क्या हम वृहत्तर भारत की ओर बढ़ रहे हैं?

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

यह है भारत की जन्म पत्रिका। अन्य जन्म पत्रिकाओं के अलावा 15 अगस्त, 1947 की यह जन्म पत्रिका भी काफी प्रभावशाली है। तीसरे भाव के चंद्रमा की महादशा चल रही है और पंचमेश की अन्तर्दशा चल रही है। यह पराक्रम भाव की महादशा है। न चंद्रमा अस्त हैं और न अन्तर्दशानाथ बुध। इस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जो कि वृश्चिक लग्न और वृश्चिक राशि के हैं को मंगल की महादशा चल रही है जो कि पराक्रम वाले ग्रह हैं। उनके अन्तर्दशानाथ राहु कोई क्रांतिकारी काम कराना चाहते हैं। भारतीय जनता पार्टी की मिथुन लग्न की जन्म पत्रिका को चंद्रमा की महादशा और गुरु की अन्तर्दशा चल रही है। नीच भंग राजयोग वाले चंद्रमा और गजकेसरी योग बनाकर पराक्रम वाले तीसरे भाव में बैठे गुरु की अन्तर्दशा चल रही है। भारतीय जनता पार्टी की जन्म पत्रिका का तीसरा भाव वैसे भी शक्तिशाली है, जिसमें कि शनि, गुरु, राहु और मंगल विद्यमान हैं। बहुत कमाल की बात है कि मंगल, राहु, गुरु और शनि की अन्तर्दशाएं एक ही पराक्रम भाव से संबंधित है।

 

 

विक्रम संवत् 1 (एक) के मई मास में मिथुन राशि में शनि, मंगल व केतु गोचर कर रहे थे जो कि एक अद्भुत ग्रह स्थिति थी। तब तक सम्राट विक्रमादित्य ने अपना साम्राज्य विस्तार बहुत अधिक कर लिया था, जिसका विस्तार दक्षिण चीन सागर, सुदूर पूर्व, दक्षिण पूर्व देशों के साथ-साथ अरब देशों तक फैला हुआ था। विक्रम संवत् लागू करने के समय सम्राट विक्रमादित्य का चरमोत्कर्ष आ चुका था। इतिहासकारों ने जिस वृहत्तर भारत की संज्ञा को प्रचलित किया वह वही भारत है जिसका शासन भारत के बाहर भी कई देशों में था। इससे पूर्व भी जब माता सीता की तलाश में जब कई दल सुग्रीव ने भेजे तो उन देशों में सुदूर पूर्व के वे देश भी शामिल थे जहां रावण का साम्राज्य था अर्थात् आज के इण्डोनेशिया, हॉगकॉग, सिंगापुर जैसे देश। बाली और सुमात्रा की चर्चा तब भी थी। यह सब देश फिर रघु कुल के शासन में आ गए थे। अर्थात् वृहत्तर भारत का अस्तित्व त्रेता, द्वापर और कलियुग तक में था। सम्राट विक्रमादित्य के समय आज का आसाम या उत्तर पूर्व काम रूप कहलाता था, जिसका विस्तार हिमालय पार चीन के कुछ प्रदेशों तक था।

भारत में अब शासन करने वाले देश व राजनीतिक दलों की जन्म पत्रिकाएं पराक्रम भाव का प्रदर्शन कर रही हैं। गजवा-ए हिन्द का नारा देने वाले लोगों को यह नहीं पता कि इस नारे में अब हिन्द नहीं बल्कि कुछ और शब्द या देशों के नाम जुड़ सकते हैं। साम्राज्यवाद की कई परिभाषाओं में से आर्थिक साम्राज्यवाद के रास्ते पर भारत अब चल पड़ा है। अमेरिका के अलावा भारत पूंजीवाद और आर्थिक साम्राज्यवाद के श्रेष्ठ उदाहरणों में से एक है। भारतीय कम्पनियाँ अब विदेशी कम्पनियों को निगल रही है। टाटा, बिड़ला, अम्बानी के अलावा अब गौत्तम अड़ानी भी इस दौड़ में आ गए हैं और अधिग्रहण के इतिहास के बड़े फैसले इस समय हो रहे हैं। आपको स्मरण रहना चाहिए कि ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने आर्थिक साम्राज्यावाद की राह पर चलकर ही कई देशों में शासन स्थापित किया था। चीन ने उसे दोहराने की कोशिश की परंतु नीतिगत गलत फैसलों के कारण मार खा गया है और श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान सहित कई देश चीन की महत्वाकांक्षाओं के प्रति सतर्क हो गए हैं। आर्थिक साम्राज्यवाद की दौड़ में अफ्रीका महाद्वीप में भी चीन, अमेरिका, यूरोप और भारत के साथ कठिन संघर्ष में है।

