भय, भूख और स्वप्न

पं. सतीश शर्मा

कुछ वर्ष पुरानी बात है कि बड़े पर्यत्नों के बाद मेरे चैम्बर तक पहुंचे उस 18 वर्षीय लड़के ने द्वार पर खड़े होकर हाथ उठाकर कहा कि मुझे केवल दो मिनिट चाहिए। मैंने कहा अवश्य, तुम तीन मिनिट लो। सामने की कुर्सी पर बैठने से पहले उसने कहा ‘दुनिया में तीन चीजें बिकती हैं, भय, भूख और सपने’। मैंने पूछा ‘मैं क्या बेचता हूं’? तत्क्षण ही बोला ‘आप भय बेचते हैं, सारी दुनिया भूख में बिकती है और बम्बई में सपने बिकते हैं’।

क्या ज्योतिष केवल भय उत्पन्न करने का माध्यम है? अगर यह सच होता तब तो कर्मवाद और पुनर्जन्म के सिद्धांत ध्वस्त हो जाएंगे और अगर यही सच है तो लोग ज्योतिषियों के पास जाना ही छोड़ देंगे। वह लड़का बोल तो सच रहा था परंतु उसने मुझे आध्यात्म और दर्शन की पुस्तकों को दुबारा से पढ़ लेने का मौका भी दे दिया।

वह ऋषि जो ज्योतिष के सिद्धांत लिख गए, वनों में रहते थे, विलासिता से दूर थे तथा उन्होंने जो नियम रचे, वे सार्वभौम प्रकृति के हैं। वे सत्य हैं और खरे उतरते हैं। ज्योतिष के उन नियमों में सत्य का अंश है, इसलिए वैदिक रचनाओं के भाग हुए। ऋग्वेद में नक्षत्रों के बारे में कथन मिलता है तो वेदांगों में सभी ग्रहों के नक्षत्रों के बारे में। इसलिए ज्योतिष 6 वेदांगों में से सर्वश्रेष्ठ वेदांग माना गया है और उसे वेदों का नेत्र तक कहा गया है। जो ऋषि ज्योतिष के ग्रंथ रच गए हैं, वे तो आने वाले हजारों वर्ष तक उपयोग में आने वाले थे, उन्हें लोगों को भयभीत करने की और उनसे धन-दोहन की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। अगर धन कमाने का उद्देश्य न हो या किसी भी प्रकार का लाभ या सम्मान कमाने का उद्देश्य न हो तो ज्योतिष भय उत्पन्न करने का माध्यम है, ऐसा मानने को कोई आधार नहीं है।

ज्योतिष से इतर धर्म एक तरह से आचरण संहिता है। जब हम धर्म या आध्यात्म की बात करेंगे तो लोक-परालोक की चिंता अवश्य करेंगे। जो अदृष्ट है, अर्थात् हमारा कर्म संचय और कर्मफल, उसका संबंध पिछले और अगले जन्मों से है। कर्म फलों का जब हम विवेचन करेंगे तो भय उत्पन्न होना स्वभाविक है। अधिकांश जीव कर्म संचय को नष्ट न करके उसे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि हम अपने पुनर्जन्म की भूमिका बना रहे हैं। अब कर्मों को नष्ट करना या क्षय करना अगर चाहें तो जो उपाय सामने आएंगे, उनसे भय उत्पन्न होना स्वभाविक है। अब बहुत श्रम करके कर्म इक्ट्ठे किए हैं तो कर्म क्षय भी श्रम साध्य होना चाहिए। हम उस मार्ग पर नहीं जाना चाहते और अगर कोई संत, गुरु या शिक्षक ऐेसे मामले में आज्ञा पालन के उद्देश्य से यदि कोई उपाय बताएं तो बहुत सारे मामलों में इसे भय उत्पन्न करना मान लिया है। कर्म नापने का कोई पैमाना यदि प्रत्यक्ष जगत में होता तो न किसी धर्म की, न दर्शन की और न ज्योतिष किसी जैसी विधा की आवश्यकता ही न पड़ती।

