ज्योतिष गीता : कर्म पर आधारित

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया

बहुत से लोग ज्योतिष का सम्बन्ध भाग्य से जोड़ते हैं। कोई-कोई यह आक्षेप लगा देता है कि यह भाग्यवादी बनाती है। यह सत्य नहीं है। ज्योतिष कर्म की प्रतिष्ठा करती है। कर्म सिद्धान्त और पुनर्जन्म की धारणा में विश्वास करने वाले लोग ही ज्योतिष के सच्चे विद्यार्थी हैं। जो इन सब को नहीं मानता, चाहे धर्म या चाहे जाति, वह ज्योतिष को समझ भी नहीं सकता।

फलित ज्योतिष के ग्रन्थ जो कि होरा ग्रन्थ कहलाते हैं, जन्म पत्रिकाओं के आधार पर सम्बन्धित व्यक्ति के गत जन्मों के संचित कर्मों का आकलन करते हैं। प्रबुद्ध ज्योतिषी तो ऐसा करते ही हैं। ज्योतिष ऐसी विधा है जिसमें गत जन्म के अभुक्त कर्मों का आकलन पुण्य कर्म और पाप कर्म के रूप में होता है। बहुत सारे ऐसे ज्योतिष योग रचे गये हैं जो यह बताने में समर्थ हंै कि गत जन्मों के पाप या पुण्य कर्म इस जन्म में किस रूप से कब फलें। इसके निर्धारण के लिए बहुत सारी पद्धतियाँ अस्तित्व में आई हैं। कोई साधारण सा भी ज्योतिषी उनके आधार पर घटना की प्रकृति का सही अनुमान नहीं भी लगा सके तो भी यह तो बता ही सकता है कि यह समय खराब जायेगा या अच्छा। महादशा पद्धति एक ऐसा अद्भुत आविष्कार है जिसमें किसी भी दशा पर्यन्त एक खास तरह के कर्मों के प्रतिफलन का ज्ञान हो सकता है।

गीता और ज्योतिष समान धर्म हैं-

गीता का उपदेश है कि यदि मनुष्य कर्म करता है तो उसे उस कर्म को भोगना ही होगा। निर्विकार ईश्वर के अतिरिक्त जितनी भी प्रकार की सृष्टि है, वह तब उत्पन्न होती है, जब उस निर्विकार ईश्वर के किसी अंश में कर्मों का संयोग हो जाए और बस यहीं से ज्योतिष का प्रारम्भ है। ज्योतिष मनीषियों ने एक अद्भुत विद्या ज्योतिष विकसित कर ली जिसमें वे अखिल ब्रह्माण्ड का निर्णय कुछ ग्रहों और नक्षत्रों के आधार पर ही कर लेते हैं और उन्हीं से केवल इस जन्म के भविष्य का कथन कर लेते हैं बल्कि अगले जन्म या मोक्ष होने की स्थितियों तक का अनुमान लगा लेते हैं। इस परिणाम तक पहुंचने में हो सकता है कि वे ग्रह स्थितियों से ब्रह्माण्ड की उच्चत्तम स्थितियों तक का अनुमान लगा लेते हैं या ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग बता देते हैं। इसीलिए ज्योतिष को वेदों का त्रेत्र कहा गया है, इसका अर्थ यह है कि यदि वेदों के बारे में जानना है तो ज्योतिष नाम के वेदाङ्ग का अध्ययन करना बहुत जरूरी है।

ज्योतिष का यह मानना है कि जिन लोगों में जीव अंश बिल्कुल भी नहीं होता वे साक्षात् परमात्मा होते हैं या पूर्णावतार होते हैं। जीव शब्द का जब विश्लेषण करते हैं तो उसका अर्थ दृश्य जगत में होने वाली जितनी भी घटनाएँ, पाप, पुण्य, राग-रंग समस्त तरह का कर्म संचय (अच्छा या बुरा) ही है। यह सब जन्म लेने के लिए बाध्य करता है और कर्म श्रेणी के आधार पर 84 लाख योनियों में से किसी एक का निर्णय करता है। दृश्य जगत में मनुष्य योनि श्रेष्ठ मानी गई है क्योंकि इसे इस बात का ज्ञान होता है कि ईश्वर को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। अन्य हीन योनियों में इसीलिए योनि उन्नयन की क्षमता कम होती है।