इस समय भारत देश की जन्म पत्रिका में बलवान दशा-अन्तर्दशाओं के अतिरिक्त ग्रहों का गोचर बहुत बड़ी भूमिका निभा रहा है। इन्हीं पृष्ठों पर हमने कई बार लिखा है कि शनि व बृहस्पति जब एक साथ वक्री हों तो इतिहास बदलने वाली घटनाएं आती हैं। यह दोनों ग्रह जुलाई मास से लेकर कई महीनों तक न केवल एक साथ वक्री रहेंगे बल्कि अपनी श्रेष्ठ राशियों में शक्तिशाली रहेंगे। शनि कुंभ में, फिर मकर में और फिर वापिस कुंभ में तथा बृहस्पति मीन राशि में रहेंगे। यह दोनों ही राशियाँ पवित्र हैं, धार्मिक हैं और धर्म, न्याय तथा राष्ट्र की समृद्धि को बढ़ाने वाली हैं। भारत की जन्म पत्रिका में नवम और दशम भावों को प्रभावित करने वाले शनि और लाभ के भाव में स्थित मीन राशि को शक्तिशाली बनाते हुए बृहस्पति दूरगामी परिणाम देने वाले हैं। अब शासन कोई भी हो, ग्रह भारत राष्ट्र को उन्नत देखना चाहते हैं तथा उसकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिभा बढ़ाने वाले हैं। मेदिनी ज्योतिष में रुचि रखने वाले लोग यह जान लें कि भारत अब पुराने वैभव की ओर लौट रहा है। गजवा-ए हिन्द जैसे नारे देने वाली शक्तियाँ घृणास्पद हो जाएंगी। शक्ति प्रदर्शन करने वाली ताकतें अब रक्षात्मक मुद्रा में आ जाएंगी। मेरी यह धारणा अब आकार लेती हुए प्रतीत होती है कि लक्ष्मीजी 500 वर्षों तक पूर्वी देशों में रहती हैं, तथा 500 वर्ष पश्चिमी देशों में रहती हैं। अकबर के समय तक लक्ष्मीजी पूर्वी देशों में थीं, बाद में पश्चिमी देशों में चली गईं तथा अब उनका रुख पूर्वी देशों की ओर है। जरा कल्पना कीजिए कि जापान, चीन, कोरिया और भारत की अर्थ व्यवस्थाएं सम्मिलित रूप से पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ती हुई नजर आ रही है। अब पूर्व दिशा के देश शक्तिशाली होते जा रहे हैं, उनकी अर्थव्यवस्थाएं बलवान होती जा रही है। इन देशों की कम्पनियाँ मल्टीनेशनल के रूप में बदल रही हैं।

जहां तक भारत की बात है, शक्तिशाली राजनीतिक दलों के निर्णय उसे अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अधिक से अधिक बलवान सिद्ध करते जा रहे हैं। अब अधिक राष्ट्र भारत का सम्मान करते हैं। भारत अब याचक मुद्रा में नहीं बल्कि दाता की मुद्रा में आ गया है। अहिंसा धर्म का गलत प्रतिपादन अब रुक गया है। इस श£ोक को पूरा पढ़ें तो अलग ही अर्थ आता है। ‘‘अहिंसा परमो धर्मः धर्महिंसा तदैव चः।’’ अर्थात् अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है और धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना उससे भी श्रेष्ठ है। यहां धर्म से तात्पर्य हिन्दू, मुस्लिम इत्यादि नहीं है परंतु राष्ट्र धर्म या राज धर्म हो सकता है।

इस लेख का उद्देश्य यह दर्शाना है कि महान साम्राज्यवादी देश अब युद्ध कर रहे हैं या परेशानियों में चल रहे हैं। ग्रह स्थितियाँ बताती हैं कि छोटे और पीड़ित देश अब भारत की ओर देखने लगे हैं। आने वाले वर्ष भारत के प्रभुत्व वाले ही होंगे। इतिहास फिर से अपने को दोहराएगा।

