हमारी भारतीय ज्योतिष 2 अवधारणाओं पर टिकी है। एक, सांख्य दर्शन के सिद्धान्त तथा दूसरी, वेदान्त के सिद्धान्त।

महर्षि पराशर ने वृहत्त पाराशर होराशास्त्र लिखा जिसका प्रथम अध्याय ही सांख्य दर्शन की धारणाओं पर आधारित है। वे सांख्य दर्शन प्रणीत सत, तम और रज में विक्षोभ होने से जगत की उत्पत्ति बताते हैं। जिस तत्त्व का आधिक्य होगा वे ही लक्षण जीव जगत में प्रधान होंगे। ऋषि पराशर जीवांश और परमात्मांश शब्दों का उल्लेख करते हैं। जीवांश से उनका तात्पर्य संचित कर्म हैं, जो जितना अधिक होंगे, उतना ही अधिक योनि पतन होता चला जायेगा। जीवांश जितना कम होता चला जायेगा अर्थात् कर्मक्षय जितना अधिक होता चला जायेगा, प्राणी का परमात्मांश बढ़ता चला जायेगा, जो कि पूर्णावतार श्रेणी तक पहुँच सकता है। वे भगवान राम और कृष्ण को पूर्णावतार मानते हैं।

उन्होंने जिस अव्यक्त आत्मा विष्णु को अनादि और प्रभु माना है, उसके लिए कहते हैं कि वह निर्गुण होते हुए भी त्रिगुणों से युक्त हैं और संसार को रचाने वाले सर्वशक्तिमान हैं। एक श£ोक में वह कहते हैं कि भगवान वासुदेव श्रीशक्ति से सहित होकर विष्णु रूप में जगत का पालन करते हैं, भू-शक्ति से युक्त होकर ब्रह्मरूप हो जाते हैं और तीनों लोकों की सृष्टि करते हैं और जब नील शक्ति से युक्त शिव शक्ति हो जाते हैं तो प्रलय और विनाश करते हैं।

श्रीशक्त्या सहितो विष्णुः सदा पाति जगत्त्रयम्।

भूशक्त्या सृजते ब्रह्मा नीलशक्त्या शिवोऽत्ति हि।।

उनके अनुसार सभी जीवों में किसी में जीवांश अधिक होता है तो किसी में परामात्मांश अधिक होते हैं। सूर्य, आदि सभी ग्रह अधिक परमात्मांश के हैं और इनकी भी जो लक्ष्मी आदि शक्तियाँ होती हैं उनमें परमात्मांश अधिक मिलता है। पाराशर ने राम, कृष्ण, नृसिंह और वराह इन चारों को पूर्णावतार माना है और बाकि सभी अवतारों में परमात्मांश थोड़ा कम होकर जीवांश हो गया है। इस मत के अनुसार सूर्य से राम का, चन्द्रमा से कृष्ण का, मंगल से नृसिंह का, बुध  से बुद्ध का, वृहस्पति से वामन का, शुक्र से परशुराम का, शनि से कूर्मावतार, राहु से वराह का और केन्तु से मीन का अवतार हुआ है। यह आश्चर्यजनक है कि जिस राहु से सब इतना डरते हैं उससे वराह का सम्बन्ध जोड़ा गया है। क्या राहु इतने कल्याणकारक हैं?

तो गणेश जी क्या हुए?

गणेश जी को करोड़ों सूर्य की आभा वाला बताया गया है। अगर सूर्य से भगवान राम का अवतार है तो गणेश जी का दर्जा तो बहुत ऊँचा होना चाहिए। फिर जिन्हें भगवान की संज्ञा है, वे तो करोड़ों सूर्य से भी बड़े हुए। इसमें भ्रमित होने जैसी कोई बात नहीं है, क्योंकि जिन्हें हम अवतार कहते हैं वे अपनी मूल शक्ति से कुछ अंश लेकर ही एक छोटे अवतार के रूप में आते हैं और बाद में चले भी जाते हैं। ये सभी अवतार कोई विशेष कार्य करने ही पृथ्वी पर आते हैं।

क्या अन्य प्राणी जगत के भगवान नहीं होते?

