भारतीय ज्योतिष अपनी गणना पद्धतियों में पाश्चात्य ज्योतिष से कहीं बहुत आगे है। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि पाश्चात्य विद्वान विशोतरी दशा पद्धति जैसी गणित आज तक नहीं कर पाये हैं और पाश्चात्य ज्योतिष में दशा गणना जैसी कोई विधि अभी भी नहीं है। उनकी ज्योतिष सायन ज्योतिष कहलाती है जो सूर्य के ऊपर आधारित है। उनकी राशियाँ भी सूर्य के किसी राशि में उपस्थित होने के आधार पर हैं, अर्थात् सूर्य अगर एक महीने राशि में रहते हैं तो पूरे एक महीने तक वही राशि कहलाएगी। जबकि वैदिक ज्योतिष चन्द्रमा के आधार पर है और चन्द्रमा एक राशि में करीब सवा दो दिन तक रुकते हैं और अगर किसी का जन्म उन सवा दो दिनों में हुआ है तो जिस राशि में चन्द्रमा है वही उस व्यक्ति की राशि कहलाएगी। इसका मतलब भारतीय गणना पद्धति अधिक सूक्ष्म है और सटीक परिणाम देती है।

कई भारतीय विद्वान पाश्चात्य ज्योतिष के आधार पर राशिफल लिखते हैं परन्तु फलाफल वैदिक पद्धति से लिखने की भूल कर रहे हैं। यह सरासर गलत है। वैदिक फल कथन पाश्चात्य राशियों पर नहीं लगाना चाहिए। इससे जनता भ्रमित होती है।

पाश्चात्य ज्योतिष में एक बड़ा दोष यह भी है कि वह भी भारतीय ज्योतिष में प्रयुक्त किये जाने वाले नक्षत्रों से बहुत अधिक दूर तक नहीं जा पाते। सूर्य कक्षा में पड़ने वाले नक्षत्रों का प्रभाव वहाँ भी उतना ही है। पाश्चात्य ज्योतिष में कर्म सिद्धान्त उतना पुष्ट नहीं है जितना कि भारतीय ज्योतिष में। भारतीय ज्योतिष में एक लग्र के समय का जो कि औसतन ढेड़ से दो घण्टे के बीच की अवधि होती है, वर्ग कुण्डलियों का आविष्कार किया गया जो कि अद्भुत प्रयोग है। भारतीय दशा पद्धति और वर्ग कुण्डलियों का आविष्कार तथा उससे भी अधिक सूक्ष्म नाड़ी ज्योतिष का आविष्कार किसी भी आधुनिक गणित को चुनौती देता प्रतीत होता है। आधुनिक वैज्ञानिक भी प्राचीन भारतीय ज्योतिष गणित को देखकर चकित हैं और उन्होंने यह परिणाम कैसे प्राप्त किये इसको लेकर आश्चर्यचकित है।

