लॉर्ड मैकाले भारतीयों को और भारतीय शास्त्रों को हेय दृष्टि से देखता था और उसने भारत में ऐसी शिक्षा पद्धति विकसित की जिसके कारण हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति नष्ट हो गई और भारतीय अपनी संस्कृति से कट गये। उसकी दी हुई भारतीय दण्ड संहिता ने भारतीय न्याय प्रणाली में सुधार तो किये परन्तु दोष अधिक उत्पन्न किये। एक बार उसने कहा था कि समस्त भारतीय साहित्य की तुलना में यूरोप की किसी अच्छी लाईब्रेरी का एक शेल्फ ही काफी है।

सत्य यह है कि भारतीय वैदिक ज्ञान अंग्रेजों की तुलना में बहुत उन्नत था और हमारा खगोल शास्त्र भी उनसे बहुत उन्नत था। हम वास्तु शास्त्र के संदर्भ में चर्चा करके बताएंगे कि लॉर्ड मेकाले की सोच कितनी घटिया थी।

1. कारखाने एवं मकान में ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव- जब हम भूमि पूजन करते हैं तो पाँच शिलाओं की स्थापना करते हैं। उन्हें कभी भी राहु मुख में नहीं रखा जाता, उन्हें राहु पृष्ठ में स्थापित किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि जब नींव का पत्थर रखा जाए तो सूर्य राहु के बहुत नजदीक नहीं हो, अन्यथा निर्माण में व बाद में कष्ट आएंगे। खगोल शास्त्र का यह सर्वश्रेष्ठ प्रयोग है जिसे कि वास्तु में आजमाया गया और मकान, दुकान और कारखानों को आपत्तियों से बचाने का विधान किया गया।

2. सूर्य वेधी और चन्द्र वेधी रचनाएँ- जब मकान या कारखाने की लम्बाई पूर्व से पश्चिम में अधिक होती है, तब वह मकान गर्मियों में अधिक गर्म रहता है और सर्दियों में ठण्डा। खगोलशास्त्र के इस ज्ञान का उपयोग इस रूप में किया गया कि पूर्व पश्चिम में लम्बे सूर्य वेधी रचना को 2 मंजिल बनाने का प्रस्ताव किया गया, जिससे कि ग्राउण्ड फ्लोर का तापमान उचित बना रहे। इसी प्रकार उत्तर - दक्षिण में अधिक लम्बाई वाले कारखानों को एक मंजिल ही रखने का प्रस्ताव किया गया, जिससे कि पूर्व और पश्चिम दोनों की धूप कारखाने को या मकान को पूरी तरह से मिलती रही। चन्द्रवेधी रचना का दूसरा उपयोग यह है कि चन्द्र रश्मियाँ भी मकान के हर भाग में समान रूप से आती रहें।

3. दक्षिण और पश्चिम का भारी रखना - जो मकान या कारखाने दक्षिण और पश्चिम में निर्माण से अधिक भारी होते हैं वे अधिक उन्नति करते हैं। इसके मूल में यह कारण बताया गया कि प्रातःकालीन सूर्य की ऊर्जा रचनाओं में सीधे-सीधे प्रवेश करें और शाम को जब सूर्य अस्त हों तो दक्षिण या पश्चिम दिशा में अधिक निर्माण होने से और उनका क्षेत्रफल अधिक होने से दोपहर बाद की धूप की सारी ऊर्जा अवशोषित कर लें और सूर्यास्त के बाद भी रात भर मकान को ऊर्जा प्रदान करते हैं।

4. देशान्तर और अक्षांश रेखाओं के समानान्तर हों मकान-कारखानें की दीवारें - वास्तु चक्र का निर्माण दस आड़ी और दस खड़ी रेखाओं से किया जाता है। इससे 9 x 9 = 81 पद का वास्तु चक्र का निर्माण होता है। इन आड़ी और खड़ी रेखाओं को देवियों का नाम दिया गया, जिससे कि धर्मभीरू भारतीय जनता से आज्ञापालन कराना आसान हो जाए। वस्तुतः निर्माण रचना में ऊर्जा के आगम और निर्गम को देशान्तर और अक्षांश रेखाओं के समानान्तर मानने की धारणा के कारण ऐसे नियम प्रस्तावित किये गये। अनुभव में भी यही आया कि वे ही व्यक्तिगत रचनाएँ या शहर बसावट सफल हुई हैं जिनमें इस नियम का पालन किया गया।

