ज्योतिष जगत में बहुत सारे भ्रम चलते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर अर्द्धरात्रि में हम सूर्य से विपरीत दिशा में धरती पर उल्टे लटके रहते हैं। सिर नीचे की ओर होता है, पैर धरती से चिपके रहते हैं। हम समझ रहे होते हैं कि हम पृथ्वी खड़े हैं या कार चला  रहे हैं, जबकि हम असल में पृथ्वी के प्रबल गुरुत्वाकर्षण बल के कारण चिपके हुए हैं। यदि आकर्षण बल शून्य हो जाए तो हम अनन्त आकाश में छिटक कर कहीं दूर खो जाएंगे। इसका परीक्षण करने के लिए एक चुम्बक लीजिए और उसमें एक आलपिन चिपका कर देखिए। उल्टा लटकाने पर भी वह आलपिन सीधी लटकी हुई नजर आएगी।

राहु-केतु भौतिक पिण्ड हैं। राहु और केतु वस्तुतः पृथ्वी और सूर्य की दो कक्षाओं के कटान बिन्दु हैं। ये कटान बिन्दु इतने शक्तिशाली हैं कि जब इन पर से कोई ग्रह गुजरता है तो इनके परिणामों में अन्तर आ जाता है। प्रारम्भ में यह समझा जाता था कि सूर्य और चन्द्रमा को कोई राक्षस निगल लेता है इसीलिए ग्रहण होता है। बाद में राहु - केतु को इसका कारण माना गया। इन दोनों बिन्दुओं पर जो कि एक-दूसरे से कक्षा में 180 अंश पर स्थित हैं, सूर्य-चन्द्रमा या कोई ओर ग्रह पृथ्वी की सीध में आते हैं और ग्रहण की स्थिति बनाते हैं।

वेदों में राहु-केतु का कोई उल्लेख नहीं है। इनकी गणना बाद में की है। प्राचीन ज्योतिषी ग्रहण समय की सही गणना करके ही लोगों को पकंग या ज्योतिष का विश्वास दिलाते थे और लोग ग्रहण के समय की प्रतीक्षा करते थे। बाद में ग्रहण काल को लेकर भविष्यवाणियाँ भी की जाने लगी।

प्रारम्भ में 5 ग्रह ही खोजे गये। सूर्य तारा था और चन्द्रमा उपग्रह। फिर भी उन्हें ग्रह की संज्ञा दी गई, वह भी केवल फलित ज्योतिष के दृष्टिकोण से। यूरेनस, नेपेच्यून और प्लूटो नंगी आँखों से कभी भी नहीं देखे गये। इनकी खोज भी केवल पिछले 200 साल में ही हुई है। बल्कि प्लूटो को तो सन् 1930 में ही खोजा गया।

एक ओर भ्रम : पृथ्वी ब्राह्मण्ड के केन्द्र में है-

हजारों वर्ष तक मनुष्य यह मानता रहा कि समस्त ब्रह्माण्ड के केन्द्र में हमारी पृथ्वी ही है और सूर्य, चन्द्रमा इत्यादि पृथ्वी के चक्कर काटते हैं। परन्तु आज हम जानते हैं कि चन्द्रमा पृथ्वी के चक्कर काटता है, पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है और सूर्य अपने केन्द्र बिन्दु या नाभि के चारों और चक्कर काटता है। हमारा सूर्य पृथ्वी के व्यास से 109 गुना बड़ा है और हमारी जैसी 13 लाख पृथ्वियाँ सूर्य में समा सकती है, परन्तु सूर्य का वजन 13 लाख गुना नहीं है, 3 लाख 30 हजार गुना भारी है। एक सेकण्ड में सूर्य का 40 लाख टन द्रव्य ऊर्जा में बदल जाता है। हम सब हमारे सूर्य के साथ ही 6 अरब बाद समाप्त हो जाएंगे। सूर्य को अपने केन्द्र बिन्दु की परिक्रमा करने में 25 करोड़ वर्ष लगते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हम ही नहीं, सूर्य सहित सभी नक्षत्र अपने-अपने केन्द्र बिन्दुओं की परिक्रमा कर रहे हैं।