ज्योतिषी घटनाओं को जन्म नहीं देता, केवल दृष्टा होता है-

ज्येातिषी आपके कर्मों के संचय को भोगने से नहीं रोक सकता। हाँ, शास्त्र सम्मत उपायों से घटनाओं की तीव्रता को थोड़ा-बहुत कम ज्यादा कर सकता है। परन्तु ऐसा करने से वह कर्मों की मात्रा को घटा या बढा नहीं सकता, केवल कर्म संचय को विभाजित कर देता है। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को कोई बड़ी दुर्घटना आती हुई दिख रही थी, ज्योतिषी या दैवज्ञ ने उस अवधि को पहचान कर तत्संबंधित पाप ऊर्जा को कई भागों में बाँट दिया। जैसे कि महामृत्युभ्य का पाठ, पण्डितों को दान-दक्षिणा, उपाय पूरा होने तक झेली गई मानसिक यंत्रणा उक्त अवधि तक बरती गई अत्यधिक सावधानी। वह पाप ऊर्जा कई भागों में बँट गई जिसकी वजह से घटना की तीव्रता में कमी गई। व्यक्ति को फे्रक्चर नहीं हुआ बल्कि एक खरोंच आकर रह गई। इसी कारण से उपाय ज्योतिष अत्यधिक प्रसिद्ध है और सफल है। अगर कोई ज्योतिषी चाहे कि आने वाली किसी भी घटना को या उसके प्रारब्ध को आमूल-चूल बदल दे या नहीं घटने दे तो ऐसा सम्भव नहीं है।

नास्तिक दर्शन भी ज्योतिष प्रेमी-

वैदिक ऋषियों ने वेदों को और ईश्वर की सत्ता को ना मानने वालों को नास्तिक बताया है। इस श्रेणी में बौद्ध और जैन धर्म भी आते हैं। परन्तु यह पूरा सच नहीं है, क्योंकि जिन्हें नास्तिक धर्म बताया गया है वे कर्मवाद पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वे ज्योतिष को स्वीकार कर सकते हैं। यही कारण है कि बौद्ध और जैन धर्मों में भी ज्योतिष का प्रसार-प्रचार और शोध बहुत हुआ और मान्यता बनी रही। एक तरह से देखा जाये तो वैदिक ज्योतिष, बौद्ध, जैन धर्म और गीता कर्मवाद के श्रेष्ठ प्रवक्ता हैं और इनमें से कोई भी भाग्यवादी नहीं बनाता बल्कि कर्म करने की प्रेरणा देता है।

ग्रह-नक्षत्र केवल माध्यम हैं-

वैदिक ज्योतिष में अधिकतर दशा पद्धतियाँ नक्षत्रों पर आधारित है। कुछ सूर्य पर आधारित हैं, खात तौर पर वे जो लग्न या राशियों को दशाओं का आधार मानते हैं। नक्षत्रों पर आधारित दशा पद्धतियों से प्रथम अनुमान यही लगाया जा सकता है, जैसे कि सभी अभुक्त कर्म, नक्षत्रों में ही संग्रहीत रहते हैं और वहाँ से चन्द्रमा के माध्यम से जन्म लेने वाले प्राणी में समाविष्ट होते हंै। अद्भुत बात यह है कि गर्भ धारण के समय दो विभिन्न धाराओं के कर्म एक अत्यंत सूक्ष्म कण में आपतित होते हैं, जो कि केवल पिछले बल्कि अगले जन्मों का वर्णन भी संग्रहीत करने मे सक्षम हैं। ईश्वर ने ऐसी शानदार चिप बनाकर दी है जिसमें अरबों-खरबों सूचनाएं एक माइक्रोस्कोपिक कोशिका में संग्रहीत रहती है।

वैदिक मनीषियों ने उस चिप या गर्भ धारण के समय प्रथम कोशिका में छुपी हुई सूचनाओं को अनन्त रहस्यों को ज्योतिष के माध्यम से विश्लेषण करने में सफलता पाई है। यह धारणा नास्तिकों के लिए उन वैज्ञानिकों के लिए भी चुनौती है, जो कि एक देह को केवल देह मानते हैं और उसमें आत्मा जैसी किसी सत्ता का उपस्थित नहीं मानते।

