मेरे वास्तु अनुभव

पं. सतीश शर्मा एस्ट्रो साइंस एडिटर

राजस्थान के शेखावाटी जनपद में एक विशेष नगर चतुष्टय है जिसे सेठाना कहा जाता है- लक्ष्मणगढ़, रामगढ़, फतेहपुर एवं नवलगढ़। इसके आसपास भी कई शहर हैं जहां भारतवर्ष के धनाढ्य व्यक्तियों ने जन्म लिया है। मैं तो यह समझता हूं कि भारत की अर्थव्यवस्था को अत्यधिक प्रभावित करने वाले सबसे धनी लोगों का यह जन्मक्षेत्र है। चूरू, रतनगढ़, बीकानेर, पिलानी, सीकर जैसे अन्य नगर भी हैं जहां भारत की व्यावसायिक प्रतिभाओं ने जन्म लिए। बिड़ला, डालमियां, चिराणियां, भरतिया, जैन, जालान जैसे बहुत सारे बड़े नाम लिए जा सकते हैं।

भूगोल विषय पढ़ते हुए यह समझ में आया कि राजस्थान के अधिकांश भाग कभी समुद्र थे। समुद्र ने जगह छोड़ दी और आज वहां बड़े रेगिस्तान हैं। रेगिस्तानी भूमि में आज भी शंख, सीपी खूब मिलते हैं। रेगिस्तान का ढलान पश्चिमी अरब सागर की ओर है और यह बात ध्यान में आते ही वास्तु शास्त्र के एक नियम का ध्यान आता है। यदि पश्चिम में ढलान हो तो व्यक्ति परदेश गमन करता है। भारत के पश्चिमी या उत्तर-पश्चिमी हिस्से में ढलान होने से बड़ी संख्या में व्यक्तियों ने परदेश गमन किया और दूसरे प्रदेशों में जाकर व्यवसाय से समृद्ध हुए और एक दिन पूरे देश में प्रसिद्ध हो गए। यह अगर सच है तो क्या हम मानें कि जिन बच्चों को उच्च शिक्षा या व्यवसाय के लिए परदेश भेजना हो उनके पैतृक आवास में पश्चिम दिशा या वायव्य कोण में थोड़ा सा ढलान दे दिया जाए।

क्या दैत्य पृष्ठ भूमि में संतान परदेश जाकर धनी हो जाती है? यदि राजस्थान का उदाहरण लें तथा कुछ अन्य स्थानों पर भी मैंने इस बात के परीक्षण किए हैं तो इस अवधारणा की पुष्टि होती है।

मैंने एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में शेखावाटी जनपद में 1986 से 1988 के बीच काम किया है। इस अवधि में मुझे सरकारी या गैर सरकारी हैसियत में देश के बहुत बड़े घरानों की उन हवेलियों का वास्तु प्लान  देखने का अवसर मिला है जिनमें आजकल सिर्फ भृत्य वर्ग रह रहा है। शानदार, खूबसूरत हवेलियां जिनमें कीमती पत्थर व नक्काशियों के प्रयोग हैं। कई-कई चौक की हवेलियां जिनमें बाहर के एक-दो कमरों में दो या तीन सेवक या चौकीदार या फिर उनके परिवार रहते हैं। 

इतने सुन्दर वास्तु प्रयोग देखने को मिलते हैं कि आश्चर्य होता है। मैंने तकनीकी दृष्टि से भी परीक्षण किए तो पाया कि शास्त्रोक्त प्रमाणों से हटकर केवल कुछ जगह ही दोष मिलते हैं। वह भी संभवतः दिक्साधन में दोष के कारण। उचित यंत्रों के अभाव में या नक्षत्र वेध के माध्यम से दिक्साधन के तकनीकी ज्ञान के अभाव में जिन मिस्ति्रयों ने वह भव्य भवन बनाये हैं उनसे खगोलशास्त्र की उच्चकोटि की जानकारी की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, फिर भी इस बात की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन कारीगरों ने ऐसे भवन दिए जिनके कारण भारत की अर्थव्यवस्था में प्रभावी स्थिति रखने वाले श्रेष्ठि वर्ग ने विकास पाया।

