श्रीवृद्धि होती है, शान्ति मिलती है। इन देवताओं की उपेक्षा होने से वे अपने स्वभाव के अनुसार पीड़ा देते हैं। बिना योजना के निर्माणादि कार्य होने से कुछ देवताओं की तो तुष्टि हो जाती है, जबकि कुछ देवता उपेक्षित ही रहते हैं। इसका फल यह मिलता है कि गृह स्वामी को कुछ विषयों में अच्छे परिणाम तथा कुछ विषयों में बगड़े परिणाम साथ-साथ ही मिलते रहते हैं।

वास्तु चक्र की आड़ी और खड़ी रेखाएँ देशान्तर रेखाओं व अक्षांश रेखाओं के समानान्तर होती हैं, तभी निर्माण सफल होते हैं। सभी दिक्पालों में आठ तो दिशाएँ हैं व नवीं और दसवीं दिशा के रूप में आकाश और पाताल होते हैं। इसका वैज्ञानिक अर्थ यह है कि अंतरिक्ष से आने वाली समक्ष कॉस्मिक ऊर्जा, ग्रह -नक्षत्रों के प्रभाव, उसकी गतियाँ और अन्तरग्रही आकर्षण तथा पाताल का अर्थ भूगर्भीय ऊर्जा इत्यादि का समावेश है। एक वास्तु चक्र की रचना शुद्ध वैज्ञानिक नियमों पर आधारित है और इसके नियमों का आविस्कार वैदिक ऋषियों ने ही किया है। वैदिक विज्ञान का यह सर्वश्रेष्ठ नमुना है, जिसमें निर्जीव भूखण्डों में धर्म, दर्शन और आध्यात्म की प्रतिष्ठा की गई है।

दिशाशूल और उसका परिहार

                यात्रा में मुख्यत: दिशाशूल, चन्द्रमा और राहुवास का विचार किया जाता  है।

दिशाशूल ले जावो वामे राहु योगिनी पूठ।

सन्मुख लेओ चन्द्रमा लाओ लक्ष्मी लूट।।

दिक्शूल

सोमवार -             शनिवार पूर्व दिशा

रविवार  -             शुक्रवार पश्चिम दिशा

मंगल-बुधवार- उत्तर दिशा

बृहस्पतिवार-   दक्षिण दिशा

                प्राय: आमतौर पर दिक्शूल को पीठ पीछे या बाएं लेकर यात्रा करना शुभ रहता है परन्तु आवश्यकतावश यात्रा करनी पड़े और सामने या दाएं दिशाशूल में जाना पड़े तो उनके शमन् के कतिपय उपाय हैं, जिनके करने पर पडऩे वाले दुष्प्रभावों में कमी लाई जा सकती है।

                रविवार को घी खाकर पश्चिम की यात्रा कर सकते हैं। सोमवार को पूर्व दिशा में जाना हो तो दूध पीकर जावें। मंगलवार को अत्यावश्यकता में उत्तर दिशा की यात्रा गुड़ खाकर करें। इसी प्रकार बुधवार को तिल खाकर उत्तर दिशा में यात्रा करना शुभ हो जाता है। गुरुवार को दही का सेवन करें यदि दक्षिण की यात्रा करनी हो। शुक्रवार को जौ की रोटी खाकर पश्चिम की यात्रा कर सकते हैं। इसी क्रम में शनिवार को उड़द की बनी वस्तु का सेवन करके पूर्व की निविन यात्रा कर सकते हैं।

                विचारणीय बात यह है कि यदि एक ही दिन में जाकर वापस आना हो तो दिक्शूल विचार नहीं किया जाता है।

 

