गजकेसरी योग - 2

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

गजकेसरी योग तब होता है जब चन्द्रमा से केन्द्र स्थान में बृहस्पति स्थित हों। अर्थात् चन्द्रमा के साथ उसी राशि में या चन्द्रमा से चौथी राशि में या चन्द्रमा से सातवें भाव में या चन्द्रमा से दशम भाव में स्थित हों। अन्य राशियों की अपेक्षा चन्द्रमा या बृहस्पति अपनी ही राशि में हों, तो यह योग अति शक्तिशाली हो जाता है। इसमें भी शक्तिशाली योग तब होता है, जब चन्द्रमा और बृहस्पति कर्क राशि में ही स्थित हो जाएं। मान लीजिए चन्द्रमा कर्क राशि में हैं और बृहस्पति चन्द्रमा से सातवीं राशि मकर में हैं तो यह योग कमजोर हो जाएगा, क्योंकि बृहस्पति नीच राशि में स्थित हैं। नीच राशि में बृहस्पति का समाधान तभी सम्भव है, जब बृहस्पति का नीच भंग राजयोग हो गया हो। अर्थात् या तो बृहस्पति अपनी उच्च राशि में बैठे हों या शनि अपनी ही राशि में स्थित हों और यह चन्द्रमा या लग्न से केन्द्र में हों। गजकेसरी योग किसी भी राशि में चन्द्रमा और बृहस्पति के होने से बन सकता है और उनका केन्द्र में होना जरूरी नहीं है। कुछ ऋषियों ने केन्द्र में बृहस्पति होने मात्र को ही गजकेसरी योग की श्रेणी में मान लिया है। यह तर्क संगत भी लगता है, क्योंकि अब तक हम यह जानते आए हैं कि जन्म पत्रिका का विश्लेषण जन्म लग्न और चन्द्र लग्न से समान रूप से किया जा सकता है। मैं कुछ ऐसी जन्म पत्रिकाओं का उल्लेख कर रहा हूँ, जहाँ गुरु चंद्र या लग्न से केन्द्र स्थान में ना होते हुए भी गजकेसरी योग बना और शक्तिशाली परिणाम दिये।

बृहस्पति यदि मेष, वृश्चिक राशि में हों तो भी शक्तिशाली गजकेसरी योग बनाते हैं। वृश्चिक राशि में स्थित बृहस्पति यदि गजकेसरी योग बनाते हों तो व्यक्ति बहुत अधिक सफलता प्राप्त करते हुए देखे गये हैं।

ज्योतिष के सामान्य नियम हर योग पर लागू होते हैं, जैसे कि ग्रह अपने नवांश में हों, मित्र राशि में हों, मित्र नवांश में हों, अपने उच्च नवांश में हों इत्यादि-इत्यादि। अगर गजकेसरी योग बनाने वाले ग्रह के साथ अन्य शुभग्रह जैसे कि शुक्र या बुध योग बनाते हों या दृष्टि करते हों तो यह योग और भी शक्तिशाली हो जाता है।

बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं और महामात्य हैं अर्थात् सम्राट के बाद सबसे शक्तिशाली मंत्री पद। जिसकी जन्म पत्रिका में बृहस्पति शक्तिशाली हों वह अनायास ही गुरु की श्रेणी में आने लगता है अर्थात् वह उच्च कोटि का सलाहकार, मार्गदर्शक और भविष्य को अच्छी तरह पहचानने वाला होता है। गुरु कभी भी अनैतिक सलाह नहीं देंगे, इसलिए गजकेसरी योग वाले व्यक्तियों के बारे में यह आम धारणा बनने लगती है कि ये श्रेष्ठ मार्ग दर्शक हैं। इनसे सलाह लेने में कोई हानि नहीं है और उससे हमें लाभ होगा। ये लोग धीरे-धीरे आस्था के केन्द्र बनते चले जाते हैं।