 

5. द्वार योजनाओं में शुभ और अशुभ का चयन -  प्रत्येक दिशा में आठ द्वारों की प्रस्तावना की गई। परन्तु इन 8 में से शुभ द्वारों की संख्या कम हैं और अशुभ द्वारों की संख्या अधिक है। ऋषियों ने पृथ्वी के वैद्युत चुम्बकीय परिपथ के उन भागों को तलाश कर लिया था जो शुभ या अशुभ परिणाम देते हैं। इसी तरह से उन्होंने सौर रश्मियों के उन भागों की तलाश कर ली थी जो पृथ्वी पर पड़ने के बाद शुभ या अशुभ परिणाम देते हैं। संसार के किसी भी ज्ञान से यह सर्वश्रेष्ठ उन्नत विज्ञान है, क्योंकि आइंस्टीन और न्यूटन भी इस विषय तक नहीं पहुँच पाये थे। भारतीय ऋषियों की यह खोज स्पैक्ट्रम की खोज से भी बड़ी थी, जिसका उन्होंने वास्तु चक्र में प्रयोग किया। भारतीय ऋषि दृश्यमान वर्णक्रम से भी अधिक का ज्ञान रखते थे। यह भी वैज्ञानिकों की धारणा के विपरीत प्रारंभ से ही भारतीय ऋषि प्रकाश किरणों को पदार्थ ही मानते रहे। वे सूर्य को भी अंतिम नहीं मानते थे। गणेश जी का आभामण्डल करोड़ों सूर्य के समान माना गया, यह ऋषियों के खगोल ज्ञान का परिचायक है।

6. हर तीन महीने में भूमि पूजन की जगह बदलना- इसका कारण सूर्य और राहु का कक्षा भ्रमण है और वे हर तीन महीने में तीन राशियाँ बदल लेते हैं। इस विधि से मकान-कारखानों की स्थिरता व उन भूकम्परोधी बनाये जाने की प्रक्रिया का प्रयोग है।

7. खंभों की संख्या - खंभों या स्तम्भों की एक निश्चित योजना है। कुछ संख्याएँ वर्जित कर दी गई है जैसे कि 30 य 18। इसके पीछे मूल उद्देश्य स्तम्भ योजना के माध्यम से भूकम्परोधी रचनाएँ तैयार करना है।

8. भूगर्भ ऊर्जा का प्रयोग - भूमिगत जलाशय, ढ़लान, जल निकास प्रणाली व नींव पूजन में कूर्म शिला योजना का प्रयोग भूगर्भ ऊर्जा के समुचित उपभोग को लेकर बनाये गये नियम है। ऋषियों को इतना तक पता था कि अग्निकोण का जलाशय संतान को नष्ट कर देगा।

9. शयन व्यवस्था - दक्षिण में सिर और उत्तर में पैर करके सोने की व्यवस्था इसीलिए दी गई जिससे कि पृथ्वी का दक्षिणी चुम्बकीय धु्रव मनुष्य के सिर रूपी उत्तर से समन्वय स्थापित करे और मनुष्य के पैरों को शरीर का दक्षिण मानते हुए पृथ्वी के उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव की तरफ उन्मुख रहे। कारखानों में भी बैठने की व्यवस्थाएँ इसी नियम के अनुरूप दी गई हैं।

10. इकोलॉजी - ऐसे बहुत सारे नियम है जो ग्रहों के कक्षा में भ्रमण, अंतर्ग्रहीय आकर्षण, ग्रह और नक्षत्रों के पृथ्वी पर आकर्षण प्रभाव, सूर्य चन्द्रमा के परस्पर सम्बन्ध तथा पृथ्वी पर उपलब्ध वातावरण व प्रकृति से संबंधित बहुत सारे नियमों का प्रयोग वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत किया गया है। यह सारे नियम तब गढ़ दिये गये थे जब शेष संसार जंगलों में वास करता था, कच्चा माँस खाता था, रिश्तों का आविष्कार नहीं हुआ था और समाज का विकास नहीं हुआ था। हमारी अधिकांश वैदिक शोधों को पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों ने उड़ा लिया और अपने नाम से प्रकाशित किया। ऐसी बहुत सी चोरियों का खण्डन आज सहज उपलब्ध है।

 