वह अविस्मरणीय विदेश यात्रा -

मेरी एक यूरोप यात्रा अद्भुत थी जिसमें मेरा पाला वैज्ञानिक बुद्धिजीवियों के समूह से पडा। मैंने एक प्रश्न उपस्थित किया कि मान लो 2 टेबिल हैं उनमें एक पर मृत शरीर है और एक पर जीवित शरीर है। मैंने श्रोता वैज्ञानिकों से कहा कि क्या आप यह प्रामाणित कर सकते हैं कि सामने रखे इस मृतक शरीर में स्थूल द्रव्य जो कि दृश्यमान है के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। ना वजन कम हुआ ना आकार। सब चुप रहे। मैंने पुनः प्रश्न किया कि दूसरी टेबिल पर रखे हुए इस कल्पित, जीवित शरीर में जो दिख रहा है उसका जितना वजन है, उसका जितना आकार है, उसके अतिरिक्त और कोई भी सत्ता नहीं है, कृपया इसे प्रमाणित करें। मेरा इशारा आत्मा, प्राण तथा चैतन्य को लेकर था। चूंकि इसकी पुष्टि कभी भी किसी प्रयोग शाला में नहीं की जा सकती थी, इसलिए वैज्ञानिक कोई प्रमाण भी नहीं दे सकते थे। आत्मा या ईश्वर का ज्ञान वैदिक मनीषियों की श्रेष्ठ उपलब्धि है। वे अंग्रेज मेरे तर्कों से निरुत्तर हो गये और दोनों ही मामलों में कोई भी मौखिक प्रमाण पत्र तक नहीं दे सके।

कर्मवाद या ज्योतिष : वैज्ञानिक सीमाओं से परे -

जब पाश्चात्य सभ्यताएँ अपने शैशव काल में थीं तब तक भारत के दर्शन अपनी पराकाष्ठा पर चुके थे। जब सभ्यताएँ विकसित नहीं हुई थी, हमारी धारणाओं को चुनौती देने वाले नंगे घूमते थे, जंगलों में रहते थे, कच्चा माँस खाते थे और आपसी रिश्ते तय नहीं हुये थे, तब हमारे वैदिक ऋषियों ने संसार की श्रेष्ठ विद्याएँ प्रकाशित कर दीं थीं, जिनकी विकास यात्रा कम से कम 20 -30 हजार वर्ष की तो रही होगी। हर जीव में आत्मा, प्राण या चैतन्य की उपस्थिति मानते तो सब हैं परन्तु यह किसी भी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में आज तक प्रमाणित नहीं हो सका है। आधुनिक विज्ञान की जो आखिरी सीमा रेखा है भारतीय विद्याओं की या दर्शन की शुरुआत ही वहाँ से होती है।

 

धन कब लेवें और कब देवें?

यह समस्या केवल व्यवसायी वर्ग की ही नहीं है। आज हर कोई इस जाल में उलझा हुआ है। कोई धन उधार देकर रोता मिलता है तो कोई धन लेकर पछता रहा है। पहले किसी से कर्जा लेने के लिए साहूकार की मिन्नतें करनी होती थीं पर अब गली-गली उधार देने वाले फिरते रहते हैं।

ज्योतिष में कर्ज संबंधी इन समस्याओं से सुखी रहने के तरीके बतलाये हैं। ज्योतिष के इन नियमों का प्रयोग दैनिक जीवन में किया जाये तो इस उधार रूपी राक्षस को अपने अनुकूल बनाया जा सकता है, सुखी रहा जा सकता है। व्यापारी वर्ग को कुछ लेन-देन तो रोज करने होते हैं उनमें भी इन नियमों का पालन किया जाये तो धन विनिमय अच्छा होता है लेकिन जो बड़े लेन-देन या अग्रिम भुगतान के मामले हैं उनका निम्न प्रकार से संपादित किया जाये तो अच्छा लाभ मिलता है अथवा सुख मिलता है - जैसे सबसे सरल नियम यह है -