निर्जीव और उजड़े हुए ग्रह कैसे फल दे सकते हैं-

सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि ग्रह जो कि निर्जीव और उजड़े हुए धरातल वाले या केवल गैस से बने हुए हैं, यह कैसे बता सकते हैं कि धरती पर रहने वाला मनुष्य कोमल स्वभाव का है या कठोर स्वभाव का है या उसके घुंघराले बाल है या उसकी आँखे चंचल हैं या वह सौम्य स्वभाव का है या वह क्रूर स्वभाव का है या वह माता - पिता के साथ नहीं रह रहा या कि उसके एक से अधिक पत्नियाँ हैं। यह अवश्य कोई उच्च कोटि की परिकल्पना है या दर्शन है जो ग्रहों को माध्यम बनाकर यह सब फलकथन करता है। प्राचीन ऋषियों की यह विशेषता रही कि ग्रहों को माध्यम बनाकर तथा धर्म-दर्शन और आध्यात्म की प्रतिष्ठा गणित में करके परिणाम बताने शुरु किये। उन्होंने कर्म सिद्धान्त को ज्योतिष गणित के साथ जोड़ा और यह कहना शुरु किया कि हम जो कुछ भी भोग रहे हैं वह हमारे गत जन्मों के कर्मो का फल है। पाश्चात्य ज्योतिष की ‘प्रोग्रेसिव होरोस्कोप’ प्रणाली सूर्य और ग्रहों के कक्षा में भ्रमण के कारण पुनः उन्हीं बिन्दुओं पर एक निश्चित समयावधि में आने के कारण भविष्य कथन की प्रणाली है। परन्तु कर्म सिद्धान्त से जुड़ने की कहीं कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है और भारतीय विंशोत्तरी पद्धति शुद्ध रूप से संचित कर्मों के फलन या पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर आधारित है। विंशोत्तरी दशा पद्धति लग्न कुण्डली के साथ देखे जाने पर यह स्पष्ट करने में समर्थ है कि जन्मा हुआ व्यक्ति गत जन्मों के किस प्रकृति के कर्मों के कारण इस जन्म में उन कर्मों के फल प्राप्त कर रहा है। कर्मफल रूप बदल कर आते हैं परन्तु परिभाषित किये जा सकते हैं।

कीरो की हस्तरेखा -

कीरो के नाम से आज बाजार में बहुत सारी पुस्तकें बिक रही हैं। यह एक आयरलैण्ड का ज्योतिषी था। जिसका जन्म नवम्बर 1886 को हुआ और मृत्यु 1936 में हुई। कीरो ने कम उम्र में ही भारत का दौरा किया तथा हिमालय और सीमावर्ती राज्यों में भटकते रहे और ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन किया। कीरो के बारे में यह मान्यता है कि उसकी महान भविष्यवाणियों की पृष्ठ भूमि में हस्त रेखा शास्त्र नहीं है, बल्कि कोई और ही विद्या है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि उसने कर्ण पिशाचिनी की साधना भी की थी। कीरो ने देशों के बारे में भी भविष्यवाणियाँ कीं जो कि हस्तरेखा शास्त्र का विषय नहीं है।

नास्त्रेदमस -

16वीं शताब्दी में जन्में नास्तेदमस एक डॉक्टर थे जो प्लेग का भी इलाज करते थे। उन्होंने कई भाषाएँ सीखी और बचपन से ही भविष्यवाणियाँ करने लगे जो कि चर्च की नाराजगी का कारण भी बनी। उनकी भविष्यवाणियाँ छन्द या कविताओं के रूप में है जिसमें सीधे-सीधे बात ना कहकर प्रतीकात्मक रूप से बातें कही गई है। सन् 1555 में जैसे ही उनके ग्रन्थ सेन्चुरी का प्रकाशन हुआ, वह पुस्तक प्रसिद्ध हो गई। एक बहुत बड़ा वर्ग यह मानता है कि नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियों को तोड़-मोड़ कर गलत ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया है तथा यह कि लोग पूर्व में तो उनको समझ नहीं पाते परन्तु घटनाओं के घटने के बाद उनकी गणनाओं से तालमेल बैठाते हैं। नास्तेदमस की भविष्यवाणियों के आधार पर बहुत सारे युद्ध और विश्व युद्ध की गणनाएँ की गई, परन्तु वे गलत साबित हुई। उनकी किताब ‘द प्रोफेसीज’ में 1200 चौपाइयाँ लिखी गई हैं, जिनमें कई भविष्यवाणियों के सफल होने का दावा किया गया है। परन्तु उनकी पद्धति का ज्ञान किसी को भी नहीं है।

डॉ. हरदेव शर्मा

सोलन निवासी डॉ. हरदेव शर्मा विश्व विजय पंचाङ्ग और उनकी राजनैतिक व मौसम सम्बन्धी भविष्यवाणियों के कारण अति प्रसिद्ध हुए। उनकी दी हुई तारीखों पर घटनाएँ घटती थीं।

