दो बड़े गुरु : बृहस्पति और शुक्र

पं. सतीश शर्मा

दुनिया के जितने भी प्रोफेशनल्स हैं, उनमें या तो बृहस्पति के अंश हैं या शुक्र के अंश हैं। इन दोनों के बारे में दो श£ोक इनके चरित्र का वर्णन करते हैं।

बृहस्पति के लिए श्लोक –

देवानां च ऋषीणां च गुरुं काञ्चनसंनिभम्।

बुद्धि भूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्।।

बृहस्पति ऋषि थे, परन्तु उनकी आध्यात्मिक साधनाएँ इतनी उच्च कोटि की थीं कि उन्हें ब्रह्मा की सभा में बैठने का अधिकार मिला और यज्ञ भाग भी मिला। महर्षि अंगिरा के पुत्र देवताओं के पुरोहित हैं। इनके अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधि देवता ब्रह्मा हैं। सूर्य से पाँचवें एवं सबसे बड़े ग्रह हैं। इन्होंने बार्हस्पत्य सूत्र की रचना की। देवगुरु की पदवी पाने के लिए इन्होंने प्रभास तीर्थ के तट पर घोर साधना की और देवताओं के गुरु होने का सौभाग्य पाया। शिवजी ने ही इन्हें नवग्रहों में स्थान दिया। दुनिया में जितना भी सलाहकार वर्ग है, उनमें बृहस्पति का अंश है। ज्योतिष में इन्हें वित्त, बैंकिंग, शरीर की चर्बी, विद्वत्ता, विज्ञान इत्यादि का स्वामी माना जाता है। दादा, वृद्ध और गुरु, यह इनका स्वरूप है। अपनी ही धुरी पर 10 घंटे में घूम जाने वाले बृहस्पति से 1300 पृथ्वियाँ बन सकती हैं। गुरुत्व शक्ति पृथ्वी से 318 गुणा अधिक है। कई उपग्रहों को और अंतरिक्ष पिण्डों को आकर्षित करके अपने में मिला चुके हैं। 

शुक्र के लिए श्लोक –

हिम कुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्।

सर्वशास्त्रप्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्।।

उक्त श्लोक में शुक्र को सब शास्त्रों का प्रवक्ता माना गया है। ये असुरों के गुरु हैं। ऋषि होते हुए भी देव श्रेणी में आ गये और यज्ञ भाग का अधिकार मिला। माया विद्याएँ जानने वाले शुक्र कई बार बृहस्पति और उनके शिष्यों पर बहुत भारी पड़ते थे। मृत संजीवनी विद्या इन्हीं को आती थी। मत्स्य पुराण में यह उल्लेख मिलता है कि भगवान शंकर ने शुक्र को यह वरदान दिया था कि उन्हें कोई नहीं मार सकता। शिवजी ने ही उनको धनाध्यक्ष और संसार की समस्त सम्पत्तियों का स्वामी बना दिया। इनके अधिदेवता इन्द्राणी और प्रत्याधि देवता इन्द्र हैं। अपने गुरु अंगिरस से नाराज हो गये, क्योंकि वे बृहस्पति का पक्ष लेते थे। फिर इन्होंने ऋषि गौतम को अपना गुरु बनाया और तपस्या के बल पर मृत संजीवनी विद्या का वरदान लिया। असुरों को शरण देने के अपराध में देवताओं ने शुक्र की माता का वर्ध कर दिया। बस यहीं से शुक्र ना केवल बृहस्पति के, बल्कि विष्णु और देवताओं के भी शत्रु हो गये। पुराण इन कथाओं से भरे पड़े हैं कि कैसे बहुत बार शुक्र ने अपने शिष्य असुरों की मदद से स्वर्ग पर कब्जा किया और देवताओं को बहिष्कृत किया। एक बार मौका आया था कि शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के विवाह का प्रस्ताव बृहस्पति के पुत्र कच से करने का आया। परन्तु कच ने ठुकरा दिया और यही  कच बाद में पिता की आज्ञा से शुक्राचार्य के पास मृत संजीवनी विद्या सीखने पहुँच गये।