कई चौक की हवेलियों में ब्रह्म स्थान की रक्षा किस चौक से की गई है, का पता नही चल पाता। मैनें इस रहस्य को समझने के लिए जब तक वास्तु पद विन्यास एवं शिरा-नाड़ी आदि के विन्यास व वास्तु पुरुष के मर्मस्थानों को  बचाने के लिए कारीगरों द्वारा किए गए प्रयासों का अध्ययन नहीं किया, तब तक उन भव्य भवनों के वास्तु मूल्यांकन करने में समर्थ नहीं हो पाया। वह मकान कब कुछ लाख के निर्माण से शुरू होकर हजारों करोड़ के टर्न ओवर वाले व्यावसायिक घरानों में बदल जाएगा, इस रहस्य का पता तब तक नहीं चल सकता जब तक कि भवन के आंतरिक वास्तु सौंदर्य व भवन के आनुपातिक सौंदर्य का परिचय न मिल जाए।

शेखावाटी के अधिकांश मकानों में शौच इत्यादि की व्यवस्था भवन से लगे नोहरों में की जाती थी। नोहरे बाड़े के रूप में भी होते थे। प्रायः करके दीवारें ऊंची होती थी, इतनी ऊंची कि आदमी के सिर से भी ऊपर चली जाएं। ऐसा करके वे वास्तु शास्त्र के इस नियम की रक्षा कर पाते थे कि शौचालय भूखण्ड के दक्षिण दिशा मध्य से नैऋत्य कोण के मध्य ही प्रशस्त होते हैं।

फतेहपुर शेखावाटी में एक भव्य भवन जो कि पूर्वाभिमुख था, की रौनक देखती ही बनती थी। उसके मुख्य द्वार के बाहर दो गोखे थे। गोखे मुख्य द्वार के बाहर दोनों तरफ एक तरह का विश्राम स्थल हुआ करता था। शास्त्रों में उल्लेख है कि जिस द्वार के बाहर गोखे हों वहां राजा आता है। मेरे ससुराल पक्ष में से किसी के द्वारा खरीदी गई उस हवेली को देखते ही मैंने प्रश्न किया कि क्या यहां सामंत या ठिकानेदार आया करते थे। उत्तर मिला कि हाँ, सीकर के राव राजा व उनका लाव लश्कर यहां आया करते थे। बहुत बाद में जब इस हवेली के दक्षिण दिशा में एक बड़ा भूखण्ड खरीदा गया तब कुछ वर्ष बाद इस परिवार का पतन पतन हो गया।

शास्त्रों में दक्षिण व पश्चिम की सम्पत्ति खरीदने की मनाही है। संभवतः दक्षिण की सम्पत्ति खरीदने से उत्तर भारी हो जाता है व दक्षिण हल्का होकर सम्पत्ति दैत्य पृष्ठ हो जाती है और पतन का कारण बन जाती है। इसका एकमात्र समाधान यह है कि दोनों भूखण्डों के बीच में एक सार्वजनिक गली डाल दी जाए और अलग-अलग विकास करके बाद में उन्हें संयुक्त करने संबंधी कार्यवाही किसी वास्तु शास्त्री के निर्देशन में की जाए।

प्रायः मारवाड़ी सेठ बहुत बड़े भूखण्ड खरीदते थे और उत्तर या पूर्व में काफी जमीन छोड़कर अपने भवन बनाते थे। निर्मित क्षेत्रफल में अलग से वास्तु पुरुष की सृष्टि करने के उद्देश्य से स्थपति समस्त बड़े भूखण्ड की चारदीवारी न बनाकर निर्मित क्षेत्रफल के चारों तरफ ऊंची दीवार बनाकर वास्तुपुरुष या वास्तुखण्ड सृजित करने की कोशिश करते थे। इस क्रम में कई बार तकनीकी गलतियां होती देखी हैं। फिर भी कुल मिलाकर यह विधि शास्त्र पालन के उद्देश्य से पर्याप्त थी।