ऐसा प्रतीत होता है कि धर्मग्रन्थों में अन्य योनियों के पशु-पक्षियों के भगवान मानव निर्मित भगवान ही होते हैं। क्योंकि अगर पशु-पक्षियों के स्वरूप को लेकर किसी देवता का स्वरूप दिखाया गया है तो उसमें मानव शरीर जरूर दिखाई देगा। वस्तुतः कश्चप ऋषि की 13 पत्नियों से ही आज का समस्त जीव जगत उत्पन्न हुआ है। उनकी पत्नी अदिति से देवता, दिति से राक्षस, दनु से दानव, अरिष्टा से गंधर्व, सुरसा से विद्याधर, खसा से यक्ष और राक्षस, सुरभि से चौपाये और 2 खुर वाले पशुओं का जन्म हुआ। विनता से गरुड़ और अरुण हुए। ताम्रा ने शिकारी पक्षियों को जन्म दिया। क्रोधवशा से बाघ आदि हिंसक जीव हुए। इरा से वृक्ष, लता आदि वनस्पतियों का जन्म हुआ। कद्रू से सर्प हुए। मुनि से अप्सराओं ने जन्म लिया। इस तरह से बहुत सी रानियों से जो जीव जन्तु उत्पन्न हुए, वे आज पृथ्वी पर छाये हुए हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण अदिति थी जिनसे 12 आदित्य उत्पन्न हुए। दूसरी पत्नी दिति से हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र हुए और सिंहिका नाम की पुत्री हुई। राहु इसी सिंहिका के पुत्र हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार इन्हीं दिति के गर्भ से 49 मरुद्गणों का भी जन्म हुआ। साँप, बिच्छू जैसे विषैले प्राणी भी कश्यप की ही संतान हैं।

भारतीय वाङ्गमय के साधारण अध्ययन से तो ऐसा लगेगा कि मनुष्यों ने अन्य प्राणियों के रूप वाले भगवानों को या अन्य प्राणियों को अपने भगवान रचने का अवसर ही नहीं दिया। परन्तु इस धारणा का खण्डन तब हो जाता है जब मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, वराह अवतार और नृसिंह अवतार की कथा पुराणों में पढ़ते हैं। ऐसा लगता है कि वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने जिस विकासवाद का सिद्धान्त दिया है, जिसके अनुसार हम सभी के पूर्वज एक ही हैं और धीरे-धीरे विकास होते हुए सृष्टि में इतने सारे जीव -जन्तु होते गये, जिनके अलग-अलग हो जाने का आधार विकास मॉडल पर आधारित है। उन्होंने यह भी कहा कि जो श्रेष्ठ होगा, वही जीवित रहेगा। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह विचार उन्होंने भारतीय पुराणों से उठाया है। जब पृथ्वी के चहुँओर जल ही जल था, तब समुद्र में बहुतायत से रहने वाली मछलियों के प्रतिनिधि रूप में भगवान ने मत्स्य अवतार लिया, उस समय अन्य प्राणियों की कल्पना नहीं थी। जब प्राणीजगत का और विकास हुआ और कछुए आदि की प्रजातियाँ बहुतायत से आ गईं, तो भगवान ने कूर्म के रूप में अवतार लिया। कूर्मावतार के समय जिन देवता और राक्षसों की चर्चा पुराणों मे आती है, वे देवयोनि में थे और उनका भौतिक अस्तित्व नहीं था। भौतिक जगत में तो उस समय मत्स्य और कूर्म का ही प्राचुर्य था। अगला अवतार वराह का था, जो मत्स्य और कूर्म से अधिक विकसित प्रजाति थी। ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर जीव जगत का विस्तार हो रहा था, कूर्म समुद्र और पृथ्वी दोनों पर रह सकता था। वराह (छिपकलियों से लेकर मगरमच्छ जैसी बड़ी प्रजातियाँ या शूकर)  जैसी प्रजातियाँ  पृथ्वी पर बहुतायत से थीं। निश्चित ही उनके ईश्वर भी ऐसे ही होंगे। बाद में नृसिंह अवतार हुआ जो कि मनुष्य और सिंह जैसे प्राणियों के बीच वाली योजक कड़ी थी और प्राणी जगत के विकासवाद की धारणा को पुष्ट करने वाली थी। इसके बाद के अवतार मानव रूप में आये हैं।

