विलक्षण केतु

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया

मेरे गुरु पं. रामचन्द्र जोशी ने राहु और केतु का चरित्र बताने के लिए मुझे जो उदाहरण सुनाया, वह अद्भुत था। उन्होंने एक दिन बताया कि पानी में जो भंवर पड़ता है, उसमें पेड़ की पत्ती डालने पर अगर वह भंवर के बीच में जाकर डूब जाए तो वह राहु हैं, यदि वह पत्ती डालने पर भंवर यदि उसे घुमाकर बाहर फेंक दे तो वह केतु हैं। अब इस भंवर को संसार भ्रमर मान लीजिए। जो पुनर्जन्म व बंधन का  कारण बनते हैं, वे राहु हैं और जो मोक्ष का कारण बनते हैं, वे केतु हैं। मेरा दृष्टिकोण हमेशा के लिए बदल गया। अब मुझे किसी भी सभा में राहु और केतु को स्पष्ट करने में कभी भी समस्या नहीं आती।

प्रायः करके सूर्य और केतु को पार्थक्यजनक ग्रह मानते हैं अर्थात् जिस भाव में इनमें से कोई भी ग्रह स्थित हो तो उस भाव के विषयों से पार्थक्य ला देते हैं। यदि चतुर्थ भाव में हों तो जन्म स्थान अथवा माँ से व्यक्ति दूर हो जाता है। सूर्य या केतु अन्य किसी भाव में हों तो उस भाव के विषयों से पृथकता ला देते हैं। केतु के इन फलों में कमी आ जाती है यदि केतु स्वराशि या उच्च राशि में हों।

उत्तर कालामृत में केतु की उच्च राशि वृश्चिक मानी गई है जबकि अन्य ग्रंथकार धनु राशि को केतु की उच्च राशि मानते हैं। इसका कारण यह है कि मंगल, केतु के जैसे लक्षणों से युक्त हैं। बृहस्पति के पक्ष में तर्क यह है कि केतु के समान ही बृहस्पति भी ज्ञान, वैराग्य या मोक्ष के कारक हैं। तदनुसार ही बृहस्पति की अन्य राशि मीन को केतु की स्वराशि माना जाता है।

केतु का दशाकाल 7 वर्ष ही है परंतु जब ये धन देने लगते हैं तो अल्पावधि में ही अमित धन दे देते हैं। गणपति एक्सपोर्ट्स के मालिक श्री अग्रवाल जी  जो कि अब दिल्ली रहते हैं, के लग्न में स्थित धनु राशि के केतु की महादशा में उनका टर्न ओवर 10 हजार करोड़ पहुँच गया था। उस अवधि में देश के अन्य बड़े घरानों का टर्न ओवर भी इतना नहीं था परंतु केतु महादशा निकलने के बाद उनकी स्थिति में परिवर्तन आ गया।

केतु का संबंध आकस्मिकता से जोड़ा जाता है। कई बार अयाचित और आकस्मिक घटनाएं होती हैं और बाद में पता चलता है कि घटना घट गई। ‘जन्म नक्षत्र के स्वामी केतु हों तो फलों में हिंसा से रहित जातक का वर्णन आता है परंतु व्यवहार में देखने में आता है कि केतु यदि उग्र हो जाएं तो अत्यंत क्रूर और निर्दय प्रदर्शन करते हैं।’ जब हम नक्षत्र पुरुष की रचना करते हैं तो केतु के नक्षत्रों में से दोनों पाँवों में मूल नक्षत्र, दोनों जानुओं में अश्विनी नक्षत्र तथा नासिका में मघा नक्षत्र की स्थापना करते हैं। केतु के नक्षत्र जब अंतरिक्ष में पीड़ित हों तो इन्हीं स्थानों में पीड़ा आती हैं। वराहमिहिर ने एक स्थान पर निर्देश किया है कि जिन व्यक्तियों क ो रूप, लावण्य चाहिए उसे नक्षत्र चक्र बनाकर क्रमशः हर नक्षत्र का व्रत-उपवास करके और विधान के साथ पूजा-पाठ करना चाहिए।