कुछ वर्ष पूर्व मुझे मेरे सगे चाचा के इलाज के लिए एक बड़े अस्पताल में चक्कर लगाने पड़े। चाचा के घर का अग्निकोण बढ़ा हुआ था तथा वहीं पर द्वार भी था। अग्नि तत्त्व का आधिक्य इस रूप में आया कि चाचा को बिजली के तारों से झटका लगा तथा बाद में उनकी किडनी फेल होने से मृत्यु हो गई। जब शरीर में अग्नि तत्त्व बढ़ता है तो स्वयमेव ही जल तत्त्व में कमी आ जाती है। इसका तकनीकी आशय ‘डिहाइड्रेशन’ तथा तज्जनित ‘रीनल फेल्योर’ है। इसमें किडनी जल के माध्यम से रक्तशोधन की प्रक्रिया में समर्थ नहीं रह जाती है व जल की कमी से मृत्यु तक हो सकती है। इसी अवधि में मुझे अस्पताल के बर्न वार्ड में सैकड़ों मरीजों की दिशात्मक स्थिति व कितने दिन में ठीक होकर घर जाएंगे का अध्ययन करने का अवसर मिला। अग्नि से पीड़ित मरीजों को अग्निकोण में रखे जाने का स्वाभाविक परिणाम मृत्यु दर में बढ़ोतरी है। मुझे दुःख होता था जब 20 प्रतिशत बर्न वाले मरीजों को भी बचाना संभव नहीं हो रहा था। यद्यपि मेरे कुछ प्रशंसक व शिष्य भी वहां थे परन्तु सरकारी व्यवस्थाओं में वास्तु के आधार पर संशोधन की कल्पना भी तब तक संभव नहीं थी। बहुत वर्षों के परिश्रम के बाद अब यह संभव हो पाया है कि मेरे अखबारों में लिखे लेख को भी सरकारी अधिकारी गंभीरता से लेने लगे हैं पर उन अधिकारियों का भी वास्तु में तभी अधिक रुझान बढ़ा जब मैंने उनके घरों में वास्तु शोधन कराकर उन्हें परिणामदायी बना दिया।

राजस्थान के प्रसिद्ध दैनिक अखबार में एक बार मैंने लेख लिखा कि मकानों में पत्थर का प्रयोग केवल राजाओं के लिए ही प्रशस्त बताया गया है। पत्थर ऊ र्जा को ग्रहण करते हैं, संकलित करते हैं तथा फिर लंबी अवधि तक ऊर्जा का प्रसारण करते रहते हैं। यही कारण है कि जो नगर पहाड़ियों के बीच में होते हैं उनका ऊर्जा स्तर अधिक बना रहता है। वहां सर्दियों की रातें इतनी ठंडी नहीं होती। मकानों में भी यही स्थिति है। यदि मकानों में साधारण व्यक्ति रहते हैं और ऊर्जा प्रसारण अधिक होने लगे तो निवासियों का टेम्परामेंट बहुत अनियमित हो जाएगा और वे सार्वजनिक जीवन में असफल होने लगेंगे। राजपुरुषों के लिए अधिक ऊर्जावान होना अति आवश्यक है अन्यथा वे शासन नहीं कर पाएंगे। आधुनिक राजाओं के रूप में जिला कलेक्टर, संभावित आयुक्त व शासन सचिवालय में बैठे शासन सचिवों से समीकरण किया जा सकता है।

मेरे इस लेख का विद्युत गति से प्रभाव बढ़ा। इतने आई.ए.एस. अधिकारियों के फोन आए कि मेरी खुशी का पारावार न रहा। मैंने उन सभी से केवल एक फीस मांगी कि जब भी आपका मौका लगे तब सरकार में व सरकारी विभागों में वास्तु नियमों को लागू करने के लिए अपनी सम्मति दें। मुझे प्रसन्नता है कि आज बहुत से अधिकारी इस काम को चुपचाप अंजाम देने में लगे हुए हैं। मुझे अब लगता है कि मुहूर्त और ज्योतिष की प्रतिष्ठा तो पूर्व में ही है, अब वास्तु के माध्यम से सरकारी सफलताओं को बहुगुणित किया जाना संभव हो पाएगा परन्तु यह स्थिति उत्तरी भारत के हर राज्य में नहीं है।

 

ब्राह्मणों के लिए भक्ष्याभक्ष्य

ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड में भगवान शिव से नारद जी का एक वार्तालाप गृहस्थ ब्राह्मणों, यतियों, वैष्णवों, विधवा स्ति्रयों और ब्रह्मचारियों के लिए भक्ष्य, अभक्ष्य, कर्तव्य व अकर्तव्य को लेकर आता है। भगवान शिव ने इन सबका उत्तर देते हुए नारद को इन सब कर्तव्यों के बारे में समझाया है।

कोई तपस्वी ब्राह्मण चिरकाल तक बिना आहार के तपस्या करता रहता है। कोई-कोई वायु सेवन से ही रह जाता है तो कोई कोई फलाहार के साथ तपस्या करता रहता है। कोई गृहस्थ ब्राह्मण अपनी स्त्री के साथ रहकर समय पर अन्न पाता है।