डार्विन का थोथा विकासवाद -

पुराण कथाओं के अनुसार ईश्वर ने तत्कालीन विकसित प्रजातियों के हिसाब से अवतार लिये और अपना कार्य सम्पादन किया। चार्ल्स डार्विन तथा उनके रूसी सहयोगी रसेल के अनुसार पृथ्वी पर उपस्थित प्राणियों में से जो प्राणी अपने आप को प्रकृति के अधिक अनुकूल बना लेते थे, वे जिन्दा रहे और उन्होंने अपनी नई प्रजातियाँ भी विकसित कर ली। चार्ल्स डार्विन जो कि पहले तो पादरी बनाना चाहते थे परन्तु बाद में चर्च उन्हें अपना विरोधी मानने लगा। चर्च पृथ्वी की रचना क्राइस्ट से 4004 वर्ष पहले की मानता था, जबकि डार्विन पृथ्वी की उत्पत्ति लाखो-करोड़ों वर्ष पहले का बताते थे। डार्विन इसलिए भी चर्च का विरोधी था क्योंकि बाईबल के अनुसार ईश्वर ने एक सप्ताह में ही सारी सृष्टि और प्राणियों को बना दिया था। बाईबल में और भी कपोल कल्पित घटनाओं का वर्णन हैं जैसे कि ईश्वर ने पहले ही दिन सूरज और पानी बनाये और बाद में अन्य चीजों का निर्माण किया, उसके अनुसार समुद्र में रहने वाले जीव -जन्तुओं को पाँचवें दिन बनाया, जबकि भारतीय पुराणों में मत्स्य अवतार या मत्स्य अवतार की प्रजा मत्स्य (मछली वर्ग) इत्यादि सबसे पहले आये। यह जरूर हुआ कि डार्विन के कारण चर्च चिन्ता में आ गया।

कल्प मन्वंतर और ब्रह्माण्ड -

भारतीय उपनिषदों के अनुसार हर कल्प या मन्वंतर में हर बार नई सृष्टि की रचना हुई। इसीलिए हर बार नये अवतारों को आना पड़ा। हर बार जीवों के विकासक्रम के अनुसार भगवान ने अवतार लिये। आधुनिक वैज्ञानिक धारणाओं के अनुसार भी वर्तमान ब्रह्माण्ड से पहले भी एक और ब्रह्माण्ड अस्तित्व में था जो कि नये कल्प या मन्वंतर के सिद्धान्त की पुष्टि करता है। कुछ ब्लैक होल इतने पुराने बताये गये हैं जितने कि वर्तमान सृष्टि की आयु है जो कि बिग-बैंग या महाविस्फोट की अवधि है। अर्थात् सृष्टि महाविस्फोट से पहले भी थी जो कि मन्वंतर या कल्प के सिद्धान्त की पुष्टि करती है। यदि उपनिषदों और आधुनिक विज्ञान के कथन एक जैसी ही बात कहते हैं तो भारतीय वाङ्गमय में 84 लाख योनियों का सिद्धान्त अधिक तर्कसंगत जान पड़ता है और डार्विन जैसे सिद्धान्त उनके सामने बौने जान पड़ते हैं।

 

मंगल अमंगल क्यों ?

श्रीमती पद्मा शर्मा

प्रायः मंगल को मंगलीक दोष का कारण बताकर बहुत अधिक बदनाम किया गया है। विवाह से संबंधित प्रकरण में जन्म लग्न से द्वादश, लग्न, चतुर्थ, सप्तम व अष्टम स्थान में स्थित होने पर मंगल दोष या वैधव्य दोष कहा गया है। यदि इन्हीं स्थानों पर एक अन्य पाप ग्रह यथा शनि या राहु बैठ जाएं तो उसे डबल मंगलीक या चूड़ा मंगलीक होना बताया जाता है। इसका संबंध केवल विवाह के मामले से है। यदि मंगल दोष के अन्य पक्ष देखे जाएं तो वह अत्यन्त उज्ज्वल हैं और किसी तरह से मंगल दोष का समीकरण इस आधार पर हो जाए कि जातक के लिए ऐसा ही जोड़ा तलाश किया जाए जिसकी कुंडली में भी वही दोष हो तो यह मंगल अत्यन्त असाधारण परिणाम देता है।

मैंने बहुत सारी कुंडलियां देखने के बाद यह पाया कि जीवन में जो लोग महान् हुए हैं या असाधारण हुए हैं उनके उत्थान के पीछे मंगल दोष का बहुत भारी योगदान है। जिसे हम मंगल दोष कहते हैं वह जीवन में उन्नति के लिए जन्मपत्रिका में उपलब्ध सबसे बड़ा गुण है। मैं कुछ उदाहरण देकर इस बात को कहती हूं-