गजकेसरी योग के दूसरे पक्षकार चन्द्रमा हैं, जो कि भोग और ऐश्वर्य के स्वामी भी हैं। इसीलिए गजकेसरी वाले व्यक्ति संन्यास की ओर प्रवृत्त ना होकर लौकिक जीवन में रहना पंसद करते हैं और भीड़ से घिरे रहते हैं। चूंकि चंद्रमा चंचल हैं इसीलिए इस चन्द्रमा से बनने वाले योग से व्यक्ति दु्रत गति से निर्णय लेने वाले, तेजी से स्थान बदलने वाले और भावनाओं से संचालित होने वाले होते हैं। बृहस्पति इस वृत्ति पर लगाम लगाये रखते हैं। गजकेसरी योग अगर जन्म पत्रिका के एक, चार, सात, दस, पाँच और नौ भावों में हों तब तो शक्तिशाली परिणाम देते ही हैं परन्तु चन्द्रमा और बृहस्पति का मिलन अन्य भावों में भी शक्तिशाली परिणाम देने में समर्थ हो जाता है। ऐसी कुछ जन्म पत्रियाँ प्रस्तुत हैं। (अगले बुधवार को चन्द्रमा और शुक्र से बनने वाले शक्तिशाली योग)

 

 

 

 

 

तंत्रोक्त महागणपति साधना

हस्तीन्द्राननमिन्दु- चूडमरूणच्छायं रसा दाशिष्टं।

प्रियया--पदम-करया साडस्थया सड्तम्।।

गण्ड-पाली-गलद्-दान-पूर-लालस-मानसान्।

द्विरेफान् कर्ण-तालभ्यां वारयन्तं मुहु मुहुः।।

                शास्त्रों में जिस प्रकार से गणपति के स्वरूप का वर्णन मिलात है, उसके अनुसार वे अत्यन्त गौरवर्ण के, सौन्दर्यशाली मुक्तक आदि आभूषणों से परिपूर्ण, पद्म प्रिया से सेवित शिशु के समान भोली आभा वाले तथा अपने हाथों में पद्म, अंकुश, रत्नकुंभ धारण करने वाले हैं। अधिकांशतः उनके मंगलमय स्वरूप के वर्णन उसी प्रकार मिलते हैं। वीणा वादक के रूप में भी नृत्यरत गणपति के भी उल्लेख, चित्रण तथा मूर्तियां प्राप्त हुई हैं जिनसे उनकी कई कलाओं का ज्ञान होता है। ऋद्धि-सिद्धि उनकी दो पत्नियां हैं तथा क्षेम और लाभ दो पुत्र हैं। जिस प्रकार भगवान शिव का जीवन सम्पूर्णता और विरोधाभासों के मध्य साम्य को प्रदर्शित करने वाला है, उसी प्रकार भगवान गणपति भी अपने आप में बत्तीस कलाओं से युक्त सद् गृहस्थ व योगमय दोनों ही जीवन प्रस्तुत करते हैं। इसी कारणवश आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों ही प्रकार के भक्त उन्हें प्रथम पूज्य तथा वन्दनीय मानते हैं।

                आध्यात्मिक रूप से गणपति को ओंकार का ही मूल रूप माना गया है। श्री गाणपत्यर्थवशीर्ष उपनिषद में इसका रहस्य वर्णित है कि किस प्रकार से ओंकार ध्वनि का ही विग्रह रूप, प्रकट स्वरूप श्री गणपति ही है। इस रूप में वे आदि और अन्त रहित ब्रह्म स्वरूपमय ही है। जो समस्त शुभता, दिव्यता और वरदायक प्रभाव अपने में समाहित किए हैं। श्री गुरुदेव के पश्चात् गणपति ही ऐसे देव हैं जो ब्रह्म की सर्वोच्चता को स्पष्ट करते हैं। अपनी शीतलता, मृदुता से अपने भक्त को आह्लादित करते हैं।