राहु और केतु को लेकर अक्सर एक बहस चलती है कि यह दोनों ही एक जैसे हैं या इनमें कोई अंतर है? ज्ञात रूप से राहु ने अमृतपान कर लिया था और अमरत्व को प्राप्त कर लिया था। शिरोच्छेद के बाद भी राहु का और केतु का अस्तित्व बना रहा। केतु को मीन के रूप में भी दर्शाया जाता रहा है। राहु के साथ-साथ केतु भी अमरत्व को प्राप्त हो गये और देवताओं के समान ही यज्ञ भाग के अधिकारी हुए। चाहे कुछ भी हो यह दोनों ब्रह्मा की सभा के अधिकारी हुए और जब यह देवता हैं तो यह मानने का कोई कारण ही नहीं है कि यह सर्वदा अनिष्ट ही करते हैं। जिस पर यह कृपा करते हैं उसे कम प्राप्ति नहीं होती। इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी या चाहे अटल बिहारी वाजपेयी, राहु के प्रभाव के बिना प्रधानमंत्री बन ही नहीं सकते थे। अटल बिहारी वाजपेयी की दशांश कुण्डली के दशम भाव में तुला राशि में राहु थे, जब की उन्हें शुक्र महादशा की राहु अंतर्दशा में प्रधानमंत्री पद की प्राप्ति हुई। यदि केतु भी स्वराशि और उच्च राशि में स्थित हों और योगकारक हों तो अपने दशाकाल में उस व्यक्ति का वर्चस्व बढ़ा देते हैं। कई ग्रंथकार यह लिखते हैं कि राहु या केतु से एक जैसे ही परिणाम प्राप्त होते हैं परंतु यह सच नहीं है। कुछेक विषयों को छोड़कर बाकी सब विषयों में राहु केतु-एक दूसरे को विपरीत परिणाम देते हैं। दोनों के महादशा काल में भी अंतर है। राहु का महादशाकाल 18 वर्ष है जबकि केतु का महादशा काल 7 वर्ष है। ये दोनों ही ग्रहण के कारक हैं अतः ग्रहणकाल में दृश्य होते हैं और तब इनका पूजा पाठ करना और दान करना अधिक सार्थक माना गया है।

सूर्य-चंद्र के कक्षा पथों के कटान बिंदु (संपात बिंदु) में से आरोही पात राहु हैं तथा अवरोही पात केतु हैं। चंद्र कक्षा और पृथ्वी कक्षा यहाँ पर समानार्थक हैं। खगोल शास्त्र में राहु और केतु का मान मिलता है परंतु यह कम और ज्यादा नहीं है और ग्रहण कराने में समर्थ है। संपात बिंदु से सूर्य और चंद्रमा कितनी दूर हैं, इस बात पर पूर्णग्रास या खण्डग्रास होना निर्भर करता है।

इन दिनों यदि 50 वर्ष पुरानी बनी जन्मपत्रिका सामने आ जाए तो उसमें राहु और केतु का मध्यम मान आता है। हम इन दिनों राहु और केतु का स्पष्ट मान लेने लगे हैं। जब अन्य ग्रहों का स्पष्ट भोगांश काम में लिया जाता है तो राहु और केतु का क्यों नहीं? अगर मध्यम राहु और स्पष्ट राहु में 1028’ का अंतर मिले तो कई बार मध्यम राहु और स्पष्ट राहु में राशियों का ही अंतर आ जाता है। निश्चित है कि जब मध्यम राहु और स्पष्ट राहु की व्यवस्था वैदिक ऋषियों ने दी थी तो उनको राहु का आयतन और उनके क्षेत्राधिकार का भी ज्ञान था। ऋषियों ने मध्यम चंद्रमा और स्पष्ट चंद्रमा के अंतर को भी कई संस्कार करके दूर किया था। यही कारण है कि 1973 से पहले की गणना सारणियों में और बाद की गणना सारणियों में चंद्रमा को लेकर कभी-कभी मतभेद मिलता है। इन सबका मूल कारण कक्षापथों का दीर्घवृत्त में होना है।