 

श्वेतार्क गणपति साधना

पौराणिक मान्यता है कि श्वेतार्क (सफेद आंकडा) की जड़ में श्री गणेश जी का वास होता है यदि उचित विधि से श्वेतार्क की जड़ प्राप्त की जायें तथा श्री गणेश के रूप में उसका पूजन करके घर में स्थापित की जाये तथा उसका दैनिक पूजन हो तो वह श्री गणेश जी की तरह साधक के घर को धनसंपत्ति से युक्त करके परिवार की भौतिक बाधाओं को दूर करती है परन्तु आवश्यक बात यह है कि श्वेतार्क मूल तांत्रिक विधि से प्राप्त की जायें। इस विधि को पूर्ण करनें में निम्र सावधानी बरती जाती है।

मुहूर्त : श्वेतार्क मूल प्राप्त करने के लिए मुहूर्त साधन अति आवश्यक है। किसी विद्वान से अपने नाम के अनुसार शुद्घ मूहुर्त निकलवाना चाहिये। मुहूर्त के लिए निम्र सर्वश्रेष्ठ दिवस हो है।

रविपुष्य : जिस दिन रविवार हो तथा चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र पर हो।

गुरुपुष्य : गुरुवार हो तथा चंद्रमा पुष्य नक्षत्र पर हो।

शुक्ल चतुर्थी : किसी भी मास की विशेषतः भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी।

सर्वार्थ सिद्घ योग

2,7, तथा 12वीं तिथियाँ हो साथ में बुधवार हो।

उपरोक्त दिनों में जिस दिन आपका चंद्रमा गोचर में शुभ हो उसी दिन साधना प्रारम्भ करनी चाहिए।

श्वेतार्क मूल की प्राप्ति: आप यह जानकारी रखें कि श्वेतार्क का पौधा कहां है तथा वह निर्विवाद भी है या नहीं मतलब कि उसे प्राप्त करने में किसी को बाधा तो नहीं। अगर आपको किसी ने दी है तो भी उसका पूजन उपरोक्त दिनों में ही करें।

जिस दिन साधना आरम्भ करनी हो, शुभ मुहूर्त जिस दिन हो, ठीक उससे पूर्व दिन संध्या के समय, चुपचाप अकेले बिना किसी से बोले स्नान आदि करके, शुद्घता पूर्वक, शान्त चित्त से उस पौधे के पास जायें। साथ में एक लाल धागा, जल, धूपबत्ती, माचिस और सिन्दूर भी ले जायें।

श्वेतार्क पौधे के पास पहुँचकर पूर्व या उत्तर की और मुख करके खडे होकर पौधे को साक्षात गणेश जी मानकर हाथ जोडें। फिर पौधे की जडों में जल डाले। फिर धूप, दीप लगावें और पौधे की किसी डाल में लाल धागा बांधकर प्रार्थना करें - हे गणेश जी महाराज हे श्वेतार्क देव मै अपने कार्यों की सिद्घि के लिए - कल आपको लेने के लिए आउंगा। अतः आप भी मेरे साथ चलकर मेरे अभीष्ट कार्यों की पूर्ति करें। फिर शान्त मन से घर लौट आये ब्रह्मचर्य में रहे एकान्त में शयन करें।

दूसरे दिन ब्रह्म मूहुर्त में जब तारे दिखते रहें जागें । शीघ ही अपने दैनिक नित्यकर्म पूरे करें स्नानादि करें। फिर एक शुद्घ वस्त्र और खोदने का कोई औजार साथ में लेकर पौधे के पास जायें प्रणाम करें और श्रीगणेश जी का ध्यान करते हुये पूर्व या उत्तर की और मुख करके सावधानी से जड़ को खोदे। जड़ टूटनी नहीं चाहिये पूरी जड़ निकल आयें तो अति उत्तम अन्यथा जैसी भी मिले लेकर माथे से लगाकर कपडे में बांध ले और चुपचाप घर ले आयें। इस पूरी प्रक्रिया में ऊँ गं गणपतये नमः बोलते रहना चाहिये।