क्या कराती हैं ज्योतिष की महादशाएँ

ज्योतिष में महादशाएँ बड़ा महत्त्वपूर्ण विषय है। चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होते हैं उस नक्षत्र के स्वामी ग्रह की महादशा से जन्म शुरु होता है। 9 ग्रहों की 9 दशाएँ होती हैं। एक व्यक्ति मुश्किल से ही सभी ग्रहों की महादशाओं को एक जन्म में भोग पाता है, क्योंकि विंशोत्तरी दशा पद्धति में सभी 9 महादशाओं का योग 120 वर्ष होता है। 2 से लेकर 4 दशाओं का भोगना शेष रह ही जाता है। सूर्य, चन्द्र और मंगल की महादशाओं में जन्म लेने वाले जीवन में ज्यादा दशाओं को भोगते हैं। केतु में जन्म लेने वाले भी ज्यादा दशाएँ भोग लेते हैं।

चूंकि भारतीय ज्योतिष में 27 नक्षत्रों को ही उपयोगी माना गया है, इसीलिए 9 ग्रहों की 9 दशाओं की 3 आवृत्तियाँ 3 जन्मों के लिए पर्याप्त होती हैं। इससे बुद्धिमान ज्योतिषी पिछले और अगले जन्म का भी हिसाब लगाते रहते हैं।

जिस किसी ग्रह की भी महादशा जीवन में चल रही होती है, जीवन के उस काल खण्ड में उस ग्रह के गुणों के अनुसार ही परिणाम आते हैं। थोड़े बहुत अन्तर के साथ सभी ग्रन्थों में बहुत सारे परिणामों में समानता देखने को मिलती है। हम इन्हें जानने की चेष्टा करते हैं।

सूर्य  - जन्म पत्रिका में कुछ भाव अच्छे कहे गये हैं और कुछ खराब। यदि सूर्य अच्छे भावों में स्थित हों तो व्यक्ति को प्रसिद्धि मिलती है, मेहनती होता है, विजय प्राप्त करता है, सुख प्राप्त होता है, शासन की ओर से धन प्राप्ति की सम्भावनाएँ होती हैं चाहे नौकरी हो या चाहे अनुदान हो, वन एवं पहाड़ों में घूमता है, परन्तु यदि सूर्य खराब जगह हो तो इसका उल्टा भी हो जाता है। आत्म पक्ष, आत्मविश्वास में वृद्धि, क्रोध या तेजस्विता तथा शरीर में हड्डियों से सम्बन्धित परिणाम आते हैं।

चन्द्रमा - चन्द्रमा की महादशा में मन बहुत प्रसन्न रहता है। स्त्री, पुत्र, आभूषण, कृषि भूमि, जल से सम्बन्धित वस्तुओं से लाभ, अच्छा भोजन और धार्मिक कृत्य करता है। घटनाक्रम की गति तेज हो जाती है। चन्द्रमा शुक्ल पक्ष की दशमी से लेकर कृष्ण पक्ष की पंचमी तक अत्यंत बलवान रहते हैं। पूर्णिमा को तो महाबली होते हैं।

मंगल - मंगल की जब महादशा हो तो व्यक्ति अग्नि से सम्बन्धित कार्य करता है। प्रशासन में जाता है, पहले युद्ध होते थे, तो युद्ध में जाता था, परन्तु अब शासन में भाग लेता है। मंगल के स्वभाव का व्यक्ति झूठ बोलना, धोखा देना सीख जाता है। कठोर कर्म करता है। शरीर में रक्त विकार या पित्त विकार रहेंगे, घर में कम बनेगी, परन्तु खुद के कामकाज से दूसरों का भला बहुत ज्यादा होता है। शरीर पर चोट के निशान होते हैं।

बुध - गुरुओं की कृपा मिलती है, विद्वान और मित्र मिलते हैं और प्रशंसा करते हैं। वाणी का प्रयोग करके धन कमाता है। परोपकारी होता है तथा घर-परिवार में इज्जत मिलती है। बुध महादशा में धन और यश दोनों मिल सकता है। चर्म रोग बुध की देन हैं।

बृहस्पति - बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं और धार्मिक कार्य, चैरिटी के कार्य या अनुष्ठान आदि करवाते हैं। संतान प्राप्त होती है। प्रशासन से सम्मान मिलता है, वाहन सुख मिलता है, और घर में सबसे सौहार्द्ध बढ़ता है। व्यक्ति समाज में महत्त्वपूर्ण होता चला जाता है।

