ऋग्वेद में अप्सराओं के साथ-साथ गंधर्वों का उल्लेख आता है। एक यजुर्मंत्र में गंधर्वों की संख्या 27 बताई गई है परन्तु अथर्ववेद में वह संख्या 6333 बताई जाती है। गंधर्व स्वर्ग में रहने वाले हैं और गंधर्वराज पुष्पदंत इंद्र की सभा के गायक थे। वास्तु चक्र में गंधर्व नाम का पद दक्षिण दिशा में मिलता है और पुष्प दंत का पद पश्चिम में स्थित है।

यदि किसी को फिल्म या नाट्य कलाकार बनना हो तो उसे सर्वप्रथम मकान के दक्षिण में उस जगह की पहचान करनी चाहिए जो कि गंधर्व का स्थान है और यदि संगीत साधनाएँ करनी हो, तो पश्चिम दिशा में पुष्पदंत के स्थान की पहचान करनी चाहिए। इन स्थानों पर साधना अप्र्रतिम सफलता देती है। मैंने कुछ भावी कलाकारों के मकानों में गंधर्व का स्थान पहचान करके वहाँ रियाज की व्यवस्था करवाई। कुछ वर्षों के अन्दर ही उन कलाकारों के जीवन मेंं चमत्कारिक परिवर्तन आया। मकानों की वास्तु कला के समय यदि इस स्थान को प्रभावी बना दिया जाये तो गंधर्व और अप्सराएँ इस घर में जन्म लेने वाले बच्चों में कला और सौन्दर्य भर देते हैं। पश्चिम दिशा में पुष्पदंत नाम का स्थान गायन, वादन या संगीत के लिए उत्तम रहता है परन्तु दक्षिण दिशा का गंधर्व पद एक्टिंग, डांस, मॉडलिंग, नाट्यकला व चित्रकला जैसी अन्य कलाएँ प्रदान करता है।

यदि दक्षिण दिशा में अभ्यास का कक्ष रखा जाए तो गंधर्वराज चित्ररथ, विश्वावसु और रतिपति जैसे किसी गंधर्व की साधना कराई जाती है। यदि गायकी में निष्णात होना चाहते हों तो पुष्पदन्त की साधना कराई जाती है। इन सबके मंत्र गुरुजनों से प्राप्त किये जा सकते हैं।

ॐ प्रतद्दोचेदमृतंनुविद्दान्गन्धर्वो धमबिभृतंगुहासत्।

त्रीणिपदानिनिहितागुहास्य यस्तानिवेदसपितु: पितासत्।

ॐ भूर्भुव: स्व: भोगंधर्वइहा० ॐ गंधर्वाय नम:।।

वास्तु मण्डल में तथा सर्वतोभद्र मण्डल में गंधर्व नाम की देवजाति का वर्णन मिलता है। दक्ष की कन्या प्राधा ने, जिसका कि विवाह प्रजापति कश्यप से हुआ था, दस देव गंधर्वों को जन्म दिया। उनके नाम हैं सिद्ध, पूर्ण, बर्हि, पूर्णायु, ब्रह्मचारी, रतिगुण, सुपर्ण, विश्वावसु, भानु और सुचन्द्र। गंधर्वों में हाहा हूहू और तुम्बरु अति प्रसिद्ध हुए। कश्यप की एक अन्य पत्नी भी थी अरिष्टा। इसका वर्णन मत्स्य पुराण में है उससे भी कुछ गंधर्व उत्पन्न हुए।

गंधर्व राज विश्वावसु ने ऋग्वेद के एक सूक्त का भी दर्शन किया है। यह सब दिव्य गंधर्व हैं और उपासकों का कल्याण करते हैं और उन्हें बुद्धि प्रदान करते हैं। गंधर्व धर्म का आचरण करते हैं और नृत्य, गायन और स्तुति पाठ में निपुण हैं। अपने उपासकों को यह गंधर्व विद्या का दान करते हैं। नारद ने भी इन्हीं से सीखा था।