अपने ईश्वर जी हैं न अर्थात् हमारे भगवान, कम चतुर नहीं हैं, मनुष्य को रूप, सौन्दर्य, लावण्य और भावनाएं तथा इन सबसे भी बड़ा परस्पर आकर्षण-विकर्षण अर्थात् सब कुछ दे दिया परंतु आयु 100 वर्ष ही दी। यदि ईश्वर मनुष्य को 500 वर्ष की आयु प्रदान कर देता तो मनुष्य 490 वर्ष तक तो ऐश करता और अंतिम 10 वर्ष या तो मंदिर में ही बैठकर या हिमालय की कंदराओं में बैठकर जीवन भर किए हुए पाप के फल को नष्ट करने के उपाय सोचता। हो सकता है 100 -50 वर्ष स्वयं ही ईश्वर बनने का दंभ पाले रहते। आजकल भी कुछ ऐसे बाबा टाईप के लोग हैं जो अपने आप को अवतार सिद्ध करने में लगे हुए हैं या ऐसी घोषणाएं भी की हुई है। ऐसे बाबाओं की पहचान करनी हो तो उनके आश्रमों की संख्या तलाश करें, उनके आश्रमों में लग्जरी खोजें, कुछ बाबाओं के शरीर पर स्वर्णाभूषण या किमती रेशमी वस्त्र ढूंढें, उनकी तथाकथिक चेलियों की संख्या खोजें, आंकडे के दूध या गोंद से चिपकाई हुई कृत्रिम शिरों लटाओं को देखें, आपके उत्तर का जवाब इन सब में मिल जाएगा। आखिर एक कुटिया से अधिक उस संन्यासी या संत को आवश्यकता ही क्या पड़ी है जो हर शहर में बड़े-आश्रम और सम्पत्तियाँ बनाने में लगा है। ऐसे संत यह क्यों नहीं सोचते कि उनके गत जन्मों का संचित कर्मबल लौकिक संग्रह करते ही नष्ट हो रहा है और उनकी योनि पतन निश्चित है। ऐसे लोगों को ईश्वर का भय क्यों नहीं है?

भय अवश्य है, अवश्य होना चाहिए परंतु लोक-परलोक न बिगड़े और ईश्वर को प्राप्त करने के मार्ग में कोई बाधा न आ जाए, ऐसा भय ही सार्थक है। हम सब ने अपने जीवनकाल में ही संतों का पतन होते देखा है। चाहे स्त्री प्रसंग हो या धन प्रसंग। वास्तिवक कारण यह है कि गतजन्मों का संचय नष्ट होने की अपेक्षा जब बढ़ने लगता है, और सुकर्मों का खाता कम होने लगता है तब पतन के मार्ग खुलने लगते हैं। पतन का कारण कोई भी हो, घटना कोई भी, असली बात संचित कर्मों का शुभ भाग नष्ट होने और नए कर्मों का जन्म लेना ही है। कर्म संचय बढ़ा और संत का पतन शुरु हुआ।

दैनिक जीवन में जब कोई आध्यात्म से संबंधित व्यक्ति, उपदेशक, शिक्षक या किसी सरकारी विभाग का कर्मचारी जब यह कहे कि अगर धन नहीं दिया तो तुम्हारा यह बिगड़ जाएगा, वह बिगड़ जाएगा तो यह भय उत्पन्न करके धनार्जन की श्रेणी में आता है। पर जब कोई गुरु यह कहे कि यदि सत्कर्म नहीं किए तो सत्गति नहीं होगी और जन्म सफल नहीं होगा, तो यह भय नहीं है, क्योंकि इसमें धनार्जन की कामना नहीं है।

