बृहस्पति : वित्त, बैंक, स्टॉक एवं शेयर

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया

बृहस्पति को ज्योतिष में बहुत सारे विषयों को प्रभावित करने वाला माना जाता है। वे देवगुरु हैं और ग्रहमण्डल में उन्हें स्थान प्राप्त है। वे ज्ञान-विज्ञान के स्वामी हैं तथा वैदिक कर्मकाण्ड व यज्ञ के प्रेरक हैं। इसके अलावा उन्हें वित्त, बैंकिंग प्रणाली के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियों के लिए भी जाना जाता है। जब - जब बृहस्पति अच्छी राशियों में होते हैं, वे अच्छे परिणाम दे जाते हैं परन्तु जब वे खराब राशियों में होते हैं तो खराब परिणाम भी दे जाते हैं। परन्तु यह कहना कि हमेशा ही ऐसा होता है, सही नहीं है। ज्योतिषियों को भी पसीना आ जाता है जब इसका उलट देखते हैं। उदाहरण के लिए 12 मार्च 2020 को शेयर बाजार के इतिहास की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई और निवेशकों को 11 लाख करोड़ का नुकसान हुआ। अब आश्चर्यजनक रूप से उस दिन बृहस्पति धनु राशि में थे और धनु ही नवांश में थे, तो इस बड़ी गिरावट का फायदा भी बृहस्पति ने किसी न किसी को दिया ही होगा। हमें ध्यान रखना चाहिए  कि रुपया नया पैदा नहीं होता। एक जेब से निकलकर दूसरी जेब में जाता है।

भारतीय स्टॉक मार्केट में कई क्रैश देखे हैं। 1992, 2004, 2007, 2008 और 2015-16 अच्छे नहीं रहे। 1992 में बृहस्पति सिंह राशि में थे, 2004 में बृहस्पति फिर सिंह राशि में थे, 2007 में बृहस्पति वृश्चिक राशि में थे, 2008 में धनु राशि में थे और 2015 में अपनी उच्च राशि में थे। 12 मार्च, 2020 को ऐतिहासिक गिरावट आई, जिसमें 11 लाख करोड़ से अधिक का नुकसान निवेशकों का हुआ। तब बृहस्पति धनु राशि में थे।

वॉल स्ट्रीट, जो कि न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज की जगह है, में 1929 में शेयर मार्केट ध्वस्त हो गया था। स्टॉक मार्केट के ध्वस्त होने के बाद बाजार महामंदी में प्रवेश कर गया। 24 अक्टूबर 1929 (वृषभ राशि में वक्री गुरु) और इससे पहले 17 मई, 1901 में बृहस्पति धनु राशि में वक्री थे। अक्टूबर, 1907 में बृहस्पति पुनः अपनी उच्च राशि में थे। 1937 में पुनः बृहस्पति धनु राशि में थे, तब महान मंदी आई।

इस विश्लेषण से एक बात समझ में आती है कि चाहे भारतीय बाजार हो या चाहे विदेशी बाजार हो बृहस्पति जब शक्तिशाली होते हैं, तब बड़े क्रैश नजर में आए। वॉल स्ट्रीट में 24 अक्टूबर, 1929 जो कि  Black Thursday के नाम से जाना जाता है तथा 29 अक्टूबर, जो Black TuesdayU के नाम से जाना जाता है, इन चार दिनों में बाजार तबाह हो गया। तब बृहस्पति वृषभ राशि में वक्री थे , परन्तु नवांश कुण्डली में उच्च राशि में थे।