गंधर्वों का अलग से लोक है और इन्हें विद्या के प्रभाव से विष्णु लोक में भी मान्यता प्राप्त हुई और भगवान शंकर के भी बहुत प्रिय रहे। तुम्बरु और नारद के महामान्य हो जाने का कारण वह नाद तत्व है जो गंधर्व प्रतिपादित करता है।

महाभारत के सभापर्व में वर्णन है कि कुछ गंधर्व इन्द्र की सभा में और कुछ गंधर्व कुबेर की सभा में उपस्थित होते हैं। चित्रसेन 27 गंधर्वों और अप्सराओं के साथ युधिष्ठिर की सभा में इसलिए आए थे कि वे अर्जुन के मित्र थे। अर्जुन ने इनसे संगीत सीखा था। बाद में अपने अज्ञातवास के समय अर्जुन ने राजा विराट के यहाँ विराट पुत्री को यह विद्या सिखाई। बाद में वह अभिमन्यु की पत्नी बनीं। इसका विवरण महाभारत के वन पर्व में मिलता है।

दक्षिण दिशा में यम के पास ही गंधर्व पद को स्थान मिला है। जिसको भी गंधर्व विद्याओं की सिद्धि करनी है वह इस पद में अपनी स्थापना करे और अभ्यास या रियाज करे।

गंधर्व और अप्सराओं को प्राय: एक साथ ही स्मरण किया जाता है। कुछ अप्सराएं गंधर्वों की पत्नियां हैं। गीत, वाद्य और नृत्य के साहचर्य के कारण गंधर्व और अप्सराएं साथ रहते हैं। गीत और वाद्य का अनुसरण गंधर्व करते हैं तो नृत्य का अप्सराएं करती हैं। यद्यपि ये सभी विद्याओं का प्रदर्शन कर सकते हैं। सर्वतोभद्र मण्डल में वरुण और वायु के मध्य गंधर्वाप्सरोभ्योनम: कहकर दोनों की साथ-साथ पूजा की जाती है। यह दोनों साथ-साथ पूजा ही ग्रहण नहीं करते, वरदान भी साथ-साथ ही देते हैं।

अप्सराओं की उत्पत्ति भिन्न-भिन्न स्थानों पर हुई है। कुछ अप्सराएं समुद्र मंथन के अवसर पर जल से निकली थीं तो कुछ अप्सराएं कश्यप प्रजापति की पत्नी प्राधा से उत्पन्न हुई हैं। इनमें से कुछ हैं: अलम्बुशा, मिश्रकेशी, विद्युतपर्णा, तिलोत्तमा, अरुणा, रक्षिता, रम्भा, मनोरमा, केशीनी, सुप्रिया। विश्वकर्मा ने भी ब्रह्मा के कहने से एक तिलोत्तमा की रचना की थी। कहते हैं कि विश्व में जितनी भी सुन्दर वस्तुएं हैं उनके सार अंश से तिलोत्तमा का निर्माण हुआ। उर्वशी भी महान अप्सराओं में से एक है। कुछ अप्सराओं की उत्पत्ति प्रजापति कश्यप की एक अन्य पत्नी मुनि से हुई थी तो कुछ अप्सराएं कपिला की संतान हैं।

वेदों में भी कुछ अप्सराओं के नाम मिलते हैं, जैसे उर्वशी, मेनका, सहजन्या, विश्वासी इत्यादि। ऋग्वेद में वर्णन मिलता है कि निमि के श्राप के बाद महर्षि वशिष्ठ ने उर्वशी से अपना शरीर पाया था।

अप्सराओं का अलग से एक लोक है वे अलौकिक भोग से युक्त रहती हैं और इच्छानुसार शरीर धारण कर सकती हैं। चूंकि वास्तु मण्डल में इन्हें अलग से स्थान प्राप्त नहीं है अत: उपरोक्त तर्कों के आधार पर गंधर्व के पदविन्यास से ही अप्सराओं की सिद्धि की जा सकती है।

