मृत प्राय हो गई कुछ परम्पराएँ

.सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर, नेशनल दुनिया

रस्म पगड़ी - प्राचीन भारत में मनुस्मृति, मिताक्षरा पद्धति व दायभाग समाज के संचालन के लिए संविधान की तरह काम करते थे। इनके अनुसार प्राचीन भारत का परिवार कर्ता पर आधारित था, पूरे कुटुम्ब में आमतौर से सबसे वरिष्ठ व्यक्ति ही परिवार का मुखिया या कर्ता होता था तथा समस्त सम्पत्ति के अधिकार कर्ता में ही निहित होते थे और यह अधिकार स्ति्रयों को भी नहीं होते थे। कर्ता की मृत्यु के बाद सम्पत्ति के अधिकार अगले कर्ता में ही निहित हो जाते थे और भाईयों में बँटवारा नहीं होता था।  यह व्यवस्था हजारों वर्ष चली। बाद में नेहरू जी ने शारदा एक्ट का मन बनाया परन्तु उसका भारी विरोध हुआ। हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम 1956 लागू होने के बाद स्थितियों में परिवर्तन आये और कर्ता का महत्त्व समाप्त हो गया, क्योंकि अब सम्पत्तियों की विरासत सभी भाईयों, बहिनों और विधवा स्त्री में समान रूप से बँटती थी। प्राचीन भारत में पगड़ी की रस्म में पगड़ी कर्ता को ही बांधी जाती थी। जिसको पगड़ी बाँधी जाती थी, चाहे वह राजा हो और चाहे वह परिवार का कर्ता, समस्त उत्तरादायित्वों का निवर्हन उसे करना होता था। सामूहिक परिवार में सभी का विवाह और अन्य खर्चों का दायित्व कर्ता को ही निभाने होते थे। रस्म पगड़ी के समय तमाम रिश्तेदार कर्ता को कुछ न कुछ भेंट करके उसे मान्यता प्रदान करते थे। राजा के मामले में सभी  सामन्त और ठाकुर ठिकानेदार नजराना पेश करते थे।  परन्तु हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम लागू होने के बाद चूंकि सम्पत्ति का विभाजन हो जाता है, इसीलिए कर्ता का दायित्व भी समाप्त हो गया है। इस कानून के लागू होने के तुरन्त बाद हजारों चाचाओं और भतीजों ने अपने साम्पत्तिक अधिकारों के लिए मुकदमे लड़े, क्योंकि भूमि के अधिकार कर्ता के पुत्र को ही चले गये, जबकि उसमें परिवार के सभी सदस्यों का हिस्सा होता था। इतिहास में ऐसा बहुत कम हुआ है कि ज्येष्ठ पुत्र के अक्षम होने पर कनिष्ठ पुत्र को पगड़ी बाँधी गई। महाभारत काल के कुछ उदाहरण उपलब्ध हैं, जैसे कि धृतराष्ट्र और राजा ययाति का किस्सा। परन्तु अब कहा जा सकता है कि पगड़ी की रस्म अब एक निरर्थक सत्य है और इसका लोप कर दिया जाना चाहिए।

मृत्युभोज - किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद मृत्यु भोज की प्रथा अब धीरे-धीरे समाप्त हो चली है। आज से 100 साल पहले भी यह कुरीति के रूप में थी और व्यक्ति कर्ज लेकर भी मृत्यु भोज करता था। समाज में जागृति आने के बाद अब अधिकांश मामलों में यह होने लगा है कि पूरे गाँव का जीमण करने के बजाय लोग 12 ब्राह्मण जिमाकर निवृत्ति कर लेते हैं। अकाल मृत्यु के मामले में तो अपने आप ही लोग विचार करने लग गये, परन्तु पूर्णायु प्राप्त करने के बाद किसी के स्वर्गवासी होने पर मृत्यु भोज यदि नहीं किया जाये तो समाज में अब उतनी आलोचना नहीं होती। थोड़ी सी जागृति होने पर यह प्रथा गाँवों में भी समाप्त हो जाएगी, ऐसा विश्वास किया जाता है।