हमारे भगवान संसार के सबसे सुन्दर आकृति वाले हैं-

मनुष्य ने भ्रम पाल रखा है कि हमारे भगवान हम में से सबसे सुन्दर आकृति वाले पुरुष या स्त्री होंगे। सगुण उपासना वाले तो कम से कम ऐसा ही सोचते हैं जो कि एक बहुत बड़ा वर्ग है। मनुष्य यह कभी भी नहीं सोचता कि हाथी, गेंडा, बन्दर या बिच्छू के भगवान कैसे होंगे। अगर बिच्छू से पूछा जाए कि तुम्हारे भगवान की आकृति कैसी है? तो बिच्छू अपने कल्पित भगवान को मुकुट धारण किये हुए बिच्छू के रूप में ही कल्पना करेगा। मनुष्य अपने ही भ्रम में जी रहा है और इन धारणाओं में पशुओं या पक्षियों की विचारधाराओं को शामिल नहीं करता है। हम सब जानते हैं कि मनुष्यों से कहीं अधिक आबादी पशु व पक्षियों की है। अवश्य उनकी भी अपनी ही कल्पनाएँ होती होंगी।

हमारे ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही अंतिम सत्ता है-

चूंकि हमारी बुद्धि की दौड़ बहुत आगे तक नहीं है, इसीलिए हमारे ब्रह्मा, विष्णु, महेश को ही हम अंतिम सत्ता मानते हैं। शास्त्रों में इस बात के प्रमाण बिखरे पड़े हैं कि हमारे अलावा भी बहुत सारे ब्रह्माण्ड हैं और हर ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा, विष्णु, महेश अलग-अलग हैं और इन सबके भी आराध्य देव परमेश्वर हैं। निश्चित ही यह परमेश्वर अपने सभी अवतारों के भी उद्गम स्थल हैं। इसीलिए मोक्ष प्राप्त करना, अत्यंत ही दुष्कर कार्य है और मनुष्य को बहुत सारे ब्रह्माण्ड और ब्लैक होल पार करने पड़ेंगे।

जीवन केवल हमारी पृथ्वी पर है-

हम मिथ्या भ्रम में जी रहे हैं कि हमारी पृथ्वी पर ही जीवन है। मंगल का गर्म से ठण्डा होने का इतिहास पुराना है और वैज्ञानिकों का एक वर्ग यह चिंतन कर रहा है कि पृथ्वी पर प्रथम जीव शायद मंगल से ही आया हो। यह माना जाता है कि मंगल ग्रह पृथ्वी से ही टूटकर नया ग्रह बना है। यह संभव है कि पृथ्वी से मंगल पर जीवन गया हो या मंगल से पृथ्वी पर जीवन आया हो। यह बैक्टीरिया या वायरस के रूप में हो सकता है।

प्रेत या पितर चन्द्र लोक में ही हैं-

हो सकता है कि यह भी हमारा भ्रम हो कि अधिकांश मुक्त प्राण चन्द्रमा के ही अदृश्य भाग में रहते हों। अगर बहुत सारे ब्रह्माण्ड हैं तो बहुत सारे चन्द्रमा भी हैं और वह चन्द्रमा वही भूमिका निभाते हों जो भूमिका वे पृथ्वी के लिए निभाते हैं।