पूजन विधि : श्वेतार्क मूल प्राप्त करके उसे शुद्घ जल से धोंयें, स्नान करायें। फिर लाल कपडे पर स्थापित करकें उसकी पूर्ण विधि से पूजा करें। विधि विधान से पूजा करने के बाद श्री गणेश जी के कोई से मंत्र का उच्चारण कर जप करने का संकल्प लेवें। फिर मंत्र ऊं गं गणपतये नमः का जाप प्रारम्भ करें। जप की संख्या प्रतिदिन निश्चित होनी चाहिये तथा कुल संख्या 10,000 होती है यह संख्या स्वयं के द्वारा भी पूरी की जाती है अथवा विद्वानों का वरण करके उनसे भी करवाई जा सकती है। जप पूर्ण होनें पर दंशाश आहुतियों से हवन किया जाता है । हवन पूरा होने पर यथा शक्ति ब्राह्मण बालकों को भोजन करवायें।

इस प्रकार अनुष्ठान पूर्ण होनें पर श्वेतार्क मूल स्वरूप गणपति को लाल कपडे के आसन के साथ अपने मंदिर घर में में, अलमारी में शुद्घता पूर्वक रखें और नित्य उसका सिंदुर तथा धूप दीप से पूजन करते रहें। इस प्रकार करते रहने से अभीष्ट कामनाओं तथा धन-संपत्ति प्राप्त होती है।

 

 

हस्त विज्ञान

स्वं एन.पी. थरेजा

गतांक से आगे ....

अंगूठे व अंगुलियों के भाग होते हैं। अंगुलियों के तीन व अंगूठे के साधारणतः 2 भाग होते हैं। जो भी हो अंगूठे के दो भाग के बारे में मतभेद है। एक शाखा के अनुसार अंगूठे के भी तीन भाग होते हैं। जिस प्रकार अंगुलियों के होते हैं। दूसरी विचार धारा के अनुसार अंगूठे के दो भाग होते हैं। वैसे भी यही विचार ठीक लगता है। तीसरे भाग को हम शुक्र पर्वत का ही हिस्सा मानते हैं। नाखून से नीचे वाला व अंगूठे का ऊपर वाला भाग पहला कहलाता है व उसके नीचे वाला भाग दूसरा कहलाता है। इन दोनों भागों की पहचान भाग के अंत में होने वाली रेखा से होती है जो कि हथेली के अंदर की ओर से नापा जा सकता है। कुछ हस्तरेखा विद इसे नाखून की ओर से नापते हैं।

अधिकांश व्यक्तियों के अंगूठे के दो भाग एक गहरी रेखा से बंटे होते हैं पर ध्यान देने की बात है कि दो भागों को काटने वाली ये रेखा कभी-कभी दोहरी होती है ‘यव’ की शक्ल में। यह निशान उन भाग्यवान व्यक्तियों के हाथों में पाया जाता है जो धनी, बुद्धिमान व संतानवान होते हैं। ‘यव’ का चिह्न किसी व्यक्ति के अंगूठे पर स्पष्ट रूप से पाया जाये तो वह एक प्रसिद्ध विद्वान होगा, धनी होगा। वह अपने परिवार व जाति का नाम ऊंचा करेगा। यह एक सुखी जीवन का चिह्न है। यदि यह चिह्न एक खड़ी रेखा द्वारा कट जाये तो व्यक्ति अपने बुढ़ापे में धन प्राप्त करेगा व सुख शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करेगा। यदि यह चिह्न अंगूठे के नीचे पाया जाये तो इसका अर्थ है कि व्यक्ति अवश्य पुत्रवान होगा। प्रत्येक ‘यव’ का अर्थ एक पुत्र है जितने यह अंगूठे की तली में होंगे उतने ही पुत्र होंगे। इसका पता लगाने के लिए पति-पत्नी दोनों का हाथ देखना जरूरी है। आजकल के समय जब छोटा परिवार रखने का प्रयास है, कितने बच्चे हैं इसका पता यव की संख्या से नहीं लग सकता। बहुत से व्यक्तियों के हाथों से देखा गया है कि बड़े ‘यव’ पुत्रों की तथा छोटे ‘यव’ पुत्रियों की संख्या बताते हैं।