12 वर्ष की कन्या का विवाह - प्राचीन ग्रन्थों में यह कथन मिलता है कि 12 वर्ष से अधिक या रजस्वला होने के बाद कन्या पिता के घर में रहे तो वह नरकगामी होता है। समाज सुधार के कई अभियान चले हैं और वर्तमान कानूनों ने भी इसमें मदद की है, जिससे इस प्रथा पर असर आया है। पहले रजस्वला होने के बाद कन्या घर में रह जाती तो अड़ौसी-पड़ौसी बहुत ज्यादा टोका-टोकी करते थे। अब वह बात नहीं रही। कन्याओं को शिक्षा प्रदान करने में सरकारें बहुत मदद कर रही हैं। अब कोई भी डिग्री 20-22 की उम्र से पहले लेना सम्भव नहीं रहा है। फलतः कानूनी सीमा 18 वर्ष पार करने के बाद भी कन्याओं के विवाह औसतन 23 से 28 वर्ष के बीच होने लगे हैं। इस कारण से धर्म से जुड़ी परम्पराएँ भी शिथिल होने लगी हैं और अब समाज में कन्या के पिता को उपालम्भ देने वाले लोग नहीं हैं और वे निश्चिंत होकर कन्याओं को शिक्षा प्राप्त कराकर ही विवाह कर रहे हैं।

चार गोत्रों का निर्वाह - धर्म ग्रन्थों में चार गोत्र बचाने की बात कही गई है। आप यदि 100 वर्ष पुराने इतिहास को देखें तो गोत्र और उनके मूल ऋषियों के नाम हर किसी को याद होते थे। लोग गोत्र, प्रवर, वेद, शाखा, सूत्र और देवता का नाम भी याद रखते थे। हर गोत्र में कई प्रवर होते थे। आनुवांशिक शुद्धि के लिए दूर के गोत्र में विवाह करना अत्यन्त उत्तम माना जाता था। वास्तव में गोत्र एक तरह का त्रश्वहृश्व क्कह्रह्रद्य होता था। स्वयं का गोत्र, माँ का गोत्र, दादी का गोत्र तो बचाते ही थे, बहुत सारे लोग नानी का गोत्र भी बचाते आये हैं। अब इसमें भी शिथिलता आ गई है और लोग इस प्रथा का उल्लंघन करने लगे हैं। अब तो वैज्ञानिक धारणा भी यह है कि एक ही गोत्र में विवाह करने से सन्तान आनुवांशिक रोगों के साथ जन्म लेती है। मनुस्मृति तो स्पष्ट कहती है कि जिस कुल में सत्पुरुष ना हों, या विद्वान ना हों और जिस गोत्र के लोगों को क्षय रोग, मिर्गी, श्वेत कुष्ठ जैसी बीमारियाँ हों, वहाँ विवाह नहीं करना चाहिए। पाश्चात्य देशों में इस रूप में तो नहीं पर रक्त के आर.एच. फैक्टर की जाँच की जाती रही है।

हिन्दू मैरिज एक्ट की धारा 11 में सगोत्र विवाह को अमान्य कर दिया गया है और ऐसी शादी शुरु से ही अमान्य घोषित की जा सकती है। एक्ट में कुछ ऐसे रिश्ते भी वर्जित किये गये हैं जिनमें विवाह नहीं किया जा सकता, जैसे - सगे भाई-बहिन, भाई-भतीजे, मामा व भांजी, मौसी व भांजा। पिता की पाँच पीढ़ी और माता की तीन पीढ़ी में विवाह वर्जित है। यह सपिण्ड रिश्ते कहलाते हैं।

परन्तु इस प्रथा का उल्लंघन हो गया है और किसी भी मामले में अब चार गोत्र नहीं बचाये जा रहे हैं। अन्य प्रथाएँ चाहें निर्जीव हो जाएं परन्तु गोत्रों को बचाना विज्ञान सम्मत भी है।