                गणपति का एक अन्य स्वरूप भी है, जिसका उल्लेख अपेक्षाकृत कम ही प्राप्त होता है और वह है उनका तन्त्रोक्त स्वरूप। इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विस्तृत व विलक्षण तथा पारलौकिक स्वरूप हैं। इस रूप में वे वरदायक और अनुग्रहकारी होते हुए भी सौम्य नहीं अपितु कुछ तीक्ष्ण, क्रोध मुद्रा से युक्त, ‘मृदविह्वलम’ तथा कमलमुख द्वारा सेवित अर्थात स्वशक्ति से अभिन्न हैं, जिससे पद्महस्ता होने के कारण साधक प्रायः लक्ष्मी समझने की भूल कर बैठते हैं। वस्तुतः जहां-जहां गणपति का उल्लेख अथवा चित्रण इस प्रकार से प्राप्त होता है, वहां वे अपनी सम्पूर्ण वरदायक ‘शक्ति’ के साथ विद्यमान हैं एवं श्रीपति, गौरीपति, रतिपति की संज्ञा से विभूषित हैं। जिनका शाब्दिक अर्थ कर लेना मात्र पर्याप्त नहीं होगा।

                भगवान गणपति का मंगलमय स्वरूप शुभ स्फटिक तुल्य आभामय स्वरूप जिस प्रकार श्रेष्ठ एवं वंदनीय है, उसी प्रकार उनका तांत्रिक स्वरूप भी। गणेश पुराण में उल्लेख मिलता है कि इनका स्वरूप युग के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। इस कलियुग में उनकी संज्ञा ‘धूम्रकेतु’ है, धूम्रवर्ण है तथा मलिन पुरुषों का नाश ही प्रमुख लक्ष्य है। वास्तव में इस युग में ऐसे ही पूजन की आवश्यकता ही सर्वाधिक है। गणपति के जिस ‘विघ्नहर्ता’ स्वरूप का वर्णन किया गया है, उसीका साक्षात और प्रकट रूप है ‘धूम्रकेतु’। यह अनायास ही नहीं है कि धूम्रकेतु स्वरूप वास्तव में उनके समस्त ब्रह्माण्ड में विस्तारित होने का सूचक भी है। यह वर्ण केवल ब्रह्माण्ड में विस्तारित होने का सूचक भी है। यह वर्ण केवल तंत्रोक्त एवं उग्र स्वरूप का ही परिचायक नहीं है, उनके इस स्वरूप के वर्णन की महत्ता को सहज ही नहीं समझा जा सकता और वास्तव में यही गणपति का तेजस्वी स्वरूप है। यद्यपि परम्पराओं में गणपति को भगवान शिव एवं पार्वती के पुत्र की संज्ञा दी गई है किन्तु वास्वविकता यह है कि गणेश उनके ‘योग पुत्र’ हैं। शिव व शक्ति के गुणों का साकार रूप है। इसी कारणवश गणपति की शक्तियां, विस्तार और प्रथम पुज्य होने का गौरव सर्वोपरि रहा।

                महागणपति न केवल अपने स्वरूप में पूरी तरह से स्वतंत्र हैं वरन महागणपति को आधार लेकर ‘गाणपत्य तंत्र’ की एक पूरी पद्धति है जो किसी भी अन्य पद्धति से कम तीव्र या फलदायी नहीं है। तंत्र पद्धतियों की विशेषता होती है कि जहां मंत्र के माध्यम से किसी देव की प्रार्थना की जाती है, वहीं तंत्रोक्त पद्धति के अन्तर्गत उसकी सम्पूर्ण शक्तियों की गणपति पूजन को तंत्रोक्त ढंग से सम्पन्न करने की दशा में उन्हें ‘महागणपति’ की संज्ञा से विभूषित कर उनकी समस्त शक्तियां- गौरी, सिद्धि, बुद्धि, सरस्वती, कुबेर के साथ आवाहित एवं स्थापित कर लाभ प्राप्त करने की क्रिया सम्पन्न की जाती है।