यदि किसी को अभिनय और संगीत से सम्बन्धित कोई कम्पनी बनानी हो या बड़े पैमाने पर काम करना हो तो उसे गंधर्व पद और पुष्प दन्त पद दोनों में ही अभ्यास की व्यवस्थाएँ करनी चाहिए। यह स्थान सांसारिक भोग देने वाले हैं। इस तथ्य में ज्योतिष का समावेश होना इसलिए जरूरी है क्योंकि ब्रह्मा जी ने इन सबके ऊपर चन्द्रमा को गंधर्व राज की उपाधि देकर इन सब का सम्राट बना दिया था। गंधर्व विद्याओं के उपासक को चन्द्रमा के तीनों नक्षत्र यथा रोहिणी, हस्त व श्रवण को बलवान बनाने का कार्य भी करना चाहिए जो कि मंत्र, मणि और औषधि के माध्यम से किया जा सकता है। इसी तरह शुक्र ग्रह मंत्र, मणि और औषधी के माध्यम से बलवान करके कला क्षेत्र में उन्नति पाई जा सकती है।

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ज्योतिष जगत की प्रसिद्ध भ्रांतियाँ

ज्योतिष जगत में कुछ भ्रांतियाँ इस सीमा तक फैली हुई हैं कि ज्योतिषी या आम आदमी तक भी उनके प्रभाव का  आकलन नहीं कर पाता। हम उनमें से कुछ की चर्चा गुणावगुण के आधार पर करेंगे।

पूजा में यंत्र - बाजार से लोग यंत्र खरीद लाते हैं या भेंट में मिल जाते हैं। लोग समझते हैं कि पूजा घर में यंत्र रखने से लाभ होता है। यह केवल भ्रम है। बिकाऊ यंत्र जो कि आमतौर पर ताम्र पत्र पर बने हुए होते हैं, बिक्री से पूर्व बहुत सारे हाथों से गुजरते हैं और जब तक उनकी प्राण प्रतिष्ठा नहीं हो वे कोई भी फल देने में असमर्थ होते हैं। उदाहरण के लिए श्रीयंत्र बहुत लोकप्रिय है और बाजार में बना बनाया मिल जाता है। लोग खरीद लाते हैं, परन्तु उसको जाग्रत करने के लिए लक्ष्मी जी के मंत्र की निर्धारित संख्या में पाठ करके प्राण प्रतिष्ठा करनी होती है और उसके बाद भी पूजा घर में रखने के बाद उनका लगातार पूजा-अर्चन करते रहना पड़ता है। लोग पूजा घर में कई - कई यंत्रों को लाए रखते हैं और उनका अर्थ भी नहीं समझते हैं।

मंत्र जप - पण्डित जी की सलाह पर या अपनी तरफ से ही लोग मंत्रों को जप करने लगते हैं परन्तु कितने करने हैं, यह नहीं जानते। बुध ग्रह के लिए 9 हजार, बृहस्पति के लिए 19 हजार, शुक्र के लिए 16 हजार और शनि के लिए 23 हजार मंत्र संख्या बताई जाती है। सूर्य के लिए 7 हजार, चन्द्रमा के लिए 11 हजार, मंगल के लिए 9 हजार, राहु के लिए 18 हजार और केतु के लिए 17 हजार जप संख्या होती है। ऐसा माना जाता है कि एक बार में तो यह आवृत्ति पूरी होनी ही चाहिए। परन्तु इससे अधिक आवृत्ति तभी कराई जानी चाहिए जब ज्योतिषी को विशेष कारण जान पड़े और उसकी कार्य सिद्धि के लिए आवश्यक संख्या का अनुमान कर सके। यहाँ ज्योतिषी गलती कर सकते हैं। अगर आवश्यकता 51 हजार की हो और सवा लाख जप की सलाह दी गई हो तो उसका दण्ड ज्योतिषी को भोगना पड़ेगा। धन दोहन के दृष्टिकोण से दी गई सलाह ज्योतिषी पर ही भारी पड़ेगी।

