ब्रह्म स्थान से तात्पर्य भूखंड का केन्द्रीय स्थान है। इसका क्षेत्रफल कुल भूखंड के क्षेत्रफल के अनुपात के आधार पर तय होता है। साधारण घरों के लिए 81 पद की वास्तु बताई गई है, जिसमें 9 x 9 = 81 पदों में से 9 पद ब्रह्मा के बताए गए हैं। इससे ब्रह्मा का स्थान पूरे भूखंड का 9वां भाग हुआ। लोग भ्रमवश किसी भी भूखण्ड के एकदम केन्द्रीय स्थान को ही ब्रह्म स्थान मानते हैं। जब मर्म स्थानों की गणना करते हैं, जहां कि कोई निर्माण घातक सिद्ध हो सकता है तो वह मर्म स्थान इन 9 पदों में पड़ते हैं न कि केवल केन्द्रीय बिन्दु पर। अत: जिस क्षेत्र को निर्माण कार्यों से या अन्य बाधाओं से बचाना है, वह पूरे भूखण्ड का 9वां भाग होता है  और उस नवें भाग में कुल मिलाकर 15 या 20 मर्मस्थान चिह्नित करने पड़ते हैं। यदि भूखण्ड 100 वर्गगज का हुआ तो ब्रह्म स्थान 10 वर्ग गज का हुआ परंतु यदि भूखण्ड का क्षेत्रफल 900 वर्ग गज का हो तो ब्रह्म स्थान का क्षेत्रफल 100 वर्गगज होता है। ब्रह्म स्थान का क्षेत्रफल भूखण्ड के क्षत्रफल के अनुपात घटत या बढ़ता है।

यदि 81 पद या वर्ग के स्थान पर 100 पद की वास्तु लागू करें जो कि देवप्रसादों या उनके मण्डपों के लिए की जाती है तो ब्रह्मा का स्थान 16 पद हो जाता है। यह अनुपात 6.25 आया। अर्थात भूखंड का 9वां भाग न होकर 6.25 भाग आया।

 

यदि 64 पद का भूखण्ड लिया जाए जिसे कि मानसार में मंदिर के लिये प्रसिद्ध बताया गया है या राजाओं के शिविरों के लिए भी बताया जाता था तो उसमें ब्रह्मï का स्थान चार पद तक ही सीमित रह जाता है। यानि कुल पदों के 16वें भाग में ब्रह्मा सीमित रह जाते है। इसमें अन्य देवताओं के क्षेत्राधिकार भी बदल जाते है। अर्यमा आदि जो देवता है वे दो-दो पदों का उपभोग करते हैं। आठों कोणों पर स्थिति बीच और जो आठ देवता स्थित हैं, वे आधे-आधे पदों का उपभोग करते हैं। इसलिए अन्य देवताओं के भी क्षेत्राधिकार में अंतर आता है। इस भेद को अनुभवी वास्तु शास्त्री ही मौके  पर पकड़ पाते हैं। नादानी से किए गए निर्माण यदि किसी एक देवता की बजाय दूसरे के क्षेत्राधिकार में करा दिए जाएं तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

ब्रह्म स्थान में नहीं मर्म स्थान अन्यत्र भी मिलते हैं वास्तु पुरुष के मुख मे, हृदय में, नाभि में, सिर में और स्तनों में जो मर्म है, उनको षण्महन्ति कहा जाता है। वंश, अनुवंश एवं संपात (कटान बिंदु) और पद के मध्य में जो देवस्थान है, वे 16 पद वाली वास्तु में अत्यंत गंभीर हो जाते हैं। इतने ही गंभीर 81 पद की वास्तु में भी होते है।