सम्मोहन विद्या का आधार है त्राटक कर्म

श्रीराम स्वामी

                हठयोग प्रदीपिका में धौति, वस्ति, नेति, नौलि कपाल भाति और त्राटक को षटकर्म कहा है।

निरीक्षेन्निश्चलदृशा सूक्ष्म लक्ष्यं समाहितः।

अश्रुसम्पात पर्यन्त माचार्येस्राटकं स्मृतम।।

                एकाग्रचित्त होकर मनुष्य निश्चल दृष्टि से सूक्ष्म लक्ष्य को तब तक देखे जब तक अश्रुपात न होवे, इसे मत्स्येन्द्रनाथ आदि ने त्राटक कर्म कहा है।

त्राटक कर्म टकटकी लागे, पलक पलक सों मिले तागे।

नैन उधाड़े ही नित रहे, होय दृष्टि फिर शुक देव कहे।।

आँख उलटि त्रिकुटी में आनो, यह भी त्राटक कर्म पिछानो।

जैसे ध्यान नैन के होई, चरणदास पूरण हो सोई।।

                त्राटक के तीन प्रकार है। उपनिषदों में त्राटक के आन्तर, बाह्य और मध्य इस प्रकार तीन भेद किए गए हैं।

आन्तर त्राटकः- हृदय अथवा भू्र मध्य में नेत्र मूंदकर एकाग्रचित्त होकर चक्षुवृत्ति की भावना करने यानि देखने को ही आन्तक त्राटक कहते हैं। इसमें और ध्यान में बहुत समानता है। भू मध्य में त्राटक करने से आरम्भ में कुछ दिनों तक कपाल में दर्द होता है, नेत्र की भौंह में चंचलता प्रतीत होने लगती है। ऐसा लगता है कि बरौनी फड़क नहीं हो परन्तु कुछ दिनों के अध्यास के पश्चात स्थिरता आने लगती है। हृदय प्रदेश में वृत्ति की स्थिरता के लिए आन्तरिक त्राटक करने वालों को प्रतिकूलता नहीं होती है परन्तु चित्त की एकाग्रता आवश्यक है।

बाह्य त्राटकः- चन्द्रमा, किसी प्रकाशित नक्षत्र, किसी पर्वत शिखर यानि दूरस्थ लक्ष्य पर दृष्टि स्थिर करने की क्रिया  को बाह्य त्राटक कहते हैं। सूर्य पर त्राटक करने की सख्त मनाही है। सूर्य और नेत्र ज्योति में एक ही प्रकार की शक्ति होने के कारण नेत्र ज्योति सूर्य की ओर आकर्षित होकर उसमें समाहित हो जायेगी। इस प्रकार किसी दूरवर्ती लक्ष्य पर त्राटक करने की क्रिया को बाह्य त्राटक कहते हैं।

मध्य त्राटकः- काली स्याही से सफेद कागज पर ऊं कोई बिन्दु, देवमूर्ति, दीपक की लौ जो हिले नहीं, अचल रहे, स्वयं की नासिका का अग्रभाग, समीपवर्ती किसी लक्ष्य पर दृष्टि स्थिर रखने को ही मध्य त्राटक कहते हैं। सबसे सरल तरीका यह है कि दीवार पर सरसों के दाने जितना काला चिह्न बना लें, उसी पर अभ्यास करें। दृष्टि ठहराते-ठहराते चित्त समाहित और दृष्टि शक्ति सम्पन्न हो जाती है। मेस्मोरिज्म यानि सम्मोहन में जो शक्ति आ जाती है, वही त्राटक कर्म से भी प्राप्त हो जाती है।

मोचनं नेत्र रोगाणां तन्द्रादीनां कपाटकम।

यत्नस्राटकं गोप्यं यथा हाटक पेटकम।।

                अर्थात त्राटक नेत्र रोगों का हरण करने वाला है। तन्द्रा, आलस्य भाग जाते हैं। यह कर्म स्वर्ण की भरी हुई पेटी के समान छिपाकर रखने योग्य है, सम्भवतः आचार्यों ने इसके दुरुपयोग करने से रोकने के कारण ऐसा लिखा है।

त्राटक के अधिकारी कौन हैं?