भगवान राम की कर्क लग्न की जन्मपत्रिका में सप्तम भाव में मंगल स्थित था। आगस्टस सीजर की कुंडली में लग्न से अष्टम भाव में मंगल था। सम्राट नीरो की कुण्डली में तुला लग्न की कुंडली में बारहवें भाव में मंगल था। गुरु नानक की सिंह लग्न की कुण्डली में चतुर्थ भाव में मंगल था। श्री चैतन्य की तुला लग्न की कुंडली में चतुर्थ भाव में राहु था। सम्राट अकबर की तुला लग्न की कुंडली में चतुर्थ भाव में मंगल स्थित था। मेरी एंटोनेथ की कुंडली में लग्न में मंगल स्थित था। श्री त्यागराज की कुंडली में लग्न से बारहवें मंगल स्थित था। श्री रामकृष्ण परमहंस के कुंभ लग्न में द्वादश भाव में मंगल स्थित था। श्री बालगंगाधर तिलक के कर्क लग्न की कुंडली में चतुर्थ भाव में मंगल स्थित था। रवीन्द्रनाथ टैगोर के मीन लग्न की कुंडली में चतुर्थ भाव में राहु था। श्री आशुतोष मुखर्जी के वृषभ लग्न में बारहवें भाव में मंगल स्थित था। महात्मा गांधी की तुला लग्न की कुंडली में ही मंगल स्थित था। अरविन्द घोष के कर्क लग्न की कुंडली में ही मंगल स्थित था। अल्बर्ट आइंस्टीन के मिथुन लग्न की कुंडली में अष्टम भाव में मंगल स्थित था। महर्षि रमन की तुला लग्न की कुंडली में सप्तम भाव में मंगल स्थित था। मुसोलिनी की वृश्चिक लग्न की जन्म कुंडली में अष्टम भाव में राहु स्थित था। डॉ. राजेन्द्रप्रसाद की धनु लग्न की कुंडली में लग्न में ही मंगल स्थित था। श्री कस्तूरी श्रीनिवासन की वृश्चिक लग्न की कुंडली में अष्टम भाव में मंगल स्थित था। स्वामी शिवानन्द की कर्क लग्न की कुंडली में लग्न में ही मंगल स्थित था। हिटलर की तुला लग्न की कुंडली के सप्तम भाव में मंगल स्थित था। श्रीरामकृष्ण डालमिया की मिथुन लग्न की कुंडली के द्वादश भाव में मंगल स्थित था। श्री महर बाबा के मकर लग्न की कुंडली में द्वादश भाव में मंगल स्थित था। नाथूराम गोडसे की मिथुन लग्न की जन्मकुंडली में ही मंगल स्थित था। राजा फारूख के तुला लग्न की कुंडली में ही मंगल स्थित था।

यह सब उदाहरण डॉ. बी.वी. रमन की नोटेबल होरोस्कोप  से लिए गए हैं। मंगल दुस्साहस के प्रतीक हैं। जिन लोगों ने भी बहुत अधिक कर्म किया है या बड़े निर्णय किए हैं उन्हीं लोगों को समाज में बहुत अधिक ऊंचाई मिली है। जो लोग अदम्य साहस का परिचय देते हैं, हम पाएंगे कि उनमें से अधिकांश की कुंडलियों में मंगल दोष उपलब्ध है। मंगल संघर्ष क्षमता का प्रतीक है। मंगल व्यक्ति को थकने नहीं देता। मंगल हार भी नहीं मानने देता। मंगल अन्तिम जीत में विश्वास रखता है। मंगल सेनापति है जो किसी की जीत के लिए अपनी जान की बाजी लगा देता है। परन्तु मंगल पर शासन करना बहुत अधिक मुश्किल है और मंगल स्वयं शासक रहना चाहता है। जिनके मंगल दोष है उनकी कुंडली में आप आश्चर्यजनक ढंग से अनुशासन और समयबद्ध कार्यक्रम पाएंगे। मंगल में भूख-प्यास सहने की अत्यधिक क्षमता होती है। वे लोग महत्वाकांक्षी तो होते हैं परन्तु जीवन में हर प्रकार का त्याग करने में भी सक्षम होते हैं। उन्हें भूख-प्यास या अभाव नहीं सताता या उनके जीवनक्रम में ये अत्यन्त गौण पक्ष हैं। उन्हें या तो अनुशासन चाहिए या समयबद्ध कार्यक्रम चाहिए या संगठन क्षमता चाहिए या अन्तिम जीत चाहिए और उसकी प्रतीक्षा में बिताए जाने वाले वर्ष भी चाहिए। यह सब मिल जाए तो मंगल को कोई नहीं हरा सकता। ऐसा नहीं कि मंगल ने सिर्फ सेनापति बनाया हो। प्रसिद्ध संतों की कुंडलियों में भी यही मंगल मिलता है।