हवन या यज्ञ - पुराणों में सहदेवाधिकार नाम का एक आख्यान मिलता है। पहले देवता और मनुष्य पृथ्वी पर साथ रहते थे। इससे मनुष्यों में अहम् उत्पन्न हुआ व देवता नाराज हो गए। वे कल्पवृक्ष लेकर स्वर्ग चले गये। बाद में ब्रह्मा ने व्यवस्था दी कि मनुष्य देवताओं को यज्ञ भाग अर्पित करेंगे और अग्नि देव अपनी पत्नी स्वाहा के माध्यम से संग्रहण करके सम्बन्धित देवताओं तक वह यज्ञ भाग पहुँचाएंगे। यज्ञ के माध्यम से स्वाहा बोलकर जो आहुतियाँ दी जाती है, वे ही सम्बन्धित देवता को प्राप्त होकर अधिक सार्थक होती है। शास्त्रों में जप संख्या की दशांश संख्या के बराबर आहुतियाँ व तर्पण और मार्जन का भी विधान है। जितनी अधिक आहुतियाँ लगेगी, उतना ही देवताओं को यज्ञ भाग मिलेगा।

पूजा घर की मूर्तियाँ फल देती है- लोग प्रत्येक दीपावली या कभी भी बाजार में जाकर सुन्दर मूर्तियाँ खरीद लाते हैं और अपने पूजा घर में रख लेते हैं। कुछ सालों में ही पूजा घर में जगह भी नहीं बचती है। रखी हुई मूर्तियों को बाहर निकालने में भी डर लगने लगता है। बाद में व्यक्ति यह भी भूल जाता है कि उनके पूजा घर में कुल मिलाकर क्या - क्या रखा हुआ है।

यह सब गलत है। कोई भी मूर्ति बिना प्राण प्रतिष्ठा के फल नहीं देती। प्राण प्रतिष्ठा के बिना रखी हुई मूर्तियाँ कोई फल प्रदान नहीं करतीं। यद्यपि भावनाएँ काम करती हैं और व्यक्ति मूर्ति के माध्यम से एकाग्रता प्राप्त कर सकता है परन्तु वह पूजा करने वाले की अपनी उपलब्धि है। उसमें मूर्ति फलदायक नहीं होती। मूर्ति तभी फलदायी होगी जब प्राण प्रतिष्ठा की जाए और अगर ऐसा किया जाता है तो उसके सभी विधानों का पालन करना होगा। जैसे कि उत्थापन, स्नान, मंगला, भोग, राजभोग, शयन इत्यादि-इत्यादि। इसीलिए घरों में प्राण प्रतिष्ठा की सलाह तब तक नहीं दी जानी चाहिए जब तक कि मूर्ति की सम्पूर्ण सेवा सुनिश्चित न हो जाए। हाँ, कहाँ बैठ कर पूजा कर रहे हैं, यह महत्त्वपूर्ण है। नारायण कवच में उल्लेख है कि उत्तर दिशा में मुँह करके पूजा के लिए बैठना चाहिए। वैसे भी ईशान कोण में बैठकर उत्तर की ओर मुँह करके पूजा पाठ करें, तो अधिक सार्थक होता है।

सूर्य को जल देना पर्याप्त है - आमतौर से लोग सूर्य को जल चढ़ाते हैं और उनका मंत्र तक नहीं बोलते। उस पर भी समझते हैं कि पर्याप्त है। यह भ्रांति है। बल्कि सूर्य के लिए निर्धारित जप संख्या अधिक अच्छा उपाय है और इसे सूर्य को जल चढ़ाने से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। यह दो अलग बातें हैं। जिसे सूर्य को प्रसन्न करना है, उसे सूर्य देव को मंत्र- मणि और औषधि से प्रसन्न करना चाहिए। मंत्र का अर्थ है निर्धारित संख्या में जप संख्या व उनका दशांश हवन, सूर्य का रत्न माणक, जो कि ज्योतिषी की सलाह से ही पहना जाए व औषधि अर्थात् सूर्य की यज्ञ समिधा मदार या आँकड़े की काष्ठ से आहुतियाँ दी जानी चाहिए।