                तीनों प्रकार के त्राटक करने के अधिकारी भी वात, पित्त और कफ प्रकृति अनुसार अलग-अलग हैं।

                जिस साधक की प्रकृति पित्त प्रधान हो, जिनके मस्तिष्क, नासिका या हृदय में दाह रहता हो, कोई नेत्र रोग हो, वह केवल मात्र आन्तर त्राटक करने का अधिकारी है। दूसरे त्राटक जैसे बाध्य या मध्य करेगा तो नेत्रों को हानि पहुंचने की सम्भावना है।

                जिन साधकों की वात प्रधान प्रकृति हो शुक्र की निर्बलता हो, उन्हें दूरस्थ उज्जवल लक्ष्य चन्द्रमा आदि पर त्राटक करें।

                जिन व्यक्तियों की कफ प्रधान प्रकृति हो नेत्रज्योति पूर्ण हो उन्हें मध्य त्राटक करना चाहिए।

                अम्लपित्त, जीर्ण ज्वर, विषम ज्वर, अस्थि ज्वर, यौन रोगी, पित्ताशय विकृति, तंत्रिका तंत्र दूषित हो उन्हें त्राटक नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार मानसिक चिंता, क्रोध, शोक रखने वाले, अध्ययन करने वाले, मद्यपान, मांसाहार करने वाले त्राटक के अधिकारी नहीं हैं। इस प्रकार के व्यक्ति यदि यह कर्म करते हैं तो नेत्र रोगी और उन्मत्त हो सकते हैं। जो पथ्य का पालन करते हैं, वही सिद्धि के अधिकारी होते हैं। चूंकि त्राटक कर्म भी षट्कर्म का अंग है। अतः स्थान, भोजन, आचार-विचार आदि के नियमों को मानना अत्यावश्यक है।

                स्थान रमणीक और निरापद हो।

                भोजन सात्विक हो जैसे दूध, घी, बादाम, जौ, पुष्ट और लघु पदार्थ हों।

                आहार-विहार में एकान्त सेवन, मित भाषी, साहसी और वैराग्य भी होना चाहिए।

                नियम पूर्वक योगासनों के अभ्यास से शरीर का समस्त नाड़ी समूह मृदु होने पर अभ्यास करना चाहिए। कठोर नाड़ियों को काँच के समान आघात लगते देर नहीं लगती है।

                पहले नेत्रों का व्यायाम भी कर लेना चाहिए। प्रातः काल उठकर सूर्योदय से पूर्व धीरे-धीरे दायें, बायें, ऊपर, नीचे दृष्टि घुमाने को ही नेत्रों का व्यायाम कहा गया है। इससे नेत्रों की नाड़ियां मजबूत होती हैं। तदनन्तर त्राटक करने से हानि होने की सम्भावना कम होती है।

                त्राटक के अभ्यास से नेत्रों में उष्णता बढ़ जाती है। अतः जलनेति भी करनी चाहिए। त्रिफला अथवा गुलाब जल से नेत्रों को धोना चाहिए। कब्ज करने वाले पदार्थों का भोजन में प्रयोग नहीं करना चाहिए। नेत्रों में एक बार आंसू आ जाने के बाद उस दिन दुबारा अभ्यास नहीं करना चाहिए।

                त्राटक कर्म के लिए सर्वाधिक अनुकूल समय रात्रि 2 से 5 बजे के बीच है जब बिलकुल शांत वातावरण रहता है। शांति के समय चित्त की एकाग्रता बहुत शीघ्र होने लगती है।

                नियमित रूप से त्राटक कर्म करने वाले साधक का आत्म विश्वास बहुत दृढ़ हो जाता है। दूसरों के हृदय के भाव ज्ञात होने लगते हैं। दूरस्थ स्थान पर स्थित व्यक्ति अथवा घटना के बारे में ज्ञान होने लगता है। ऐसे व्यक्ति जो दूर रहते हों, यह त्राटक सिद्धि प्राप्त व्यक्ति उन्हें संदेश भी भेज सकते हैं। व्यक्तियों को सम्मोहित करना तो इस विद्या के जानकार का मामूली काम है।