राहु के विषय स्थूलकाय हैं जबकि केतु के विषय सूक्ष्मकाय हैं। केतु के प्रभाव में व्यक्ति हाथियों को बेचने के काम नहीं करेगा बल्कि छोटे-छोटे पुर्जों की बात करेगा। छोटी मशीनें, छोटे पुर्जे, छोटे दानों वाला अनाज या ऐसी ही छोटी-छोटी चीजें। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ती हुई गवेषणाएं, सत्य के लिए अनुसंधान, माया से ब्रह्म की ओर जाती हुई कल्पनाएं, तत्व चिंतन, चेतन से अचेतन की ओर जाता हुआ मन या प्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग को अपनाता हुआ मर्त्यलोक का कोई भी प्राणी, सब केतु के विषय हैं। केतु सूक्ष्म से सूक्ष्म हैं और इहलोक से ब्रह्मलोक के गमन का मार्ग दिखाते हैं। शायद यही कारण है कि केतु के प्रभाव में व्यक्ति धार्मिक और आध्यात्मिक कार्यों में रुचि लेता है और मोक्ष देने वाली हर बात से अपने आपको जोड़ लेता है। त्याग या पलायन केतु की सहज वृत्तियाँ हैं। यदि किसी के दूसरे भाव में केतु हैं तो मानकर चलिये कि चार भाइयों के बीच में वह व्यक्ति अपना हिस्सा सबसे बाद में उठायेगा।  वह जानता है कि वह नुकसान में जायेगा, उसके बाद भी जातक ऐसा करता है। किसी भाव के स्वामी के साथ केतु स्थित हों तो उस भाव से संबंधित कोई न कोई त्याग छिपा रहता है। यदि संबंध है तो उसका नुकसान भी हो सकता है। उदाहरण के लिए मामा के भाव में अर्थात् छठे भाव में केतु स्थित हों तो मामाओं में से किसी एक को कष्ट या मामाओं से त्याग देखने में आता है।

केतु के तीनों नक्षत्रों का मुहूर्त शास्त्र में अत्यधिक उपयोग किया गया है। कुछ कार्य तो ऐसे हैं जिन्हें केवल नक्षत्र विशेष में ही करने की आज्ञा ऋषियों ने दी है। जैसे- कोई पेड़ लगाना हो या बीजारोपण करना हो अथवा गर्भाधान, इनमें मूल नक्षत्र की अति महत्ता बतलाई है।

 

केतु के नक्षत्र

अश्विनी : यह क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्र है। इसमें मुंडन, यज्ञोपवीत संस्कार, सम्मान प्राप्ति के लिए की जाने वाली यात्रा, तीर्थ यात्रा, अन्नप्राशन, वाहन आदि का खरीद कर, प्रथम बार घर में लाना आदि कार्य अत्यंत शुभ होते हैं और फलीभूत होते हैं।

मघा : इस नक्षत्र के देवता पितर हैं। इस नक्षत्र में वाहनादि का निर्माण अथवा उनकी मरम्मत, कुआ, तालाब का निर्माण, क्रोधातिरेक से संपन्न होने वाले कार्य, शत्रुदमन, विवाह एवं पितृ कर्म करने चाहिएं। इनके शुभ परिणाम अति शीघ्र प्राप्त होते हैं।

मूल : यह उग्रसंज्ञक नक्षत्र है। इसके देवता निर्ऋति हैं। इस नक्षत्र में साझेदारी अथवा सहयोग से विक्रय किये जाने वाले पदार्थों का व्यापार, स्थिर कर्म, वाहन की प्रथम सवारी करना अथवा किसी यान में प्रथम बार बैठना, अपने अधिकारी से प्रथम बार मिलना, उग्र व दारुण कर्म, विवाह, अभिषेक (पद ग्रहण), मुण्डन, उपनयन, मांगलिक कार्य, बीजारोपण, वृक्षारोपण, गर्भाधान, शस्त्र विद्या का अभ्यास या शस्त्र का क्रय तथा विद्या एवं शैक्षिक कार्य करने चाहिएँ। इस नक्षत्र में किसी शहर, गाँव या देश में प्रवेश करना विशेष हितकारी व लाभकारी होता है।

जैमिनि ऋषि ने केतु को मातामह माना है। ननसाल पक्ष के प्रतिनिधि हैं केतुदेव। त्वचा रोगों के लिए जितने बुध उत्तरदायी हैं उतने ही केतु। स्किन एलर्जी के सारे मामले केतु से संबंधित हैं। केतु सूक्ष्मकाय तो हैं ही, सूक्ष्म कृमियों पर भी अधिकार रखते हैं। न केवल त्वचा के ऊपर बल्कि त्वचा के तुरंत नीचे वाली सतह में भी केतु के गण सूक्ष्म कृमियों का या बैक्टीरिया का वास होता है। ऐलोपैथ सेलिसिलिक एसिड व बैंजोइक एसिड से इन बैक्टीरिया का इलाज करते हैं। कई बार तो त्वचा जल जाने के बाद ही ये बैक्टीरिया वहाँ से विदा होते हैं।