पूजा घर में देवता और पितर एक साथ - लोग अपने पूजा घर में देवताओं के साथ-साथ अपने पितरों अर्थात् स्वर्गवासी बुजुर्गों की तस्वीरें भी साथ रख लेते हैं। यह अनुचित है। किसी भी घर में देवताओं को ईशान कोण में स्थान दिया जाना चाहिए और पितरों को ठीक दक्षिण में। देवताओं के साथ पितरों को रखने से न देवता प्रसन्न रहेंगे और न पितर। इन दोनों वर्गों के स्तर में बहुत बड़ा अन्तर है। देवता अमर है जबकि पितर बार-बार जन्म लेते हैं।

गया श्रद्धा के बाद श्राद्ध नहीं करना -  गया श्राद्ध करने के बाद वार्षिक श्राद्ध तथा पितृ पक्ष के समय श्राद्ध करना चाहिए। लोग गया श्राद्ध के बाद पितरों का श्राद्ध करना भूल जाते हैं, यह करना चाहिए। गया श्राद्ध के बाद भी श्राद्ध किया जाता है। अंतिम श्राद्ध बद्री क्षेत्र में ब्रह्म कपाली में किया जाता है। पितरों के निमत तर्पण और ब्राह्मण भोजन करना चाहिए। गया में श्राद्ध करने से पितरों को राहत तो मिलती है परन्तु मुक्ति की कोई गारंटी नहीं होती।

नैर्ऋत्य कोण में शयन कक्ष - दुनिया के किसी भी वास्तु ग्रन्थ में नैर्ऋत्य कोण में शयन कक्ष का विधान नहीं है। परन्तु यह भ्रांति फैली हुई है। वास्तव में सभी शास्त्रों में मकान के दक्षिण दिशा में ही शयन कक्ष का विधान है, नैर्ऋत्य कोण में नहीं।  शास्त्रों में नैर्ऋत्य कोण में शस्त्र रखने का विधान था।

मंदिर जाने से पाप कट जाते हैं - कुछ लोग आजीविका के क्षेत्रों में दिन भर झूठा-सच्चा करते हैं और शाम को एक बार मंदिर में जाकर एक दीपक जलाकर अपने किये हुए को बराबर करना चाहते हैं। मान लीजिए किसी दुकानदार ने अपना सामान बेचते समय दिन भर में कई तरह की बातें की, कई बार भाव बदले तो वह मात्र एक दीपक जलाने से कर्म फल से कैसे मुक्त हो सकते हैं।

इसी तरह से मंदिर में 11 रुपये का प्रसाद चढ़ाने से कर्मों से मुक्ति कैसे मिल सकती है।

मंदिर में दक्षिणा चढ़ाने से भी बड़ा कार्य मंदिर की सेवा का होता है। चाहे कार सेवा हो या मंदिर की किसी गतिविधि में भाग लें, जो मंदिर की सेवा का अंग हो। इसी तरह से दीपक जलाने से भी बड़ा काम तत्सम्बंधी देवता की मंत्र साधना होता है। ईश्वर निर्विकार हैं और उन्हें यह सामान्य बातें प्रभावित नहीं करती। परन्तु आपका लगातार किया गया पूजा-पाठ अवश्य असर रखता है।

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बहुत शक्तिशाली है आकाश में बिच्छू

राशि चक्र की अति विशिष्ट संरचनाओं में से एक वृश्चिक राशि है। वृश्चिक राशि के अन्तर्गत अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्र पूरी तरह स्थित हैं व विशाखा नक्षत्र का आखिरी हिस्सा वृश्चिक राशि के प्रारम्भ में आ जाता है। ज्येष्ठा नक्षत्र बिच्छू के लगभग पूँछ तक जाता है परन्तु जो डंक वाला हिस्सा है वह मूल नक्षत्र के अधिकार क्षेत्र में है, जो कि अगली राशि धनु के प्रारम्भ में पड़ता है। बिच्छू या वृश्चिक का सबसे चमकीला तारा बिच्छू के हृदय क्षेत्र में पड़ता है और थोड़ी सी लालिमा लिये हुए नंगी आँखों से दिखता है। कभी - कभी मंगल ग्रह की तरह दिखता है। पश्चिमी देशों के ज्योतिषियों ने ज्येष्ठा को तो एंटारेस कहा परन्तु चूंकि मंगल लाल रंग में ज्येष्ठा को चुनौती देता है इसीलिए मंगल को एंट-आरेस कहा अर्थात् एंटारेस का विरोधी।