चारों विभागों में, चारों दिशाओं में जो शिरा होती है तथा द्वार के मध्य भाग पर जो स्थान होते हैं उन्हें मर्म कहते है। मर्म स्थान को पहचानना अत्यंत कौशल का काम है और अच्छे-अच्छे आर्किटेक्ट या वास्तु शास्त्री उसको नहीं कर पा रहे हैं। द्वारों से या दीवार से यदि मर्म स्थान का वेध हो तो गृह स्वामी की कुल हानि होती है। यदि स्तम्भ से मर्म वेध हो तो गृह स्वामी का नाश होता है। यदि तुलाओं के द्वारा वेध हो तो स्त्री नाश कराता है। खूंटी के द्वारा वेध हो तो बहू का नाश और मर्म स्थान पर भारी सामान रखने से भाई का नाश होता है। यदि मर्म स्थानों पर नागपाश हो तो धनहानि, यदि नागदंत (एक तरह की खूंटी) तो मित्रहानि तथा मर्म में कंगूरे स्थित होने पर नौकरों की हानि होती है। अवांछित लकडिय़ां, गवाक्ष व खिड़कियां धन क्षय कराने के माध्यम बनते हैं। शिराओं के पीडऩ से उद्वेग और अनर्थ आता है और संधियों और अनुसंधियों के अनुपीडऩ से घर में काल आता है। इसका अर्थ यह है कि दो दीवारों का मिलन स्थल या क्रॉस बीम किसी मर्म स्थान पर पड़े तो घर में मृत्यु को आमंत्रण मिलता है। अनुभव में आया है कि अकाल मृत्यु के सारे मामले अधिकांश इस वेध से आते हैं।

यदि कोई मर्म स्थान कोई द्वार के मध्य में पड़े तो राजभय आपतित होता है। पहले तो राजा लोग क्रोधित होने पर सीधे फांसी चढ़ा दिया करते थे। आजकल इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स और जेडीए के रूप में घरों में घुस आते हैं और आने के बाद कई दिन तक नहीं निकलते। यदि शैया किसी मर्म स्थान पर आ जाए तो कुल नाश करा देती है। शैया के आजू-बाजू में जो नागदंत होते हैं अर्थात खूंटियों का कोई भी प्रकार यदि वे मर्म स्थान पर पड़ जाएं तो स्वामी का क्षय करा देते हैं। स्वामी के विरुद्ध षड्ïयंत्र वहां जन्म लेते हैं। जो खूंटियां खिड़कियों या खंभों से वेध हो जाएं तो शस्त्रघात से कोई न कोई मृत्यु घर में आती है। शस्त्रघात का आधुनिक समीकरण शल्य चिकित्सा है। यदि घर के बिल्कुल मध्य में द्वार हो तो स्त्री दूषण आता है। यदि उत्तर दिशा में, उत्तर दिशा मध्य और ईशान के बीचोंबीच अदिति नाम के देवता के स्थान पर द्वार हो और घर के बीचोंबीच भी द्वार हो और इस तरह से मर्मवेध हो तो उस घर में स्त्री दूषण आता है और स्त्रियां चरित्रहीन होने लगती है। नागदंत का स्तम्भ से बेध या तो घर में चोरी कराता है या घर के किसी प्राणी में चौरवृत्ति देता है।

मर्मवेध के दुष्परिणाम लिखने का तात्पर्य यह है कि न केवल इन स्थानों पर वेध से बचें बल्कि मर्मस्थान की यत्नपूर्वक रक्षा करें। आजकल स्थापति या वास्तुशास्त्री वास्तुपुरुष के रूप में प्रोजेक्ट की गई असाधारण भवन निर्माण योजना के शास्त्रीय पक्ष पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। यदि इन्हें केवल पौराणिक कथाएं मानकर छोड़ दिया जाए तो हम वैदिक ऋषियों की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रस्तावों का उल्लंघन कर रहे होंगे और प्रकृति की ऊर्जा को संपूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर पाएंगे।