चंद्रमा और मन

डालचंद प्रजापति

आत्मानं रथिनं विद्धि, शरीरं रथमेव तु।

बुद्धि तु सारथी विद्धि, मनः प्रग्रहमेव च।।

आत्मा रथिन (रथ में बैठने वाला—सवारी) है, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी (रथ को हांकने या चलने वाला—ड्राइवर) है और मन घोड़ों की लगाम नियंत्रण में करने वाला—प्रबंधक) है। लगाम अर्थात् नियंत्रण अर्थात् प्रबंध इस संसार में सबसे महत्वपूर्ण व्यवस्था है। घर हो या समाज, स्कूल हो या कॉलेज, संस्था हो या कारखाना, सभी स्थानों पर प्रबंध और नियंत्रण अनिवार्य है। बिना नियंत्रण सब जगह अराजकता फैल जाती है। अव्यवस्था हो जाती है अतः हम देखते हैं कि हमारे शरीर में मन, प्रधान इन्दि्रय है।

जब हम इस मनरूपी सत्ता का विश्लेषण ज्योतिषीय दृष्टिकोण से करने लगते हैं तो हम देखते हैं कि ज्योतिष में सात ग्रहों का भौतिक स्वरूप विद्यमान है—सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र और शनि। ज्योतिष शास्त्र में इन सातों ग्रहों के भौतिक स्वरूप को मानव शरीर में व्याप्त सात प्रमुख गुणों, भावनाओं का प्रतिनिधि मानते हैं यथा—

सूर्य—आत्मा, चन्द्र—मन, मंगल—धैर्य, पराक्रम, साहस, वीरता, बुध—वाणी, भाषा, वृहस्पति—विवेक, नीरक्षीर, न्याय, शुक्र—वीर्य, वासनाएँ, शनि—संवेदना

विशेष—नवग्रहों की प्रभुसत्ता में भौतिक अस्तित्व सात ग्रहों का ही है शेष दो ग्रह राहु-केतु का अस्तित्व नहीं होकर ये गणितीय, खगोलीय बिन्दु हैं जिन्हें ज्योतिष वाङ्मय में ग्रहों के रूप में स्वीकार किया गया है और ये ग्रह मानव शरीर और भावनाओं को मिश्रित रूप से प्रभावित करते हैं।

प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थों में ‘चन्द्रमा मनसो जातः’कहकर चन्द्रमा की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। इस लौकिक संसार में हम देखते हैं कि मन ही राज कर रहा है, जिसके मन में आता है वह वैसा ही व्यवहार कर रहा है। आज आत्मा की आवाज मन के ढोल के आगे नक्कारखाने में तूती हो जाती है।

मन की गति तीव्रतम है, संसार में आज भी ऐसा कोई अन्य विकल्प नहीं बना जिसकी गति मन से अधिक हो। ठीक उसी प्रकार सात ग्रहों में भी सबसे तीव्रतम गति चन्द्रमा की ही है। चन्द्रमा एक अहोरात्र में लगभग 800 कला चल लेते हैं। गति में इतना भारी अंतर और आश्चर्य देखे जा सकते हैं परन्तु यह सब होगा चन्द्रमा और मन के गूढ़ और आन्तरिक सम्बन्धों का विश्लेषण करने से।

यदि किसी कुंडली में चन्द्रमा बली हों, शुभ स्थिति में हों तो ऐसा जातक मानसिक रूप से भी स्वस्थ, सुदृढ़ विचारों वाला होगा, वह उत्साहित और प्रसन्न दिखाई देता है जबकि किसी कुंडली में क्षीण चन्द्र, अशुभ प्रभाव से ग्रसित होने पर व्यक्ति भी निर्बल, निराश, अवसाद ग्रस्त मन का होगा, वह कष्ट-क्लेशों में जकड़ा होगा। यदि चन्द्र पूर्ण हो और संवदेनशील और वैरागी ग्रह शनि के साथ होगा तो वह व्यक्ति त्यागी, वैरागी और उच्च कोटि का तत्व चिन्तक संत होगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि चन्द्रमा की स्थिति व्यक्ति के आचार-विचार, स्वभाव प्रकृति आदि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है।

चन्द्रमा गति और अस्थिरता का प्रतीक है। चन्द्र से प्रभावित व्यक्ति कभी स्थिर नहीं हो पाता है। इसलिए प्रसिद्ध ग्रंथ गीता में भी स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षणों का वर्णन करते समय भगवान श्री कृष्ण मन पर ही नियंत्रण लगाने का उपदेश देते हैं।