एक वैज्ञानिक धारणा यह भी बन रही है कि पिछला महाविस्फोट (बिग बैंग) जो कि 13 अरब वर्ष पूर्व हुआ था और वर्तमान सृष्टि अस्तित्व में आई थी। उससे पहले भी महाविस्फोट हुए हैं। हर मन्वंतर या कल्प के बाद नयी सृष्टि जन्म लेती है तो यह संभव है कि बार-बार महाविस्फोट होते रहे हों और जरूरी नहीं कि केवल हमारे रूप में ही ग्रह-नक्षत्र या जीवन आया हो, बल्कि किसी अन्य आकाश गंगा या नक्षत्र मण्डल में ऐसा हो सकता है। हर मन्वंतर में सृष्टि बदलती है, ऐसा प्रमाण हमारे ग्रंथ में हैं।

तारा टूटता है तो विश पूरी होती है-

पुराने जमाने में तो जब कोई तारा टूटता था तो यह समझा जाता था कि कोई आदमी मर गया। परन्तु इन दिनों तारा टूटने पर विश माँगी जाती है। अर्थात् तारा टूटते समय दिख जाए तो उस समय जो इच्छा की जाए, वह पूरी हो जाती है। परन्तु यह सब सच नहीं है। ये टूटते तारे असली तारे नहीं है। हमारी आकाश गंगा में 150 अरब से भी अधिक तारे हैं और कोई भी व्यक्ति रात्रि के आकाश में 3 हजार से अधिक तारों को नहीं देख सकता। ये टूटने वाले तारे हम से बहुत नजदीक होते हैं। मुश्किल से 150 किमी. ऊपर जो तारा या उल्का पिण्ड वायु मण्डल के घर्षण से जलता हुआ दिखता है, वह ही टूटता हुआ तारा कहलाता है। ऐसे करीब 10 उल्कापिण्ड हर घण्टे नजर आ सकते हैं।

11वीं सदी में बहुत सारी उल्काएँ एक दिन नष्ट हुई और वर्षा सी नजर आई। जापान के सम्राट ने डरकर बहुत सारे कैदियों को मुक्त कर दिया। 9 अक्टूबर, 1933 को एक अद्भुत नजारा हुआ कि एक ही घण्टे में 20 हजार उल्काओं की वर्षा हुई। आज भी ऐसी उल्काओं के जलने और नष्ट हो जाने से कई टन राख प्रतिदिन पृथ्वी पर गिरती रहती है।

कभी - कभी बहुत बड़ा उल्कापिण्ड धरती पर आ टकरता है और तबाही मचाता है। 1908 में साइबेरिया के तुंगुस्का नामक स्थान पर गिरे हुए उल्कापिण्ड ने बहुत बड़ा गड्डा बना दिया और 80 किमी. दूर तक के मकानों की खिड़कियों के काँच टूट गये थे। एरिजोना में एक उल्कापिण्ड ने 1200 मीटर चौड़ा और 175 मीटर गहरा गड्डा बना दिया था।

 

मानस के शकुन

सरस्वती शर्मा

भगवान कार्तिकेय जी द्वारा रचित शास्त्र ‘’सामुद्रिक शास्त्र’’ का ज्ञान जितना भी मनुष्यों तक पहुंचा वह अमूल्य निधि है। इसी ज्ञान की चर्चा ‘अंग लक्षणम्’  ‘स्वप्न विचार’  ‘हस्त विज्ञान’ आदि उपनामों द्वारा हमें ज्ञात हुई। इसी शास्त्र की एक अन्य विलक्षण वस्तु का ज्ञान है ‘शकुन विचार’। यही  ‘शकुन विचार’ मनुष्य को जड़-चेतन संबंध का अद्भुत दर्शन कराता है। प्रकृति का जीव से संबंध किस प्रकार जुड़ा हुआ है  यही समन्वय हमारे अन्य दर्शन भी दर्शाते हैं। मानव-मात्र के लिए शुभ-अशुभ सभी लक्षणों को प्रकृति अपने ढंग से बताने की कोशिश करती है, इसी को शकुन अथवा आभास दिलाने की प्रक्रिया कहा गया।