ब्रह्म स्थान व उसके चारों ओर स्थित देवताओं की ऊर्जा आवश्यकताएं अलग-अलग होती है। यद्यपि बाहर से आयातित ऊर्जा चाहे वह कॉस्मिक ऊर्जा हो, चाहे भूगर्भ ऊर्जा, चाहे अंतरिक्ष पिंडों के आकर्षण-विकर्षण का परिणाम हो, चाहे कक्षापथों के परस्पर घर्षण का परिणाम हो, चाहे ग्रहों के कक्षापथों में दोलन, या ग्रहों की अयन स्थितियां या ग्रहों का किसी अवसर विशेष पर चेष्टाबल हो, भवन में इन सबको साधने की प्रविधियां वैदिक ऋषियों ने आविष्कृत कर ली थीं। इन वास्तु शास्त्रीय नियमों में छिपी गहराई को हम समझ नहीं पा रहे हैं। उदाहरण के लिए ज्योतिष ग्रंथों में हर ग्रह की जप संख्या अलग-अलग बताई जाती है। किसी की 7000 तो किसी की 36000। इसी भांति भूखण्ड में भी हर देवता की ऊर्जा क्षमता अलग-अलग मानी गई है। अत: वास्तु शास्त्री को यह निर्णय भी करना होगा कि किस दिशा से कितनी ऊर्जा किस देवता को पहुंचाई जाए। यह वह स्थान है जहां स्थापत्य के भौतिक नियमों में धर्म, दर्शन और अध्यात्म की प्रतिष्ठा करनी होती है। भूखण्ड में जब तक देवताओं की इस रूप में प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाए तब तक भूखण्ड सफल नहीं होते।

 

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होरा एवं वार

होरा

पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन करती रहती है तथा वह औसत 24 घंटे में एक घूर्णन पूरा कर लेती है। पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने की प्रक्रिया से दिन-रात होते हैं। पृथ्वी का जो हिस्सा सूर्य के सामने आता है, वहां दिन होता है और दूसरी तरफ रात्रि होती है। इसलिए विश्व के विभिन्न स्थानों पर कहीं पर प्रात:काल होता है तो उसी समय किसी दूसरे स्थान पर संध्या का समय होता है। कहीं पर दोपहर होता है तो कहीं पर मध्य रात्रि। इस 24 घंटे में 12 राशियां (लग्न) क्रमश: लगभग दो-दो घंटे के अंतराल पर पूर्वी क्षितिज पर उदित होती रहती है। इन 24 घंटों में 24 होरा होती हैं अर्थात प्रत्येक घंटे की एक होरा होती है। एक होरा 15 अंश की होती है तथा एक राशि में दो होरा होती है।

ज्योतिष में 9 ग्रह मुख्य रूप से माने गए हैं, जिनमें  बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, सूर्य, गुरु, शनि, राहु एवं केतु मुख्य है। चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। हम पृथ्वी पर रहते हैं इसलिए पृथ्वी को ग्रहों में शामिल न करके उसकी जगह पर चंद्रमा जो कि पृथ्वी का उपग्रह है को पृथ्वी के स्थान पर ग्रहों के रूप में माना गया है।

राहु-केतु को छाया ग्रह के रूप में माना गया है एवं उन्हें होरा में स्थान नहीं दिया गया है। ग्रहों का कक्षा क्रम इस प्रकार है- शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध एवं चन्द्र।

चूंकि सृष्टिक्रम में सर्वप्रथम सूर्य दिखलाई पड़ता है, अत: प्रथम होरा सूर्य की होती है। उसके पश्चात दूसरी होरा शुक्र की, तीसरी बुध, चौथी चंद्रमा, पांचवी शनि, छठी गुरु, सातवीं मंगल, आठवीं सूर्य, नवीं शुक्र, दसवीं बुध, ग्यारहवीं चंद्रमा, बारहवीं शनि, तेरहवीं गुरु, चौदहवीं मंगल, पंद्रहवीं सूर्य, सोलहवीं शुक्र, सत्रहवीं बुध, अठारहवीं चंद्रमा, उन्नीसवीं शनि, बीसवीं गुरु, इक्कीसवीं मंगल, बाईसवीं सूर्य, तेईसवीं शुक्र एवं चौबीसवीं होरा बुध की होती है। उसके पश्चात पच्चीसवीं अर्थात दूसरे दिन की प्रथम होरा चन्द्र की होगी।