2008 में स्टॉक मार्केट क्रैश हुआ, तब भी बृहस्पति धनु राशि में वक्री थे। नुकसान इतना ज्यादा हुआ कि 87 लाख नौकरियों का नुकसान हुआ और अमेरीकी सरकार को दिवालिया कम्पनियों को बचाने के लिए कदम उठाने पड़े। 1992 के शुरू में भी हर्षद मेहता स्कैम के समय सिंह राशि में वक्री बृहस्पति थे और वर्गोत्तम थे और अपनी राशि धनु को अपनी दृष्टि से शक्तिशाली बना रहे थे। यह अजीब बात है कि अधिकांश शेयर मार्केट के पतन में शक्तिशाली  बृहस्पति की भूमिका रही है। धनु राशि जब-जब शक्तिशाली हुई या बृहस्पति वक्री होकर शक्तिशाली हुए, मार्केट क्रैश की स्थितियाँ बन गई। वित्तीय संस्थानों के स्वामी बृहस्पति क्या शक्तिशाली होने पर लाखों लोगों को एक साथ कंगाल बना देते हैं? अब एक अन्य तथ्य पर भी विचार करते हैं। 1992 में शनि मकर राशि में थे और 2020 में भी मकर राशि में थे। अगर वॉल स्ट्रीट के अमेरिकन शेयर बाजार के ध्वस्त होने की घटना को देखें तो उस समय शनि शक्तिशाली बृहस्पति के साथ-साथ स्वयं धनु राशि में वक्री होकर बैठे थे।

2004 में शनि मिथुन राशि में रहकर धनु राशि को पीड़ित कर रहे थे। 2007 में शनि अपनी राशि मकर को शक्तिशाली कर रहे थे। 2015-2016 में शनि की भूमिका इतनी नहीं थी परन्तु बृहस्पति अपनी उच्च राशि में थे, परन्तु मार्च 2020 में बृहस्पति और शनि धनु और मकर राशि दोनों को ही समृद्ध कर रहे थे। दोनों अपनी-अपनी राशियों में थे।

इन कुछ मामलों के अलावा मैंने सैंकड़ों और घटनाओं का विश्लेषण किया है। इससे सर्वेक्षण के आधार पर निम्न ज्योतिष निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं जो कि आगे शोध कार्य का मार्ग प्रशस्त करते हैं-

 

1. जब-जब धनु राशि और मकर राशि पीड़ित हुई हैं या समृद्ध हुई है, संसार में बड़ी घटनाएँ आई हैं।

2. शेयर मार्केट या आर्थिक गतिविधियों में गिरावट का कारण धनु राशि या बृहस्पति का ग्रहगोचर के हिसाब से शक्तिशाली होना है और संसारव्यापी घटनाएँ लाता है।

3. शनि की राशि मकर का और शनि का शक्तिशाली होना आर्थिक मामलों में बृहस्पति ग्रह के या धनु राशि के उत्प्रेरक का काम करता है।

4. अगर ये दोनों ग्रह ही शक्तिशाली हो जाएं तो घटनाएँ बड़ा मोड़ लेती हैं और उनका दायरा अर्थ जगह की उथल-पुथल से कहीं और भी अधिक व्यापक हो जाता है। उदाहरण के तौर पर दिसम्बर, 2019 के आखिरी त्रैमास में धनु राशि में ही बृहस्पति और शनि स्थित थे, जिसके कारण कोरोना जैसी महामारी शुरू हुई और पूरे विश्व की आर्थिक बर्बादी हुई और लाखों लोगों की मृत्यु हुई।

 इसी स्तम्भ में 15 जून को हम शनि और गुरु के एक साथ वक्री होने को लेकर यह लिख चुके हैं कि यह अन्तर्राष्ट्रीय और इतिहास बनाने वाली घटनाएँ जन्म देते हैं । अफगानिस्तान की घटना को इस संदर्भ में देखा जा सकता है, परन्तु बात यहीं तक सीमित नहीं रहेगी, नवम्बर से पहले-पहले आर्थिक जगत में बड़ी उथल-पुथल आना सम्भावित है, क्योंकि बृहस्पति और शनि पुनः उस राशि को शक्तिशाली बना रहे हैं, जिसने अब तक संसार में कई उपद्रव दिये हैं।

 

सगोत्र विवाह करना वर्जित क्यों?