 

राजा परीक्षित की कथा आपने सुनी होगी! तक्षक नाग फल में कीड़ा बनकर उन तक पहुंचे थे। उन्हें राहु कहा जा सकता है परंतु बहुत छोटे कीड़ों के रूप में केतु भी वहाँ विद्यमान रहते हैं। कुछ बैक्टीरिया या कृमि मानव शरीर में हमेशा ही वास करते हैं बल्कि उनका जीवनचक्र ही मानव शरीर में पूरा हो जाता है। वे या तो राहु हैं या केतु। हमारा मानव शरीर भी असंख्य जीवों की समष्टि है और कोई एक जीव या आत्मा मान लेना भूल ही होगी।

घटनाओं को अतिरेक में ले जाना या भारतीय दंड संहिता में वर्णित  ‘Sudden Provocation’ केतु के ही वरदान हैं। इसमें व्यक्ति बंदूक भी चला सकता है तो कोई रेस भी जीत सकता है। ‘Killer Instinct’  को परवान चढ़ाना कोई केतु से सीखे। केतु जब क्रोधित हों तो बहुत क्रूरता से दमन करते हैं। काम, क्रोध, मद एवं लोभ से अचानक छुटकारा दिलाने में केतु ही भूमिका अदा करते हैं। बड़े से बड़े मोह का भंग केतु करा देते हैं। बृहस्पति यही कार्य ज्ञान प्राप्ति करने के बाद कराते हैं परंतु केतु किसी घटना के वशीभूत ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर देते हैं। आकस्मिकता इतनी अधिक कि कई बार किसी व्यक्ति का महिमा मंडन होना होता है तो केतु एक घंटा पहले तक यह पता नहीं चलने देते कि वह व्यक्ति विश्व प्रसिद्ध होने जा रहा है। एक तरफ व्यक्ति अभाव से त्रस्त तो ठीक उसी समय उसे अति प्रसिद्ध कर दें, ऐसा कार्य सिर्फ केतु कर सकते हैं।

केतु जब लेते हैं तो धन और मान दोनों ले लेते हैं और जब देते हैं तो धन तो देते ही हैं, उससे 100 गुना मान भी दे देते हैं। इसीलिए उन्हें ध्वजा का प्रतीक माना गया है।

ऐसा कहते हैं कि केतु जिस राशि में होते हैं उसी के फल देते हैं। एक अन्य ग्रंथ में मिलता है कि केतु जिस ग्रह के साथ स्थित हैं, उसी ग्रह के फल दे देते हैं। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि यदि कई ग्रहों के साथ केतु बैठे हों तो जैसे उन सभी ग्रहों की शक्ति का शोषण कर लेते हैं और स्वयं शक्तिशाली हो जाते हैं। राहु जिस ग्रह के साथ बैठते हैं तो उस ग्रह की प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते हैं। पाराशर ऋषि कहते हैं कि राहु या केतु केन्द्राधिपति के साथ युति करके, केंद्र स्थान में बैठते हैं तो राजयोगकारक या योगकारक हो जाते हैं। केतु अचानक चमकते हैं या बहुत चमकते हैं इसीलिए किसी व्यक्ति की अचानक सफलता को धूमकेतु की तरह ही चमकना माना जाता है। इसके साथ ही यह भी जुड़ा है कि धूमकेतु की चमक को स्थायित्व देने में बहुत समस्या आती है और वह धूमिल हो जाती है। किसी वातावरण को धूमिल बना देना भी केतु से जोड़ा जा सकता है।

केतु के जो नैसर्गिक विषय हैं उनमें आध्यात्म, धर्म, चैरिटी, संन्यास, पलायन, शिखा या सींग या ध्वजा या अति प्रसिद्धि, गणित, ज्योतिष, चमत्कार कथन, संपत्ति का आदान-प्रदान, दान, क्रूर प्रदर्शन, निर्मोह इत्यादि सबसे प्रमुख हैं।