वार

जिस दिन की प्रथम होरा का जो ग्रह स्वामी होता है, उस दिन उसी ग्रह के नाम का वार रहता है। कक्षा पथ के अनुसार सबसे अधिक दूरी पर शनि, उससे कम दूरी पर क्रमश: गुरु, मंगल, रवि, शुक्र, बुध और चंद्रमा के कक्षा पथ हैं। इसी क्रम में  होराएं होती है। क्योंकि सृष्टि आरम्भ में सर्वप्रथम सूर्य दिखलाई पड़ता है, अत: प्रथम होरा का स्वामी सूर्य होता है एवं प्रथम वार आदित्यवार (रविवार) होता है। दूसरी होरा का स्वामी उससे निकट ग्रह शुक्र है, तीसरी का बुध, चौथी का चंद्रमा, पांचवीं का शनि, छठी का गुरु, सातवीं का मंगल है। आठवीं होरा का स्वामी सूर्य, नवीं का शुक्र, दसवीं का बुध, ग्यारहवीं का चंद्रमा, बारहवीं का शनि, तेरहवीं का गुरु, चौदहवीं का मंगल, पंद्रहवीं का सूर्य, सौलहवीं का शुक्र, सत्रहवीं का बुध, अठारहवीं का चंद्रमा, उन्नीसवीं का शनि, बीसवीं का गुरु, इक्कीसवीं का मंगल, बाईसवीं का सूर्य, तेईसवीं का शुक्र एवं चौबीसवीं होरा का स्वामी बुध होता है।

रविवार

इसके पश्चात दूसरे दिन की पहली होरा का स्वामी चंद्रमा पड़ता है, अत: दूसरा दिन सोमवार पड़ता है।

सोमवार

तीसरे दिन की पहली होरा का स्वामी मंगल पड़ता है, अत: तीसरा दिन मंगलवार हुआ।

मंगलवार

चौथे दिन की पहली होरा का स्वामी बुध पड़ता है, अत: चौथा दिन बुधवार हुआ। पांचवें दिन की पहली होरा का स्वामी गुरु अर्थात गुरुवार। छठे दिन की पहली होरा का स्वामी शुक्र अर्थात शुक्रवार एवं सातवें दिन की पहली होरा का स्वामी शनि पड़ता है, जिससे सातवां दिन शनिवार होता है।

उपरोक्त होरा चक्र में प्रथम होरा सूर्य की बताई गई है, अत: इस दिन रविवार है तथा अंतिम होरा (24वीं) बुध की है। उसके बाद 25वीं होरा अर्थात दूसरे दिन की प्रथम होरा चन्द्र की होगी, अत: दूसरे दिन सोमवार होगा एवं अंतिम अर्थात 48वीं होरा गुरु की है इसलिए तीसरे दिन की प्रथम होरा गुरु के बाद मंगल की हुई।

इन सात वारों  में गुरु, सोम, बुध और शुक्र को सौम्यसंज्ञक माना गया है तथा मंगल, शनि एवं रविवार को क्रूर संज्ञक माना गया है। रविवार स्थिर, सौमवार चर, मंगलवार उग्र, बुधवार सम, गुरुवार लघु, शुक्रवार मृदु एवं शनिवार तीक्ष्णसंज्ञक हैं। सौम्यसंज्ञक वारों में शुभ कार्य करना अच्छा माना गया है। शल्यक्रिया के लिए शनिवार उत्तम माना गया है तथा विद्यारम्भ के लिए गुरुवार एवं वाणिज्यारम्भ के लिए बुधवार प्रशस्त माना गया है।

 

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पुरुष लक्षणाध्याय

कटि और जठर लक्षण

जिस पुरुष के सिंह के समान कटि हो वह राज भोगता है, जिसके ऊंट जैसी कटि हो, वह निर्धन होता है, जिसकी कटि या उदर समान हो, न ऊंचा हो और न नीचा तो वह भोगी और घड़े या हाड़ी के समान उदर हो तो वह निर्धनता को प्राप्त होता है।