आइये देखें तुलसीदास जी कृत ‘मानस’  में शकुन की इतनी विशद चर्चा व उसका दर्शन।

रामचरित मानस विशद ग्रन्थ है एवं संत तुलसी जी विलक्षण प्रतिभा के धनी। उनका ग्रंथ आज मानव-मात्र का आदर्श है या कहें जीवन शैली के मानव मूल्यों की पराकाष्ठा।

श्रीराम लक्ष्मण जनकपुरी की वाटिका में पुष्य चयन के लिए गये हैं वहीं जनक नन्दिनी भी माँ गिरिजा की वन्दना हेतु पहुंची हैं। श्रीराम जी में शकुन संचार हुआ जो उन्होंने लक्ष्मण जी से इस प्रकार कहा-

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा, सहज पुनीत मोर मनु छोभा।

सो सबु कारन जान विधाता, फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता।

पुनः सीता जी को भी ऐसा ही शुभ संचार हुआ-

जानि गौरी अनुकूल सिय, हिय हरषु जाइ कहि।

मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे॥

यह एक ‘अंग स्फुरण’ का अलौकिक शकुन तुलसीदास जी द्वारा सभी के लिए ग्राह्य है अर्थात् स्ति्रयों के बाम अंग का स्फुरण शुभ माना गया है। जब कुछ भी शुभ सूचना शरीर द्वारा मिलती है। जैसे ‘अंग स्फुरण’ तो यह प्रकृति का संकेत है। पुनः बाल काण्ड में दशरथ जी जब अपने दोनों पुत्रों व परिवार के  साथ जनक जी के संदेशानुसार विवाह के लिए (चारों पुत्रों का) बारात-प्रस्थान करते हैं तो पशु पक्षियों वृक्ष, लताओं, बादल, शब्द, ध्वनि सभी का शकुन का आभास कुछ इस प्रकार कहा-

बनइ बरनत बनी बराता, होंहिं सगुन सुन्दर सुभदाता।

चारा चाषु बाम दिसि लेई, मनहुँ सकल मंगल कहि देई।

दाहिन काग सुखेत सुहावा, नकुल दरसु सब काहूँ पावा।

सानुकूल बह त्रिविध बयारी, सघट सबाल आव बर नारी।

लोवा फिरि फिरि दरसु दिखावा, सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।

मृगमाला फिरि दाहिनी आई, मंगल गन जनु दीन्हि दीखाई।

छेमकरी कह छेम बिसेषी, स्यामा बाम सुतरु पर देखी

सनमुख आयउ दधि अरु मीना, कर पुस्तक दुई विप्र प्रबीना।

                मंगलमय कल्यानमय, अभिमत फल दातार,

                जनु सब साचे होन हित, भये सगुन एक बार।

                पुनः

सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे, अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे।

अर्थात् शकुन की सार्थकता स्वयं शकुनों ने ऐसे समय पर महसूस की और ब्रह्मा जी ने उन्हें सच्चा साबित किया, ऐसा स्वयं शकुन को तुलसी दास जी द्वारा अहसास कराया गया। जिस प्रकार बारात प्रस्थान पर सभी ने दर्शन किए कि कौआ, दाहिनी ओर, नीलकंठ पक्षी बाई ओर, लोमडी स्ति्रयों का घट सहित शिशु सहित दिखना, गाय का दरश बछड़े को दूध पिलाते, हिरण, त्रिबिध बयार, छेमकरी (सफेद सिर वाली चील) बाई ओर श्यामा चिड़िया, वृक्ष पर, दही, मछली, ब्राह्मण, पुस्तक ये सभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष (स्वप्न में) शकुन के शुभता के सूचक हैं।