ज्योति शर्मा

विवाह में गोत्र मिलान एक महत्वपूर्ण विषय है। यह अद्भुत व्यवस्था विश्व की किसी भी संस्कृति में देखने को नहीं मिलती। पुराणों व अन्य ग्रंथों के अनुसार पिता की सात पीढ़ियों व माता की पंाच पीढ़ियों के गोत्रों में न हो वही लड़का-लड़की विवाह के लिए श्रेष्ठ हैं।

गोत्र का अर्थ होता है कुल या वंश जो हमें अपनी पीढ़ियों से जोड़ता है। एक ही गोत्र के लोगों के बीच पारिवारिक रिश्ता होता है। हिन्दू धर्म में एक ही गोत्र के लड़का-लड़की भाई-बहन माने जाते हैं, इसी कारण विवाह में गोत्र का मिलान एक महत्वपूर्ण प्रथा है। प्राचीन काल से ही चली आ रही गोत्र मिलान की प्रथा अब धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है।

महाकवि कालिदास जी द्वारा रचित उत्तर कालामृत में कर्म-काण्ड खण्ड में इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। सर्व प्रथम गोत्र प्रवर एवं सपिण्डता शब्दों की परिभाषा जानना आवश्यक है। सृष्टि की रचना के समय ब्रह्माजी ने सभी ऋषियों को सृष्टि के विकास का कार्य सौंपा। अतः जो जिस ऋषि का वंशज है उन्हें उन्हीं के गोत्र से जाना जाएगा, जैसे- भारद्वाज, गौतम, कश्यप, वशिष्ठ, अत्रि, अंगिरस, भृंग, कुत्स। इन आठ ऋषियों के गोत्र के रूप में कुछ अन्य ऋषियों के नाम जिन्हें हम उपऋषि भी कह सकते हैं, इन्हें प्रवर भी कहा गया है।

हमारे वैदिक ऋषि-मुनि हर पक्ष से परिचित थे। विज्ञान के दृष्टिकोण से सगोत्र विवाह अनुचित हैं, क्योंकि एक ही गोत्र में या कुल में विवाह करने पर संतान आनुवांशिक दोषों के साथ पैदा होती है। यदि सगोत्र विवाह होता है तो दम्पत्तियों में प्राथमिक बंध्यता, संतानों में जन्मजात विकलांगता और मानसिक दोष, साथ ही मृत शिशु का जन्म, गर्भकाल में ही मृत्यु व हृदयविकार आदि दोष देखे गए हैं। किसी वंश में जेनेटिक, मानसिक बीमारी हो तो उस वंश में भी विवाह नहीं करना चाहिए। पश्चिमी देशों में विवाह मिलापक तो नहीं होते परंतु रक्त जांच में आर एच फैक्टर देखा जाने लगा है।

नई पीढ़ी अपने आप इन्टरनेट से मिलान कर लेती है और गोत्र का विचार पीछे छूट जाते हैं। इन दिनों चार गोत्र बचाने की परम्परा भी क्षीण पड़ गई है। मुश्किल से दो गोत्र बचाये जा रहे हैं। कहीं- कहीं तो केवल एक गोत्र ही बचा रहे हैं। इससे आगे चलकर आनुवांशिक दोष आ जाएंगे।

हमें हमारी आने वाली पीढ़ी गुणी व प्रभावशाली चाहिए तो कम से कम स्वयं का, माता का, दादी का व नानी के गोत्र का मिलान तो करना ही चाहिए। महान ऋषि-मुनियों का मानना था कि विवाह दूर के गोत्रों में ही उत्तम होता है। ऐसे दाम्पत्य की संतानें गुणी व प्रभावशाली होती हैं।

 

 

 

विवाह में विलम्ब के कारणों का आकलन

     विवाह के समय की समस्या पर हमारा दृष्टिकोण चतुष्कोणीय है।

1. पहले हम जन्मकुण्डी का विश्लेषण करते है कि वह निम्नलिखित में से किस वर्ग के अंतर्गत आती है-

अ. विवाह की सामान्य आयु

     ब. विलम्ब से विवाह का मामला

     स. अधिक विलम्ब से विवाह का मामला

     द. लगभग विवाह न होने की स्थिति पर विलम्ब

2. विवाह के समय गोचर कर रहे ग्रहों का विचार ग्रहों के संयुक्त गोचर की चतुष्कोणीय योजना इस प्रकार है -