उत्तम संतान प्राप्ति के सूत्र

भारतीय परिवेश में विवाह के उपरांत संतान प्राप्ति को सुखी जीवन की पहचान माना जाता है। वंश को बढ़ाना संतान का कर्तव्य माना जाता है। इस कारण जिन जातकों के पुत्र नहीं होता उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता था परन्तु अब समय बदल रहा है पुत्र और पुत्री में फर्क करने की परम्परा में अंतर हुआ है। आजकल लड़कियां, लड़कों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम कर रही हैं। अत: गृहस्थ आश्रम में प्रवेश हेतु संतान का होना आवश्यक है। प्राचीन ग्रंथों में अच्छी संतान प्राप्ति के लिए तपस्या करने व विभिन्न प्रकार के यज्ञों को करने का उदाहरण मिलता है। आज इन जप-तप का स्थान फर्टिलिटी सेंटरों द्वारा ले लिया गया है। अच्छी संतान की प्राप्ति हेतु धनवान लोग स्पर्म बैंक से अपनी इच्छा की संतान हेतु मदद लेते हैं और इच्छित संतान प्राप्त करते हैं परन्तु शास्त्रोक विधि में यदि हम शास्त्रीय नीति का प्रयोग कर गर्भधारण की क्रिया करें तो इच्छित संतान अवश्य प्राप्त होगी। वर्तमान विज्ञान में यह सिद्ध हो चुका है कि मासिक के चौथे दिन से सोलहवें दिन तक स्त्री गर्भ धारण कर सकती है। हमारे ऋषियों ने तो प्राचीन काल में ही अच्छी संतान प्राप्ति हेतु निर्देश दे दिए थे। मासिक के कितने दिन पश्चात् ठहरने वाले गर्भ से कैसी संतान प्राप्त होगी, उनका दैवीय ज्ञान आज के वैज्ञानिक युग में भी वैज्ञानिकों की खोज से कहीं आगे है। ऋषियों द्वारा दिए गए समय निर्देश निम्न हंै जिसके आधार पर कोई भी जातक मनचाही संतान प्राप्त कर सकता है।

  1. मासिक से चौथे दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्र प्रदायक होता है, जो अल्प आयु होता है।
  2. मासिक से पांचवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्री प्रदायक होता है जो अल्प आयु होती है।
  3. मासिक से छठे दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्र प्रदायक होता है, जो मध्यम आयु होता है।
  4. मासिक से सातवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्री प्रदायक होता है, जो बांझ होती है अर्थात् संतान देने में असमर्थ होती है।
  5. मासिक से आठवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्र प्रदायक होता है, जो राजा के समान जीवन जीता है।
  6. मासिक से नवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्री प्रदायक होता है, जो रानी के समान जीवन जीती है।
  7. मासिक से दसवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्र प्रदायक होता है, जो बुद्धिमान एवं चतुर होता है।
  8. मासिक से ग्यारवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्री प्रदायक होता है, जो उन्मुक्त स्वभाव की चरित्रहीन होती है।
  9. मासिक से बारहवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्र प्रदायक होता है, जो समझदार प्रकृति का सामाजिक व्यक्ति होता है।
  10. मासिक से तेरहवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्री प्रदायक होता है, जो संकर प्रकृति के गर्भाशय वाली स्त्री होती है।
  11. मासिक से चौदहवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्र प्रदायक होता है, जो चौंसठ कलाओं में माहिर ज्ञानवान होता है।
  12. मासिक से पन्द्रहवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्री प्रदायक होता है, जो भाग्यवान होती है तथा अपनी समझदारी से समाज में उच्च स्थान पाती है।
  13. मासिक से सोलहवें दिन ठहरने वाला गर्भ पुत्र प्रदायक होता है, जो सभी कलाओं में माहिर एवं ज्ञानवान होता है।

उपरोक्त निर्देशों को देखने से पता चलता है कि मासिक से चौदहवें पंद्रहवें एवं सोलहवें दिन ठहरने वाले गर्भ से उच्च कोटि की संतान प्राप्त होती है जो निश्चित ही अपने परिवार का नाम समाज में बढ़ाती है तथा देश और समाज को आगे बढ़ाने में सहायक होती है। उपरोक्त सूत्रों से हमने मासिक चक्र से अच्छी संतान प्राप्त करने की बात तो जान ली परन्तु जातक की कुण्डली में पुत्र प्राप्ति योग हंै भी या नहीं इसकी जानकारी करके ही ये प्रयोग काम में लेना चाहिए।

 

 

 

 

ऋण

प्राय: शरीर कष्ट से ऋण मुक्ति अधिक मानी गई है। यदि किसी कारण से ऋण मुक्ति न हो और व्यक्ति भारी शारीरिक कष्ट पा रहा हो तो बहुत सारे पाप कर्म क्षय हो जाते हैं, ऐसा माना जाता है।