जैमिनि ज्योतिष और केतु

जैमिनि ज्योतिष में केतु को अत्यंत विशेष भाव से लिया गया है। यदि कारकांश लग्न में दूसरे भाव में केतु हों और उनको पापग्रह देखें तो वाणी हकलाती है। किसी ग्रह के साथ केतु स्थित हों तो या तो अन्य ग्रहों का प्रभाव गौण हो जायेगा या उनमें से किसी ग्रह का प्रभाव अत्यधिक बढ़ जायेगा। आरूढ़ लग्न से यदि केतु दूसरे भाव में स्थित हों तो मनुष्य की आयु अधिक दिखने लगती है और वे जल्दी ही बूढ़े दिखने लगते हैं। यदि शुक्र, मंगल व केतु तीनों आपस में देखते हों या तीनों एक-दूसरे से तृतीय-एकादश में हों तो व्यक्ति  राजचिह्नों से युक्त होता है या उसको उच्च स्तर का भोग विलास मिलता है।

लग्न के स्वामी लग्न से जितने भाव दूर हों, उससे उतने ही  दूर स्थित भाव को आरूढ़ लग्न या पद कहते हैं। इसी भाँति लग्न से द्वादश स्थान के स्वामी, अपने भाव से जितने दूर हों, उससे इतने ही दूर स्थित भाव को उपपद कहते हैं। उपपद से केतु की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण है और जीवनसाथी के शारीरिक कष्ट या रोगों की सूचना देते हैं।

किसी भी भाव में यदि शनि-राहु या शनि-केतु एकत्रित हों तो व्यक्ति अपने माता-पिता का दाह संस्कार नहीं कर पाता है। लग्न से छठे भाव तक यदि शनि-राहु या शनि-केतु स्थित हों तो व्यक्ति माता का संस्कार नहीं कर पाता है और यदि सप्तम से द्वादश तक यह युति हो तो व्यक्ति पिता का संस्कार नहीं कर पाता है। यदि इस युति पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो वह व्यक्ति संस्कार कर पाता है।  एक मामला ऐसा भी था जिसमें नवम भाव में यह युति होने पर दाह संस्कार के लिए बड़े पुत्र की प्रतीक्षा करते रहे। उसने कलकत्ता से दिल्ली तक तो विमान यात्रा की परंतु अलवर पहुंचने के बीच में ही कार खराब हो गई और वह दाह संस्कार के पश्चात् भस्मीभूत अवशेष ही देख सका। विमान यात्राएं बहुत उपलब्ध होने के कारण अब यह योग क्षीण हो चला है परंतु फिर भी इसका प्रभाव किसी न किसी रूप में देखने को मिलता है।

परंतु अधिकांश मामलों में जैमिनि ने केतु को शुभ माना है। केवल दृष्टिकोण का फर्क है कि शुभ क्या है? केन्द्र-त्रिकोणाधिपतियों के साथ केतु अत्यंत योगकारक हैं तो अन्य सभी मामलों में वे पुरुषार्थ चतुष्ट्य में श्रेष्ठ पुरुषार्थ मोक्ष के दाता हैं और तदानुसार ही पूरे जीवन को धर्म और आध्यात्म पर केन्दि्रत बना देते हैं। चैरिटी शब्द का मूल केतु में ही छिपा है, संभवतः बृहस्पति से भी कहीं अधिक।

 

विवाह और तिथि नक्षत्रादि

विवाह को लेकर बहुत सारी बातें शास्त्रों में कही जाती है। पुराने योगों का फलन अब प्रायः अलग संदर्भों में देखा जाने लगा है। आज से 500 वर्ष पहले जो परिस्थितियां थीं वे अब नहीं हैं। तब तलाक की बात सोची भी नहीं जा सकती थी, आज ऐसा संभव हो गया है। दूसरी तरफ कम से कम भारत में तो कानून ऐसा है कि एक विवाह के रहते दूसरा विवाह या एक पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह किया जाना कानूनन संभव नहीं। अतः इस संदर्भ में कुछ बातों का पुनर्विचार किया जाना आवश्यक है जिससे कि विवाह की रक्षा हो सके।

कुछ नक्षत्रों की चर्चा विवाह के संदर्भ में विशेष रूप से किया जाना उचित है। पुष्य नक्षत्र को विवाह में वर्जित कर दिया गया है। इसके लिए एक श्लोक मिलता है-

समस्तकर्मोचितकालपुष्यो दुष्यो विवाहे मदमूर्छितत्वात्।

सहस्रपत्रप्रसवेन तस्मादिहापि भक्तो भुवि लोकसंघैः॥

ब्रह्मा द्वारा विवाह में मदान्ध होने के कारण पुष्य नक्षत्र को विवाह कार्यों के लिए अशुभ माना जाने लगा है। बाद में शास्त्रों में इसके प्रावधान कर दिए गए थे।