अंगूठे के दो भागों के भिन्न भिन्न पहलू हैं। पहला भाग इच्छा शक्ति को व्यक्त करता है, आत्म निर्भरता बताता है व प्रभुत्त्व जमाने की शक्ति बताता है। दूसरा भाग जो कि नीचे वाला है तर्क शक्ति, विवेक शक्ति व निर्णय शक्ति बताता है। यदि दोनों भाग बराबर व संतुलित हैं तो व्यक्ति में इच्छा शक्ति के साथ-साथ उतनी ही तर्कशक्ति भी होगी जिससे उसमें जीवन में दोनों का सही प्रयोग करने की योग्यता आयेगी। दोनों भाग ही उन्नत व बड़े होने चाहिएं अन्यथा बड़े वाले के गुण, भागकी लम्बाई अंगूठे के सिरे व कंठ की बनावट पर निर्भर करेंगे। यदि पहला भाग (इच्छा), दूसरा (तर्क) से लम्बा है तब इच्छा शक्ति तर्क शक्ति से अधिक शक्तिशाली होगी। तब व्यक्ति कार्य पहले करेगा व सोचेगा बाद में। वह अपने कार्यों में दृढ़ निश्चय होगा। इस प्रकार वह गलतियां कर सकता है क्योंकि इच्छा शक्ति, तर्क शक्ति के कार्य का परिणाम सोचने का अवसर ही नहीं देगी पर यदि दूसरा भाग पहले से अधिक लम्बा है तो इसका अर्थ है कि व्यक्ति में तर्क शक्ति, बुद्धिमत्ता है, व्यक्ति अपने कार्यों का अच्छा बुरा सोचकर ही कार्य करेगा। यदि पहले भाग से दूसरा भाग छोटा है तो यह बताता है कि तर्क से इच्छा शक्ति प्रबल है। असंतुलन होने से यदि दूसरे से पहला बड़ा है या पहले से दूसरा बड़ा है दोनों ही तरह व्यक्ति उसी तरीके से काम करेगा, वह चाहे इच्छा शक्ति हों या तर्क शक्ति। इसी का दूसरा पहलू यह भी है कि यदि पहला दूसरे से बहुत छोटा हो या दूसरा पहले से बहुत छोटा हो तब भी यही होता है। पहला भाग दूसरे से बड़ा हो तो इच्छा शक्ति प्रबल होती है और दूसरा पहले से बड़ा हो तो तर्क शक्ति प्रबल होती है। वह व्यक्ति जिद्दी व अत्याचारी प्रकृति का होता है तथा अपने मस्तिष्क के संतुलन को खो बैठता है।

अंगूठे के सिरे से भी व्यक्ति के गुणों व विशेषताओं का पता लगता है। सिरे नुकीले, चौकोर या चपटे हो सकते हैं। नुकीला सिरा (प्रथम भाग का) इच्छा शक्ति को कमजोर बनाता है। प्रथम भाग के बहुत लम्बे होने का दोष इसके द्वारा कम हो जाता है। इसके द्वारा भावुकता, सुंदरता से प्यार व आदर्शवादी आदि गुण बढ़ जाते हैं। यदि पहला भाग दूसरे भाग से छोटा है जो कि बताता है कि इच्छा शक्ति की कमी है और साथ में नुकीला सिरा भी है तो ये इच्छा शक्ति को और भी कमजोर बना देगा और व्यक्ति अपने कार्यों में और अधिक अस्थिर बुद्धि वाला हो जायेगा। चौकोर सिरा बहुत व्यावहारिक व सामान्य बुद्धि वाला बनाता है। ऐसे व्यक्ति अपनी वस्तुओं को बहुत सही तरह रखते हैं। चौकोर सिरा इच्छा शक्ति की कमी को पूरी कर देता है और उस व्यक्ति में सामान्य बुद्धि भी होती है। यदि पहला भाग दूसरे से अधिक लम्बा है तो ये इच्छा शक्ति को बढ़ाता है और व्यक्ति की जिद्दी तथा सनकी बना देता है। उसमें प्रभुत्त्व जमाने की प्रबल इच्छा होती है। चपटा सिरा स्वतंत्र व नये विचारों वाला बनाता है तथा कार्य करने की क्षमता प्रदान करता है। सामान्य भाग इच्छा शक्ति की कमी को पूरा कर देता है और पहले लम्बे भाग की इच्छा शक्ति को बढ़ा देता है। इस प्रकार के अंगूठे का ये भाग बुराइयों को बढ़ाता है और व्यक्ति की सफलता में बाधा डालता है।