शुक्र - यह भोग की दशा होती है। गाड़ी, घोड़ा, रत्न, आभूषण, वस्त्र, स्त्री प्राप्ति शासन से सम्मान और घर में शुभ कार्य होते हैं। घर में बहुत सारे उपकरण आते हैं। शुक्र की महादशा अगर उत्तरार्द्ध में आए तो मूत्र विकार, किडनी, जननांगों से सम्बन्धित कष्ट जैसी समस्याएँ देते हैं। शुक्र बिगड़ा हुआ हो तो कामी बना देता है।

शनि - वात रोग देते हैं शनि। खराब लोगों को जिन्दगी में ले आते हैं। घर - परिवार में रोग और विग्रह आते हैं। अगर शनि खराब होते हैं तो धन हानि, भूमि हानि और पारिवारिक सदस्यों से वियोग करा देते हैं। परन्तु यदि शनि उच्च या स्वराशि में हैं तो निहाल भी कर देते हैं।

राहु - सरकारी लोगों से, विष से, शस्त्रों से  या अग्नि से हानि हो, संतान को कष्ट हो, निम्न वर्ग के लोग अपमान करें, बदनामी होवे तथा व्यवसाय या नौकरी पर फर्क आवे। इसके उलट यदि राहु मिथुन या कन्या में हो, वृषभ या तुला में हो या कुम्भ राशि में हो तो इन सब बातों में लाभ करा सकते हैं। अगर राहु सुपरिणाम दें तो व्यक्ति बहुत अधिक उन्नति करता है। प्रतिष्ठित हो जाता है और वैभव शाली जीवन बिताता है। कन्या, वृश्चिक या मीन राशि के राहु राजयोग दिलाते देखे गये हैं। राहु प्रारम्भ में सुख देते हैं, आखिर में दुःख देते हैं।

केतु - केतु त्वचा रोग, दाँतों के रोग, बेहोशी इत्यादि देते हैं। केतु बदनामी ला देते हैं। शत्रुओं से, अपराधियों से तथा सरकार से पीड़ा मिलती है। झूठे आरोप आते हैं। जगह छोड़नी पड़ सकती हैं और यदि केतु धनु या मीन राशि में हों तो, मेष या मकर राशि में हों, या सिंह राशि में हों तो अपार लाभ भी करवा देते हैं।

32 गणपतियों के नाम

‘श्रीतत्त्वनिधि’ ग्रन्थ में भगवान गणपति के बत्तीस नाम रूपों का जो वर्णन प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है-

1. बालगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्हस्त।

2. तरुणगणपति - रक्तवर्ण, अष्टहस्त।

3. भक्तगणपति - श्वेतवर्ण, चतुर्हस्त।

4. वीरगणपति - रक्तवर्ण, दशभुज।

5. शक्तिगणपति - सिन्दूरवर्ण, चतुर्भुज।

6. द्विजगणपति - शुभ्रवण्र, चतुर्भुज।

7. सिद्धगणपति - पिङ्गलवर्ण, चतुर्भुज।

8. उच्छिष्टगणपति - नीलवर्ग, चतुर्भुज।

9. विघ्रगणपति - स्वर्णवर्ण, दशभुज।

10. क्षिप्रगणपति- रक्तवर्ण, चतुर्हस्त।

11. हेरम्बगणपति- गौरवर्ण, अष्टहस्त, पञ्चमातङ्गमुख, सिंहवाहन।

12. लक्ष्मीगणपति - गौरवर्ण, दशभुज।

13. महागणपति - रक्तवर्ण, त्रिनेत्र, दशभुज।

14. विजयगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्हस्त।

15. नृत्तगणपति - पीतवर्ण, चतुर्हस्त।

16. विजयगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्हस्त

17. एकाक्षरगणपति - कनकवर्ण, षड्भुज।

18. वरगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्बाहु।

19. त्र्यक्षगणपति - स्वर्णवर्ण, चतुर्बाहु।

20. क्षिप्रसादगणपति - रक्तचन्दनाङ्कित, षड्भुज।

21. हरिद्रागणपति - हरिद्रावर्ण, चतुर्भुज।

22. एकदन्तगणपति- श्यामवर्ण, चतुर्भुज।

23. सृष्टिगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज।

24. उद्दण्डगणपति - रक्तवर्ण, द्वादशभुज।

25. ऋणमोचनगणपति - शुक्लवर्ण, चतुर्भुज।

26. ढुण्ढिगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज।

27. द्विमुखगणपति - हरिद्वर्ण, चतुर्भुज।

28. त्रिमुखगणपति - रक्तवर्ण, षड्भुज।

29. सिंहगणपति - श्वेतवर्ण, अष्टभुज।

30. योगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज।

31. दुर्गागणपति - कनकवर्ण, अष्टहस्त।

32. संकटष्टहरगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज।

धनु राशि और आप

आपका व्यक्तित्व

धनुराशि चक्र की नवीं राशि है। यह अग्नि तत्व राशि है। इस राशि के व्यक्तियों में अग्नि का पोषक रूप दिखाई देता है। यह अग्नि इन को ज्ञान की ओर ले जाती है तथा अत्यधिक जोखिम उठाने के लिए प्रेरित करती है। अतः ये व्यक्ति बहुत ही उद्यमी होते हैं और नित प्रयोगों एवं खोजों में लगे रहते हैं। इन प्रयोगों और खोजों को पूरा करने के लिए अग्नि का ताप इन्हें दूर-दूर तक ले जाता है। मानव शक्ति का भरपूर प्रयोग करना और करवाना इस राशि के व्यक्ति बखूबी जानते हैं तथा सतत क्रियाशील रहते हैं, परन्तु पोषण एवं ताप देने वाली अग्रि जब सत्य वचनों के रूप में इनके मुख बाहर आती है तो ये व्यक्ति अत्यधिक क्रूर हो जाते हैं तथा वस्तु को जलाकर भस्म करने की प्रवृत्ति भी अपना लेते हैं।

यह एक द्विस्वभाव राशि है। इस राशि के व्यक्ति भी दोहरे स्वभाव वाले होते हैं। कभी संवेदनशील व हास्य-व्यंग वाणी प्रयोग करने वाले और कभी सौम्य तो कभी अत्यधिक क्रूर हो जाते हैं।

इस राशि के स्वामी देवगुरु बृहस्पति हैं। इस राशि के व्यक्ति भी न्याय एवं शांतिप्रिय होते हैं, ईमानदारी एवं मानवीय मूल्यों को बहुत महत्व देते हैं। गुरु की भांति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होते हैं और उन्हें निष्ठा के साथ पूरा करते हैं। जिस प्रकार कोई गुरु अपने शिष्यों के लिए हितैषी और मित्र दोनों ही होते हैं, ठीक इसी प्रकार देवगुरु बृहस्पति की भांति इस राशि के व्यक्ति भी सबके हितैषी होते हैं।

गुरु ज्ञान के कारक हैं। इस राशि के व्यक्ति भी ज्ञान का अतुल भंडार लिए होते हैं। अनेकों भाषाओं, गुप्त विद्याओं और दर्शन का ज्ञान भी इस राशि के व्यक्तियों को होता है। इस राशि के व्यक्तियों को अपनी योग्यताओं पर पूर्ण एवं अटूट विश्वास होता है। ये किसी भी कार्य को असंभव नहीं मानते। मानवीयता एवं मानव हित इनके लिए सर्वोपरि होते हैं। मानव हित के साथ ही यह व्यक्ति सिद्धांतों एवं नीतियों का पालन दृढ़ता से करते हैं। सिद्धांतों के पालन   में किसी तरह का समझौता करना इन्हें पसंद नहीं होता, इसलिए इनके स्वभाव में जिद्दीपन आ जाता है तथा ज्ञान के अतुल भंडार का दंभ भी कभी-कभी इनके व्यवहार में देखने को मिलता है।

इस राशि का चिह्न धनुर्धर है जो आधा मनुष्य और आधा अश्वाकार है। धनुर्धर की ही भांति इस राशि के व्यक्ति भी केवल अपने निर्धारित लक्ष्यों पर निगाहें रखते हैं और उन्हें पाने की चेष्टाएं लगातार करते रहते हैं। धनुर्धर का लक्ष्य एवं अश्व की गति दोनों मिलकर इस राशि के व्यक्तियों को इन्द्रधनुषी कामनाओं और आशाओं की ओर ले जाती है, जिन्हें पूर्ण करना उनका उद्देश्य होता है। इन्द्रधनुषी कामनाएं ज्ञान की शाखाओं से जुड़ी होती है।

धनु राशि शरीर में जंघा, ऊरू तथा कूल्हों का प्रतिनिधित्व करती है। इस राशि में मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र आते हैं, अतः इस राशि के व्यक्तियों के जीवन में इन नक्षत्रों के स्वामी देवताओं केतु, शुक्र एवं सूर्य की महादशाएं आ सकती हैं।