अपने भगवानजी की चर्चा दुबारा करें। वह लड़का ठीक ही बोलता था कि भूख भी बिकती है। अपने भगवानजी ने पेट में भूख डाल दी। कल्पना करें कि न पेट हो और न भूख, तो न कोई नौकर मालिक की बात मानेगा, न कोई शिष्य गुुरु की आज्ञा का पालन करेगा, न कोई पत्नी पति की सुनवाई करेगी, बल्कि कर्म और विश्वास की भावना ही समाप्त हो जाएगी, सब निरंकुश हो जाएंगे और सब गली-मौहल्ले में भी भगवान बने फिरेंगे। भूख वास्तव में बिकती है। मैंने ऐसी पत्नियों का साक्षात्कार किया है जो घोर शराबी पति की मृत्यु के पश्चात् भी दुःखी नहीं थी। बच्चों का पालन सम्मान ढ़ंग से कर पा रही थी।

अब अपनी मुम्बई नगरी में आ जाओ। हजारों लड़के-लडकियाँ हीरो-हीरोइन बनने के सपने पालती हुए, स्वप्नदृष्टा या स्वप्न विक्रेता दलालों का शिकार हो जाते हैं और उनका हर तरह से शोषण होता है। न वापिस घर जाने लायक बचते हैं और न ही खोए हुए आत्म सम्मान की पुनर्प्राप्ति का माध्यम बच रहता है। फिल्मों में जो चमक-धमक दिखायी जाती है उसको पाने की लालसा में लोग 25 साल भी मुम्बई में साधारण सी चाकरी करते हुए मिल जाते हैं। आप कल्पना करें कि वह फिल्म हीरोइन जिसके लटके-झटके से लाखों लोग प्रभावित हो जाते हैं, उन्हें भोगना तो सब चाहते हैं, पर उसी नगरी के लोग उनसे विवाह नहीं करते। विवाह कहीं बाहर जाकर करेंगे। कहने का अर्थ यह है कि बहुत बड़े शोषण का शिकार होकर भी कम ही लोग हैं जो सफलता के शिखर पर पहुंच पाते हैं। आत्म-सम्मान खोकर या आत्मा का हनन करके धनार्जन या प्रसिद्धि प्राप्त करने के बाद जिस दिन ग्लानि का क्षणांश भी उत्पन्न होता है उस दिन व्यक्ति एकांत और मृत्यु की कामना करने लगता है। स्वप्नलोक अचानक ही विरोहित हो जाता है।

 

मौन-व्रत का महत्व

ज्योति शर्मा

‘व्रियते स्वर्ग व्रजंति स्वर्ग मनेन वा’ अर्थात् जिससे स्वर्ग की प्राप्ति की जा सके उसे व्रत कहते हैं। हमारे ऋषि-मुनि उपवास के द्वारा ही मन व आत्मा को शुद्ध करते हुए अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त करते थे। पुराणों में इस बात का विस्तार से उल्लेख मिलता है।

व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।

दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।।

अर्थात् मनुष्य को अपने जीवन में उन्नति व योग्यता प्राप्त करने के लिए व्रत अवश्य करने चाहिए, जिसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा से दक्षिणा अर्थात् जो कुछ किया जा रहा है उसमें सफलता प्राप्त करना। उससे श्रद्धा जगती है और श्रद्धा से सत्य व जीवन के लक्ष्य तक पहुंचने की प्रेरणा मिलती है।

लगभग सभी व्यक्ति अपने जीवनकाल में एक ही बार नहीं अनेकों प्रकार के व्रत विभिन्न समस्याओं के निवारण के लिए करते हैं। हर कोई व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार व्रत करता है।अलग-अलग धर्मों में व्रत रखने के अलग-अलग विधि-विधान हैं। किन्तु मौन व्रत ऐसा व्रत है जिसे सब धर्मों में किया जा सकता है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।