इस लेख का निष्कर्ष यह है कि पंडितों ने मंगल दोष को लेकर बहुत अधिक बदनामी की हुई है। मंगल में छुपे हुए सौंदर्य को झांकने की लोगों ने कोशिश ही नहीं की। मंगल दोष वाले व्यक्तियों के जीवन के अन्य पक्ष जब आप देखेंगे तो आपको उनकी ऊंचाई में मंगल का सौंदर्य अवश्य नजर आ जाएगा।

 

देव शयन में धार्मिक एवं मांगलिक कार्य क्यों नहीं?

पं. विपिन कुमार पाराशर

धार्मिक जिज्ञासु पाठकों को जिज्ञासा रहती है, कि देवशयन क्या है, इसमें धार्मिक व मांगलिक कार्य क्यों नहीं होते ?

श्री ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम प्रकृति में जो स्थापना की वह पृथ्वी थी, जिसकी संस्कृत की भू धातु से उत्पत्ति हुई, जो बाद में भूमि कहलाई, इसके आदि देव भू देव (ब्राह्मण, ऋषि, मुनि, देवता) कहलाये, इसके बाद ब्रह्माजी ने सूर्य की स्थापना की जो संसार का सबसे पहला दिन बना, जिसे सूर्य वार को उर्दू में इतवार इंग्लिश में सण्डे, सन का अर्थ सूर्य, डे का अर्थ दिन और इससे आगे उन्होंने चंद्रमा की स्थापना की जिसे इंग्लिश में मण्डे कहा मून का अर्थ है चन्द्रमा और डे का अर्थ है दिन, इसी क्रम में उन्होंने मंगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनि की स्थापना की। हमारी इस भारतीय संस्कृति के आधार को पूरा विश्व मानता है। बल्कि पाश्चात्य संस्कृति ने जो नाम दिये, वह भी भारतीय ग्रहों के आधार पर हैं।

इसके बाद ब्रह्माजी ने प्रकृति की स्थापना व आवश्यक जीवन के लिए छः ऋतुओं की स्थापना की (जिन्हें ग्रीष्म, वर्षा, शीत, हेमन्त, शिशिर, बसन्त) आदि नामों से पुकारा गया है। इसी आधार को लेकर छः माह देव शयन और छः माह देव जागरण को रखा गया, जिसे ज्योतिष विज्ञान उत्तरायण व दक्षिणायन कहता है। जिसका अर्थ है, उत्तरायन में देवताओं का जागरण होता है। इस समय जो भी कार्य किए जाते हैं, वह देवताओं को प्राप्त होते हैं और कार्य पूर्ण शुभ भी रहते हैं, दक्षिणायन में राक्षसों का अधिकार होता है। इस समय जो भी कार्य किए जाते हैं। उनमें कोई न कोई बाधा अवश्य आती है और कार्य भी पूरिपूर्ण नहीं होते, इस समय दी गई आहुति भी राक्षसों को प्राप्त होती है। भूगालेवेत्ता इस काल को उत्तर अयन और दक्षिण अयन कहते हैं। उत्तर अयन का अर्थ है, कि सूर्य उत्तर दिशा की ओर चलना और दक्षिण अयन का अर्थ है कि सूर्य दक्षिण दिशा की ओर चलना। महाभारत काल में एक प्रसंग भीष्म पितामह का आया कि उन्होंने उत्तरायण के आने तक अपने प्राणों को तीर की शैय्या पर रोके रखा और उत्तरायण आने पर ही महाप्रयाण किया।