चन्द्रमा शारीरिक चेतना शक्ति को प्रत्यक्षः प्रभावित करता है। यह मानव मन में उठने वाले आवेगों, कल्पनाओं, उद्वेगों, संवेदनाओं, भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। एक शुभ स्थिति वाले चन्द्रमा का जातक श्रेष्ठ साहित्य, चित्रकला, संगीत, रहस्य आदि का सृजन करने लगता है। जब हम ज्योतिष में उपलब्ध चन्द्र योगों पर विचार करते हैं तो देखते हैं कि शुभ स्थित चन्द्रमा वाले व्यक्ति मानसिक रूप से बली हो जाते हैं और अन्य ग्रहों के योग से तदनुरूप फल देते हैं।

ज्योतिष के एक प्रसिद्ध ग्रंथ फलदीपिका के अध्याय 2 के श्लोक दो में चन्द्रमा को इस भौतिक संसार में माता की कुशलता, चित्त की प्रसन्नता, समुद्र में ज्वारभाटा, सफेद वस्तु या चंवर, छत्र, राजचिह्न, फल, पुष्प, मुलायम वस्तुएं, कृषि, अन्न, कीर्ति, मोती, चांदी, कांसा, दूध, मधुर पदार्थ, वस्त्र, गाय, स्त्री सुख, स्वादिष्ट भोजन, रूप लावण्य आदि का नैसर्गिक कारक माना गया है।

चन्द्रमा की अति प्रबलता और अति क्षीणता दोनों ही स्थितियां मानव के लिए ठीक नहीं मानी जाती है जैसे अमावस्या और पूर्णिमा। अमावस्या को चन्द्रमा क्षीण और पूर्णिमा को चन्द्रमा पूर्ण होता है। ये दोनों ही चन्द्रमा मानव मन को प्रभावित किए बिना नहीं रहते। हम देखते हैं कि अन्य तिथियों की अपेक्षा पूर्णिमा को संसार में अधिक हिंसा और उत्पात होते हैं। प्रकृति में भी भूकंप पूर्णिमा के आस-पास ही आते हैं जिन व्यक्तियों की कुंडली में पूर्ण चन्द्र होते हैं वे क्रान्तिकारी, त्यागी, तपस्वी हो जाते हैं क्योंकि पूर्ण चन्द्र व्यक्ति के मन को भी पूर्णतः प्रभावित करते हैं। इसके विपरीत अमावस्या को जन्मे जातकों को जीवन में कुछ अभाव रह जाता है। वे आलसी और लापरवाह जीवन जीते हैं। प्राचीन भारत में संभवतः चन्द्रमा की इस क्षीणता और निर्बलता को देखकर विद्वानों ने अमावस्या को अवकाश का दिन घोषित किया था जो आज भी श्रमिक वर्ग में अवकाश के रूप में मनाया जाता है।

चन्द्रमा मन का कारक है और मन को गति देता है इसलिए यह देखा जाता है कि यदि चन्द्रमा केन्द्र त्रिकोण, जलराशि (कर्क-मीन), त्रिक् भाव (6, 8, 12) में हो तो जातक को जन्म स्थान से दूर ले जाता है और ऐसे जातक प्रायः विदेश में निवास करते हैं। बार-बार विदेश यात्रा करते हैं अथवा उनके विदेश से व्यापारिक सम्बन्ध बनते हैं। जिन व्यक्तियों के धर्म त्रिकोण (नवम भाव) में चन्द्रमा हो वे प्रायः विदेश की तीर्थ यात्राएं अथवा धार्मिक प्रवचन आदि के प्रसंग में विदेश जाते हैं।

 

पक्षियों का आत्मघात

आज के वैज्ञानिक युग में संसार के सारे विज्ञानी एक गुत्थी को नहीं सुलझा पाए हैं कि जतिंगा नामक असम राज्य के उत्तरी काछार पहाड़ी जिले के पक्षियों का सामूहिक आत्मघात क्यों होता है? गुवाहाटी नगर से 330 किमी. दूर जतिंगा के डेढ़ किलोमीटर लम्बे और 200 मीटर चौड़े भूमिखंड विशेष पर ही कृष्ण पक्ष की रात्रियों में 7 बजे से 10 बजे के मध्य देश-विदेश से अनेक पक्षी उड़कर आते हैं और उसी भूभाग पर घूम-घूमकर तेजी से टकराते हैं अथवा गोता मारकर गिरते हैं।