डॉ. बी.वी. रमन : शताब्दी के महान ज्योतिषी -

इण्डियन काऊंसिल ऑफ एस्ट्रोलॉजिकल साइन्सेज के संस्थापक डॉ. बी.वी. रमन द्वितीय विश्व युद्ध के समय इतने अधिक प्रसिद्ध हुए कि अंग्रेज सरकार के अधिकृत व्यक्ति उनसे युद्ध सम्बन्धित भविष्यवाणियों के लिए नित्य प्रति सम्पर्क रखते थे। कौन सा देश कब जीतेगा, ऐसी सफल भविष्यवाणियाँ उन्होंने बहुत बार कीं। मेदिनी ज्योतिष और नाड़ी ज्योतिष पर उनकी गहरी पकड़ थी। संस्कृत भाषा के साहित्य को अंग्रेजी में अनुवाद करके उन्होंने साधारण जनता के लिए ज्योतिष को उपलब्ध करवा दिया। उनके दादा सूर्य नारायण राव भी महान ज्योतिषियों की श्रेणी में थे। इन दादा-पोते के कारण और उनकी ज्योतिष पत्रिका के कारण भारत में आज ज्योतिष बहुत लोकप्रिय है।

पाश्चात्य ज्योतिष में दशा पद्धति ना होने के कारण बहुत आगे तक की भविष्यवाणी सम्भव नहीं है। जबकि भारतीय ज्योतिष 100 वर्ष आगे तक की भविष्यवाणियाँ कर सकती है, क्योंकि उसके पास दशा गणना पद्धतियाँ हैं।

 

प्रयच्छति गुरुः प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम्

पं. अशोक दीक्षित

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

आज ईश्वर की समस्त कृतियों में मानव की संरचना ही सर्वश्रेष्ठ मानी जा सकती है क्योंकि वह अपने बुद्धिबल और ज्ञान कौशल से समस्त प्रकृति के पदार्थों, जीव एवं वस्तुओं का उपभोग कर रहा है। उसके ज्ञान, विज्ञान, कला और विकास में किसकी महत्वपूर्ण भूमिका है? यह विचार करेंगे तो कोई जागृत चैतन्य तत्व दृष्टि गोचर होगा, वही श्रीगुरु तत्व है।

यदि मानव को कोई दिशा-निर्देशक, मार्गप्रशस्ता, साधक और सहायक न होता तो मानव और पशु में क्या अन्तर रह जाता। वह सत्प्रेरक तत्व ही श्रीगुरु तत्व है, जो अपने अनुभव, ज्ञान और करुणा पूर्ण भावना से सर्वहित साधन में लगा है और अपने सद् विचारों से मानव में देवत्व की क्षमता प्रकट कर रहा है, वही श्रीगुरु तत्व है।

न केवल आध्यात्मिक वरन् धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, व्यावसायिक, पारमार्थिक, स्वाभाविक एवं जीवनोपयोगिक ज्ञान और क्रियाओं में किसी न किसी मार्गदर्शक, पे्ररक, उद्वोधक, संचालक तथा प्रणेता की महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य रही होगी, वही श्री गुरु तत्व है

गुरु पूर्णिमा : दिनांक 23 जुलाई, 2021, शुक्रवार को ‘गुरु पूर्णिमा’ पर्व है। दिनांक 24 जुलाई को पूर्णिमा तिथि प्रातः 08:07 बजे तक, सूर्योदय से 3 मुहुर्त से कम होने के कारण 23 जुलाई, शुक्रवार को प्रातः 10:45 के उपरांत मनाया जाना शास्त्र सम्मत होगा। हर वर्ष आषाढ़ माह की पूर्णिमा को यह पर्व मनाया जाता है। यह अपने गुरु की पूजा करने का पर्व है। इस दिन हर कोई कलाकार, विद्वान, नामक, अभिनेता, खिलाड़ी आदि सभी अपने-अपने गुरु, मार्गदशक या सलाहकार के पास जातक नतमस्तक होते हैं, उपहार या भेंट देते हैं और श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए प्रणाम करते हैं।