शिवजी का युद्ध जब अंधकगण राक्षसों से हुआ तो शुक्र उनको वापिस जीवित कर देते थे। वामन पुराण में उल्लेख है कि क्रोधित शिव ने शुक्र को ही निगल लिया। एक दिव्य वर्ष तक शुक्र वहाँ ब्रह्माण्ड दर्शन करते रहे और बहुत याचना करने पर शिवजी के मूत्र मार्ग से निकले। तब से इनका नाम शुक्र पड़ा और काम उनका विषय हो गया। जिसका शुक्र अति बलवान, वह कामुक हो जाता है। इन्होंने ऋग्वेद के नवम मण्डल के 47, 48, 49 तथा 75-79 तक के सूक्तों की रचना की। ये भृगु वंश के थे इसलिए भार्गव कहलाये।

एक किस्सा ऐसा भी है जब संजीवनी विद्या सीखने के समय असुरों को बृहस्पति पुत्र कच का परिचय मिल गया। उन्होंने कच को मार दिया। परन्तु शुक्राचार्य ने उसको पुनः जीवित कर दिया। दैत्यों ने फिर उसको मारकर उसकी राख सोमरस में मिलाकर शुक्राचार्य को पिला दी। शुक्राचार्य ने कच से कहा कि मैं तुझे मेरे पेट में रहते ही विद्या सिखा दूँगा, जब तुम सीख जाओ तो मेरा पेट फाड़कर बाहर आ जाना और मुझे पुनः जीवित कर देना। कच ने ऐसा ही किया। परन्तु उसके बाद शुक्राचार्य ने ब्राह्मणों पर कुछ प्रतिबंध लगा दिये। एक प्रतिबंध यह था कि जो भी मंदबुद्धि ब्राह्मण भूल से भी मदिरा पीयेगा उसके समस्त धर्म का नाश हो जायेगा और उसे ब्रह्म हत्या का पाप लगेगा।

देवयानी कथा -

शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी बृहस्पति के पुत्र कच पर मोहित हो गई। परन्तु कच ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। देवयानी ने उसे शाप दिया कि तुम्हारी संजीवनी विद्या कभी फलवती नहीं होगी। कच ने उल्टा शाप दे दिया कि कोई भी ऋषि पुत्र तुम से विवाह नहीं करेगा।

शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और राजा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा सखियाँ थीं। राजपुत्री शर्मिष्ठा ने एक बार देवयानी को पीटा और कुएँ में डाल दिया। काफी समय बाद राजा ययाति वहाँ से गुजरे और उन्होंने देवयानी को कुएँ से बाहर निकाला और छोड़कर चले गये। शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री के साथ राज्य त्यागने का निर्णय लिया और राजा का आग्रह तभी माना जब वे देवयानी से विवाह करें और शर्मिष्ठा (राजपुत्री) उसकी दासी बनेगी। बाद में कुछ ऐसा हुआ कि राजा से शर्मिष्ठा से भी सम्बन्ध हो गये और उसी से उत्पन्न एक पुत्र बाद में राज्य का उत्तराधिकारी बना। उसका नाम पुरु था। चूंकि पुरु ने अपने भोगी पिता ययाति को अपना यौवन प्रदान कर दिया था तब से एक ययाति ग्रन्थि शब्द की उत्पत्ति हुई जो कि तीव्र कामना की ग्रंथि मानी जाती है।