अंगूठे के दूसरे भाग की बनावट की भी अपनी देन है। एक चौड़ा भाग जो मोटा व भद्दा नहीं है वह व्यक्ति की शारीरिक शक्ति को बताता है। यदि पहला भाग चपटा और मुलायम है तो इससे व्यक्ति की स्नायविक शक्ति भी कमजोर होने का पता लगता है। उस व्यक्ति की शारीरिक शक्ति भी कमजोर होती है। यदि दूसरा भाग बहुत छोटा व पतला है तो पता लगता है कि व्यक्ति बहुत चतुर व व्यवहार कुशल है तथा अपने काम हंसी खुशी से निकाल लेता है। वह किसी को गलत तरह से परेशान नहीं करता। यदि दूसरा भाग लम्बा है तो व्यक्ति में मानसिक शक्ति अधिक होती है। साथ ही वह व्यवहार कुशल भी होता है।

 

 

मंत्र साधना द्वारा ग्रह चिकित्सा

प्रो. शुकदेव चतुर्वेदी

वेदाङ्ग शास्त्रों में अकेला ज्योतिष ही ऐसा शास्त्र है जो अभीष्ट की सिद्धि, अनिष्टों के परिहार तथा जीवन की सभी समस्याओं और संकटों के समाधान के लिए सटीक उपायों का प्रतिपादन करता है। इन उपायों में 5 उपाय प्रमुख हैं-  1. मंत्र, 2. रत्न, 3. औषधि, 4. दान एवं 5. स्नान।

ग्रहों के शुभ प्रभाव की मात्रा को बढ़ाने तथा उनके अशुभ प्रभाव से छुटकारा पाने के लिए इस शास्त्र में उक्त पांचों प्रकार के उपायों का प्रतिपादन ऋषियों एवं आचार्यों ने किया है। मनीषियों ने इन उपायों को ग्रह चिकित्सा कहा है। वस्तुतः ग्रहों के शुभ प्रभाव में वृद्धि और अशुभ प्रभाव से छुटकारा पाने की वह रीति जिसमें मुख्यतया मंत्र, रत्न, औषधि, दान एवं स्नान का उपयोग किया जाता है- ग्रह चिकित्सा कहलाती है।

ग्रह चिकित्सा का सबसे विश्वसनीय साधन-मंत्र : ग्रह चिकित्सा के उक्त पांच साधनों में से सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है मंत्र। मंत्र की जितनी विशद् एवं सार्थक व्याख्या भारतीय तत्त्वज्ञ ऋषियों ने की, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है। विश्व के सभी धर्म और आज का विज्ञान भी इसकी महत्ता एवं उपयोगिता को स्वीकार करता है।

मंत्र व्यक्ति की सुप्त या लुप्त शक्ति को जागृत कर महनीय शक्ति के साथ सामंजस्य करने वाला गूढ़ ज्ञान है। यह अपने साधकों को एक हाथ से भुक्ति और दूसरे हाथ से मुक्ति प्रदान करता है। साधक अपनी लौकिक, अलौकिक एवं पारलौकिक सभी कामनाओं की पूर्ति इसके द्वारा कर सकता है।

मंत्र साधना की विधि : मंत्र साधना में तीन बातें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं- निरंतरता, एकाग्रता एवं कुशलता। चंद्रमा की 16 कलाओं के समान मंत्र साधना विधि के 16 अंग होते हैं- 1. भक्ति, 2. शुद्धि, 3. आसन, 4. पंचाङ्ग सेवन, 5. आचार, 6. धारणा, 7. दिव्यदेश सेवन, 8. प्राण क्रिया, 9. मुद्रा, 10. तर्पण, 11. हवन, 12. बलि, 13. याग, 14. जप, 15. ध्यान एवं 16. समाधि।

ग्रह शांति या चिकित्सा : ग्रहों के अशुभ या अनिष्ट प्रभाव से बचने के शास्त्रीय अनुष्ठान को ग्रह शांति कहते हैं। इसमें अधिदेव या प्रत्यधिदेव के साथ नवग्रहों तथा गणपति आदि कल्याणकारी  देवताओं के साथ इन्द्र आदि लोकपालों का आवाहन, पूजन, हवन एवं बलिदान किया जाता है। इससे ग्रहों का अनिष्ट काफी मात्रा में दूर हो जाता है।