इसे ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहते हैं। पाराशर जी के द्वारा, सत्यवती के गर्भ से ‘वेदव्यास’ जी का जन्म इसी आषाढ़ माह की पूर्णिमा को हुआ था। ‘वेदव्यास’ आदि व्यास के अवतार माने जाते हैं और ये गुरुओं के भी गुरु हैं। ये अजर-अमर हैं। सप्त चिरंजीवियों में वेदव्यास जी भी एक हैं इसलिए व्यास देव का जन्म दिन गुरु पूजा के पर्व के रूप में मनाया जाता है।

संसार में गुरु का स्थान हर शिष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। माता-पिता से भी बढ़कर जीवन में गुरु का स्थान होता है। सच्चा गुरु ही सही मार्गदर्शन कर सकता है। गुरु ही हैं जिनका दर्जा भगवान से भी बढ़कर माना जाता है।

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पांव।

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।

यदि गुरु और भगवान दोनों एक साथ खड़े हों तो एक शिष्य को पहले अपने गुरु को नमन करने की आज्ञा देकर, गुरु की परमोच्च सत्ता को प्रकट किया गया है। जैसे - बिना ज्ञान के मोक्ष नहीं मिलता, वैसे ही बिना सद्गुरु के ज्ञान नहीं मिलता। गुरु के द्वारा दिया गया ज्ञान, इस संसार रूपी समुद्र में ‘नौका’ के समान है।

गुरु शब्द का शब्दार्थ विद्वानों ने कई प्रकार से किया है-

1.            जो शिष्य के कानों में ज्ञान अमृत का प्रवचन या वर्षा करता है, वह गुरु है।

2.            जो अपने सर्वोत्तम उपदेशों से शिष्य के अज्ञान रूपी अधंकार को नष्ट कर देता है, वह गुरु है।

3.            जो शिष्य को धर्म और सच्चाई के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है, वह गुरु है।

4.            जो शास्त्रों व कलाओं के रहस्य को समझा देता है, वह गुरु है।

एक शिष्य अपने गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और परब्रह्म के समकक्ष मानकर सम्मान देता है -

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुर्साक्षात् परब्रह्मः तस्मै श्रीगुरुवे नमः।।

यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति के गुरु अलग-अलग होते हैं परंतु भगवान नारायण तो गुरुओं के भी गुरु हैं। वे ब्रह्माजी के भी गुरु हैं क्योंकि सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्माजी ने भगवान नारायण से भी वेद-विद्या प्राप्त की थी।

यह पूर्णिमा गुरु पूजन का पर्व है। यह किसी व्यक्ति विशेष की पूजा का नहीं अपितु उस व्यक्ति की देह में उपस्थित परमात्मा के अंश की पूजा करने का पर्व है।

माता को भी ज्ञान दिया  : वेदव्यास जी, श्री कपिल मुनि और श्रीशुकदेव जी ने न केवल संसार के प्राणियों को अपितु अपनी माता को भी सदुपदेश दिया। जन्म के कुछ समय बाद श्रीव्यास जी ने अपनी माँ से कहा - माँ! अब मैं तपस्या के लिए जाना चाहता हँू। तो इनकी माँ ने कहा-बेटा! पुत्र तो माता-पिता की सेवा के लिए होता है, माता-पिता के अधूरे कार्य पूरे करने के लिए होता है तो इन्होंने अपनी माँ को उपदेश दिया और तपस्या करने चले गए। वेदव्यास को महान गुरु माना गया।

यह पर्व जन्म-जन्मांतर के ऋषि ऋण चुकाने का, ऋषियों की व गुरुओं की पे्ररणा और आशीर्वाद प्राप्त करने का सर्वोत्तम अवसर है। यह केवल गुरुजनों का ही नहीं अपितु अपने से बड़े सभी लोगों को सम्मान देने का पर्व है। यह आस्था, विश्वास, श्रद्धा और समर्पण का पर्व है।