जहाँ बृहस्पति परम सात्विक हैं और यज्ञ बल से एवं आस्तिक मार्ग से देवताओं को शक्तिशाली बनाते थे, शुक्र विद्याओं के स्वामी थे, माया विद्याएँ जानते थे, मृत संजीवनी विद्या का ज्ञान था और देवताओं व असुरों के युद्ध में शुक्र कई बार असुरों को स्वर्ग प्राप्ति कराने में सफल रहे। शुक्र के शिष्यों के साथ भोग और विलास जुड़े हुए हैं। बृहस्पति के शिष्य सदा मोक्ष मार्गी रहे और निवृत्ति मार्ग अपनाया जो कि असुरों के प्रवृति मार्ग से एकदम उलट है।

मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि बृहस्पति और शुक्र दोनों ही अत्यंत पवित्र हैं, देवता हैं, गुरु हैं तथा बहुत बड़े पौराणिक पात्र हैं। जहाँ बृहस्पति देवताओं की और वेदों की ऋत व्यवस्था (नैतिक नियमों का संचालन-यथा, शाप का पालन देवता भी करेंगे) के संरक्षक हैं, वहाँ शुक्र सभी शास्त्रों के प्रवक्ता हैं। वे श्रेष्ठ शिक्षक हैं, शास्त्रों की पालना का उपदेश देते हैं एवं उनके कई शिष्य असुरों ने साधना करके ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति ब्रह्मा से की थी। देवता सदा ही उनके ब्रह्मास्त्र को निष्फल करने में लगे रहे। ऐसा हनुमान जी ने भी किया और भगवान कृष्ण ने भी किया। मेरा यह भी अनुभव है कि आज के कुछ अतिप्रसिद्ध ज्योतिषी शुक्र की लग्न या शुक्र की राशि के प्रभाव में हैं या उनके शुक्र बलवान हैं। कम्प्यूटर, डिजिटल प्रमोशन, हवाई यात्राएँ, पॉवर पाइंट प्रजेन्टेशन और समूह सम्मोहन (मैस्मेरिज्म) की क्षमताओं से युक्त हैं (चाहे उन्हें पता हो या ना हो)। वे श्रेष्ठ वक्ता हैं, उनके तर्क अकाट्य हैं और यदि मंगल भी बलवान हुआ तो उनकी तर्क शक्ति और भी शक्तिशाली हो जाती है। जैमिनी ऋषि ने कहा भी है कि ‘‘कुजेन तार्किकः’’। आज, जबकि कलयुग में राहु का वर्चस्व है, उसी भाँति शुक्र का बलवान होना भी आवश्यक जान प्रतीत पड़ता है, अन्यथा हिन्दुस्तान जैसी बड़ी आबादी के देश में प्रसिद्ध होना कोई सरल कार्य नहीं है।

मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मेरी जन्म पत्रिका में बृहस्पति ही नहीं उनसे भी अधिक शुक्र बलवान हैं। परन्तु यदि आप सब ने यदि अपनी मानसिक शक्तियों पर नियंत्रण नहीं किया तो शुक्र विनाश की ओर भी ले जा सकते हैं।

 

 

 

राहु का स्वरूप तथा ग्रहों के साथ युति के फल

पं. श्रीराम शर्मा

हजारों वर्ष पूर्व जब राक्षस संस्कृति पृथ्वी पर विद्यमान थी उस समय हिरण्यकश्यप नाम का राक्षस था। हिरण्यकश्यप का एक पुत्र प्रहलाद तथा  पुत्री सिहिंका थी, सिहिंका के पति विप्रचिति थे, विप्रचित के घर एक पुत्रका जन्म हुआ जिसका नाम स्वर्भानु था, स्वरभानु जब बड़ा हुआ तो एक दिन अपनी माता से कहने लगा कि माता जिस प्रकार देवता पूजे जाते हैं वैसे ही हम राक्षस भी क्यों नहीं पूजे जाते तब सिहिंका ने कहा पुत्र हम राक्षस हैं हमारे कर्म अलग हैें इसलिए हम पूजे नहीं जाते, इस पर स्वर्भानु ने माता से कहा कि माता एक दिन मैं भी इन देवताओं की तरह पूजा जाऊंगा और जगंल में आकर भगवान ब्रह्मा की पूजा तपस्या करने लगा, जब स्वर्भानु को तपस्या करते हुये काफी वर्ष बीत गए थे, तभी देवताओं और राक्षसों ने समुद्र मंथन करने की योजना बनाई।