धनु राशि के व्यक्तियों को अपने स्वभाव में आए जिद्दीपन को छोड़ने का प्रयास करना चाहिए।

जैमिनी ऋषि ने कहा है कि शुभ होने पर धनु चर राशि दशा में उत्थान होता है, अशुभ होने पर पतन या दुर्घटना।

 

वैदिक विदुषी गार्गी

गर्गवंश में एक वचक्नु नाम के महर्षि थे, उन्हीं की  ब्रह्मवादिनी पुत्री का नाम वाचक्रवी था। गर्ग गोत्र में उत्पन्न होने  के कारण वे गार्गी नाम से सर्वत्र प्रसिद्घ हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् में इनका याज्ञवल्क्य जी के साथ बडा ही सुन्दर शास्त्रार्थ आता है। एक बार महाराज जनक ने श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी की परीक्षा के निमित्त एक सभा की और एक सहस्र सवत्सा सुवर्ण की गौएँ बनाकर खड़ी कर दीं। सबसे कह दिया- च्जो ब्रह्मज्ञानी हों वे इन्हें सजीव बनाकर ले जाएं।ज् सबकी इच्छा हुई, किन्तु आत्मशघा के भय से कोई उठा नहीं। तब याज्ञवल्क्य जी ने अपने एक शिष्य से कहा- च्बेटा! इन गौओं को अपने यहाँ हाँक ले चलो।ज्

इतना सुनते ही सब ऋषि याज्ञवल्क्य जी से शास्त्रार्थ करने लगे। भगवान याज्ञवल्क्य जी ने सबके प्रश्नों का यथाविधि उत्तर दिया। उस सभा में ब्रह्मवादिनी गार्गी भी बुलाली गयी थीं। सबके पश्चात् याज्ञवल्क्य जी से शास्त्रार्थ करने वे उठीं। उन्होंने पूछा-भगवन्! ये समस्त पार्थिव पदार्थ जिस प्रकार जल में ओतप्रोत हैं, उस प्रकार जल किसमें ओतप्रोत है?

याज्ञवल्क्य -          जल वायु में ओतप्रोत है।

गार्गी       -              वायु किस में ओतप्रोत है?

याज्ञ.       -              वायु आकाश में ओतप्रोत है।

गार्गी       -              अन्तरिक्ष किसमें ओतप्रोत है?

याज्ञ.       -              अन्तरिक्ष गन्धर्वलोक में ओतप्रोत है।

गार्गी       -              गन्धर्वलोक किसमें ओतप्रोत है?

याज्ञ.       -              गन्धर्वलोक आदित्यलोक में ओतप्रोत है।

गार्गी       -              आदित्यलोक किसमें ओतप्रोत है?

याज्ञ.       -              आदित्यलोक चन्द्रलोक में ओतप्रोत है।

गार्गी       -              चन्द्रलोक किसमें ओतप्रोत है?

याज्ञ.       -              नक्षत्रलोक में ओतप्रोत है।

गार्गी       -              नक्षत्रलोक किसमें ओतप्रोत है?

याज्ञ.       -              देवलोक में ओतप्रोत है।

गार्गी       -              देवलोक किसमें ओतप्रोत है?

याज्ञ.       -              प्रजापति लोक में ओतप्रोत है।

गार्गी       -              प्रजापतिलोक किसमें ओतप्रोत है?

याज्ञ.       -              ब्रह्मलोक में ओतप्रोत है।

गार्गी       -              ब्रह्मलोग किसमें ओतप्रोत है।

तब याज्ञवल्क्य जी ने कहा - च्गार्गी! अब इससे आगे मत पूछो।ज् इसके बाद महर्षि याज्ञवल्क्यजी ने यथार्थ सुख वेदान्त तत्त्व समझाया, जिसे सुनकर गार्गी परम सन्तुष्ट हुई और सब ऋषियों से बोली-च्भगवन्! याज्ञवल्क्य यथार्थ में सच्चे ब्रह्मज्ञानी हैं। गाएँ ले जाने का जो उन्होंने साहस किया वह उचित ही था।ज्

                गार्गी परम विदुषी थीं, हमारे देश की एक महामूल्यवान् रत्न थीं। वे आजन्म ब्रह्मचारिणी रहीं!