प्राणी विशेषज्ञों ने अब तक 44 प्रजातियों के पक्षियों के द्वारा ऐसा आत्मघात किया जाने की पुष्टि की है। संभव है भविष्य में इस घटना का कोई भौतिक, दैविक अथवा आध्यात्मिक समाधान प्राप्त हो किंतु जतिंगा बर्फ से ढका हुआ प्रदेश नहीं हैं। पर्वतारोहण और तीर्थयात्रा का समन्वयन हिमाच्छादित हिमालय के विस्तृत कश्मीर, तिब्बत, उत्तरांचल, नेपाल और हिमाचल इत्यादि भूभाग पर यात्रा युगों से की जाती रही है। इन सबमें सबसे दुर्गम तीर्थ पदयात्रा  नंदा देवी की मानी जाती है। कदाचित यह संसार की सबसे दुर्गम और लम्बी तीर्थ यात्रा है जो दो सौ अस्सी किलोमीटर लम्बी है। यह यात्रा नौती (चमौली जिला, उत्तराचंल) से आरंभ होकर भारत-तिब्बत सीमा पर होमकुंड नामक स्थान पर समाप्त होती हे। 17,500 फीट ऊंचें पर्वतों के बीच से होने वाली यह यात्रा बारह वर्षों में एक बार सम्पन्न होती है। यह यात्रा नंदा-राज-जाट के नाम से विख्यात है। इस पग तीर्थयात्रा के मार्ग में संसार की सबसे ऊंची रहस्यमयी झील रूपकुंड पड़ती है जो कि 16,200 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। आगे यह यात्रा भारत तिब्बत सीमा पर त्रिशूली चोटी के समीप होमकुंड पर जाकर समाप्त होती है। इस यात्रा के सबसे आगे कोई छड़ी, ध्वज अथवा छत्रधारी न होकर चार सींगों वाला, काले रंग का मेढ़ा (मेष) चलता है। ऐसा मेढ़ा बारह वर्षों में एक बार पैदा होता है उसे खाड कहते हैं। यह विस्मयकारी है कि वह खाड होमकुंड से लगी चोटी से स्वयं ही अज्ञात दैवीय प्रेरणा से छलांग लगाकर आत्मोत्सर्ग कर देता हैं। मेढ़े की स्वबलि के साथ चलने वाली नंदा देवी की प्रतिमा पूजन सामग्री इत्यादि का होमकुंड  में विसर्जन कर दिया जाता है। आध्यात्म में बारह वर्ष के तप की विशिष्ट महत्ता होती है। मेढ़ा प्रथम राशि, मेष का प्रतीक चिन्ह है अतः यह खाड का पैदा होना और अज्ञात आकर्षण से बलि होना निरर्थक नहीं हो सकता है। क्या उस मूक पशु का बलिदान विश्व मानवता का ध्यान आकर्षित करने के लिए होता है कि त्रिशूली चोटी की तलहटी और होमकुंड ही वह प्रतीक्षित भूभाग है जहां विक्रमादित्य का कालपात्र गड़ा हुआ है और विदेशी भविष्यवेता उसी की ओर इंगित करते रहे हों? पुराखुदाई और विधिवत् शोध से ही सत्य जानने की चेष्टा की जा सकती है।

 

 

 

ब्रह्मा क्यों नहीं पूजे जाते?

पुराणों में ब्रह्मा जी की अपूज्यता अर्थात् सभी कार्यों में या उपासना के रूप में अर्चना या आराधना नहीं की जाती। केवल यज्ञ के अवसर पर अग्रि की स्थापना होने के बाद ब्रह्मा जी की यज्ञ वेदी से दक्षिण में स्थापना कर पूजा की जाती है और पूर्णाहुति होते ही उनका विसर्जन भी कर दिया जाता है।