गृहस्थ ब्राह्मणों के लिए हविष्यान्न भोजन उत्तम माना गया है। भगवान नारायण का भोग लगाने के पश्चात उच्छिष्ट प्रसाद ही श्रेष्ठ माना गया है। जो भोजन भगवान को निवेदित नहीं हुआ है उसे अभक्षणीय माना गया है। जो भगवान विष्णु को अर्पित नहीं किया गया है, वह अन्न विष्ठा और जल मूत्र के समान माना गया है। एकादशी के दिन सब प्रकार का अन्न जल मलमूत्र के समान माना गया है। ब्राह्मणों के लिए एकादशी को अन्न ग्रहण करने की निंदा की गई है। जन्माष्टमी, रामनवमी व शिवरात्रि के दिन भी अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए। जो उपवास नहीं कर सकते वह फल, मूल और जल ग्रहण करें। जो व्रत के दिन एक बार हविष्यान्न खाता है अथवा भगवान विष्णु को अर्पण किए हुए नैवेद्य का ही भक्षण करता है, उसे अन्न खाने का दोष नहीं लगता है।

गृहस्थ, शैव, शाक्त, वैष्णव, यति तथा ब्रह्मचारियों के लिए यह बात बताई गई है। जो वैष्णव पुरुष भगवान कृष्ण के नैवेद्य का भोजन करता है वह जीवनमुक्त हो प्रतिदिन 100 उपवास व्रतों का फल पाता है। सम्पूर्ण देवता और तीर्थ उसके अंगों का स्पर्श चाहते हैं। उनके साथ वार्तालाप तथा उनका दर्शन समस्त पापों का नाश करने वाला है। यतियों, ब्रह्मचारियों और विधवाओं के लिए ताम्बूल भक्षण निषिद्ध माना गया है।

भगवान शिव ने नारद को समस्त ब्राह्मणों के लिए जो अभक्ष्य बताया है उसमें तांबे के पात्र में दूध पीना, जूठे बर्तन या अन्न में घी लेकर खाना तथा नमक के साथ दूध पीना गौ मांस भक्षण के समान बताया है। कांसे के बर्तन में रखा हुआ एवं जो ब्राह्मण उठकर बायें हाथ से जल पीता है, वह शराबी माना गया है और समस्त धर्मों से बहिष्कृत किए जाने योग्य है। भगवान को निवेदित न किया गया अन्न, खाने से बचा हुआ जूठा भोजन और पीने से शेष बचा हुआ जल यह सब निषिद्ध माने गए हैं।

कार्तिक में बैंगन, माघ में मूली तथा देवताओं के शयनकाल में कदम्ब का शाक नहीं खाना चाहिए। कदम्ब के स्थान पर कहीं-कहीं कलम्बी शब्द मिला है जो एक जलज शाक है। सफेद ताड़, मसूर तथा मछली ये सभी ब्राह्मणों के लिए समस्त देशों में त्याज्य हैं। प्रतिपदा को कूष्माण्ड (कोहड़ा) अर्थनाश कराने वाला है। द्वितीया को छोटा बैंगन अथवा कटहल खाना दोषयुक्त है। तृतीया को परवल शत्रुवृद्धि कराता है। चतुर्थी को मूली खाना धननाशक है। पंचमी को बेल खाना कलंककारक है। षष्ठी को नीम की पत्ती या निंबौली या दातुन मनुष्य को पशु-पक्षियों की योनि में भेजने वाली है। सप्तमी को ताड़ का फल रोग बढ़ाने वाला व शरीर का नाशक होता है। अष्टमी को नारियल का फल बुद्धिनाशक व नवमी को लौकी व दशमी को  शाक भक्षण त्याज्य है। एकादशी को सेम, द्वादशी को पूतिका(पोई) और त्रयोदशी को बैंगन भक्षण पुत्रनाश कराता है। माँस ब्राह्मण के लिए सर्वथा वर्जित है।

पार्वण श्राद्ध और व्रत के दिन प्रातःकाल स्नान के समय सरसों का तेल और पकाया हुआ तेल उपयोग में लाना उत्तम है। अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रांति, चतुर्दशी और अष्टमी तिथियों में रविवार को श्राद्ध और व्रत के दिन स्त्री सहवास और तिल के तेल का सेवन निषिद्ध है। दिन में स्त्री संग भी वर्जित है। रात में दही खाना, दिन में दोनों संधिकालों में सोना तथा रजस्वला स्त्री के साथ समागम नरक की प्राप्ति कराते हैं। रजस्वला तथा कुलटा का अन्न नहीं खाना चाहिए। सूदखोर, कणक, अग्रदानी ब्राह्मण(महापात्र) तथा चिकित्सक का अन्न भी नहीं खाना चाहिए। अमावस्या तिथि और कृत्तिका नक्षत्र में द्विजों के लिए क्षौरकर्म (हजामत) वर्जित है। जो मैथुन करके देवताओं और पितरों का तर्पण करता है उसका वह जल रक्त समान होता है तथा वह जल तर्पण करने वाला नरक में जाता है।