पाश्र्व और कुक्षि

अविकल पाश्र्व वाला मनुष्य धनवान हो जाता है। निम्न और वक्र पाश्र्व वाला भूख से विरत हो जाता है, समान कुक्षि वाला भोगी और निम्न कुक्षि वाला भोग से दूर हो जाता है। उन्नत कुक्षि वाला राजा, विषम कुक्षि वाला कठोर स्वभाव वाला और सांप के जैसे उदर वाला अर्थात लंबे उदर वाला निर्धन होता है और बहुत अधिक खाने वाला होता है।

नाभि

गोल, ऊंची और अच्छे आकार वाली अर्थात विस्तीर्ण नाभि से मनुष्य को बहुत सुख मिलता है। छोटी, अदृश्य और अनिम्न नाभि दुखदायी मानी गई है। वलि के मध्य में स्थित और विषम नाभि राजकोप कराती है और निर्धन कराती है। वामावर्त नाभि मूर्ख बनाती है और दक्षिणावर्त नाभि प्रतिभाशाली बनाती है। नाभि के दोनो पाश्र्व में यदि आयत आकृति हो तो दीर्घायु, यदि ऊपर की ओर आयत हो तो ऐश्वर्य, नीचे की तरफ आयत हो तो बहुत गोधन और कमल की तरह नाभि हो तो राजा बनाती है। शास्त्र में इसके लिए शतपत्रकर्णिका नाभि बताया गया है।

वलि

वलि उदर पर पड़ी हुई रेखा को कहते हैं। यदि एक ही वलि हो तो शस्त्राघात, दो वलि वाले पुरुष बहतु स्त्रियों को भोगने वाले, तीन वलि वाले पुरुष प्रवचन देने वाले, चार वलि वाले बहुत पुत्रों से युक्त और जिनके बिल्कुल भी वलि नहीं होती वे राज भोगते हैं। विषम वलि वाले अर्थात छोटी या बड़ी वलि वाले अगम्या स्त्री में गमन करने वाले होते हैं। जिनकी वलि एकदम सीधी हो, वे बहुत सुखी होते हैं और परस्त्री गमन नहीं करते।

पाश्र्व

मांसल, मृदु और दक्षिणावर्त रोम यदि पाश्र्व में हो तो मनुष्य राजा के समान होता है, परंतु यदि मांस रहित कठोर तथा वामावर्त रोम हो तो मनुष्य निर्धन, दुखी और दास होते हैं।

हृदय

राजाओं का हृदय ऊंचा, बड़ा और कंपायमान नहीं होता। निर्धनों का हृदय नीचा, कृश, कंपित तथा रोम कठोर होते हैं। उनमें बहुत शिराएं दृश्यमान होती है।

वक्ष

समान छाती वाले धनी, छोटी छाती वाले कायर, विषम छाती वाले गरीब और शस्त्राघात से कष्ट पाने वाले होते हैं।

जत्रु

कंधों के जोड़ को जत्रु कहते हैं। विषम जत्रु अर्थात दोनों कंधों के आकार में अंतर हो तो मनुष्य क्रूर होता है। अस्थि संधियों से युत जत्रु गरीब बनाता है, परंतु पुष्ट जत्रु धनी बनाता है।

ग्रीवा

चपटी ग्रीवा वाला पुरुष गरीब, शुष्क शिराओं से युत ग्रीवा भी गरीब बनाती है। भैंसे के समान जिसकी ग्रीवा हो वह वीर और बैल के समान जिसकी ग्रीवा हो, वह शस्त्र से मारा जाता है। शंखग्रीवा को राजा बनाने वाला माना गया है और लंबी ग्रीवा बहुत खाने वाले की होती है।

एक जैसी समान और रोमरहित पीठ धनी बनाती है तथा भग्न और रोमयुत पीठ गरीब बनाती है।

कंधा

यदि मांस न हो, रोम हों, भग्न हो तथा छोटे हो तो ऐसे कंधे निर्धन बनाते हैं। बड़े, अभग्न व परस्पर संलग्न कंधे सुखी व्यक्तियों के होते हैं।

बाहु

हाथी के सूंड जैसे वर्तुलाकार घुटनों तक जितने लंबे सम तथा मोटे बाहु राजा जैसा बनाते है। रोमों से युक्त तथा छोटे बाहु निर्धन व्यक्तियों के होते हैं।

क्रमश...