समुद्र मंथन में सभी रत्नों के निकल जाने के बाद जब अमृत प्राप्त हुआ और भगवान विष्णु मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को अमृत तथा राक्षसों को शराब (मदिरा) पिला रहे थे तो उधर भगवान ब्रह्मा ने स्वर्भानु को दर्शन दिया और अमृत प्राप्ति की बात कही और कहा कि यदि तुम अमृत पी सकोगे तो तुम अवश्य ही पूजे जाओगे स्वर्भानु तुरन्त उस स्थान पर पहुंचा जहां अमृत का वितरण हो रहा था, स्वर्भानु ने देखा कि मोहिनी रूप धारण किये हुये विष्णु जी राक्षसों को मदिरा और देवताओं को अमृत पिला रहे हैं तो स्वर्भानु देवताओं का रूप धारण कर सूर्य व चन्द्र देव के बीच में पहुंच गए, विष्णु भगवान ने जब अमृत स्वर्भानु को दिया तो चंद्र व सूर्य देव ने पहचान कर कहा कि ये तो राक्षस है। तब तक स्वरभानु अमृत पी चुका था, विष्णु भगवान ने अपने सुदर्शनचक्र से स्वर्भानु का मस्तक धड़ से अलग कर दिया, अमृत पान के कारण स्वर्भानु मरा नहीं,कालान्तर में सिर का राहु व धड़ का केतु नाम पड़ा, ब्रह्माजी ने ग्रहों में इन्हें स्थान दिया।

इन्हीं राहु-केतु का अलग-2 ग्रहों के साथ युति के अलग-अलग फल होते हैं। राहु व सूर्य यदि शुभ राशियों में मित्र राशियों में शुभ ग्रहों से दृष्ट तथा जन्म पत्रिका के लग्र, तृतीय, पंचम, दशम तथा द्वादश भाव में स्थित हों तो मान सम्मान की प्राप्ति होती है। जीवन में भ्रमण का कार्यक्रम अचानक बनता है और जिस उद्देश्य के लिए भ्रमण होता है लगभग पूर्ण होता है, व्यक्ति किसी भी कार्य को अपने हाथ में ले लें तो पूर्ण अवश्य करता है, न्याय व अन्याय में अन्तर समझता है तथा सदैव सत्य का साथ देता है, यदि यह युति द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम में हो तो झगड़े करने वाला, तामसी प्रवृत्ति वाला, पूवार्जित धन नष्ट करने वाला, परस्त्री में आसक्त रहने वाला तथा शेष षष्ठम अष्ठम, नवम व एकादश भाव में स्थित युति से जातक अकारण शत्रुता करने वाला, रिसर्च में व्यस्त रहने वाला, धार्मिक कार्य में रुचि न लेने वाला, कुमार्गों से धन कमाने वाला होता है।

राहु की चन्द्रमा से युति यदि मित्र या स्व राशि में हो तथा अन्य शुभ ग्रहों से दृ्रष्ट  हो तो व्यक्ति निज स्वार्थ को छोड़ सामाजिक कार्य करता है, जिसके फलस्वरूप लोकप्रिय होता है, स्वतंत्र व्यापार करने में असमर्थ होते हैं यदि व्यापार करे तो भी सफलता प्राप्त नहीं करते हैं, व्यापार में संकटों का उपाय नहीं कर पाते हैं, यदि कोई इन्हें नौकरी करने की सलाह दे तो इन्हें पसंद नहीं होती है, एकान्त पूर्ण वातावरण में रहना पसन्द करते हैं,

यदि यह युति जन्म पत्रिका में लग्र, तृतीय तथा नवम् में हो तो अशुभ होती है, मृत्यु भी अचानक आती है।