जो स्नान करके पैर धोए बिना ही मंदिर में घुस जाता है उसका स्नान, जप और होम आदि सब नष्ट हो जाता है। जो गृहस्थ पुरुष पानी से भीगे या तेल से तर वस्त्र पहन कर घर में प्रवेश करता है उसके ऊपर लक्ष्मी रुष्ट हो जाती है और उसे श्राप देकर घर से निकल जाती है।

 

काल एवं काल विज्ञान

प्राच्य विद्याओं में हमारे ऋषियों एवं मनीषी आचार्यों ने एक ऐसे शास्त्र का आविष्कार एवं विकास किया है- जो काल, उसके गुण-धर्म, जनजीवन पर पड़ने वाले उसके प्रभाव और जीवन के घटनाक्रम के साथ उसके सहज एवं सतत संबंधों का गंभीरतापूर्वक विचार कर उसके परिणामों को जानने एवं पहचानने में सुमान्य नियमों, सिद्धांतों तथा प्रविधियों का प्रतिपादन करता है। इस लोकोपयोगी शास्त्र का नाम ज्योतिष शास्त्र है।

वस्तुतः वैदिक काल से लेकर आज तक जीवन के घटनाचक्र को काल के परिप्रेक्ष्य में जानने, पहचानने और पूर्वानुमान करने के लिए हमारे महर्षियों एवं आचार्यों ने जिन तर्कपूर्ण सिद्धांतों, प्रविधियों तथा पद्धतियों के नियम एवं उपनियमों के अनुशासन से प्रतिबद्ध कर आविष्कृत एवं विकसित किया था- उनके समग्र संकलन को ज्योतिष शास्त्र कहते हैं। यह एक ऐसी विद्या है, जिससे व्यक्ति और ब्रह्माण्ड के जीवन में कब-कब, कहाँ-कहाँ और क्या-क्या अच्छा या बुरा घटित होने वाला है? इन सब बातों को भली-भांति जाना जा सकता है। इस शास्त्र का जीवन की गतिविधियों के साथ इतना घनिष्ठ संबंध है कि जीवन के सभी पहलुओं का विचार कर उसके बारे में सही-सही जानकारी देकर यह हमारी सर्वाधिक सहायता करता है।

इस शाखा को ‘कालाश्रितं ज्ञानम’ कहने वाले ऋषियों के अनुसार - राशिचक्र की मेष आदि द्वादश राशियों में सूर्य आदि ग्रहों की गतिविधियों को काल कहते हैं। जैसे घड़ी की गतिविधियों को काल कहते हैं। जैसे घड़ी के डायल पर घूमने वाली तीन सूईंयों के माध्यम से घण्टा, मिनट एवं सैकिण्ड की जानकारी मिलती है- ठीक उसी प्रकार राशिचक्र की बारह राशियों में सूर्य आदि ग्रहों के भ्रमण से वर्ष, मास एवं दिन की जानकारी मिलती है, जैसे-सूर्य के बारह राशियों के भोग द्वारा वर्ष की, एक राशि के भोग द्वारा मास की और एक अंश के भोग द्वारा सौर दिन की जानकारी मिलती है।

इस प्रकार राशि चक्र की बारह राशियों में सूर्य आदि ग्रहों की गतिविधियों को काल कहते हैं और विविध राशियों तथा भावों में ग्रहों के स्थिति के अनुसार काल के गुणधर्मों का विचार होता है। होराग्रंथों में ग्रहशील, राशिशील, भावशील एवं विविध योगों के माध्यम से काल के गुण-धर्मों का निश्चय किया जाता है और ग्रहयोग, ग्रहदशा एवं ग्रहगोचर के माध्यम से जीवन के घटनाक्रम तथा कर्म एवं कर्मफल का निर्धारण होता है। इस तरह यह शास्त्र, ग्रह, राशि, भाव, स्थिति, युति, दृष्टि, बल, दशा एवं गोचर जैसे आधारभूत तत्त्वों के माध्यम से व्यक्ति के जीवन के कर्म एवं कर्मफल का पूर्वानुमान करने में बड़ी सहायता करता है।

ज्योतिष शास्त्र की विशेषताएं

ज्योतिष शास्त्र की विशेषताओं का यदि ब्यौरेवार विचार एवं विवेचन किया जाए, तो वह स्वतंत्र रूप से एक शोध प्रबंध का कलेवर ले सकता है। इसलिए इस शास्त्र की विशेषताओं की सूत्र-शैली में संक्षिप्त चर्चा की जा रही है-