चिंतामणिर्लाेकसुखं सुरद्रुः स्वर्ग सम्पदम्।

प्रयच्छति गुरुः प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम्।। (भागवत)

चिंतामणि सांसारिक सुख को प्रदान करती है। कल्पवृक्ष स्वर्ग की सम्पदा को दे सकता है परंतु यदि गुरुदेव की कृपा प्राप्त हो जाये तो सांसारिक भोग, स्वर्ग की सम्पदा तथा योगियों को भी परम दुर्लभ है ऐसे भगवान के धाम वैकुण्ठ की भी प्राप्ति हो सकती है।

श्रीगुरु चरणौ शरणं प्रपद्ये

 

मंगली योग का परिहार

डॉ. शुकदेव चतुर्वेदी

ग्रह मेलापक की रीति पर प्रकाश डालने से पूर्व हम यह बतला देना चाहते हैं कि कुछ परिस्थितियों में मंगली दोष प्रभावहीन हो जाता है। जो योग मंगली दोष को प्रभावहीन कर देते हैं, वे इसके परिहार योग कहे जाते हैं।

ज्योतिष शास्त्र के प्रायः सभी मानक ग्रंथों में मंगली योग के परिहार का उल्लेख मिलता है। परिहार योग भी आत्म कुंडलीगत एवं पर कुंडलीगत भेद से दो प्रकार के होते हैं। वर या कन्या की कुंडली में मंगली योग होने पर उसी की कुंडली का जो योग मंगली दोष को निष्फल कर देता है, वह परिहार योग आत्म कुंडलीगत कहलाता है तथा वर या कन्या इन दोनों में से किसी एक की कुंडली में मंगली योग का दुष्प्रभाव दूसरे की कुंडली के जिस योग से दूर हो जाता है, वह महत्त्वपूर्ण एवं अद्भुत योग इस प्रकार हैं-

() कुंडली में लग्न आदि 5 भावों में से जिस भाव में भौमादि ग्रह के बैठने से मंगली योग बनता हो, यदि उस भाव का स्वामी बलवान हो तथा उस भाव में बैठा हो या देखता हो साथ ही सप्तमेश या शुक्र त्रिक स्थान में हो तो मंगली योग का अशुभ प्रभाव नष्ट हो जाता है। देखिए-प्रश्नमार्ग, भाग २।

() यदि मंगल शुक्र की राशि में स्थित हो तथा सप्तमेश बलवान  होकर केन्द्र त्रिकोण में हो तो मंगलीदोष प्रभावहीन हो जाता है।   भावदीपिका, श्लो. ११५।

() वर-कन्या में से किसी एक की कुंडली में मंगली योग हो तथा दूसरे की कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश स्थान में शनि हो तो मंगली दोष दूर हो जाता हैः

जामित्रे यदा सौरिर्लग्ने वा हिबुकेऽथवा।

अष्टमे द्वादशे वाऽपि भौमदोष विनाशकृत्॥

() वर-कन्या में से किसी एक की कुंडली में मंगली योग हो तथा दूसरे की कुंडली में मंगली योग कारक भाव में कोई पापग्रह हो तो मंगली दोष नष्ट हो जाता हैः-

शनि भौमोऽथवा कश्चित् पापो व तादृशो भवेत्।

तेष्वेव भवनेष्वेव भौम-दोषः विनाशकृत्॥

() जिस कुंडली में मंगली योग हो यदि उसमें शुभग्रह केन्द्र-त्रिकोण में तथा शेष पापग्रह त्रिषडाय में हों तथा सप्तमेश, सप्तम स्थान में हो तो भी मंगली योग प्रभावहीन हो जाता हैः

केन्द्र त्रिकोणे शुभाढ्ये च त्रिषड़ायेडऽप्यसद्ग्रहाः।

तदा भौमस्य दोषो न मदने मदपस्तथा।।

() मंगली योग वाली कुंडली में बलवान गुरु या शुक्र के लग्न या सप्तम में होने पर अथवा मंगल के निर्बल होने पर मंगली योग का दोष दूर हो जाता है :