राहु व मंगल युति यदि शुभ राशियों में शुभ ग्रहों से दृष्ट हों तथा जन्म पत्रिका में लग्र तृतीय षष्ठम तथा दशम भाव में हो तो व्यक्ति पराक्रमी, समाज सुधार का कार्य करने वाला बुराई प्राप्ति की परवाह न करने वाला। यदि यह युति अशुभ राशि में या अशुभ ग्रहों से दृष्ट हों तो स्त्री से असंतुष्ट, अदालती कार्यों में असफल होता है। धन स्थान में यह युति शुभ राशि में हो तो ब्याज के रूप में धन लाभ होता है। जातक के धन से दूसरों को कल्याण नहीं होता है। चतुर्थ में यह युति हो तो पूर्वार्जित पैतृक सम्पति नष्ट हो जाती है। चतुर्थ भाव में राहु तथा दशम भाव मंगल हो तो जातक जिस भवन में निवास करता है उसमें वास्तु दोष होता है जिसके कारण संतान तथा स्त्रीघात आदि से कष्ट होता है। पंचम स्थान में यह युति संतान सम्बन्धी दोष उत्पन्न करती है। सप्तम में यह युति संतान सम्बन्धी दोष उत्पन्न करती है। सप्तम में यह युति हो तो विवाह देर से होता है तथा पहली स्त्री से सम्बन्ध ठीक न रहने से दूसरा विवाह होने की संभावना होती है। राहु सर्प के समान है तथा मंगल नेवले के समान है। अतः जातक को मंगल के प्रभाव से विषघात नहीं हो पाता।

राहु-बुध

यदि युति मित्र राशि में शुभ ग्रह से दृष्ट दशम व एकादश भावों में हो तो जातक बुद्घिमान कार्य सम्बन्धि विषय को समझने वाला, शिक्षा पूर्ण होती है।

यदि युति शत्रु राशि में हो या अशुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो जातक की शिक्षा, अधूरी रहती है, अस्थिर स्वभाव, घमंड़ी भी हो सकते हैं, खुद को दूसरों की अपेक्षा ज्यादा होशियार समझते हैं।

अन्य स्थानों भावों में अशुभ सम्बन्ध हो तो शान्त बुद्घि वाला, एक से ज्यादा विवाह,पागलपन, स्मरण शक्ति नष्ट होने की संभावना रहती है।

राहु-गुरु- युति शुभ हो तो सम्मान की प्राप्ति होती है, अधिकार की भी प्रçाप्त होती है, यदि जातक राजनीति में हो तो सफलता प्राप्त होती है,

यदि यह युति जन्म पत्रिका के 1,2,4,5,7,9,10,11 भाव में हो तो अच्छी सफलता प्राप्त होती है, पैतृक सम्पति प्राप्त होती है, अर्थात राहु व गुरु लग्न में धनु या मीन में हो तो अरिष्ट योग, त्रिकोण में अथवा किसी भी भाव में राहु, गुरु व शनि की एक साथ युति हो तो भी अरिष्ट योग होता है।

पाराशर के मतानुसार राहु व गुरु धनु या मीन में हो और गुरु षष्ठम या अष्टम का सवामी हों तो जातक अल्पायु होता है।

यह युति गुरु चाण्डाल योग भी बनाती है क्योंकि गुरु ब्राह्मण तथा राहु चाण्डाल जाति का माने जाते हैं।

राहु-शुक्र

युति यदि शुभ हो अर्थात मित्र राशि में शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो विवाह आकस्मिक होता है, स्त्री निर्धन परिवार की होती है। स्त्री सुख अच्छा प्राप्त होता है, जातक से पहले पत्नी की मृत्यु होती है।

यदि युति अशुभ होकर 3,6,7,8,12 भाव में हो तो पत्नि से लम्बे समय तक सुख की प्राप्ति नहीं होती है, विवाह के बाद आर्थिक कष्ट होता है।