ऋण भौमे गृहीयात, देयं बुधवासरे।

ऋणच्छेदनं भौमे कुर्यात्, संचये सोम नंदने।।

अर्थात् धन के लेन-देन में मंगलवार और बुधवार बड़े महत्व के होते हैं। मंगलवार उधार लेने में अशुभ है तो बुधवार देने में। आपको यदि धन की आवश्यकता पड़ जाये तो मंगलवार को कभी नहीं लेना चाहिये। इस उधार को चुकाने में बड़ी कठिनाई आती है और किसी को बुधवार को धन उधार दे दिया तो उस धन को प्राप्त करने में मुश्किलें आती हैं, यहां तक कि रिश्तों में भी दरारें उत्पन्न हो जाती हैं। यह एक सरल नियम है जो कि आसानी से याद रखा जा सकता है और दैनिक जीवन में उपयोग किया जा सकता है।

लेकिन मंगलवार ऋण चुकाने के लिए अतिश्रेष्ठ रहता है। धन-संचय अर्थात् बैंकों में धन जमा कराने के लिए या सुरक्षित रखने के लिए बुधवार सर्वश्रेष्ठ दिन होता है। जब किसी बहुत बड़े लेन-देन का मामला हो तो अनुकूल दिन का चयन इस प्रकार करना चाहिए।

मंगलवार, सूर्य संक्रांति वाला दिन, वृद्धि योग, हस्त नक्षत्र से युक्त रविवार, इन दिनों में ऋण कभी नहीं लेना चाहिए, चाहे कितनी ही जरूरत हो। इनके अलावा कृत्तिका, रोहिणी, आर्द्रा, आश्लेषा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों में, भद्रा, व्यक्तिपात और अमावस्या को दिया गया धन कभी वापस प्राप्त नहीं होता, यहां तक कि झगड़े की नौबत भी आ जाती है।

ये बातें बहुत छोटी हैं, ज्योतिष के सामान्य से नियम हैं, पर इनको अपनाने से बहुत बड़े विवादों से बचा जा सकता है, रिश्तों को टूटने से बचाया जा सकता है, लेन-देन का भय मिट जाता है। वर्तमान परिस्थितियों में जिसका लेन-देन अच्छा है, उसकी बाजार में साख अच्छी बन जाती है जो कि वर्तमान में समाज में रहने और जीवन के लिए अति आवश्यक है। अतः मंगलवार को लेना नहीं, चुकाना है और बुधवार को देना नहीं, जमा कराना है।

अपने धन का यदि कहीं निवेश करना हो तो मंगलवार और बुधवार के अतिरिक्त अन्य वारों में, पुनर्वसु, स्वाति, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, विशाखा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा और अश्विनी इन नक्षत्रों में (यह नक्षत्र उत्तरोत्तर शुभ हैं) और चर (मेष, कर्क, तुला, मकर) लग्नों में, जबकि लग्न से 8वें भाव में कोई भी ग्रह न हों, तब विनिवेश करना चाहिए। इस समय में किया गया धन का निवेश धन को बढ़ाता है।

 

ग्रह मेलापक की रीति

जैसे जहर को जहर मारता है या कांटा कांटे से ही निकलता है, ठीक उसी प्रकार मंगली योग वाले लड़के या लड़की का विवाह मंगली योग वाली लड़की या लड़के से करने पर इस योग का अशुभ फल नष्ट हो जाता है- यह तथ्य ज्योतिष समाज में सर्वाधिक प्रचलित है। आज प्रायः सभी ज्योतिषी मेलापक में इस नियम का उपयोग करते हैं किंतु यह नियम एकान्तिक दोष से मुक्त नहीं है। अतः इस की स्पष्ट व्याख्या करना आवश्यक है।

मंगली लड़के या लड़की की शादी मंगली लड़की या लड़के से करना यह एक सामान्य नियम है, जो कुछ परिस्थितियों में ठीक रहता है तथा कुछ विशेष परिस्थितियों में इसका उपयोग दुःखमयी भी हो जाता है। जिज्ञासु पाठकों की जानकारी के लिए मैं इसके दुःखदायी पहलू को स्पष्ट कर देना चाहता हूं, ताकि ग्रह मेलापक में इसका समुचित प्रयोग किया जा सके।