ऋण का अर्थ -

बिना प्रतिदान कोई भी वस्तु या धन ग्रहण करना ऋण में बदल जाता है। आप जब तक उसके उपलक्ष में उसी व्यक्ति को वापस नहीं लौटा देते, वह ऋण बना रहता है। ऐसे बहुत कम अवसरों को शास्त्रों की अनुमति है जिनमें पिता का ऋण पुत्र उतार सकता हो परन्तु फिर पिता और पुत्र के बीच में भी ऋण का अनुपात बदल जाता है। पिता पुत्र से उऋण हो, पुत्र पिता से, यह भी आवश्यक है। यह अनुमान का विषय है कि पूर्वजों का ऋण हम उतारने की चेष्टा करते हैं, उसका प्रमाण क्या है? तदनुकूल ही ऋणों से मुक्ति मिलती है। वह पूर्ण मुक्ति भी हो सकती है और अपूर्ण भी हो सकती है। उत्तर कर्म, प्रेत कर्म या मृत व्यक्ति के निमित्त किया गया कोई भी कर्म, उसे ऋणों से मुक्ति दिलाकर उन्नत योनि प्रदान करना है।

अनुपात से अधिक किया गया दान भी ऋण का कारण बनता है। यद्यपि अधिक से अधिक दान की महिमा कही गई है परन्तु दान ग्रहीता उसके उपलक्ष में पर्याप्त कर्म नहीं करें तो वह ऋण में बदल जाएगा।

हम जानते हैं कि जन्म के साथ ही मनुष्य पर देव ऋण, पितृ ऋण, तथा मनुष्य ऋण हो जाता है। इन ऋणों से लगे पाप को नष्ट करने के लिए गोदान की व्यवस्था की गई है।

मनुष्य ऋण -

जीवन के दैनिक कृत्यों को करते हुए हम पर विभिन्न प्रकार के ऋण इक_े होते हैं। या तो हमें वह ऋण जीवन काल में लौटा देने चाहिएं अन्यथा उसके बराबर का कृत्य किसी और रूप में कर जाना चाहिए। संकल्प की विधि का आविष्कार वैदिक कर्मकाण्ड में किया गया है। सम्भवत: पॉवर ऑफ एटॉर्नी का यह प्राचीनतम स्वरूप है। संकल्प के माध्यम से कोई अन्य व्यक्ति भी ऋणों का चुकारा कर सकता है परन्तु दार्शनिक दृष्टिकोण से ऋण चुकाने वाला कोई भी व्यक्ति एक ऋण तो चुका देता है परन्तु एक नए ऋण की सृष्टि भी करता है।

संचित कर्म और ऋण -

ज्योतिष के दृष्टिकोण से पंचम भाव को आमतौर से संचित कर्मों के लिए देखा जाता है। यह छठे भाव से बारहवां भाव भी है, अत: ऋणों का उन्मोचन यदि होना हो तो उसकी सूचना हमको पांचवें भाव से मिलनी चाहिए। पांचवें भाव के संचित कर्म ऋणों के मामले में छठे भाव से ज्ञात किए जा सकते हैं परन्तु उनका व्यय देखना हो तो उसका असर सीधा पांचवें भाव पर आएगा।

पांचवें भाव का सशक्त होना इस बात की सूचना है कि व्यक्ति का कर्म संचय काफी अधिक है और वह सब इसे इस जन्म में या अगले जन्मों में भोगना है। पांचवें भाव का अत्यंत निर्बल होना इस बात की सूचना है कि उसके काफी कर्म क्षय हो चुके हैं और इस जन्म में यदि शेष कर्म क्षय हो जाएं तो व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। कर्म वस्तुत: ऋणों के समूह हैं जिनका निवारण या तो विभिन्न ऋणों की मुक्ति से होगा या ईश्वर से क्षमा व कृपा के माध्यम से होगा।

 