सबले गुरौ भृगौ वा लग्ने द्यूनेऽपि वाऽथवा भौमे।

वक्रिणि नीचगृहे वाऽर्कस्थेऽपि वा न कुजदोषः॥

() मेष लग्न में स्थित मंगल, वृश्चिक राशि में चतुर्थ भाव में स्थित मंगल, वृषभ राशि में सप्तम स्थान में स्थित मंगल, कुंभ राशि में अष्टम स्थान में स्थित मंगल तथा धनु राशि में व्यय स्थान में स्थित मंगल मंगली दोष नहीं करता।

अजे लग्ने व्यये चापे पाताले वृश्चिके स्थिते।

वृषे जाये घटे रंध्रे भौमदोषो न विद्यते॥

() मेष या वृश्चिक का मंगल चतुर्थ स्थान में होने पर, कर्क या मकर का मंगल सप्तम स्थान में होने पर, मीन का मंगल अष्टम स्थान में होने पर तथा मेष या कर्क का मंगल व्यय स्थान में होने पर मंगली दोष नहीं होता।

() जिस कुंडली में सप्तमेश या शुक्र बलवान हों तथा सप्तम भाव इनसे युत-दृष्ट हो, उस कुंडली में मंगली दोष हो तो वह नष्ट हो जाता है।

() यदि मंगली योग कारक ग्रह स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या उच्चराशि में हो तो मंगली दोष स्वयं समाप्त हो जाता है।

हमारा अनुभव है कि जब किसी लड़की या लड़के की कुंडली में शुक्र एवं सप्तमेश बलवान होकर शुभ स्थान में स्थित हों तथा सप्तम भाव पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो उस कुंडली में मंगली दोष प्रभावहीन हो जाता है। इस स्थिति में मंगली दोष से किसी भी प्रकार की हानि की आशंका नहीं करनी चाहिए।

इसी प्रकार जब किसी की कुंडली में मंगली योग कारक ग्रह एवं शुक्र पर शुभग्रहों का प्रभाव हो तो भी मंगली योग दाम्पत्य जीवन पर किसी प्रकार का दुष्प्रभाव नहीं  डाल पाता। हमारी राय में मंगली योग देखकर किसी प्रकार के वहम या चिंता में नहीं पड़ना चाहिए, अपितु कुंडली में सप्तम भाव, सप्तमेश एवं शुक्र की स्थिति तथा उन पर पड़ने वाले शुभ या अशुभ प्रभाव का ध्यानपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। हमने अनेक जगह देखा है कि मंगली योग होने पर भी मात्र सप्तम भाव, सप्तमेश एवं शुक्र पर पापग्रहों का कुप्रभाव होने से दाम्पत्य जीवन दुःखमय बन गया।

मेलापक का कार्य करने वाले ज्योतिषी बंधुओं से मैं एक बात विशेष रूप से कहना चाहता हूं कि वेभावात्भावपतेश्च कारकवशात्तत्तद् फलं चिंतयेत्इस नियम का उपयोग ग्रह मेलापक में करके देखें। मेरा विश्वास है कि यह नियम उनके समक्ष मंगली दोष या दाम्पत्य जीवन के बारे में उठने वाली आशंकाओं का यथार्थ रूप से समाधान करेगा।

 

 

 