1. यह शास्त्र कर्मवाद, पुनर्जन्मवाद, सत्कार्यवाद, कारणकार्यवाद एवं अनेकान्तवाद जैसे दार्शनिक सिद्धांतों की पृष्ठभूमि पर गणित, वेध एवं सर्वेक्षण जैसी वैज्ञानिक प्रविधियों द्वारा जीव तथा ब्रह्माण्ड के जीवन के घटनाक्रम का विवेचन करता है। अतः घटनाओं और उनके परिणामों को जानने के लिए इस शास्त्र का उपयोग हजारों-लाखों वर्षों से किया जा रहा है और आगे भी होता रहेगा।

2. भारतीय दर्शन ने कर्म के तीन भेदों-संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण का प्रतिपादन किया है। किन्तु इनका फल क्या-क्या होगा? और वह कब-कब तथा कैसे-कैसे मिलेगा? इस विषय में सभी दर्शन एवं वेदांग शास्त्र मौन हैं। केवल ज्योतिष शास्त्र ही ऐसा शास्त्र है, जिसने इन तीनों प्रकार के कर्मों का फल जानने के लिए तीन प्रकार की प्रविधियों का विकास किया है, यथा-संचित कर्म का फल जानने के लिए योग, प्रारब्ध कर्मों का फल जानने के लिए दशा तथा क्रियमाण कर्मों का फल जानने के लिए गोचर पद्धति का विकास किया गया है। इस प्रकार यह त्रिविध कर्मों का इस जीवन में कब-कब, कैसे-कैसे और क्या-क्या फल मिलेगा? इसका गम्भीरतापूर्वक विचार करता है।

3. किसी भी प्रचलित कर्म का परिणाम क्या होगा? व्यक्ति को सफलता मिलेगी या असफलता? और विविध कर्मों की शुरुआत करने के लिए कौन-सा समय सर्वाधिक उपयुक्त रहेगा? आदि कर्म एवं उसके परिणाम से संबंधित प्रश्नों का सही-सही उत्तर इस शास्त्र से ही जाना जाता है। इसीलिए वैदिक, तांत्रिक, जैन एवं बौद्ध साधना में मुहूर्त, गोचर, प्रश्न, स्वर एवं जातक शास्त्र का पर्याप्त मात्रा में आश्रय लिया जाता है।

4. इस शास्त्र की एक प्रमुख विशेषता है-प्रत्यक्षता। यहां प्रत्यक्षता का अर्थ है-‘गणितागत परिणाम का ज्यों का त्यों दिखलाई पड़ना।’ उदाहरणार्थ जिस समय गणित के द्वारा ग्रहों का उदय, अस्त, मार्गत्व, वक्रत्व, ग्रहण आदि आए और उसी समय वह घटित हो जाय तो उसे प्रत्यक्षता कहते हैं। जैसे एक व्यक्ति की कुण्डली की गणना कर यह बतलाया जाय कि यह शिक्षित, सम्पन्न, प्रतिष्ठित एवं साधक होगा या इस व्यक्ति के जीवन में अमुक-अमुक समय में कठिनाई या संकट आयेंगे और वैसा ही घटित हो जाय- इस प्रकार गणितीय परिणामों का यथावत घटित होना प्रत्यक्षता कहलाती है, जो भारतीय ज्योतिष की मुख्य विशेषता है।

5. परिणाम की दृष्टि से मानव समाज को मिलने वाले लाभ के पैमाने पर इस शास्त्र का दर्शन एवं विज्ञान से तुलनात्मक विवेचन किया जाए, तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है ‘कि दर्शन एवं भौतिक विज्ञान जहां मानव के समक्ष भय, वैराग्य एवं निराशा की धूमिल रेखाएं अंकित कर उसको किंकर्त्तव्य-विमूढ़ता की ओर ढ़केलते हैं; वहां ज्योतिष मानव को भय, वैराग्य एवं निराशा से उन्मुक्त कर कर्त्तव्य के क्षेत्र में लाकर खड़ा कर देता है और उसको भविष्य का बोध कराकर अपने प्रयत्न द्वारा उसे अनुकूल बनाने की प्रेरणा देता है।’