देव शयनी एकादशी (आषाढ शुक्ल एकादशी से देव शयन हरी शयन एकादशी) से देवप्रबोधिनी एकादशी तक देव शयन माना जाता है। इस काल में कोई भी मांगलिक व धार्मिक कार्य नहीं होते क्योंकि देवताओं की साक्षी ही नहीं रहती तो उन कार्यों को करने का क्या लाभ? शास्त्रों में इस समय धार्मिक एवं मांगलिक कार्य करने वालों को निन्दनीय माना है। अज्ञान वश कोई ज्योतिषी या पंडित इस बीच में जो मांगलिक कार्यों व धार्मिक कार्यों के मुहूर्त निकालते हैं वह शास्त्र विरुद्ध कार्य है।

पौराणिक ऐतिहासिक कथाओं के आधार पर राजा बलि से भगवान विष्णु ने अपने वामन अवतार में तीन पग भूमि मांगी, उन्होंने बलि के सामने अपना विशाल रूप प्रकट कर तीनों लोक माप लिये, और राजा बलि को पाताल भेज दिया। राजा बलि ने भी भगवान से आशीर्वाद में छः माह तक पाताल में अपने दरवाजे पर उनकी सुन्दर मूर्ति के दर्शन हेतु पहरेदारी करने को कहा। जब काफी समय तक विष्णु स्वर्ग नहीं पहुंचे, तब लक्ष्मी को नारद ने यथा स्थिति का ज्ञान कराया, तब लक्ष्मीजी ने भैया दौज के दिन राजा बलि को टीकाकर पहरे पर खड़े विष्णु को ही पति के रूप में दक्षिणा में मांग लिया। इसके बाद ही विष्णु कार्तिक की शुक्ल पक्ष को पृथ्वी में देव उठनी एकादशी के दिन ही आते हैं। इस मुहूर्त को ज्योतिष शास्त्र में अत्यधिक महत्ता देकर पांच सर्वार्थसिद्ध मुहूर्तों में सर्वश्रेष्ठ माना है, इस दिन सबसे अधिक विवाह होते हैं, क्योंकि इस दिन भगवान विष्णु का भी तुलसी के साथ विवाह हुआ था। देवताओं का एक दिन मनुष्य के छः माह के बराबर होता है, इसलिए देव शयन और देव उठान का अन्तर छः माह रहता है।

शास्त्रों के आधार पर हमारे मुख्य तीन देवता हैं-ब्रह्मा, विष्णु, महेश। एक उत्पत्ति करते हैं, दूसरे पालन और तीसरे उसका अन्त और इन तीनों के शयन का भी समय भारतीय शास्त्रों में निर्धारित है, जिनके शयन को चार-चार माह दिये गए हैं। सबसे पहले ब्रह्माजी का शयन जो पौष मास में प्रारम्भ हो जाता है, इस समय विष्णु और शिव जागकर पृथ्वी का पालन और रक्षा का दायित्व निभाते हैं। इसके बाद आषाढ शुक्ल एकादशी (देव शयन एकादशी से देव उठान एकादशी) तक विष्णु का शयन होता है, इसीलिए सारे धार्मिक और मांगलिक कार्य अस्त रहते हैं। क्योंकि भगवान विष्णु पृथ्वी के पालनहार और भोक्ता हैं, इसलिए उनके शयन के समय कोई नई रचना नहीं की जा सकती। इस समय शिव जागरण होता है, और शिव जागते रहते हैं, इसलिए मंदिरों में इस समय शिव पूजा का अधिक विधान रहता है और श्रावण मास में शंकर जागरण को मानकर अधिक पूजा जाता है, इसके बाद शिव शयन होता है, और भाद्रपद मास की अमावस्या से शिवरात्रि तक चलता है, जिसमें मंदिरों में शिवजी के ऊपर टपकने वाला बर्तन (जलहरी) हटा दी जाती है। शिवरात्रि के दिन पुनः शिवलिंग के ऊपर वाला जल बर्तन लगा दिया जाता है, इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है। इसका अर्थ यह है कि विष्णु शयन के कार्यकाल में धार्मिक और मांगलिक कार्य नहीं होने चाहिए, क्योंकि न तो विष्णु पृथ्वी पर होते हैं, ना ही उत्तरायण। जब सब चीजों को लोप हो जाता है, तो फिर हमारे भविष्य निर्माण के महत्वपूर्ण पलों को क्यों हम देव शयन में करें ?