व्यक्ति की पहचान उसकी वाणी द्वारा होती है। व्यक्ति के अंदर छुपे ज्ञान या अज्ञान की झलक भी वाणी द्वारा ही पता लगता है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए वाणी का शुद्ध होना परम आवश्यक है। मौन व्रत से वाणी पर नियंत्रण व शुद्धता लाई जा सकती है।

ज्योतिष शास्त्रों में धन और वाणी का द्वितीय भाव बताया गया है।

वैज्ञानिक दृष्टि से किसी व्यक्ति की आठ घंटे में शारीरिक श्रम में जितनी ऊर्जा खर्च होती है, उसी की अपेक्षा एक घण्टे लगातार बोलने वाले व्यक्ति की ऊर्जा क्षय होती है। यही कारण है कि लम्बे समय तक जो व्यक्ति भाषण दिया करते हैं उनका गला बार-बार सूखता है। वे बीच-बीच में पानी पिया करते हैं। जो व्यक्ति लम्बे समय तक बोलकर पूजा व मंत्र जप करवाते हैं वे घी का सेवन करते हैं ताकि उनके स्वर ना फटे तथा गला ना रूंधें। ऋषि-मुनि मौन रहकर ही चिंतन-मनन किया करते थे, जिससे उनकी मानसिक ऊर्जा बढ़ती रहे। मौन रहकर कार्य करने से ज्ञानेन्दि्रयाँ व कर्मेन्दि्रयाँ एकाग्र होती है। लगातार मौन व्रत करने से वाणी सिद्ध भी होती है और वाक् शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि यदि वह व्यक्ति किसी को आशीर्वाद या बद्दुआ दे तो वह तत्काल ही फलीभूत हो जाती है।

मौन व्रत करने के लिए सबसे उत्तम समय सावन मास की समाप्ति के बाद भाद्रपद प्रतिपदा से 16 दिन तक है। व्रत पूर्ण होने के बाद उसके अनुष्ठान का विधान भी है। शास्त्रों में मौन व्रत की गणना पांच तपों में भी की गई है।

मनःप्रसादः सौम्यतं मौनमात्म विनिग्रहः।

भाव सशद्धिरित्येतत्तपों मानसमुच्यते।।’

अर्थात् मन की प्रसन्नता, सौम्य स्वभाव, मौन व मोनिग्रह और शुद्ध विचार यह मन के तप हैं।

मन के लिए परिष्कार तथा संयम के लिए मन की प्रसन्नता धारण की जाए, सौम्यता धारण की जाए, इसके पश्चात् मौन का प्रयोग किया जाए। इस प्रयोग से शुद्ध विचार उत्पन्न होते हैं। मन का परिष्कार होकर चंचलता और व्यर्थ चिंतन से मुक्ति मिलती है।

ये तु संवत्संर पूर्ण नित्य मौनेन भुंजते।

युगकोटिसहस्रौस्तु स्वर्गलोके महायते।।

ऋषि-मुनियों ने मौन व्रत की सबसे श्रेष्ठ व्रतों में गणना की है। मौन व्रत की महिमा अपार है, मौनव्रत करने से क्रोध का दमन, वाणी पर नियंत्रण, शरीर बल, संकल्प बल, आत्मबल में वृद्धि मन व मस्तिष्क का विकास व शक्ति पैदा करने का श्रेष्ठ व्रत है।