नक्षत्र व उनमें किए जाने वाले कार्य

नक्षत्र शब्द संस्कृत भाषा का है। जिसका शाब्दिक अर्थ है 'न क्षरति न सरति इति नक्षत्र:’ अर्थात् न हिलने वाला एवं न चलने वाला। ग्रह व नक्षत्र में यही भेद है कि नक्षत्र स्थिर हैं जबकि ग्रह गतिशील हैं। नक्षत्रों के अपने-अपने स्वामी ग्रह हैं एवं इन ग्रहों की सहायता से इन नक्षत्रों के फल का ज्ञान होता है। किन नक्षत्रों में कौन से कार्य करने से शुभ फल प्राप्त होता है, ये निम्नांकित है।

नक्षत्रों की प्रकृति व उनमें किए जाने वाले कार्य -

  1. धु्रव प्रकृति के नक्षत्र - उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद एवं रोहिणी में चार नक्षत्र स्थिर संज्ञा वाले हैं। रविवार भी स्थिर संज्ञक वार है। इन नक्षत्रों में व रविवार को लम्बे समय तक रहने वाले स्थायी प्रकृति के कार्य संपादित करने चाहिए जैसे - व्यापार प्रारंभ, गृह निर्माण, नौकरी प्रारंभ करना, विवाह, बीज बोना, विद्यारम्भ एवं ग्रहों की शांति इत्यादि कार्य करना शुभ फलदायी होता है।
  2. चर प्रकृति के नक्षत्र - स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा व शतभिषा चर प्रकृति के नक्षत्र हैं। वारों में सोमवार भी चर संज्ञक है। इनमें गति की मुख्यता कही गई है। भ्रमण, यात्रा वाहन प्रयोग, पर्यटन इत्यादि शीघ्र निष्पादित होने वाले कार्य करने चाहिएं।
  3. उग्र संज्ञा वाले नक्षत्र - पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी व मघा ये पांच उग्र प्रकृति के नक्षत्र हैं। मंगलवार भी उग्र संज्ञक है। इन नक्षत्रों व वार में अग्निकर्म, मारना, शढ़ता, शस्त्र बनाना, आक्रमण, विवाद-झगड़े में समझौते के प्रयत्न आदि कार्य सिद्ध होते हैं।
  4. मिश्रित प्रकृति के नक्षत्र - विशाखा व कृत्तिका मिश्रित संज्ञा के नक्षत्र हैं। बुधवार भी मिश्र प्रकृति का वार है। इन नक्षत्रों व वार में हवन-यज्ञादि, नृत्य, शिल्पकला, शुभ कार्य हेतु सामग्री एकत्रित करने इत्यादि मिश्र प्रकृति के कार्य सफल होते हैं।
  5. क्षिप्र या लघु संज्ञक नक्षत्र - हस्त, अश्विनी, पुष्य व  अभिजित् क्षिप्र या उतावले नक्षत्र हैं। गुरुवार क्षिप्र संज्ञक वार है। इन नक्षत्रों व वार में रतिकर्म, क्रय-विक्रय, औषधि सेवन, शास्त्र अध्ययन, दस्तकारी व अन्य कलात्मक कार्य, इत्यादि सम्पन्न करने चाहिए, इनमें सिद्धि प्राप्त होती है।
  6. मृदु संज्ञक नक्षत्र - मृगशिरा, चित्रा व अनुराधा मृदु या मित्रतापूर्ण प्रकृति के नक्षत्र हैं। शुक्रवार मृदु संज्ञक वार है। उपर्युक्त नक्षत्रों व वार में गायन, मित्रता, उत्सव, मंगल कार्य व खेलकूद आदि कार्य करने पर सफलता प्राप्ति होती है।
  1. तीक्ष्ण संक्षक नक्षत्र - मूल, ज्येष्ठा, आद्र्रा व आश्लेषा  ये दारुण संज्ञक नक्षत्र हैं। शनिवार दारुण प्रकृति का वार है।  इन नक्षत्रों व वार में मारणदि, तांत्रिक प्रयोग, शस्त्रादि से प्रहार, भयंकर कार्य, पशुओं का प्रशिक्षण व फूट डालना आदि कार्य प्रशस्त कहे गए हैं।