इस नियम के उपयोग में ध्यान रखने योग्य एक बात यह है कि जिन वर एवं कन्या में से किसी एक की कुंडली में सप्तम स्थान में मंगल हो तथा दूसरे की कुंडली में अष्टम स्थान में मंगल हो और मंगली योग का कोई परिहार न मिलता हो तो उन दोनों का आपस में विवाह नहीं करना चाहिए। सामान्य दृष्टि में इन दोनों के मंगली होने के कारण उक्त नियमानुसार इनका विवाह किया जा सकता है किंतु यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि दाम्पत्य-सूत्र में बंधने वाले इस युगल में से एक की कुंडली में सप्तम स्थान में स्थित मंगल दूसरे के लिए हानिकारक है तथा दूसरे की कुंडली में अष्टम स्थान में स्थित मंगल भी उसी को हानिकारक है। इस प्रकार दूसरे व्यक्ति पर ही दोनों के मंगल का दुष्प्रभाव पड़ रहा है। प्रथम व्यक्ति मंगल के प्रभाव से प्रायः बच रहा है, इस स्थिति में यदि इन दोनों का विवाह कर दिया जाए तो दूसरे (अष्टम स्थान में मंगल वाले) व्यक्ति के जीवन को भी खतरा पैदा हो सकता है, अस्तु।

इस नियम का उपयोग करते समय एक और बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिन युगलों की कुंडली में समान भाव में मंगल हो उनका भी परस्पर विवार करना हानिप्रद होता है। उदाहरणार्थ मान लीजिए कि लड़की एवं लड़के दोनों की कुंडली में मंगल लग्न में बैठा है, ये दोनों ही मंगली हैं- अतः उक्त नियमानुसार इन दोनों का विवाह किया जा सकता है, किंतु लग्न में स्थित मंगल स्वास्थ्य, स्वभाव एवं दाम्पत्य सुख को हानिकारक होता है। अतः यदि इन दोनों का विवाह कर दिया गया तो इन दोनों का ही स्वास्थ्य खराब होने, स्वभाव में जिद्दीपन एवं चिड़चिड़ापन रहने की संभावना है। इस प्रकार अन्ततोगत्वा इन के जीवन में दाम्पत्य सुख की हानि होगी।

इसलिए हमारी राय में जिन युगलों की कुंडली में एक के सप्तम में मंगल तथा दूसरे के अष्टम में मंगल हो उन दोनों के मंगली होने पर भी विवाह नहीं करना चाहिए तथा जिन युगलों की कुंडली में मंगल समान भाव में स्थित हो उनको भी विवाह की स्वीकृति नहीं देनी चाहिए। इन दोनों स्थितियों के अलावा अन्यत्र उक्त नियम का उपयोग किया जा सकता है।

मेलापक में अन्य ध्यान देने योग्य बातें

सुखमय दाम्पत्य जीवन के लिए मेलापक की अनिवार्यता पर ज्योतिष शास्त्र के सभी आचार्यों ने जोर दिया है। किंतु कुछ ऐसी भी परिस्थितियां होती हैं, जहां मेलापक की कोई आवश्यकता नहीं होती। इन्हें मेलापक का अपवाद कहा जा सकता है। निम्नलिखित 6 परिस्थितियों में मेलापक का विचार नहीं करना चाहिए। ये परिस्थितियां हैं :

(क) जब किसी कन्या के विवाह के साथ कोई शर्त जुड़ी हो तो विवाह से पूर्व मेलापक की आवश्यकता नहीं होती जैसे कन्या के विवाह के लिए वर का चुनाव करते समय शर्त लगा दी जाए कि जो व्यक्ति मत्स्यवेध, चक्रवेध या धनुष भंग करेगा, उसके साथ कन्या का विवाह कर दिया जाएगा। इस स्थिति में मेलापक का विचार नहीं करना चाहिए।

(ख) युद्ध में प्राप्त या अपहृत कन्या के साथ मेलापक मिलाने की आवश्यकता नहीं होती।

(ग) कन्या के पिता के द्वारा स्वेच्छा पूर्वक या उपहार में दी गई कन्या के साथ विवाह करने के लिए मेलापक विचारने की आवश्यकता नहीं होती।

(घ) यदि कन्या स्वयं किसी पुरुष का वरण कर ले तो उसके साथ विवाह करने के लिए मेलापक का विचार करना अनिवार्य नहीं होता। इस स्थिति में प्रस्ताव स्वयं कन्या की ओर से होना चाहिए।

(ङ) पुनर्विवाह में भी मेलापक का विचार करना अनिवार्य नहीं होता। पुनर्विवाह में मेलापक का विचार ऐच्छिक माना गया है।