मौन व्रत के संबंध में महाभारत में एक कथा का उल्लेख मिलता है, जब महाभारतत का अन्तिम श£ोक महर्षि वेद व्यास जी द्वारा बोला गया और श्रीगणेश जी द्वारा भोज पत्र पर लिखा गया तब महर्षि व्यास जी ने कहा - विघ्नेश्वर धन्य है आपकी लेखनी। महाभारत का सृजन तो वस्तुतः ईश्वर द्वारा किया गया है परंतु पूरी महाभारत में मैंने 15 लाख से अधिक शब्द बोल डाले, किन्तु आप के मुख से एक भी शब्द नहीं सुन पाया। इस पर श्रीगणेश मुस्करा कर व्यास जी से बोले किसी दीपक में अधिक तेल होता है, किसी में कम तथा किसी में भी अक्षय भण्डार तेल नहीं होता, इसी प्रकार हर व्यक्ति की प्राण शक्ति सीमित हैं, उसका पूरा लाभ वही पा सकता है जो संयम से उसका प्रयोग करता है अर्थात् मौन होकर संभवित तरीके से जो कार्य करता है उसका पूर्णतम फल वही पा सकता है, इसीलिए मैं मौन का उपासक हूं।

हिन्दू धर्म में वाणी का अत्यधिक महत्व है। वाणी शुद्ध हो, मीठी हो व पवित्र हो जैसे की देव वाणी के समान। वाणी का संयम व नियंत्रण हेतु हमारे शास्त्रों में मौन व्रत करने का विधान है। ज्योतिष की बात करें तो जन्म पत्रिका का दूसरा भाव वाणी का होता है। दूसरे भाव पर जिन भी ग्रहों का प्रभाव होता है, व्यक्ति की वाणी उसी प्रकार होती है।

1. बुध, गुरु, शुक्र व चंद्रमा में से किसी भी ग्रह का प्रभाव दूसरे भाव पर हो तो व्यक्ति की वाणी सौम्य होती है। यदि ग्रह नीच ग्रस्त या पाप प्रभाव में हों तो विपरीत फल प्राप्त होते हैं।

2. दूसरे भाव पर राहु, मंगल व राहु, शनि का प्रभाव हो तो व्यक्ति परिहास में बात करता है।

3. राहु व वक्री बुध दूसरे भाव में हों तो व्यक्ति हकलाने जैसी समस्या से ग्रस्त रहता है।

4. सूर्य का प्रभाव दूसरे भाव पर हो तो व्यक्ति की वाणी में कठोरता व अहंकार झलकता है।

5. मंगल व शुभ ग्रह दूसरे भाव पर प्रभाव डालें तो व्यक्ति की वाणी प्रभावशाली होती है, लेकिन अकेले मंगल होना अच्छा नहीं है।

6. धनु, मकर, वृषभ व सिंह लग्न के दूसरे स्थान पर शनि या बुध की स्थिति हों तो व मंगल का प्रभाव हों तो व्यक्ति बोलने में असमर्थ होता है।

7. राहु या छठेश ग्रह का प्रभाव दूसरे भाव पर हो तो व्यक्ति झूठ बोलता है।

 

हस्तरेखा - व्यापार और व्यवसाय

एन. पी. थरेजा

व्यक्ति को किस प्रकार का व्यापार लाभकारी होगा। यहां कुछ और संकेत दिये जा रहे हैं जिनसे व्यक्ति को कुछ सहायता मिल सकती है।

हस्त विद्या में कुशलता : मस्तिष्क रेखा स्पष्ट हो। बुध पर्वत उन्नत हो जो कि इस विद्या की योग्यता देता है। बुध की उंगली लंबी हो व इसका पहला भाग लंबा हो। हथेली पर Ring of Soloman हो जो कि इस विद्या में गहरी अभिरुचि देता है। हथेली पर पूर्वाभास की रेखा भविष्य देख पाने की ईश्वरीय देन है। हथेली पर सब रेखायें स्पष्ट हों। भाग्य रेखा चंद्र पर्वत से निकली हो।

पेंटर : चंद्र व शुक्र पर्वत शक्तिशाली हों।

दार्शनिक : उंगलियां बहुत लम्बी व गठीली हों। हथेली पतली पर सख्त हो।

कवि : मस्तिष्क रेखा झुकी हो। सूर्य, चंद्र व शुक्र के पर्वत प्रमुख हों। हाथ पतला व मुलायम हो। अंगूठे का पहला भाग लम्बा व पतला हो।