घटना कुछ इस प्रकार घटित हुई। ब्रह्मा जी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो सर्वप्रथम मानसी सृष्टि के दौरान सनक, सनन्दन, सनत् कुमार और सनातन प्रकट हुये। ये उत्पन्न होते ही चार वर्ष के बालक हो गये और नारायण नारायण कहते हुये श्री हरि की भक्ति में रत हो गए। ब्रह्मा जी का कार्य फिर रुक गया  तो उन्होंने अपनी नरद (गर्दन के अग्र भाग) से एक पुत्र उत्पन्न किया जिसका नाम नारद रखा। ब्रह्मा जी ने नारद से कहा  कि तुम विवाह करो और सृष्टि विकास के कार्य में अपने पिता का सहयोग करो। तब नारद जी ने कहा, तात मैं तो श्री हरि की भक्ति ही करुंगा। विवाहादि प्रयोजन मेरे आकर्षण के विषय नहीं है। ब्रह्मा जी के बार-बार समझाने पर भी नारद अपनी बात पर अटल रहे तो ब्रह्मा जी ने क्रोधित हो कर शाप दे दिया कि मेरे शाप से तुम्हारे ज्ञान का लोप हो जायेगा। तुम गंधर्व योनि में जन्म लेकर पचास पत्नियों के पति बनोगे। विषय वासना में तुम्हारी बुद्धि रमेगी। विविध श्र्ंाृगार और गायन-वादन में तुम निपुण हो जाओगे। उस समय तुम उपबर्हण नाम से प्रसिद्ध होंगे। विषय वासना से पूर्ण लिप्त हो कर तुम पुनः दासी के गर्भ से प्रकट होंगे। उस जन्म में तुम विद्धानों और ब्राह्मणों की संगत और उनकी झूठन खाने से मेरे शाप से मुक्त होंगे। तत्पश्चात अगले जन्म में फिर तुम्हारी मेरे पुत्र के रूप में प्रतिष्ठा होगी तब मैं तुम्हें स्थिर ज्ञान दूंगा।

नारद जी ने कहा कि आपने मुझे सत्मार्ग पर रहने और असत् मार्ग जो विषय भोगों से लिप्त हैं उस पर चलने में असमर्थता प्रकट करने के कारण शाप दिया है। अतः मैं यदि शाप के बदले शाप दूं तो अनुचित नहीं होगा। सो मैं भी तुम्हें शाप देता हूँ कि सम्पूर्ण लोकों में कवच, स्तोत्र और पूजा सहित मंत्रों का लोप हो जायेगा। अगले तीन कल्प तक सभी लोगों में आप अपूज्य बने रहोगे। इस समय स्वतंत्र रूप में आपका यज्ञ भाग बन्द हो जायेगा। बस आप देवताओं के ही उपास्यबने रहोगे। इसलिये ब्रह्मा जी सर्वत्र नहीं पूजे जाते।

इस घटना के पीछे यह इतिहास जुड़ा है जो इस प्रकार है।

प्राचीन काल में एक गंधर्व राजा था। उनके पास सभी प्रकार की सम्पतियाँ थी पर वे पुत्र सुख से हीन थे। गंधर्व राज एक बार अपने गुरु की आज्ञा ले कर पुष्कर तीर्थ में गये और वहां एकाग्रचित्त से भगवान शंकर की आराधना करने लगे। उस समय इनके मन में बड़े दया के भाव थे। ऋषि वशिष्ठ ने उन्हें भगवान शंकर के कवच-स्रोत तथा द्वादशाक्षर मंत्र का उपदेश दिया। लम्बे समय तक गंधर्वराज तपस्या करते रहे, तत्पश्चात् भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिया। गंधर्वराज ने उन्हें प्रणाम किया और स्तुति करने लगे। तब भगवान शंकर ने कहा कि कोर्ई इच्छित वर मंागो। तब गंधर्व राज ने भगवान शंकर से श्री हरि की भक्ति और परम वैष्णव पुत्र मांगा।