अयोध्या काण्ड

श्रीराम जी का राज्याभिषेक के अवसर पर स्वयं राम व सीता जी को सगुन इस प्रकार हुए-

सुनत राम अभिषेक सुहावा, बाज गहागह अवध बधावा।

राम-सीय तन सगुन जनाए, फरकहिं मंगल अंग सुहाए।

पुलिक सप्रेम परसपर कहहीं, भरत आगमनु सूचक अहहीं।

भए बहुत दिन अति अवसेरी, सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी।

यहाँ स्वयं भगवान ने इन सगुन का अहसास ‘प्रिय जनों की भेंट होगी’ ऐसा सोचा क्योंकि रामजी के वन गमन से ही प्रिय भक्तों से मिलन होगा ऐसा इशारा प्रतीत होता है पर प्रत्यक्ष में वे भरत जी से मिलन तक ही बात को सीमित कर देते हैं।

आगे देखिए - कैकई की बुद्घि को बदलने में मन्थरा का योगदान- अर्थात् स्ति्रयों की दाहिनी आंख या अंग फरकना शुभ इंगित नहीं करता।

क्रमश...

 

 

वृश्चिक राशि के लिए रत्न

आपके लिए माणिक और मोती रत्न शुभ हैं।

1. माणिक पहनने से आपके काम करने की क्षमता बढ़ेगी, सम्मान बढ़ेगा, अधिकारी वर्ग से लाभ मिलेगा। आपके काम करने की योग्यता में भी बढ़ोत्तरी होगी, कार्यक्षेत्र में सफलता का प्रतिशत बढ़ जाएगा। आपको मिलने वाला सहयोग भी बढ़ जाएगा।

आप सवा पाँच रत्ती का माणिक सोने या ताँबे की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के रविवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की अनामिका अँगुली में पहनें। (सूर्याेदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी को धो लें। इसके बाद ॐ घृणिः सूर्याय नमः मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।

2. मोती पहनने से आपके काम करने की क्षमता बढ़ेगी, भाग्य बढ़ेगा, आपकी रुचि ऐसे कामों में बढ़ेगी, जिनका संबंध धर्म और समाज सेवा से होगा। इसकी वजह से आपको प्रसिद्धि मिलेगी और लोग आपका सम्मान करेंगे।

आप सवा पाँच रत्ती का मोती, चाँदी की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के सोमवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की अनामिका अँगुली में पहनें। (सूर्याेदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी  को धों लें। इसके बाद ॐ सोम सोमाय नमः मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।

 

रंगों का महत्व

डी.सी. प्रजापति

वैवाहिक मिलान संबंधी रंग

किसी व्यक्ति द्वारा ऐसे व्यक्ति के साथ विवाह करना दुर्भाग्य का कारण हो सकता है जो रंगों के संबंध में उससे एकदम विपरीत विचार रखता हो, ऐसे दंपत्ति बहुत कम सुखी जीवन बिताते हैं। कई बार दोनों (दंपत्ति) द्वारा रंगों के बारे में भिन्न-भिन्न सोच रखने के कारण परस्पर सामंजस्य नहीं बैठ पाता और इससे उनके स्वभाव में गर्भित मूलभूत भिन्नता परिलक्षित होती है। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि ऐसे दो व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) को जोड़ दिया गया है जिनकी राशियों के रंग परस्पर विपरीत गुणों वाले हैं।

निम्न रंगों वाले जातकों का मिलान (विवाह) उपयुक्त नहीं होताः

सफेद का बैंगनी से

पीले का गेरुआ भूरे से

लाल का नारंगी से

पन्ना समान हरे का भूरे से

स्वर्णाभ पीले का गहरे नीले से

हल्के नीले का सफेद से

किसी व्यक्ति को अपनी राशि के रंग के विपरीत रंग के वस्त्राभूषण धारण नहीं करने चाहिए। कहने का आशय यह है कि किसी भी वर्ण-विन्यास परस्पर विपरीत रंगों को नहीं मिलाना चाहिए तथापि बहुत अल्प मात्रा में मिला भी लिया जाए तो कोई विशेष हानि नहीं होती। सामाजिक एवं पारंपरिक कारणों से निर्धारित रंगों को बाहरी वस्त्रों में नहीं पहनना चाहिए, इन्हें आंतरिक रूप से पहन कर लाभान्वित हो सकते हैं।