(च) 50 वर्ष या अधिक आयु के पुरुष तथा 45 या अधिक आयु की कन्या का विवाह करते समय भी मेलापक मिलान करना अनिवार्य नहीं होता।

उक्त 6 परिस्थितियों के अलावा शेष सभी अवस्थाओं में मेलापक मिलाकर ही विवाह करना चाहिए। महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार यह छूट परिस्थितिगत अपरिहार्यता को ध्यान में रख कर दी गई, ताकि लोग इन अपरिहार्यताओं या विषमताओं में भी सार्वजनिक तौर पर दाम्पत्य सूत्र में बंध सकें।

ग्रह-मेलापक का विचार करते समय वर एवं वधु की दशान्तर्दशा के क्रम में पूरकत्व भाव का ध्यान रखना चाहिए। विशेषकर भाग्य, प्रगति, धन प्राप्ति एवं अनिष्ट योग कारक ग्रहों की दशान्तर्दशाओं को ध्यानपूर्वक देख लेना चाहिए।

भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र काशी-विश्वनाथ

वीरेन्द्र नाथ भार्गव

ज्योतिष, धर्म और संस्कृति को समर्पित भारत के प्राचीन राष्ट्रीय केन्द्र काशी (वाराणसी) के नाम से प्रायः सभी परिचित हैं। उल्लेख मिलता है कि संसार का प्राचीनतम बसा हुआ नगर होने का श्रेय काशी को है जिसका ज्ञात इतिहास 1000 ई.पू. अर्थात् लगभग तीन हजार वर्ष पुराना है। स्कन्द पुराण में इस नगर की प्रशस्ति में 15000 छंदों में गौरवगान किया गया है। काशी पावन गंगा नदी के तट पर बसा हुआ है जिसे भगवान विश्वनाथ (शिव) का निवास स्थान माना जाता है। विश्वनाथ अथवा विश्वेश्वर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। हिन्दू धर्म के अनेक प्राचीन ग्रंथों में काशी और विश्वनाथ का उल्लेख पाया जाता है। काशी के अनेक नाम प्रचलित हैं यथाः अविमुक्तक, आनन्दकानन, महाश्मशान्त, सुदर्शन तथा वाराणसी (बनारस) इत्यादि हैं। इनमें वाराणसी नाम काशी समान लोकप्रिय है। वरण (वरुण) और असी नामक नदियों के मिलन स्थल पर बसा होने के कारण वाराणसी नाम प्रचलन में आया माना जाता है। काशी के मूल में संस्कृत शब्द काश है जिसका अर्थ प्रकाश देने वाला अथवा प्रकाश से जुडा है। प्राचीन काल में इसका नाम काशी क्यों रखा गया? यह ऐतिहासिक दृष्टि से उतना ही सहज है जितना कि भारत का नाम। भारत अर्थात् भा (प्रकाश) + रत रखा गया था। यहाँ दोनों नामों में प्रकाश का निहितार्थ आध्यात्मिक प्रकाश से है। भारत नामकरण चक्रवर्ती सम्राट भरत (ऋषि विश्वामित्र का नाती और दुष्यंत-शकुंतला पुत्र) के द्वारा मान्य किया गया था। उसी प्रकार क्या काशी नामकरण भी किसी चक्रवर्ती सम्राट अथवा चक्रवर्ती विजेता के द्वारा प्रचलन में आया? यह ज्ञात नहीं है। भारत में जहाँ भगवान विश्वनाथ की नगरी काशी बसी है तो वहीं  भगवान कृष्ण को समर्पित जगन्नाथपुरी भी बसी है। विश्वनाथ और जगन्नाथ का अर्थ एक ही होता है किन्तु भगवान शिव अध्यात्म के अनुसार भगवान कृष्ण (नारायण अथवा परब्रह्म के अवतार) से अलग हैं और दोनों अलग-अलग आध्यात्मक कार्य (स्थिति) के अधिष्ठाता हैं। अतः यहाँ एक के रहते हुए दूसरे संसार के स्वामी की इस एक संसार को क्या आवश्यकता है? सहज है कि ये नामकरण अध्यात्म रहस्यों के साथ-साथ ऐतिहासिक विश्वविजय के प्रसंगों से अवश्य ही जुडे हैं जिनका इतिहास विस्मृत हो गया प्रतीत होता है। प्रसंगवश विश्व इतिहासकारों ने पुरा प्रमाणों के आधार पर व्यक्त किया है कि ई.पू. 1600 से ई.पू. 