1.    अ. शनि व बृहस्पति का गोचर

ब. बृहस्पति का गोचर

स. मंगल का गोचर

द. सप्तमेश आदि का गोचर

2. विंशोत्तरी दशा के प्रयोग से हमें पता चलता है -

     अ. विवाह की महादशा

ब. विवाह की अंतर्दशा

     स. विवाह की प्रत्यंतरदशा

3. सप्तांश वर्ग का उपयोग।

4. नवांश वर्ग पर लगभग होने वाली महादशा/अतंर्दशा/प्रत्यंतर दशा।

विचारणीय विषय  

     इस शोध पत्र में विचारणीय विषय यह है कि जन्मपत्री किस श्रेणी में आती है। सामान्य विवाह के मामले अलग कर लेगें और केवल विलम्ब से विवाह, अति विलम्ब से विवाह तथा ऐसे मामले जिनमें विवाह तो हो गया है किन्तु उस उम्र में जिसे नकारात्मक कहा जा सकता है, को लेगें। क्योंकि बहुत अधिक अवस्था की आयु के विवाह को सामान्य विवाह की श्रेणी में नहीं लिया जा सकता है।

विवाह के लिए आधार वर्ष का निर्धारण

विवाह के आधार वर्ष के निर्धारण में कुछ संशोधन किये जा सकते है देश से देश, समाज से समाज और परिवार से परिवार में भिन्न-भिन्न होते है। हमारे उदेश्य के लिये हमने निम्नलिखित निर्धारण किये हैं- जिन्हें दैवज्ञ द्वारा अपने अनुभव और आवश्यकता के अनुसार घटाया-बढाया जा सकता है।

तालिका

 

1940 से पूर्व

1940-60 के बीच

1960 के बाद

1965 के बाद

1970 के बाद

लड़कियां

13 से 15

16 वर्ष

18 वर्ष

20 वर्ष

25 वर्ष

लड़के

15 से 17

18 वर्ष

20 वर्ष

22 वर्ष

27 वर्ष

 

विलम्ब के कारण

1. शनि का पहले और सप्तम भाव में होना।

2. चंद्रमा से भी कुज दोष होना।

3. सूर्य का 1, 7 व 8 भाव में होना।

4. शुक्र का मिथुन, सिंह या तुला में

5. पीडित या अस्त शुक्र

6. वक्री बृहस्पति या शनि

7. सप्तमेश और अष्टमेश का परिर्वतन, दोनो का पीडित होना।

8. षष्ठेश का पहले या सप्तम भाव से सम्बंध।

9. लग्नेश सप्तम में या सप्तमेश लग्न में।

10. पाप ग्रह 6 या 8 वें भाव में।

11. द्वितीय, सप्तम, अष्टम और 12 वें भावों और उनके स्वामियों का पीडित होना  

टिप्पणी : हमारा अनुभव है कि उपर्युत्त सिद्धान्त जो बाद में वैवाहिक मत भेद के कारण बनते हैं वही विवाह पूर्व के जीवन में विवाह के विलम्ब के कारण बनते है। प्राकृतिक भचक्र की/तुला, वृश्चिक और मीन राशियों के पाप प्रभाव पर विचार करना लाभदायक रहेगा। 

गणना : उपरिलिखित बिन्दुओं का योग करके उसमें दो का भाग देकर अपने जो आधार वर्ष लिया गया है- उसमें जोड दीजिए। अब विवाह के समय के लिये दशा का प्रयोग कीजिए। फिर बताये अनुसार गोचर को लागू कीजिए।

गोमुखी एवं सिंहमुखी भूखण्ड

आजीविका का साधन जुटाने के पश्चात मानव का एकमात्र स्वप्न अपने लिए आवास बनाना होता है। इस स्वप्न को साकार रूप देने के मार्ग में अनेकों बाधाओं एवं भ्रांतियों से जूझता है।