पुजारी : मस्तिष्क रेखा व हृदय रेखा अच्छी हों। नाखून बादाम की शक्ल के हों। Quadrangle के बीच गुणन चिह्न हों। गुरु, शनि व बुध पर्वत बड़ा हो। जनता में भाषण देने की योग्यता हो, मस्तिष्क रेखा लम्बी, झुकी हुई व कांटे वाली हो। हृदय रेखा बहुत अच्छी हो। गुरु व सूर्य पर्वत अच्छे हों। आरंभ में ही जीवन रेखा व मस्तिष्क रेखा अलग-अलग हों।

साधू, महात्मा व संन्यासी : Quadrangle के बीच बड़ा रहस्यमय गुणन चिह्न हो। चंद्र पर्वत ऊंचा हो व उंगलियां सही हों व नुकीली हों।

वैज्ञानिक : बुध के पर्वत पर त्रिकोण हो। मस्तिष्क रेखा पर सफेद निशान हों।

वास्तुकला मर्मज्ञ : सूर्य की उंगली का पहला भाग लम्बा हो। अंगूठे का भी पहला भाग लम्बा व मुलायम हो।

दर्जी व वस्त्र बनाने वाला : हाथ थोड़े छोटे हों जिनमें उंगलियां लचकीली हों व लम्बी हों। सूर्य की उंगली प्रमुख हो व इसका पहला भाग लम्बा हो। मस्तिष्क रेखा झुकी हो व शुक्र पर्वत बड़ा हो।

शिक्षक : मस्तिष्क रेखा, जो कि बुद्धिमानी व्यक्त करती है, स्पष्ट हो। भाग्य रेखा व सूर्य रेखा हाथ पर अंकित हों। गुरु का पर्वत, जिसका संबंध ज्ञान से है, अच्छा हो।

नीचे हम कुछ ऐसे अवगुण बतायेंगे जो अच्छे नहीं माने जाते- Amorous- हथेली में शुक्र का घेरा हो। मस्तिष्क रेखा झुकी हो। हाथ मोटा व सख्त हो। शुक्र पर्वत पर बहुत सी महीन रेखायें हों।

लोभ लालच : Quadrangle बहुत छोटा हो। हृदय रेखा हाथ पर हो ही नहीं। अंगुलियां आगे की ओर झुकी हों। उंगलियां गठीली हों व पर्वत उभरे न हों।

दिवाला निकलना : भाग्य रेखा एक जगह पूरी कटी हो। स्वास्थ्य रेखा में एक द्वीप हो। सूर्य का पर्वत व सूर्य रेखा दोनों ही निर्बल हों। सूर्य पर्वत पर बहुत सी उलझी रेखायें हों।

Black Mailer: हाथ पतले लम्बे हों। गुरु पर्वत व सूर्य पर्वत बहुत अधिक उन्नत हों। उंगलियां टेढ़ी-मेढ़ी व नुकली हों। बुध के पर्वत पर आड़ी-सीधी रेखायें हों। मस्तिष्क रेखा से एक रेखा चंद्र पर्वत पर जाती हो जो ये जानने की शक्ति प्रदान करें कि ख्द्यड्डष्द्म रूड्डद्बद्य करने के लिये क्या-क्या तरीके अपनाये जा सकते हैं।

काला बाजारी : बुध का पर्वत जो व्यापार का स्थान है, बहुत अधिक विशेष (प्रमुख) हो।

Brutishness  (जंगलीपना) : मस्तिष्क व हृदय रेखा छोटी हों। मंगल पर्वत अधिक उभरा हो। शुक्र पर्वत भी अधिक हो। अंगूठे का पहला भाग गठीला हो। हाथ मोटे व सख्त हो। उंगलियां छोटी व चिकनी हों। हाथ के ऊपर बाल बहुत अधिक हों। त्वचा सख्त हो व लाल रंग की हो।