ज्येष्ठा नक्षत्र हमारे सूर्य से 400 गुना बड़ा है। अगर उसे सूर्य के स्थान पर रख दिया जाए तो मंगल ग्रह तक का क्षेत्र इसमें समा जायेगा। ज्येष्ठा नक्षत्र से चली हुई प्रकाश की किसी भी किरण को पृथ्वी तक पहुँचने में 175 वर्ष लगते हैं।

आज भारत में जो शासक वर्ग चल रहा है, उनमें प्रभावी राजनीतिज्ञों की जन्म पत्रिका में चन्द्रमा वृश्चिक राशि में ही स्थित है। स्वयं भारतीय जनता पार्टी वृश्चिक राशि की है और उसका चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्र में स्थित है।

चन्द्रमा जब वृश्चिक राशि में स्थित होते हैं तो उन्हें अपनी नीच राशि में माना जाता है। इस राशि से ठीक सातवीं राशि वृषभ राशि होती है, जो कि चन्द्रमा की उच्च राशि मानी जाती है। वृश्चिक राशि के बारे में यह प्रसिद्ध है कि ज्योतिष गणनाओं के अनुसार किसी विधि से यदि चन्द्रमा का नीच भंग हो जाए तो वह प्रबल राजयोग देता है। चन्द्रमा पर मंगल ग्रह की राशि वृश्चिक ग्रह का प्रभाव होने के कारण वृश्चिक राशि में प्रशासनिक दक्षता, जूनून, कभी-कभी क्रूरता, बदले की भावना, लक्ष्य का दूर तक पीछा करना या शत्रु को जड़मूल से समाप्त कर देना, जैसे लक्षण मिलते हैं। चन्द्रमा चूंकि वृश्चिक राशि में पीडि़त समझे जाते हैं, इसीलिए शरीर में जल से सम्बन्धित विकार या रक्त से सम्बन्धित विकार उत्पन्न हो जाते हैं। ये लोग अत्यंत भावुक होते हैं और कई बार दिल से भी उतना ही काम लेते हैं, जितना दिमाग से। यह लोग श्रेष्ठ प्रेमी सिद्ध होते हैं और अपने प्रेम के लिए किसी भी हद तक जा  सकते हैं। वृश्चिक राशि में स्थित अनुराधा नक्षत्र शनि ग्रह से सम्बन्धित माना जाता है और मुहूत्र्त के मामलों में जब चन्द्रमा अनुराधा नक्षत्र में होते हैं तो उसे नीच राशि के प्रभाव से मुक्त हुआ माना जाता है। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री का जन्म नक्षत्र भी अनुराधा ही है।

वृश्चिक राशि के बारे में यह धारणा है कि चूंकि वे बिच्छू का डंक पीछे की तरफ होता है और पीछे से ही वार करता है इसीलिए वृश्चिक राशि वाले भी कूटनीतिज्ञ या रणनीतिज्ञ होते हैं और अप्रत्यक्ष आक्रमण करते हैं। इसीलिए राजनीति के क्षेत्र में या नीति विशेषज्ञ के क्षेत्र में या योजना बनाने वालों के क्षेत्र में वृश्चिक राशि वाले अधिक सफल होते हैं। वृश्चिक राशि को अधिक ऊर्जावान इसीलिए माना जाता है क्योंकि इस राशि में अक्सर सुपर नोवा प्रकट होते रहे हैं, जिससे अनन्त सूर्यों की रोशनी और ऊर्जा फैलती रही है। मृत्यु से पूर्व जब कोई तारा या नक्षत्र एक विस्फोट के साथ समाप्त हो जाता है और करोड़ो सूर्य के बराबर रोशनी निकलती है और उस तारे का द्रव्य तमाम अंतरिक्ष में फैल जाता है। इन कारणों से पश्चिमी ज्योतिष में वृश्चिक राशि को अशुभ राशि माना जाता है।