1100 तक सम्पूर्ण एशिया में आर्यों की तीन प्रमुख शाखाओं यथा कुशाइ (कस्साइट), मितन्नी और हित्ती लोगों का साम्राज्य छा गया था जिनमें कुशाई सर्वाधिक बलवान थे और उनका सम्पूर्ण इराक पर साम्राज्य था। शोधकर्ताओं ने व्यक्त किया है कि यह आर्यों के चक्रवर्ती अभियान की सफलता के फलस्वरुप हुआ था किन्तु यह ज्ञात नहीं है कि इस विजय अभियान का प्रारम्भिक स्थान कौनसा था। पाश्चात्य इतिहासकारों ने इन पाँच शताब्दियों के आर्य शासन को अंधकार युग की संज्ञा दी किन्तु साथ ही यह भी स्वीकार किया कि इन विजेताओं का स्थानीय नागरिकों ने स्वागत किया था। विजेता संख्या में कम होने के उपरान्त भी स्थानीय लोगों से घुलमिल गए थे और उन्होंने नगरीय व्यवस्था के स्थान पर ग्रामीण व्यवस्था को अपनाया। इन आर्य विजेताओं के नाम सूर्य तथा वरुण इत्यादि थे जिसकी पुष्टि के लिए बगदाद (इराक) से प्रकाशित एनसाइक्लोपीडिया ऑफ मॉडर्न इराक में उल्लेख है। कुशाई अथवा कोशाई (कशाय अथवा कस्साइट) शब्द का मूल क्या काश अथवा काशी था? यह ज्ञात नहीं है इस विजय अभियान के प्रथम राजा का नाम एक ओम प्रथम (ई.पू. 1716-1695) था तथा इनके वैदिक देवता थे इससे संकेत है कि अध्यात्म प्रकाश (काश अथवा काशी) की मौलिकता इस अभियान से जुडी थी। इस कुशाई वंश के एक शासक का नाम बोरना बोर यश द्वितीय (ई.पू. 1406-1472) था जिसका संभावित मौलिक अपभ्रंश वरुण + पुर + यश अथवा वरुण + पुर + अस (असि) प्रतीत होता है। यह ज्ञातव्य है कि पाश्चातत्य विद्वानों ने कुशाइ साम्राज्य के अनेक शब्दों (संभवतः मूल संस्कृत) को कीलाक्षर लिपि युक्त बेबीलोन की भाषा में अनुवाद करके उनका पुनः यूनानी अनुवाद तथा आगे यूनानी से अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया है। अतः मूल संस्कृत शब्दों में कितना परिवर्तन होकर कुशाइ-कस्साइट तथा वरुण + पुर + असि (बोरना बोर यश) हो सकता है यह अनुमानित किया जा सकता है। वरुण + असि + पुर का निवासी अर्थात् वाराणसी का निवासी यदि यही राजा बोरना बोर यश था तो सहज है कि काशी और वाराणसी के नामकरण के पीछे विश्वनाथ को सार्थक करने वाला चक्रवर्ती विजय अभियान का आधार रहा है। ई.पू. 1000 से पहले की घटनाओं का काशी के इतिहास में समावेश न होने के कारण कोई आश्चर्य नहीं कि यह मौलिक भारतीय सत्य उजागर नहीं हो पाया था। विश्वव्यापी स्तर का काशी का परोक्ष योगदान मानवीय धर्म की स्थापना में रहा है। दूसरी शती में काशीमूल का एक ब्राह्मण ईरान की एक राजकुमारी से विवाह करके ईरान के हमादान नामक नगर में बस गया था। उसकी एकमात्र संतान का नाम मणि (मने, मनु) था जिसने अल्पायु में आत्मज्ञान पाकर ‘मानवीय धर्म’ की स्थापना बगदाद में की थी। तीसरी शती में ईरान के शासक शाहपुर प्रथम ने इस मानवीय धर्म का प्रचार प्रसार भारत से लेकर रोम साम्राज्य की सीमा तक कर दिया था। पाश्चात्य इतिहासकारों ने इस मानवीय धर्म को बौद्घ, ईसाई, असुर, बेबीलोनी तथा मूर्तिपूजकों के शैव, शाक्त, वैष्णव तथा भागवत इत्यादि धर्मों का समन्वित एकरूप धर्म कहा जो कि तत्कालीन विश्वधर्म था। मणि (मने, मनु) को अवतारों की मुहर अथवा अवतार शिरोमणि की उपाधि दी गई थी। इस धर्म का आधारभूत सिद्घांत अक्षरशः वैदिक श्लोक के अनुरुप था यथा :-