हठी (Bully) : वे व्यक्ति जिनकी मुट्ठी बहुत सख्त बंद होती है। लड़ने-झगड़ने वाले होते हैं व बिना कारण ही लड़ते-झगड़ते हैं।

ताश खेलने वाले : उंगलियां लंबी पतली व टेढ़ी होती हैं। बुध पर्वत प्रमुख होता है। चंद्र पर्वत का निचला भाग ऊंचा होता है। बुध के पर्वत पर गुणन चिह्न या सितारा होता है।

Coquetry  : हृदय रेखा शृंखला जैसी होती है। मंगल पर्वत अधिक उठा होता है।

Corruptibility : उंगलियां टेढ़ी होती हैं। मस्तिष्क रेखा टुकड़ों में बंटी होती है। हाथ पर Girdle of Venus होता है व हृदय रेखा लहर जैसी होती है।

अपराधी प्रवृत्तियां : मस्तिष्क रेखा हृदय रेखा में मिल जाती है। अंगूठा ठूंठ की तरह होता है व हाथ खुरखुरा होता है।

कठोरता : Quadrangle छोटा होता है व मस्तिष्क रेखा झुकी होती है। बुध व सूर्य का पर्वत अधिक उठा होता है व बुरा होता है। उंगलियां बहुत लम्बी व पतली होती हैं। स्वास्थ्य रेखा टूटी व खराब होती है।

 

योग जो शुभ फल नहीं देते

कृष्ण भारद्वाज

ऋषियों द्वारा ज्योतिष में कुछ योग ऐसे लिखे गये हैं जो कि हमेशा अशुभ फल देते हैं। जन्म पत्रिका में अन्य दुर्योग उपस्थित होने पर ऐसे व्यक्ति जीवन भर संघर्ष करते हुए पाए जाते हैं और योग के संबंधित क्षेत्र में अभाव जनित जीवन जीते हैं। विभिन्न होरा ग्रंथों जैसे - जातक पारिजात, सारावली, वृहत् जातक, फल दीपिका और सवार्थ चिंतामणि से लिए गए विभिन्न भावों से संबंधित कुछ योगों का उल्लेख किया जा रहा है -

यदि लग्न से छठे भाव में सूर्य और चंद्र हों और शनि की उन पर दृष्टि हो तो व्यक्ति नीच लोगों के समान जीवन जीता है अर्थात् नीच लोग जिन माध्यमों से कमाते हैं, वही वृत्ति उसकी होती है। व्यक्ति अप्रशस्त या निन्दित कार्य से आजीविका चलाता है।

बृहस्पति, राहु या केतु के साथ हो और पाप ग्रह से दृष्ट हो तो व्यक्ति धर्माचरण के विपरीत कार्य करता है।

यदि बृहस्पति नीच राशि में हों  और नीच राशि स्थित ग्रह से दृष्ट हो तो अच्छे कुल में जन्म लेकर भी नीच कुल की तरह व्यवहार करता है।

यदि लग्न के स्वामी और चंद्रमा जिस राशि में हों, उसका स्वामी दोनों शुभ ग्रहों से युत न हो या अस्त हो तथा भाग्येश द्वादश भाव में हो तो जातक की स्त्री तथा पुत्रों का नाश हो जाता है और कुल का नाश करने वाला होता है।

लग्न और लग्नेश दुर्बल हो और चंद्रमा भी क्षीण या पाप प्रभाव में हो तो राजयोग का नाश हो जाता है।

यदि चंद्रमा दशम में हो, शुक्र सप्तम में हो और नवम में पाप ग्रह हो तो वंश आगे नहीं बढ़ता।

सभी पाप ग्रह नीच या शत्रु राशि के होकर केन्द्र में हो और शुभ ग्रह छठे, आठवें व बारहवें भाव में हो तो ऐसी ग्रह स्थिति राजयोग भंग करती है।