तब भगवान शंकर ने हंसते हुये कहा कि वास्तव में तो तुमने एक ही वर को दो बार मांगा है क्योंकि श्री हरि की भक्ति प्राप्त हो जाने पर शेष कुछ भी नहीं रह जाता। किसी मनुष्य की तभी तक पत्नी की इच्छा होती है, तभी तक पुत्र प्यारा लगता है, तभी तक ऐश्वर्य की इच्छा होती है, तभी तक सुख दुख का अहसास होता है जब तक कि उसका मन श्री हरि में नहीं लगता। श्री हरि की भक्ति में एक बार मन लगते ही सर्वत्र संतुष्टि का अहसास हो जाता है। जिन सदाचारी गृहस्थों  के पुत्र परम वैष्णव  होते हैं वे कुल की सभी पीढ़ियों को तार देते हैं। तुम श्री हरि के दासत्व के अतिरिक्त कोई और वरदान चाहो तो मांग सकते हो। तब गंधर्वराज ने कहा कि प्रभो मुझे अन्य किसी भौतिक-दैविक या दैहिक सुख की कामना नहीं है। मुझे तो श्री हरि की भक्ति और परम वैष्णव पुत्र ही दीजिए। तब भगवान वर की पूर्ति का आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गये। भगवान शंकर से आशीर्वाद प्राप्त कर गंधर्वराज अपने घर आये। समयानुसार गंधर्वराज की पत्नी के गर्भ से भारत देश में नारद जी का जन्म हुआ। तब कुल गुरु वशिष्ठ ने उस बालक का नाम उपबर्हण रखा। वशिष्ठ जी ने उस बालक उपबर्हण को श्री हरि की भक्ति का आशीर्वाद दिया।

जब उपबर्हण युवा हो गये तो एक समय वे गण्डकी नदी के तट पर हरि सुमिरन कर रहे थे। तब गण्डकी नदी में पचास गंधर्व कन्याएं स्नान करने आई। उन्होंने उपबर्हण को देखा और इन पर मोहित हो गई। उन्होंने उपबर्हण को पतिरूप में प्राप्त करने  की इच्छा से योगशक्ति के द्वारा प्राणों को त्याग दिया और चित्ररथ गंधर्व के घर जन्म लेकर उपबर्हण से विवाह कर लिया। उपबर्हण बहुत समय तक उनके साथ रहने लगा। जब अधिक काल व्यतीत हुआ तब एक दिन वे ब्रह्मा जी के पास ब्रह्म लोक में गये और वहां श्री हरि का गुणगान करने लगे। वहां रम्भा नाम की अप्सरा को नृत्य करते देख, उपबर्हण के मन पर काम ने  अधिकार किया। कामीजनों के समान चेष्टा प्रकट करने पर उनकी बड़ी हंसी हुई। तब ब्रह्मा जी ने उपबर्हण को शाप दिया कि तुम गंधर्व योनि को त्याग दो और शूद्रयोनि के हो जाओ। फिर समयानुसार तुम वैष्णव संतों का संसर्ग प्राप्त कर पुनः मेरे पुत्र के रूप में प्रतिष्ठित हो जाओगे। ब्रह्मा जी उपबर्हण से ऐसा कहकर अपने धाम को चले गये। तब उपबर्हण तत्काल अपने शरीर को त्यागने लगे। इस प्रक्रिया में वे समाधिस्थ हो कर आत्मा को आत्मा में ही लीन कर चिंतन करने लगे। तब उन्हें पूर्वजन्म की घटनाएं याद आने लगी और वे ब्रह्म भाव से चिंतन करने लगे। तब तीन तार वाली वीणा को कंधे पर रख, शुद्ध स्फटिक की माला में श्री हरि के नाम का स्मरण करने लगे और शुद्ध कुशा की चटाई पर लेटकर देहत्याग करने लगे। उपबर्हण को देह त्याग करते देख, उसके माँ-बाप ने श्री हरि का ध्यान करते हुये देह त्याग कर दिया। उपबर्हण की मृत्यु से उसकी रानियां भी विलाप करने लगी। फिर उपबर्हण ने दासी पुत्र के रूप में जन्म लिया और ब्राह्मणों की संगत से पुनः विस्मृत ज्ञान को प्राप्त किया।

ब्रह्मा जी के शाप से नारद उपबर्हण और फिर दासी पुत्र हुये और तीसरे जन्म में ब्रह्मा जी ने उन्हें पुनः ज्ञान दिया और नारद जी को महर्षि पद प्राप्त हुआ। इस प्रकार नारद जी के शाप से ही ब्रह्मा स्वतंत्र रूप से अपूज्य और पूजा-आराधाना आदि से वंचित हो गये।