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फेंगशुई में बागुआ

ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय वास्तु शास्त्रियों ने चिन्तन करना छोड़ दिया है। जो थोड़े-बहुत वास्तु शास्त्री हैं वे  औद्योगिक इकाईयों से संबंधित वास्तु करते हैं। साधारण  व मध्यम वर्ग उनके परामर्श से वंचित रह जाता है क्योंकि उनके पास न तो भूमि होती है, न मुख्य दरवाजा बनाना होता है। उन्हें तो बना बनाया भवन या फ्लैट प्राप्त होता है, जिसमें सब पहले से निर्धारित होता है। रसोई, शौचालय, छत पर टैंक, सीढिय़ां, खिड़कियां, कमरों के दरवाजे आदि ये लोग न तो किसी चीज को तुड़वा सकते हैं, न कुछ जोड़ सकते हैं। ऐसे लोग वास्तु शास्त्रियों का परामर्श लेकर क्या करें?

ऐसे समय में चीन से आई पद्धति फेंगशुई काफी प्रचलित हो चुकी है। इसका अच्छा अनुसरण किया जा रहा है, जो भारत की भूगोल परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है।

फेंगशुई में कमरों को आवासीय या व्यावसायिक नौ भागों में बांटा जाता है जो चीन की भौगोलिक स्थिति के अनुसार ठीक है। इन नौ भागों को बागुआ से निरीक्षण करते हैं। बागुआ के नौ भाग चीन की भौगोलिक स्थिति चीन की भौगोलिक स्थिति से सर्वथा भिन्न है। फिर चीन का बागुआ भारत में कैसे प्रयोग किया जा सकता है।

                               

फेंगशुई में बागुआ का विशेष महत्व है। जब शीशा लगवाते हैं तो इसे पाकुआ कहते हैं। इसका अर्थ होता है 'नौ भाग या 'नौ क्षेत्र ये नौ क्षेत्र हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं। हमारे जीवन के नौ क्षेत्र है सम्पन्नता, संबंध, हमारे सहायक लोग, संबंध ज्ञान, संतान, प्रसिद्धि, व्यवसाय, हमारा परिवार आदि विभिन्न क्षेत्र होते हैं जैसे कि नीचे के चित्र में दिखाया गया है। यह ज्योमैट्री का अष्टभुज है। आठों दिशाओं को दर्शाता है। जो हमारे जीवन को दर्शाता है। यह वातावरण को संतुलित करने के काम आता है। यदि हमारे जीवन की आठों दिशाएं व ब्रह्मï स्थान संतुलित होता है तो हमारा जीवन भी संतुलित होता है। इसलिए चाईना में भी जीवन में संतुलन व लयबद्धता का विशेष महत्व है। ब्रह्माण्ड में लयबद्धता, प्रत्येक क्षेत्र में संतुलन व तालमेल होना आवश्यक है। बागुआ के द्वारा हम उस क्षेत्र का पता लगा सकते हैं जहां तालमेल व संतुलन की आवश्यकता है। फिर फेंगशुई के उपकरणों के द्वारा, रंगों के द्वारा उस क्षेत्र में संतुलन पैदा कर जीवन को सुखी बना सकते हैं।

बागुआ का प्रयोग

हम भूमि, मकान, कमरा या मेज के लिए बागुआ का प्रयोग कर सकते हैं। जीवन के क्षेत्र को जानने के लिए बागुआ को जिसका भी हम निरीक्षण करना चाहते हैं, उसके ऊपर रख देते हैं। बागुए के व्यवसाय वाला भाग मुख्य दरवाजे के बीच में खड़े हो जाए व बागुआ का व्यवसाय वाला भाग जिस पर दरवाजा लिखा है, आपके शरीर की ओर हो। आप देखेंगे कि बागुआ आपके मकान या कमरे में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को दर्शाता है। यही नहीं, विभिन्न क्षेत्रों में रंग व दिशा भी बतलाता है। इससे मकान की या कमरे की फेंगशुई के उपकरणों के द्वारा असंतुलित 'चिÓ को संतुलित कर सकते हैं। उपकरणों का रंग भी चुन सकते हैं।