ज्योतिष और गुरुतत्व के आलोक में युगावतार

वीरेन्द्र नाथ भार्गव

संसार के प्रायः सभी प्रमुख धर्मों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में अवतारवाद की अवधारणा जुड़ी है। अवतार के आगमन की भविष्यवाणी विभिन्न प्रकार की विधाओं के अनुरुप की जाती रही हैं जिनमें ज्योतिष अर्थात् ज्योति (प्रकाश) की नींव पर बनी विधा का महत्वपूर्ण स्थान है। ज्योतिषीय भविष्यवाणी का एक विश्वविख्यात उदाहरण लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व सिद्धार्थ गौतम (महात्मा बुद्ध) के जन्म के समय का है। जन्म कुण्डली के आधार पर राज ज्योतिषियों ने घोषणा की थी कि यह बालक बड़ा होकर या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा अथवा यह सारे संसार को धर्म का मार्ग दिखाने वाला महात्मा बनेगा। इन दोनों में से कौनसा बनेगा इसका उत्तर तत्कालीन ज्योतिषियों के पास नहीं था। इसमें से एक सांसारिकता (अपरा) और एक परमार्थ (परा) को इंगित करता था। ज्योतिष अपरा विद्या मानी जाती है जो कि खगोलीय गणनाओं, ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति इत्यादि पर मूलतः आधारित है। हिन्दू धर्म के ग्रंथ योगवासिष्ठ तथा इस्लाम धर्म में एक अनोखी एक समान भविष्य कथन मिलता है कि प्रलय (कियामत) के अवसर पर सूर्य पश्चिम में उगेगा। सम्पूर्ण ज्योतिष सूर्य के पूर्व दिशा में उदय होने के आधार पर है और यदि सूर्योदय पश्चिम में हो गया तो निःसन्देह सम्पूर्ण सौर मण्डल प्रभावित होगा तथा पृथ्वीवासियों के लिए ज्योतिषीय भविष्यवाणी करना संभव हो पाए। जिस आधार पर हिन्दू-इस्लाम विशेषज्ञों ने सूर्य के पश्चिम में उदय की घोषणा की है वह आधार क्या है? उसी आधार पर क्या आगे की भविष्यवाणियाँ करना संभव हो पाएगा जो कि ज्योतिष का पूरक अथवा सहयोगी अभिव्यक्ति हो। भारतीय परम्परा में गुरु को सर्वोच्च स्थान दिया गया है जो मार्गदर्शन करता है। संसार और परमार्थ के एकरुप सहायक गुरु की समाज में अभिव्यक्ति निम्र है-