 

असाध्य रोगों के निवारण हेतु

श्री आदित्य हृदय स्रोत

                आज के भौतिक युग में मानव प्रायः किसी न किसी रोग से ग्रसित रहता है। उपचार करने परभी लाभप्राप्त नहीं हो पाता है या पूर्णतः स्वस्थ नहीं हो पाता। आदित्य सूर्य को कहा जाता है समस्त वेदों सभी उपनिषदों तथा सभी पुराणों में भगवान आदित्य को साक्षात परब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। तभी तो आदित्य को विशालता का परिचय प्राप्त हो पाना सम्भव नहीं हो सका है।

                भगवान आदित्य की विशेषता के विषय में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि आदित्य ही मंत्रमय है। आदित्य ही तीनों लोकों चौदह भुवनों का स्वामी है। आदित्य से बड़ा कोई देवता नहीं है और मुख्यतः यह समझ लो कि आदित्य ही साक्षात प्रभु है।

                विद्वानों का मत है कि सूर्य उपासना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका लाभ हाथों हाथ प्राप्त होता है। एक मुहावरा है ‘आम के आम गुठलियों के दाम’यह युक्ति आदित्य पूजन पर खरी उतरती है। भगवान सूर्य का जन्म अनुग्रह प्राप्त होते ही जन्मान्तर की दरिद्रता का अंत तो होता ही है, इस उपासना से अनायास ही देह स्वस्थ होकर देह सुख प्राप्त होने लगता है। इस उपासना को करने से मिलने वाले प्रभाव शीघ्र ही दृष्टि-गोचर होने लगते हैं और रोग, शोक, दुःख, दारिद्रयादि का अन्त हो जाता है।

                रविवार को प्रातः के समय तांबे के लोटे में जल भर करके उदाय हो रहे सूर्य को धीरे-धीरे अर्घ्य की भांति प्रदान करें। यह करके आपको लगेगा कि आपके माथे से गर्म भाप निकल कर वातावरण में विलीन हो रही है। यह प्रभाव पहली बार जलार्पण करने से होता है। माना जाता है कि भगवान शिव बहुत भोले हैं और बिना कुछ सोचे-समझे साधकों को बरदान आदि देते रहते हैं। भगवान सूर्य भी अपनी शरण में आए हुए लोगों के प्रति इतना भोलापन रखते हैं कि पहली बार में ही अपनी प्रसन्नता प्रदर्शित कर देते हैं। आदित्य पूजन एक पन्थ, दो काज की भांति, उपासना तो है ही जो कभी अन्यत्र लाभ प्रस्तुत करेगी परन्तु उपासना करते ही इसके स्पष्ट अर्थात दिखाई देने वाले और अस्पष्ट अर्थात दिखाई न देने वाले प्रभाव शीघ्र ही प्राप्त हो जाते हैं। यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता कहती है कि अंधकार से दूर रहने वाले और अन्धकार का नाश करने वाले उस प्रकाश पुंज रूपी भगवान आदित्य को पहचानों क्योंकि इसे जानकर ही तुम मृत्युलोक पर विजय प्राप्त कर पाओगे। इसके बिना मृत्यु को जीतने का अन्य कोई भी उपाय सम्भव नहीं है।

विधि-

                रविवार के दिन प्रातः काल गाय के गोबर से लीप कर स्थान को शुद्ध करना चाहिए। उसके पश्चात तांबे के लोटे में जल भरकर तथा लाल फूल, रक्त चंदन, लाल वस्त्र, गुड़, गन्ध, दीप आदि से यंत्र पूजन करना चाहिए तत्पश्चात आदित्य हृदय स्रोत का पाठ करना चाहिए।