 

पुनर्जन्म के पक्ष में तर्क

व्याख्याकार स्व. चन्द्रगुप्त वार्ण्ष्णेय

आत्मा की सत्ता को नहीं मानने वाली जो श्रुतियां माता-पिता को ही जन्म का कारण मानती हैं, उनमें युक्तिविरोध हैं, अर्थात ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं।

यदि माता-पिता की ही आत्मा संतान में जाती हो, अर्थात माता-पिता की आत्मा के अलावा कोई दूसरी आत्मा नहीं, तो प्रश्न होता है कि यह आत्मा नहीं, तो प्रश्न होता है कि यह आत्मा कैसे संचार करती है? क्या उसका कोई टुकड़ा संतान में जाता है या पूरी ही जाती है? यदि माता-पिता की सारी आत्मा संतान में जाती है, तो उनकी मृत्यु हो जानी चाहिए। यदि कहें कि कुछ टुकड़ा जाता है तो यह बात समझ में नहीं आती, क्योंकि सूक्ष्म आत्मा के टुकड़े नहीं हो सकते।

यदि कहें कि माता-पिता के बुद्धि और मन संतान में जाकर चेतनता उत्पन्न करते हैं, तो इसमें भी उपर्युक्त दोष आता है, अर्थात जैसे आत्मा के टुकड़े नहीं हो सकते, वैसे ही मन और बुद्धि के भी टुकड़े नहीं हो सकते।

जो केवल माता-पिता को ही जन्म का कारण मानते हैं, उनके मतानुसार जीवों की चार प्रकार की योनियां नहीं होनी चाहिएँ।

वैदिक विज्ञान में जीवों की चार योनियां मानी गयी हैं, जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्भिज्ज। माता के गर्भ से पूरे आकार में जन्म लेने वाले जीव जरायुज कहलाते हैं। अंडे के रूप में जन्म लेने वाले जीव अंडज होते हैं। जूं, खटमल, अनाजों में पैदा होने वाले और वस्तुओं के सड़ने से पैदा होने वाले जीव तथा इसी प्रकार के अन्य जीव स्वेदज कहे जाते हैं। पेड़-पौधे उद्भिज्ज होते हैं।

तात्पर्य यह है कि यदि माता-पिता ही जन्म के कारण हैं, तो माता-पिता के बिना उत्पन्न होने वाले स्वेदज और उद्भिज्ज जीवों में चेतना नहीं होनी चाहिए परन्तु उनमें चेतना होती है और चेतना आत्मा का स्वभाव है। इसलिए चार प्रकार की योनियां माननी पड़ती हैं।

छहों धातुओं अर्थात पांच महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी) और एक आत्मा, इनके लक्षण ही इनके स्वभाव हैं। आकश का लक्षण है कि उसके टुकड़े नहीं हो सकते। वायु का लक्षण बहना है। अग्नि का लक्षण गर्मी है। जल का लक्षण द्रवता है। पृथिवी का लक्षणण् कठोरता है। आत्मा का लक्षण चेतना और ज्ञान हैं। ये ही इनके स्वभाव हैं।

इनके संयोग और वियोग में कर्म ही कारण है। पांच महाभूतों और आत्मा के संयोग से जन्म होता है और इनके वियोग से मृत्यु हो जाती है। यह संयोग तथा वियोग पूर्वजन्म में किये गये कर्मों के कारण होता है। इसलिए पूर्वजन्म को और पुनर्जन्म को मानना चाहिए।

बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह नास्तिक बुद्धि को छोड़ दे और पुनर्जन्म में किसी तरह का संदेह नहीं करें।

मनुस्मृति के अनुसार जो मनुष्य वेद को प्रमाण नहीं मानता, ईश्वर की सत्ता में और पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता, उसे नास्तिक कहते हैं। जैनमत और बौद्धमत पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं, परन्तु वेद को और ईश्वर की सत्ता  को नहीं मानते। इसलिए वैदिक (हिन्दू) मतावलम्बी जैन मत तथा बौद्ध मत को नास्तिक मत कहते हैं।

आत्रेय मुनि कहते हैं कि प्रत्यक्ष तो बहुत थोड़ा होता है और अप्रत्यक्ष यानी परोक्ष बहुत होता है। अप्रत्यक्ष को हम आगम, अनुमान तथा युक्ति आदि प्रमाणों से जानते हैं। यदि केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानें, तो जिन इन्दि्रयों से हमको प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, वे स्वयं भी अप्रत्यक्ष हैं, अर्थात हमउन्हें देख नहीं सकते। इस तरह जब इन्दि्रयों का ही अस्तित्व नहीं, तब प्रत्यक्ष कैसे सिद्ध हो सकता है। प्रत्यक्षवादी के  मन में दोष उत्पन्न होता है जिससे प्रत्यक्ष की भी प्रमाणता नहीं रहती। इन्दि्रय ज्ञान के लिए हमको अनुमान का ही सहारा लेना पड़ता है, इसलिए प्रत्यक्ष के साथ अनुमान को भी प्रमाण मानना पड़ता है।