गुरुर्ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरुर्देवोमहेश्वरः।

गुरुर्साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥

प्राचीनकाल में केवल मानवजाति अपितु देवताओं और असुरों ने भी अपने अपने गुरु धारण किये हुए थे। देवों  के गुरु बृहस्पति और असुरों के गुरु भार्गव शुक्राचार्य थे। प्रसंगवश संसार की प्राचीनतम आर्य ब्राह्मण प्रतिमा उत्तरी इराक के दजला (टाइग्रिस) नदी के तट पर पुरा नगर असुर (वर्तमान शिरकट) के खंडहरों में उर-नम्मू नामक देवी-देवता के मंदिर में खोज निकाली गई। प्राचीन प्रचंड असुर सभ्यता (असीरिया) की तीन राजधानियों क्रमशः असुर, निनवे और निमरुद में यह असुर नगर प्राचीनतम था जिसका अस्तित्व लगभग .पू. 2300-2350 में आया था। चूना पत्थर की यह प्रतिमा .पू. 2400 काल की है जिसमें स्पष्ट रूप से पीठ पर बाएं कंधे से उतरता हुई दाहिनी कमर तक यज्ञोपवीत प्रदर्शित है। यह प्रतिमा आज बर्लिन संग्रहालय में है तथा इसकी प्लास्टर की प्रतिकृति बगदाद (इराक) संग्रहालय में रखी है। इस प्रतिमा की मुंडी नहीं है तथा लगभग पांच फीट ऊँचा पांवों से धड़/गरदन तक अंग उपलब्ध है। असुरों और आर्यों का प्राचीन इराक में बहुत संघर्ष हुआ है तब असुरों ने इस ब्राह्मण प्रतिमा को अपने पूरे सभ्यताकाल (.पू. 2350 से .पू. 612) में सुरक्षित क्यों रखा था? अवश्य ही यह आर्य उनके लिए सम्माननीय था जो कि संभवतः असुरों का धर्मगुरु-कुलगुरु शुक्राचार्य की प्रतिमा ही है। श्रीमद्भागवत महापुराण के होंगे। त्रेता और द्वापर में युगावतार क्षत्रीय राम और कृष्ण थे। वर्तमान कलियुग तो अपेक्षाकृत घोर अधर्मी है तब युगावतार ब्राह्मण क्यों होगा? इसका एक अनुमानित कारण यही प्रतीत होता है कि ब्राह्मण को द्विज अर्थात् दूसरा जन्म धारण करने वाला माना जाता है। एक ही व्यक्ति एक साथ दो जनम धारण करें यह कदाचित कलियुग का समापन और सतयुग का आगमन जैसे दो परस्पर विपरीत स्थितियों का एक शरीर में निर्वाह होने जैसा है। ईसाई धर्म के अनुसार ईसा का दोबारा आना और इस्लाम (शिया) के अनुसार बारहवें इमाम महदी का दोबारा आना यदि एक शरीरधारी व्यक्ति के द्वारा सम्पादन किया जाना हो तो वह द्विज अथवा गुरु अथवा ब्राह्मण  हो सकता है। इतिहास में सूर्य के पश्चिम में उदय होने की घटना द्वापर युग में महाभारत युद्घ के अवसर पर उस दिन घटी थी जिस दिन कौरव पथ के महारथी जयद्रथ का वध हुआ था। पांडव अर्जुन ने अपने पुत्र अभिमन्यु की छलपूर्वक चक्रव्यूह में मृत्यु हेतु जयद्रथ की भूमिका से क्रूद्ध होकर सूर्यास्त से पूर्व जयद्रथ का वध करने की प्रतिज्ञा की थी अन्यथा वह जीवित चिता में जल जाएगा। युद्ध के दिन जयद्रथ छिप गया और सूर्य जब पश्चिम में पहुँचा तब भगवान कृष्ण ने अपने ईश्वरीय हस्तक्षेप से सूर्य को अस्त कर दिया। असमय सूर्यास्त देखकर सभी को विस्मय हुआ किन्तु रहस्य कोई नहीं जान पाया और छिपा जयद्रथ सामने गया। तभी कृष्ण ने अपनी ईश्वरीय लीला हटाकर सूर्य को प्रकट कर दिया और अर्जुन ने उस पश्चिम में उगे सूर्य के प्रकाश में जयद्रथ वध कर दिया। अतः कलियुग के अंत में सूर्य के पश्चिम में उदय होने के रहस्य का द्विज कलियुग अवतार कल्कि से अवश्य ही जुड़ा होना चाहिए। यह ज्ञातव्य है कि भविष्यवाणी से पूर्व परिचय पाकर कंस ने भगवान कृष्ण के जन्म से ही हत्या की चेष्टाएं की थीं। उसी प्रकार कलियुग और कलियुग के शासकगण भी संभवतः युगावतार कल्कि की हत्या करना चाहेंगे। जिस प्रकार ईश्वरीय हस्तक्षेप से महाभारत युद्घ में अर्जुन के प्राण बचे थे उसी प्रकार कलियुग में भी ईश्वरीय हस्तक्षेप कल्कि  के प्राण बचाने  में सहायक होगा। जिस प्रकार द्वापर में ज्योतिषी पश्चिम में सूर्य के उदय की रहस्य घड़ी टल चुकी होगी और द्विज कल्कि कल्याणकारी संदेश संसार को देने में सफल होंगे। ऐसी संभावना कपोलकल्पित हो उसके लिए पौराणिक आख्यान अथवा प्राचीन गाथाएं जो प्रायः पढ़ने अथवा सत्संगों में सुनने को मिलती हैं उनसे समाधान हेतु सांकेतिक तुलनात्मक आकलन करके सत्यता को जानने की चेष्टा की जा सकती है। ऐसी ही एक कथा अनोखे अतिथि की सुनी जाती है। अतिथि का सरल अर्थ है जिसके आने अथवा जाने की तिथि नहीं होती है। अतः ज्योतिषीय गणनाओं से भी अतिथि के संभावित उद्देश्य या गुणों का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है।