6. इस शास्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह मानव जीवन के लिए समग्र सुविधा और पूरी-पूरी सुरक्षा देने का विचार करता है। अपने अभीष्ट की सिद्धि कैसे की जाय? इसका जितना सटीक एवं सही-सही विचार इस शास्त्र में किया गया है, उतना अन्य शास्त्रों में नहीं। इस शास्त्र के प्रणेता ऋषियों ने इष्ट प्राप्ति एवं अनिष्ट परिहार के पाँच उपाय बतलाये हैं- 1. मंत्र, 2. मणि (रत्न), 3. औषधि, 4. दान एवं, 5. स्नान।

 

ओरछा के राजा भगवान श्रीराम

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का स्थान भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म में अभिन्न है। राम का जन्म स्थान अयोध्या का वही महात्म्य है जो भगवान कृष्ण के जन्मस्थान मथुरा का है। सहज है कि इन स्थानों पर क्रमशः राम और कृष्ण को समर्पित मंदिर समूहों का कालक्रम में विकास हुआ। इस्लाम के आक्रमण के फलस्वरूप भारत में अनेक हिंदू मंदिरों का विनाश, लूटपाट व बलात धर्म परिवर्तन की स्थिति शताब्दियों तक रही थी। मुगल बाबर के आक्रमण और उसकी राणा सांगा पर निर्णायक विजय के फलस्वरूप हिंदू राजागण विशेष रूप से राजपूताना के सीमित क्षेत्रों में प्रायः सभी प्रमुख राज्यों को मुसलमान शासकों ने चारों ओर से घेर लिया था यथा गुजरात, मालवा, सिंध, पंजाब, दिल्ली-आगरा इत्यादि के सुल्तानों-नवाबों ने अनवरत दबाव बनाए रखा था। बाबर के समय अयोध्या में भारी विनाश की घटना घटी। अनेक धर्मप्रेमी राष्ट्रभक्त हिंदू राजा उद्वेलित तो थे किन्तु असमर्थ थे। उन्हीं दिनों वर्तमान बुंदेलखंड क्षेत्र में वीर बुंदेला राजा रुद्र प्रताप (1501-31) ने ओरछा राज्य की नींव डाली। यह क्षेत्र राजपूताना से दूर किन्तु अपेक्षाकृत अयोध्या के समीप था। रुद्र प्रताप का वंशज राजा मधुकर शाह के ओरछा का राजा बनने के दिनों में मुगल शासक अकबर का साम्राज्य था। अत्यंत वीर, स्वाभिमानी और धर्मप्रिय मधुकर शाह राधा-कृष्ण के भक्त थे और उनकी रानी गणेश कुंवरि भगवान राम की परमभक्ता थीं। राजा मधुकर शाह संत रामानंदजी से बहुत प्रभावित थे जिन्होंने हिंदू जातियों का भेदभाव भुलाकर निरपेक्ष भाव से हिंदू अध्यात्म का प्रचार प्रसार किया था। मधुकर शाह रामानंदी तिलक लगाते थे जो चंदन-रोली का नाक से शुरु होकर ललाट तक जाता था। उनके गले में रुद्राक्ष-तुलसी की माला सदैव रहती थी। मधुकर शाह ने एक बार चुनौती देकर अकबर की सेना को पराजित किया था। कालांतर अकबर की विशाल सेना के सम्मुख नीतिपूर्वक मध्यस्थों ने परस्पर शांति संधि करवा दी। एक बार राजा मधुकर शाह और उनकी रानी को स्वप्न में दैवीय प्रेरणा निर्देश प्राप्त हुए कि अयोध्या में उपेक्षित पड़ी भगवान राम की प्रतिमा जिसे मुसलमानों के आक्रमण के फलस्वरूप छिपाया गया था, उसे ससम्मान ओरछा लाकर स्थापित किया जाए। प्रसन्नतापूर्वक ससम्मान भगवान राम की प्रतिमा अयोध्या से ओरछा लाई गई। एक स्थान पर स्थापित करके राम का पूजन विधिपूर्वक किया जाने लगा और समीप ही एक भव्य विशाल मंदिर का निर्माण किया जाने लगा। नवनिर्मित मंदिर में जब प्रतिमा को स्थानांतरित करने की चेष्टा की गई तो प्रतिमा अपने स्थान से हिली तक नहीं, अतः उस मूल स्थान पर राम का मंदिर बना रहा और नवनिर्मित मंदिर को भगवान चतुर्भुज का मंदिर बना दिया गया। भगवान राम के ओरछा में इतनी दृढ़तापूर्वक प्रतिमा की स्थापना से प्रेरित