रूपों के होते हुए भी उनके अति निकट होने से अथवा अति दूर होने से, बीच में किसी आवरण (परदे) के आने से, इन्दि्रयों की दुर्बलता से, मन कहीं दूसरी लगा होने से, एक समान पदार्थों के एक जगह पड़ा होने से, किसी वस्तु के लोप होने से तथा अत्यंत सूक्ष्म होने से प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। इसलिए यह कहना उचित नहीं कि प्रत्यक्ष ही प्रमाण है- दूसरा कोई प्रमाण नहीं।

अति निकट होने के कारण आंख में लगा काजल नहीं दीखता। अति दूर होने से आकाश में उठता हुआ पक्षी नजर नहीं आता। दीवार या परदे के पीछे की वस्तु दिखाई नहीं देती। आंखों में दोष होने से दूर की वस्तुएं नजर नहीं आती। रतौंधी होने से रात में दिखाई नहीं पड़ता। मन किसी दूसरी जगह लगा हो तो पास में ढोल का शब्द सुनायी नहीं पड़ता। एक तरह के गेहूं दूसरी तरह के गेहुंओं में मिला दिये जायं, तो पता नहीं लगता। दिन में तारे नजर नहीं आते। अणु-परमाणु और सूक्ष्म रोगाणु आंखों से नहीं देखे जा सकते। ये सब अप्रत्यक्ष के उदाहरण हैं।

आत्मा को किसी का बनाया हुआ भी नहीं मान सकते अर्थात यह नहीं मान सकते कि आत्मा का निर्माता ईश्वर है। पांच महाभूतों से आत्मा नहीं बनायी जा सकती, क्योंकि पांच महाभूत जड़ हैं और आत्मा अनादि और चेतन है।

कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं हो सकता। प्रत्येक कार्य के तीन कारण होते हैं- कर्ता, उपादान तथा निमित्त। कार्य के लिए आवश्यक सामग्री उपादान कारण होती है, साधन निमित्त कारण होते हैं और कार्य को सम्पन्न करने वाला कर्ता होता है। जड़ पदार्थों के उपादान से चेतन पदार्थ नहीं बनाये जा सक ते। विज्ञान ने यह तो पता लगा लिया है कि जीव-जन्तुओं के और पेड़-पौधे के अंग-प्रत्यंग किन-किन तत्वों के बने हुए होते हैं, परंतु इन तत्वों की सामग्री होते हुए भी विज्ञान घास की एक पत्ती या जीवन का सबसे छोटा कोश (सैल) भी नहीं बना सकता। इसलिए चेतन की अलग सत्ता स्वीकार करनी पड़ती है। भौतिकवादी कहते हैं कि सृष्टि के आरम्भ में जड़ पदार्थों के संयोग से अकस्मात ही उनमें चेतना उत्पन्न हो गयी। मैटर से माइन्ड बन गया। अगर ऐसा है तो यह क्रिया समाप्त क्यों हो गयी? अब ऐसा संयोग क्यों नहीं होता?

आकस्मिक संयोग के इस सिद्घांत के बारे में आत्रेय कहते हैं कि ऐसा मानने वाले नास्तिक क ेलिए न तो परीक्षा (प्रमाण) रहती हैं न परीक्ष्य (जिसकी परीक्षा की जाय), न कर्ता, न कारण, न देवता, न ऋषि, न कर्म, न कर्म के फल और न आत्मा की सत्ता। तात्पर्य यह है कि यदि सब कुछ अचानक संयोग से ही होता है, तो फिर किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रहती। जब कोई प्रमाण ही नहीं, तब यदृच्छावादी अर्थात अचानक संयोग मानने वाले की बात भी प्रमाणिक नहीं हो सकती।

इस नास्तिक पक्ष को मानने से बढ़कर कोई पाप नहीं। नास्तिक होना ही सबसे बड़ा पाप है। इसका मतलब यह है कि जो मनुष्य ईश्वर, पुनर्जन्म, कर्म-विपाक आदि को नहीं मानता, वह पाप कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है।