हमारी आकाश गंगा के केन्द्र के बहुत नजदीक है वृश्चिक राशि मण्डल। इस जगह बहुत अधिक संख्या में तारे इकट्ठे मिल जाते हैं। पृथ्वी के उत्तरी अक्षांशों से वृश्चिक राशि के दर्शन इतने अच्छे नहीं होते, जितने कि दक्षिणी गोलाद्र्ध से। इसीलिए दक्षिण भारत के लोग वृश्चिक राशि के डंक और ज्येष्ठा नक्षत्र की लालिमा को ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं।

 

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चमत्कारी है सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम्

प्रसिद्ध श्री रुद्रयामल गौरी तंत्र में शिव- पार्वती संवाद का उल्लेख है। शिवजी कहते हैं कि इस सिद्ध कुंजिका स्त्रोत्म के पाठ से दुर्गा पाठ का सम्पूर्ण फल प्राप्त हो जाता है। इस पाठ को करने के लिए कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य पाठ, सूक्त, ध्यान अंगन्यास करना आवश्यक नहीं है। अर्चन भी आवश्यक नहीं है। हम सभी जानते हैं कि अधिकांश मंत्रों को कीलित किया गया है और उत्कीलन किये बिना मंत्र सफल नहीं होते।

यह मंत्र मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि अभिचार कर्म को भी सिद्ध करने वाला है।

इस मुख्य मंत्र इस प्रकार है-

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं स:

ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।

देवी की प्रशंसा में गौरी तंत्र में बाकी भाग इस प्रकार है-

नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।

नम: कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि।।1।।

नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि।

जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।।2।।

ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका।

क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।।3।।

चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी।

विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि।।4।।

धां धीं धूं धूर्जटे: पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।

क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु।।5।।

हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।

भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भदे्र भवान्यै ते नमो नम:।।6।।

अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं

धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा।।7।।

पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा।

सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिं कुरुष्व मे।।8।।

इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे।

अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति।।

यस्तु कुञ्जिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत्।

न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।।

इस पाठ में देवी ने जिन राक्षसों को मारा है उनके नाम हंै- मधु, कैटभ, महिषासुर, शुम्भ और निशुम्भ इत्यादि। ऐंकार का अर्थ सृष्टि स्वरूपिणी, ह्लींकारी का अर्थ सृष्टिपालनकर्ता, क्लीं का अर्थ संसार का बीज रूप, चण्ड का विनाश करने वाली और यैकार का अर्थ वरदान प्रदान करने वाली है। विच्चे के रूप में अभयदान देने वाली, धां धीं धूं से अर्थ शिव पत्नी अभिप्रेत है। दूसरी तरफ वां वीं वूं से सरस्वती अभिप्रेत हैं। क्रां क्रीं क्रूं से कालि अभिप्रेत हैं। शां शीं शूं जहाँ कल्याणकारी है तो दूसरी तरफ वही देवी हुंकार करने वाली है। जं जं जं और भा्रं भ्रीं भूंर कल्याण करने वाले स्वरूप हैं। उक्त मंत्र में अं से लेकर खेचरी शब्द तंत्रोक्त प्रभाव लिये हुए है और देवी को आकाश में व्याप्त बताया गया है और सां सीं सूं शब्द से देवी से प्रार्थना की गई है कि दुर्गा सप्तशती को हमारे लिए सिद्ध करो। इस मंत्र में ही यह उपदेश है कि दुर्गासप्तशती के पाठ के बाद सिद्ध कुन्जिका स्तोत्रम् का पाठ जरूर करना चाहिए। इस सम्पूर्ण पाठ में बिना विधान के भी पाठ करने का लाभ मिलता है।