भ्रांतियां भूखण्ड खरीदे जाने को लेकर ही अधिक देखने व सुनने में आती हैं। भूखण्ड गोमुखी है अतः निवास हेतु श्रेष्ठ है, ऐसी लोगों की सामान्य धारणा होती है तथा सिंह/नाहरमुखी है तो व्यावसायिक उपयोग के लिए श्रेष्ठ है जबकि वास्तविक तथ्य कुछ और ही है। वास्तु नियमों के अनुसार वर्गाकार अथवा आयताकार भूखण्ड ही मान्य होता है एवं भूखण्ड में किसी भी प्रकार का विस्तार अथवा कटान वास्तु दोष माना जाता है। (जिसमें विस्तृत ईशान एक अपवाद है।) गोमुखी भूखण्ड जिसे अच्छा माना जाता है, यदि इसकी विवेचना दिशाओं के आधार पर करें तो आश्चर्यजनक तथ्य सामने आएंगे।

 

यह गोमुख भूखण्ड है तथा उत्तरमुखी है। इस भूखण्ड का ईशान (उत्तर-पूर्व) एवं वायव्य (उत्तर-पश्चिम) कटा हुआ है। जिसके परिणामस्वरूप परिवार के सदस्यों में मतैक्य का अभाव देखने में आएगा तथा गृहस्वामी/गृहस्वामिनि मानसिक तनाव को झेलेंगे, स्ति्रयों को आजीविका अर्जित करनी पड़ेगी तथा धनहीनता भी बनी रहेगी। वायव्य कटा होने के कारण धनहीनता के साथ-साथ भयंकर दुर्घटनाओं का, सरकारी प्रकोप का तथा कभी-कभी असमय मृत्यु भी उस घर में आ सकती है।

 

यह दक्षिणमुखी भूखण्ड है तथा गोमुखी होते हुए भी अशुभ है क्योंकि इसके आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) व नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) कोण कटे हुए है। नैऋत्य कटा हुआ होने से गृहस्वामी का आधिपत्य उसकी अन्य सम्पत्तियों पर से भी जाता रहेगा तथा वह सम्पत्ति को बेचने के लिए बाध्य हो जाएगा, समाज में प्रतिष्ठा नष्ट प्रायः होती दिखाई देगी तथा धनहानि लगातार होती रहेगी।

आग्नेय कटा होने से धनहानि, मानसिक उद्वेग व अशांति का वातावरण झेलने के साथ ही गृहस्वामी अपने ही लोगों में विश्वासपात्र नहीं रह पाएगा एवं सदैव अविश्वास झेलेगा।

 

उपर्युक्त भूखण्ड का ईशान (उत्तर-पूर्व) तथा वायव्य (उत्तर-पश्चिम) कोण दोनों ही अधिक विस्तार लिए हुए हैं। यद्यपि बढ़ा हुआ ईशान सम्पन्नता देगा किन्तु बढ़ा हुआ वायव्य उस संपन्नता व धन को साथ ही साथ समाप्त भी करता रहेगा, लोगों से शत्रुता बढ़ेगी, कानूनी विवाद बने रहेंगे अर्थात आय कम, व्यय अधिक की स्थिति रहेगी।

 

इस भूखण्ड का आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) व नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) विस्तार लिए हुए है।

विस्तृत आग्नेय आपसी मतभेद उत्पन्न करेगा, धन संबंधी विवाद रहेंगे तथा व्यावसायिक संबंधों में भी अविश्वास पनपेगा। विस्तृत नैऋत्य निरंतर धनहानि का कारण है, समाज में अपमानजनक स्थिति तथा संतान की तरक्की में बाधक व कभी-कभी संतान नाश का भी कारण बन जाता है।

उपर्युक्त विवेचन यह स्पष्ट करता है कि भूखण्ड के शुभत्व-अशुभत्व को लेकर जो भ्रांतियां हैं, वह गृहस्वामी के लिए घातक हो सकती है। अतः भूखण्ड का चयन करते समय ध्यान रखें कि वर्गाकार अथवा आयताकार भूखण्ड ही लें।