सावधान

वैसे तो बागुआ ज्योतिष के अनुसार ही बना है। क्योंकि ज्योतिष में दशम भाव व्यवसाय का भाव रहता है और जन्मकुंडली की दक्षिण दिशा में होता है। बागुआ में भी दक्षिण दिशा में ही व्यवसाय को माना जाता है। बागुए की दक्षिण दिशा ही अन्य दिशाओं का निर्धारण करती है। परंतु यह कम्पास, दिशासूचक यंत्र की दिशाएं नहीं है। बागुआ जीवन की विभिन्न क्षेत्रों की दिशा बतलाता है। उनका रंग बताता है। हम उसके द्वारा कमरे की 'यांग व 'यीन व 'चि को संतुलित करते हैं। इसलिए आकृतियों या चिह्न का फेंगशुई में विशेष महत्व है। फेंगशुई व्यक्ति की भावनाओं से जुड़ा हुआ है।  रंग व आकृति, चित्र व चिह्नï देखकर क्या भावना पैदा होती है, विशेष महत्व है। भावना हमारे संस्कारों व मन से जुड़ी रहती है। यह सब क्रिया मस्तिष्क की है, मन की है। इसलिए जातक की जन्मकुंडली में चन्द्रमा का विशेष महत्व रहता है। इसलिए आकृति व रंग का चयन जातक का व्यवसाय बागुआ होना चाहिए।

 

मुख्य दरवाजा आपका व्यवसाय बागुआ होता है जिससे चलकर ग्राहक आपके पास आता है। आपकी सफलता व असफलता आपके ग्राहक पर, उपभोक्ता पर निर्भर करती है।

यह क्षेत्र पानी तत्व को दर्शाता है। पानी से ही पृथ्वी पर जीवन संभव है। पानी से ही उन्नति होती है। इसलिए पृथ्वी की रचना में पहला तत्व पानी ही है। पानी का अर्थ है जीवन यात्रा का आरम्भ इसलिए पानी हमारे व्यवसाय से जुड़ा रहता है।

वास्तु शास्त्र के अनुसार मुख्य द्वार कभी भी किसी भी दिशा के कोने में नहीं होना चाहिए।

2.         प्रत्येक भूमि या कमरे की लम्बाई व चौड़ाई को नौ भागों में बांट लेना चाहिए।

1.         पूर्व दिशा में मुख्य द्वार ईशान के दो भाग छोड़ कर तीन भागों में बनाया जा सकता है। आग्नेय के चार भाग फिर फिर छोड़ देने चाहिए।

2.         पश्चिम में मुख्यद्वार के लिए नैऋत्य के दो भाग छोड़कर तीन भागों में बनाया जा सकता है। शेष चार भाग वायव्य के छोड़ देने चाहिए।

 

3.         उत्तर में वायव्य के तीन भाग छोड़कर दो भागों में मुख्य द्वार बनाना उचित रहता है। शेष भाग फिर छोड़ देने चाहिए।

4.         दक्षिण दिशा में आग्नेय कोण के तीन भाग छोड़कर तीन भागों में मुख्य द्वार बनाना उचित रहता है। शेष तीन भाग फिर छोड़ देने चाहिए जैसे चित्र में दर्शाया गया है।

परन्तु बने बनाए मकान-फ्लैट व कार्यालय लेने के कारण मुख्य द्वार बना-बनाया प्राप्त होता है। कार्यालय का मुख्य द्वार कोने में भी हो सकता है तथा दक्षिण दिशा के कोने में भी हो सकता है। जो अत्यधिक अशुभ होता है। फेंगशुई के द्वारा तथा शास्त्र विधि के द्वारा इसका सुधार आवश्यक हो जाता है।