होकर ओरछा की अखंडता और संपूर्ण राज्य को भगवान राम को समर्पित किया गया तथा तबसे ओरछा में राजा राम की पूजा परम्परा आज तक चली आ रही है। ओरछा को भगवान राम को समर्पित करने की परम्परा वैसी ही थी जैसा कि भारत में अनेक राजा अपने राज्य को भगवान को समर्पित करके ईश्वर के प्रतिनिधि बनकर राज्य करते थे। यथा (उड़ीसा) का राज्य ईश्वर को समर्पित था, मेवाड़ के राणा भगवान एकलिङ्ग के दीवाने बने, इन्दौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने भगवान शिव को राज्य अर्पित करके महेश्वर को राजधानी बनाया था। हिंदुत्व के उभरते ओरछा में इस गौरव को मुगल बादशाह अकबर सह नहीं पाया। अकबर ने हिंदुओं के सूर्य महाराणा प्रताप तक को वनों में भटकने को मजबूर कर दिया था। मधुकर शाह को अपमानित करने हेतु एक बार उन्हें आगरा बुलवाया। आगरा में अकबर ने दरबार में घोषणा की कि दूसरे दिन से कोई भी दरबार में तिलक लगाकर और कंठी-माला धारण करके नहीं आएगा। दूसरे दिन मधुकर शाह को छोड़कर सभी हिंदू राजागण बिना तिलक और माला के दरबार में गए। मधुकर शाह यथावत तिलक और कंठी माला सहित गए। अकबर ने कुपित होकर दंड देने के उद्देश्य से मधुकर शाह से शाही आदेश के उल्लंघन का स्पष्टीकरण मांगा। मधुकर शाह ने गर्व पूर्वक उत्तर दिया कि ‘भगवान को समर्पित नित्यप्रति की उनकी इस तिलक लगाने की परम्परा को मात्र अकबर के आदेश से नहीं तोड़ा जा सकता है। ऐसे आदेश से धर्म नहीं छोड़ा जा सकता।’ बुंदेला वीर के मुख पर ओजस्विता देखकर जहां सारे दरबारी आशंकित थे वहीं यह अनुमान सभी लगा रहे थे कि मरने-मारने के संकल्प से आए इस वीर की तलवार यदि म्यान से बाहर आ गई तो साथ के सभी हिंदू राजागण जो एक-दूसरे के परस्पर संबंधी भी थे उनको भी अकबर के विरुद्ध विद्रोह का पालन करना पड़ता। विद्रोह की आशंका को भांपकर अकबर ने तुरंत कूटनीति पूर्वक आदेश को वापस लेते हुए मधुकर शाह की हिंदू धर्म में दृढ़ आस्था की प्रशंसा की किंतु मन में अकबर बहुत कुढ़ गया और बुंदेलों का मानमर्दन करने के अवसर की प्रतीक्षा में रहा। संयोग से मधुकर शाह के पश्चात ओरछा के राजा इन्द्रमणि की दरबारी चहेती अत्यंत सुंदर और राय प्रवीण नामक महिला की प्रशंसा अकबर तक पहुंची। अकबर ने अवसर जानकर राय प्रवीण को अपने रनिवास (हरम) में भेजने का आदेश दिया। बुंदेलाओं की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया किन्तु अकबर  की शक्ति के सम्मुख असहाय थे। राजा नहीं चाहता था कि उसके कारण राय प्रवीण आत्महत्या कर ले। राय प्रवीण ने ओरछा के राजा भगवान श्रीराम से बहुत अंतर्मन से प्रार्थना की। सहसा राय प्रवीण को एक संभावित समाधान सूझा। उसने  अकबर के दरबार में प्रस्तुत होने की अनुमति मांगी। भरे दरबार में बुंदेलाओं की प्रतिष्ठा के दांव पर लगने की बात से अकबर ने प्रसन्नतापूर्वक अनुमति दी। खुले दरबार में रायप्रवीण ने दोहा गाया-

विनती राय प्रवीन की, सुनिए साहि सुजान।

झूठी पातर भखत हैं, बारी बायस स्वान॥

अर्थात-हे समझदार बादशाह! चोर, कौवा और कुत्ता ही झूठी पत्तल चाटते हैं। इतना कहना ही मेरी प्रार्थना है। अकबर सहित संपूर्ण दरबार स्तब्ध रह गया। अकबर ने रायप्रवीण की प्रशंसा की और सम्मान किया तथा उसे सुरक्षित वापस ओरछा भेजा। आज भी ओरछा में जहां राजा राम का मंदिर है तो वहीं राय प्रवीण के महल के खंडहर भी अपनी मूक गाथा कह रहे हैं।