वैदिक कर्मकाण्ड में ग्रह शांति की दो प्रणालियां प्रचलित हैं- 1. मंत्रोपासना एवं 2. प्रतीकोपासना।

मंत्रोपासना में मुख्य रूप से अरिष्टसूचक ग्रह के मंत्र का अनुष्ठान किया जाता है, जिसमें मुख्य तत्त्व मंत्र का जप है। प्रतीकोपासना में अरिष्टसूचक ग्रह के साथ नवग्रहों का ग्रहमण्डल या नवग्रह यंत्र पर आवाहन, पूजन, हवन एवं बलिदान सहित अनुष्ठान किया जाता है-जिसमें पूजन एवं हवन मूल तत्त्व होते हैं।

प्रतीकोपासना का औचित्य स्थापित करने वाले आचार्यों का कहना है कि जो प्रत्युपकार की भावना के बिना हमारा सतत उपकार करते हैं- वे देवता कहलाते हैं। जैसे - अग्रि, वायु, सूर्य, चंद्रमा, वरुण एवं पृथ्वी आदि। देवता का स्वभाव उपकार करना है। उनके इसी स्वभाव से अपना कल्याण करने के लिए ग्रहशांति के अनुष्ठान में अधिदेव, प्रत्यधिदेव, गणपति आदि कल्याणकारी देव और इन्द्रादि लोकपाल देवों की पूजा एवं हवन आदि का विधान किया गया है।

ग्रहों का ध्यान : वैदिक संहिताओं, ग्रहभरव की ऋचाओं, परवर्ती कल्प ग्रंथों एवं कर्मकाण्ड की पद्धतियों के आधार पर संक्षेप में ग्रहों का ध्यान बतलाया जा रहा है, जिसका ग्रह शांति की पूजा पद्धति में उपयोग किया जाता हैः-

1. सूर्य : सूर्य ग्रहों का राजा है। यह कश्यप गौत्र का क्षत्रिय और कलिङ्ग देश का स्वामी है। जपाकुसुम के समान इनका रक्त वर्ण है। दोनों हाथों में कमल धारण किए हुए, सिंदूरी रंग के वस्त्र, आभूषण और माला धारण किए हुए हैं। जगमगाते हुए हीरे या अग्नि के समान इनका तेज है। इनका प्रकाश विश्व के अंधकार को दूर करने वाला है। सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ होकर ये भुवनों की परिक्रमा करते हैं। इनके अधिदेवता शिव और प्रत्यधिदेवता अग्रि हैं।

वैदिक मंत्र : ॐ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च। हिरण्येन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन्।

मंत्र

ॐ घृणिः सूर्य आदित्योम श्री।

नाम मंत्र - ॐ घृणि सूर्याय नमः।

पौराणिक मंत्र : ॐ जवाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।  तमोऽस्मि दिवाकरम्॥

जप संख्या : 7000.

2. चंद्रमा : चंद्रमा का अत्रि गोत्र है और ये यमुना के समीपवर्ती देश के स्वामी हैं। इनका शरीर अमृतमय है। दोनों हाथों में से एक में वरमुद्रा और दूसरे में गदा धारण किए हुए  हैं। दूध के समान श्वेत शरीर पर शुभ वस्त्र, माला एवं आभूषण धारण किए हुए हैं। गले में मोतियों का हार है। अपनी अमृतमयी किरणों से तीनों लोकों को सींच रहे हैं। 10 घोड़ों के त्रिचक्र रथ पर आरूढ़ सुमेरू की प्रदक्षिणा कर रहे हैं। इनके अधिदेवता उमा और प्रत्यधि देवता जल हैं।

वैदिक मंत्र: ॐ इमं देवाअसपत्न सुहवध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्दि्रयाय। इमममुष्य। पुत्रममुष्यै पुत्रमष्यै विश एष वोऽमी राजा सोमोऽस्माकम्ब्राह्मणानां  राजा।

मंत्र

ॐ ऐं क्लीं सोमाय नमः।

नाम मंत्र : ॐ सों सोमाय नमः।

पौराणिक मंत्र

ॐ दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णवसंभवम्।

नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुटभूषणम्॥

जप संख्या : 11000.

क्रमशः ....