वैवाहिक और व्यवसायिक साझेदारी हेतु मिलान के उपयुक्त रंग

बैंगनी का लाल से मिलान होता है।

गहरे नीले का नारंगी से मिलान होता है।

भड़कीले नीले का गहरे हरे से मिलान होता है।

काले का मिलान पीले से होता है।

हल्के बैंगनी का मिलान सामुद्रिक नीले से होता है।

गुलाबी का मिलान नीलाभ से होता है।

रंग और मनोविज्ञान

रंगों के प्रति हमारा जुड़ाव धार्मिक, पारंपरिक या अंधविश्वास के आधार पर भी होता है। काला रंग शोक और सफेद हर्ष का सूचक होता है तथापि सफेद रंग अन्य सभी रंगों का निरोधात्मक रंग होता है। प्रायः काले रंग के वस्त्र आदि वे लोग पहनते हैं जो किसी समय विशेष में शनि ग्रह के प्रभाव में होते हैं।

विभिन्न प्रकार के रंग मनुष्यों के भिन्न-भिन्न प्रकार के गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं :

रंग                          -              प्रतिनिधि मानव गुण

काला                     -              प्रतिष्ठा, भव्यता (समारोहवादी)

भड़कीला नीला -    मित्रता, स्वच्छंदता

गहरा नीला         -              सत्यवादिता, कृतज्ञता, ईमानदारी

हलका नीला        -              अनभिज्ञता, गुण ग्राहकता, दृढ़ निश्चयी

पक्का नीला           -              साहसी, महत्त्वाकांक्षी, स्पष्टवादिता

गहरा हरा            -              पौरुषकता, जोश, उत्साह

हल्का हरा            -              निष्कपट, बुद्धिमत्ता, उत्साह

धूसर (सफेद)       -              विनम्रता, शालीनता, स्थिरता

बैंगनी                    -              पूर्वाभासिता, निष्ठा, प्रेरणादायी

नारंगी                   -              स्वास्थ्य, हृष्टपुष्ट, बुद्धिमानी

गुलाबी                  -              निष्ठा, धर्मोत्साही, विनीत

हल्का बैंगनी        -              शक्ति संपन्नता, बुद्धिमत्ता

सफेद                     -              अज्ञानता, गुणग्राही, विनीत

स्वर्णाभ पीला     -              रुग्णता, संदेहास्पद

हल्का पीला         -              उच्च भावुकता, बुद्धिमत्ता

भवनों में विभिन्न कक्षों की सजावट और रंग-रोगन आदि में रंगों का विन्यास अति महत्त्वपूर्ण घटक है, रंगों के समुचित विन्यास से इनमें रहने वालों की सुख-समृद्धि बढ़ती है। शयनकक्ष का रंग विशेषतः चुनिंदा और प्रकृति अनुकूल होना चाहिए।

जातक अपने भाग्य रंग (राशि रंग) को हल्के रूप में यथा स्थान प्रयुक्त कर सकते हैं परंतु यदि रंग शांत प्रकृति का हो, जैसे समुद्र हरा, हल्का नीला या धूसर आदि, तो उनमें भड़काऊपन लिए हुए अपनी राशि के अनुकूल किसी रंग का समायोजन कर लेना चाहिए। जैसे यदि किसी का राशि रंग काला हो तो पीछे की पृष्ठभूमि धूसर रंग की हो और उस पर काले रंग का अल्प प्रयोग करना चाहिए। यदि चुना हुआ लाल रंग या नारंगी हो तो यह केवल वैयक्तिक स्तर पर ही सजावट में प्रयुक्त करना चाहिए, इसकी पृष्ठभूमि हल्के पीले या गुलाबी रंग की होनी चाहिए।