भगोडु बाल्मीकिरिहाह सौम्यं सीता सिषेवे सुखं तदूढा।

भैमी तथैवाभिजिदृक्षमत्रिस्तच्छापमायोडु तदीयमस्मात्॥

पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में सीता का विवाह हुआ था। सीता को विवाह का सुख प्राप्त नहीं हो सका। बाल्मिकी ऋषि ने इस पर टिप्पणी की है और इस नक्षत्र को भी विवाह के लिए शुभ नहीं माना गया है। अभिजित नक्षत्र में दमयन्ती ने विवाह किया तो नल उसे भूल गए। अत्रि ऋषि ने इसीलिए अभिजित नक्षत्र की विवाह में निन्दा की है।

मूल नक्षत्र को पहले विवाह में शुभ नहीं माना जाता था परन्तु मूल नक्षत्र में माता देवकी का विवाह हुआ और उन्होंने भगवान कृष्ण को जन्म दिया। इसके बाद से मूल नक्षत्र को विवाह में शुभ माना जाने लगा।

दक्ष प्रजापति की पुत्रियों का विवाह कश्यप ऋषि के साथ मघा नक्षत्र में हुआ था जिसके परिणाम बहुत सुन्दर रहे। इसलिए मघा नक्षत्र को भी विवाह कार्यों में शुभ माना जाने लगा।

जिस तरह से ऊपर बताये गये प्रत्येक नक्षत्र के बारे में कोई न कोई पौराणिक कथन मिलता है और शास्त्रोक्त धारणाएं बनाई गई हैं उसी तरह अष्टकूट मेलापक में कई बातों का समावेश कर लिया गया है परन्तु कई बातें आ नहीं पातीं। कुछ बातों पर हम यहां चर्चा कर सकते हैं-

1.            यदि स्त्री और पुरुष की परस्पर राशियां एक दूसरे से सप्तम, चतुर्थ व दशम, तृतीय व एकादश या दोनों की एक ही राशि हो तो ऐसे दम्पत्ति का कुल सम्पन्न होता है और उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। यदि कन्या की राशि से वर की राशि 6-8, 5-9 तथा 2-12 हो तो इस भकूट दोष के कारण संबंध अच्छे नहीं रहते, पर किसी आचार्य ने कहा है कि यदि दोनों के राशि स्वामियों में मित्रता हो तो इस दोष में कमी आ जाती है।

2.            यदि पुरुष के जन्म नक्षत्र के बहुत पास ही स्त्री का जन्म नक्षत्र हो तो पत्नी सुखी रहती है। परन्तु यदि पति के जन्म नक्षत्र से स्त्री का जन्म नक्षत्र बहुत दूर हो तो वह कष्ट प्राप्त करती है।  इसका उल्टा फल भी होता है। यदि स्त्री के जन्म नक्षत्र से पति का जन्म नक्षत्र समीप हो तो वह अशुभ होता है तथा स्त्री के जन्म नक्षत्र से बहुत दूर हो तो पति का शुभ होता है। परन्तु, रामदैवज्ञ ने बताया है कि पत्नी के जन्म नक्षत्र से पति का जन्म नक्षत्र दूसरा हो तो वह पति के लिए या स्वयं के लिए अशुभ होता है।

3.            कुंभ, वृष, मिथुन, मेष और मकर राशियों में स्थित सूर्य में विवाह प्रशस्त बताया गया है। चन्द्र, शुक्र और गुरु जिस नक्षत्र पर नहीं हों तो वह नक्षत्र विवाह के लिए शुभ बताए गए हैं।

4.            अधिक मास, क्षय मास, सिंहस्थ गुरु, गुरु और शुक्र के वृद्धत्व और बालत्व में विवाह की वर्जना की गई।

5.            जन्म नक्षत्र, जन्म मास, जन्म लग्न और जन्मदिन में विवाह की निन्दा की गई है।

6.            दिन में जन्म हो तो रात्रि का विवाह और कृष्ण पक्ष में जन्म हो तो शुक्ल पक्ष में विवाह शुभ माना गया है।

7.            ज्येष्ठ कन्या और ज्येष्ठ वर हो तो ज्येष्ठ मास में विवाह नहीं किए जाते।