                असतो मा सद् गमय।

                तमसो मा ज्योतिर्गमय।       

                मृत्योर्मा अमृतम् गमय॥

काशी हिन्दू, बौद्घ, जैन और सिख धर्म परम्परा से जुडा रहा है। भगवान विश्वेश्वर की प्रशस्ति से जुडे काशी नगर अनेक देशी-विदेशी उल्लेखों में प्रमाण पाया जाता है। एक चीनी यात्री हुयेन चांग (629-675) ने अपनी काशी यात्रा के वर्णन में 100 फीट ऊँची शिवमूर्ति वाले विशाल मन्दिर का उल्लेख किया है जिसके आधार पर अनुमान व्यक्त किया गया है कि यह स्तम्भ संभवतः वृष स्तम्भ था। दैववश 1194 में मुसलमान कुतुबुद्दीन ने काशीराज को युद्घ में हराकर विश्वनाथ मन्दिर सहित अनेक मन्दिरों को ध्वस्त करके उस सामग्री से मस्जिद बनवाई। मूल मन्दिर के टूटने के पश्चात् शीघ्र ही हिन्दुओं ने दूसरे विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण किया। सन् 1494 में तत्कालीन मुसलमान शासक ने विश्वनाथ मन्दिर सहित काशी के सारे के सारे मन्दिरों को ध्वस्त करके काशी को मन्दिर विहीन कर दिया। उल्लेख मिलता है कि काशी के इस मन्दिर विनाश की घटना के बाद 70 वर्षों तक उस क्षेत्र  में वर्षा नहीं हुई और सूखे से त्राहि त्राहि मच गई। इसे दैवीय कोप समझकर 1565 के लगभग तत्कालीन मुसलमान बादशाह ने मन्दिर निर्माण की अनुमति प्रदान कर दी। मन्दिर बनने के उपरान्त वर्षा यथावत होने लगी। मुगल शासक अकबर की सहायता से विश्वनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया गया। मानसिंह निर्मित मन्दिर को 1660 में औरंगजेब ने तोडकर वहाँ मस्जिद बनवा दी। उस समय पुजारियों ने सूझबूझ के साथ विश्वनाथ की लिंग प्रतिमा को समीप ज्ञानवापी नामक कुंए में फेंक दिया। मुसलमान अत्याचार घटने पर पुजारियों ने लिंगप्रतिमा को कुएं  में से निकालकर समीप एक छोटा मन्दिर बनाकर उसे पुनः प्रतिष्ठित किया और शिव पूजा आरम्भ की। 1764-1776 में इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने वहाँ मन्दिर बनवाया। कालांतर में पंजाब के सिख महाराजा रणजीत सिंह ने लगभग 750 किलो सोने के पतरे से उस मन्दिर को स्वर्ण मंडित किया।

मकर लग्न के लिए रत्न

आपके लिए हीरा रत्न शुभ है।

हीरा पहनने से आपको वस्त्रों और आभूषणों का लाभ होगा। आपके कार्यक्षेत्र और धन में बढ़ोत्तरी होगी। आप अपने कार्यों का प्रबंधन सही ढंग से करेंगे। समाज में आपका सम्मान बढ़ेगा। स्त्री पक्ष से आपको विशेष स्नेह और सहयोग मिलेगा। घर हो या बाहर, आपकी प्रतिभा की कद्र लोग करेंगे और आपकी रचनात्मक कार्यशैली की भी प्रशंसा होगी। आपका निष्पादन स्तर बढ़ेगा।

आप कम से कम 30 सेंट का सोलिटरी हीरा चाँदी की अंगूठी में, शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की अनामिका अँगुली में पहनें। (सूर्योदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी को धो लें। इसके बाद शुं शुक्राय नमः मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।