यदि भाग्येश की अपेक्षा अष्टमेश अधिक बली हो या बृहस्पति लग्नेश होकर केन्द्र से अतिरिक्त अन्य भावों में हो और अस्त हो और लग्नेश हीन बली हो तो व्यक्ति दरिद्र होता है।

यदि कन्या राशि, कन्या नवांश में शुक्र हो तो जातक धनहीन होता है।

नवम भाव के स्वामी द्वादश में हों और पाप ग्रह केन्द्र में हो तो जातक पाप कार्यों में रत रहता है। ऐसा व्यक्ति विद्या विहीन, दूसरे के अन्न तथा धन पर आश्रित होता है।

लग्नेश निर्बल हो, अष्टमेश से दृष्ट हो और बृहस्पति अस्त हों तो जातक विद्या से हीन, धनहीन तथा निदिंत होता है।

लग्नेश तथा धनेश दोनों नीच राशि में हों तो धन हानि कराते हैं।

किसी भी जन्म पत्रिका में बृहस्पति तथा शुक्र का अस्त होना जीवन में धन की कमी करता है।

यदि लग्नेश छठे, आठवें या बारहवें भाव में निर्बल हो और तीन ग्रह नीच राशि में हों या अस्त हों तो ऐसा व्यक्ति हमेशा निर्धन ही रहता है।

पांचवें भाव के स्वामी नीच राशि में हों, शत्रु राशि में हो या अस्त हों और षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश के साथ हों तो संतान नष्ट होती है।

लग्न में पाप ग्रह हों, लग्नेश निर्बल हो और छठे, आठवें या बारहवें घर में हो तो शरीर सुख का नाश करता है।

यदि चतुर्थेश छठे भाव में हो तो जातक का सुख शत्रुहस्तगत हो जाता है अर्थात् चतुर्थेश की दशा में वह सुख जो जातक को मिलना चाहिए वह थोड़े समय के लिए शत्रु उपभोग करता है।

चतुर्थेश यदि लग्नेश का शत्रु हो और पाप ग्रह से युत या दृष्ट हो तथा शत्रु राशि या नीच राशि में हो तो उसकी दशा-अन्तर्दशा में सम्पत्तियों का नाश होता है।

यदि छठे या आठवें भाव के स्वामी पाप ग्रह होकर बलवान हो और बारहवें स्थान में बैठें तो सम्पत्ति, धन और स्थान हानि कराते हैं।

लग्नस्थ राहु चंद्रमा से दृष्ट हों व तृतीय, षष्ठ, सप्तम भाव में सूर्य, मंगल, शनि हों एवं शुभग्रह केन्द्र में न हों अथवा अस्त हों तो राजयोग नष्ट हो जाता है।

सूर्य तुला राशि में परम नीच (दसवें अंश) के हों तो जन्म पत्रिका में हजार राजयोग होने के बावजूद भी राजयोग का नाश हो जाता है। चाहे जन्म के समय अन्य कोई ग्रह उच्च राशि, स्वराशि या मूल त्रिकोण राशि का ही क्यों न हो।

स्त्री की जन्म पत्रिका में विषम राशिस्थ लग्न व चंद्रमा पाप ग्रहों से युत व दृष्ट हो तो ऐसी स्त्री गुणों से रहित, पाप कर्म में रत व दुःखी जीवन जीने वाली होती है।

उपर्युक्त वर्णित योगों के साथ-साथ जन्म पत्रिका में अन्य शुभाशुभ योगों का भी अवश्य विचार करना चाहिए। जन्म पत्रिका में अन्य दुर्योग उपस्थित होने पर उपर्युक्त योगों के अशुभ फल पूर्ण रूपेण प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत जन्म पत्रिका में उपर्युक्त वर्णित योगों पर अन्य शुभ प्रभाव हो तो इनके प्रभावों में कमी देखी जा सकती है, लेकिन अशुभता पूर्णतया समाप्त नहीं होती है।