8.            ज्येष्ठ पंचक में प्रथम गर्भ से उत्पन्न कन्या, प्रथम गर्भ से उत्पन्न वर, ज्येष्ठ मास में उत्पन्न कन्या एवं ज्येष्ठ मास में उत्पन्न वर तथा ज्येष्ठ मास में दोनों का विवाह यह ज्येष्ठ पंचक या शुक्र पंचक कहलाते हैं। इनमें समभाव हो अर्थात् इनमें से दो परिस्थितियां हों या चार परिस्थितियां हो तब तो शुभ माना गया है अन्यथा अशुभ कारक यहां तक कि मृत्यु कारक माना गया है।

9.            एक ही मां से उत्पन्न भाई-बहिनों का विवाह एक ही वर्ष में नहीं किया जाना चाहिए। परन्तु किसी-किसी आचार्य ने एक ही मां से उत्पन्न दो भाईयों के एक ही वर्ष में विवाह की आज्ञा कलियुग में दे दी।

10.          भाई के विवाह के छः महीने बाद बहिन का विवाह किया जा सकता है परन्तु बहिन के विवाह के पश्चात भाई का विवाह कभी भी किया जा सकता है।

11.          किसी-किसी आचार्य ने कहा है कि दूसरे सहोदर का विवाह सौर वर्ष के परिवर्तन होने पर किया जा सकता है।

12.          गालव ऋषि ने वक्री और अतिचारी गुरु को विवाह कार्य में शुभ माना है तथा अन्य कार्यों में अशुभ माना है। परन्तु अन्य आचार्यों ने इस मत का समर्थन नहीं किया है।

13.          यह सब शास्त्रों में हैं। इन बातों का वर्तमान कानूनी अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है।

 

कबंध का उद्धार

आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता॥

भगवान राम जब सीता की खोज में निकले थे, तब  जटायु का दाह संस्कार करके आगे बढ़े तो उन्होंने ‘कबंध’ नामक राक्षस का उद्धार किया। मृत्यु को प्राप्त होते-होते उस राक्षस ने अपने पूर्वजन्म में प्राप्त शाप का वर्णन किया।

यह कबंध राक्षस पूर्वजन्म में गंधर्व था किंतु ऋषि दुर्वासा जी का अपमान करने से, शाप वश वह इस राक्षस योनि में जन्मा था। तब श्रीराम ने उससे यह कहा कि -

मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भुसूर सेव।

मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥

सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥

जो व्यक्ति मन, वचन और कर्म से कपट रहित होकर ब्राह्मणों की (सुयोग्य विद्वानों की) सेवा सुश्रुषा करता है और उनके आदेशों की पालना करता है, वह मुझे बहुत प्रिय है। वह अपने इस शुभ कर्म से मुझे और ब्रह्मा व शिव आदि को भी वशीभूत अर्थात् प्रसन्न कर लेता है।

इस प्रसंग से यह शिक्षा मिलती है कि हमें सदा गुरु, गुणीजनों, विद्वानों, पूर्वजों, वृद्धों की सेवा करनी चाहिए, उन्हें  किसी भी तरह कष्ट नहीं देना चाहिए और उनकी इच्छाओं की पूर्ति विनम्र भाव से करनी चाहिए। ये सभी ब्राह्मण की श्रेणी में आते हैं। इनके अपराध से हमें अधम योनियों में जन्म लेना पड़ता है। अधम योनि में जन्म को इस रूप में भी कहा जा सकता है कि हम सीधे रास्ते पर चलते-चलते कभी-कभी अज्ञान या मतिभ्रम से अनुचित व अशुभ मार्गों में निकल जाते हैं जहाँ सिर्फ अन्याय, अपमान, अनीति और दुर्व्यसन ही चारों ओर से घेरे रहते हैं।

ज्योतिष में कबंध (सिर विहीन देह) केतु का पर्यायवाची नाम है। पत्रिका में केतु की अशुभ स्थिति अधोमार्गों व अधम विषयों की ओर प्रवृत्त कर देती है जबकि शुभ स्थिति कबंध नाम के असुर की तरह ईश्वर के द्वारा मोक्ष प्राप्त करा देती है। कबंध असुरयोनि में जन्म लेकर भी धर्ममय आचरण करता था इसलिये श्रीराम उसके मोक्षदाता बनें।