स्वप्न का फल कब फलीभूत होता है

स्वप्न दमित इच्छाओं की परिणति है, यह सत्य है परंतु मिथ्या यह भी नहीं है कि उनमें भविष्य सूचक अनेक प्रत्यक्ष और परोक्ष संकेत छिपे हुए हैं। यदि उन्हें भलिभांति समझा और जाना जा सके तो कितने ही प्रकार से लाभान्वित हुआ जा सकता है और अन्यों को भी लाभ पहुँचाया जा सकता है। आए दिन अनुभव में आने वाले स्वप्न दर्शन और उनके शुभाशुभ फल विचार इसके साक्षी हैं।

रात्रि की नीरवता हो या दिन की शांति, इस स्थिति में चेतना जब निद्राकाल में शिथिल पड़ती है और उत्तेजना रहित होती है तो प्रकृति के गर्भ में पल रहे घटना क्रमों को पकडऩे की क्षमता अर्जित कर लेती है। इसी को समय-समय पर संकेतों के माध्यम से प्रकट भी कर देती है, इसीलिए सपने सदा निरर्थक तथा निरुद्देश्य नहीं होते। कितनी ही बार उनमें सार्थक संकेत भी छिपे होते हैं, इस तथ्य को आज विश्व स्तर पर स्वीकार कर लिया गया है।

वराहमिहिर ने स्वप्न फल प्राप्ति का समय स्पष्ट किया है। रात्रि के पहले भाग में जो स्वप्न आता है वह वर्ष पूरा होने पर अपना फल देता है। दूसरे भाग का स्वप्न छ: माह में अपना फल देता है। रात्रि के तीसरे भाग का स्वप्न तीन माह में फलीभूत होता है। रात्रि के चौथे भाग अर्थात् रात्रि के अंत में जो स्वप्न आता है वह तत्काल अपना फल देता है। वृहत् यात्र ग्रंथ में लिखा है कि यदि एक ही रात में अच्छे और बुरे दोनों स्वप्न दिखाई दें तो केवल पीछे वाला स्वप्न ही अपना शुभाशुभ फल दिखाता है। दिन के समय दिखाई देने वाला स्वप्न अधिकांशत: अपना कोई भी फल नहीं देता।

स्वप्न शास्त्र के मूल ग्रंथों का यदि अध्ययन करें तो सपनों को कुल सात प्रकार की श्रेणियों में रखा जा सकता है। 1. दृष्ट 2. श्रुत 3. अर्थभूत 4. प्रार्थित 5. कल्पित 6. भावित 7. दौषज। देखा जाए तो इनमें से प्रथम पांच प्रकार के सपनों का कोई भी शुभाशुभ फल नहीं होता परंतु शेष दो भावित और दौषज श्रेणी के स्वप्न अपना कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य दिखाते हैं।

भावित स्वप्न वह है जो शुद्ध और सात्विक प्राणियों को देवलोक स्वत: प्रत्यक्ष रूप से शुभ फल का संकेत देते हैं। वस्तुत: यहां काल ही भविष्य में होने वाले शुभाशुभ फल बताने के लिए स्वप्न रूप धारण करता है। जो विषय कभी भी ध्यान में न आया हो उससे संबंधित स्वप्न भावित माने जाए हैं। यह देवकृत हैं, इनका शुभ अथवा अशुभ फल देर-सवेर मिलता अवश्य है। फलाफल का घटित होना अधिकांशत: इस बात पर निर्भर करता है कि उस काल में व्यक्ति विशेष के ग्रहों की दशा-अन्तर्दशा आदि की बलाबल के अनुरूप क्या स्थिति है। योग्य स्वप्न विचार विशेषज्ञ फलादेश से पूर्व ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति का अवलोकन अवश्य करता है।

सत्तर से अधिक प्रतिशत के स्वप्न दौषज  श्रेणी में आते हैं। इनका फल भी अधिकांशत: फलित नहीं होता। अनिद्रा, अस्वस्थ शरीर, दिन के समय दिखाई देते वाले स्वप्न, ऐसे सपने जिनका न कोई सिर है न कोई पैर आदि से संबंधित सपने इसी श्रेणी में आते हैं जो निद्रा से जगने के बाद सामान्यत: याद भी नहीं रहते।