राहु-शनि

युति लग्न में हो शुभ ग्रहों से दृष्ट तो बचपन में कष्ट होता है, द्वितीय, तृतीय, में हो तो पैतृक सम्पत्ति को  बढ़ाने वाला जीवन के मध्य से भाग्योदय होता है। स्वभाव शान्त रहता है, नौकरी या व्यवसाय करने पर उच्चाटन की प्रवृत्ति नहीं होती है, यदि युति अशुभ हो तो बचपन ननिहाल में व्यतीत होता है, चतुर्थ, पंचम षष्टम में युति हो तो उचे स्तर का व्यवसाय करने वाला उदार प्रकति का होता है, विवाह में बिलम्व, अपने ही बारे में सोचने वाला इनके विरोधी अधिक होते अनुवांशिक रोग की संभावना होती है, सप्तम, अष्टम व नवम स्थान में युति हो तो एक से अधिक विवाह की संभावना, जीवन का प्रथमार्थ सुख में तथा उत्तरार्द्घ कठिन व्यतीत होता है, स्त्री मध्यमस्तरीय परिवार की होती है, रहस्यमयी विद्या को जानने वाले होते है, जीवन के 32 वे वर्ष से भाग्योदय होता है, दशम, एकादश व द्वादश भाव में युति हो तो कार्य क्षेत्र में उलझे रहते है, संतान प्राप्ति में बाधा लालची तथा लोगों द्वारा निदीप्त होते हे, अधिकार व सम्पत्ति के लिए गलत मार्ग को अपनाने वाले किन्तु बड़े व्यवसाय में सफलता मिलती है, विदेश गमन होता है।

 

कार्तिक का महीना रोग विनाशक

डॉ सुमित्रा अग्रवाल

शरीर है तो दैहिक कष्ट है ही। कष्टों से निवृत्ति के लिए कुछ लोग योग साधना करते हैं, कुछ खाने-पीने का ख्याल रखते हैं। समय-समय पर शारीरिक जाँच भी कराते हैं और फल-फूल वनस्पति का सहारा भी लेते हैं। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पांचों तत्वों का संतुलन आवश्यक है।

 स्कन्द पुराण में कार्तिक महीने के बारे में बताया गया है -

रोगापहं पातकनाशकृत्परं सद्बुद्धिदं पुत्रधनादिसाधकम्।

मुक्तेर्निदानं नहि कार्तिकव्रताद् विष्णुप्रियादन्यदिहास्ति भूतले ।

इस मास को जहाँ रोग विनाशक कहा गया है, वहीं सद् बुद्धि प्रदान करने वाला, लक्ष्मी का साधक तथा मुक्ति प्राप्त कराने में सहायक बताया गया है। कार्तिक में तुलसीवन-पालन की प्रमुखता बताई गई है। तुलसी का सेवन और कार्तिक में तुलसी आराधना की विशेष महिमा है। जब से संसार में संस्कृति का उदय हुआ, तभी से तुलसी को रोग निवारक औषधि के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसके आरोग्यप्रद गुणों के कारण इसकी लोकप्रियता इतनी अधिक है कि लोग इसे भक्ति- भावना की दृष्टि से देखते हैं और इसकी पूजा करते हैं। तुलसी दो प्रकार की होती है - काली और सफेद। काली तुलसी अधिक गुणकारी है। इसके अतिशय गुणों के कारण इसे प्रत्येक घर में स्थान मिले इसीलिए हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इसे धार्मिक स्वरूप दिया है। आयुर्वेद शास्त्र में तुलसी को रोगहर्ता कहा गया है। शास्त्रीय भाषा में तुलसी को यमदूतों के भय से मुक्ति प्रदान करने वाला भी बताया गया है। कार्तिक के महीने में ऋतु परिवर्तन होता है। इस समय नाना प्रकार की बीमारियाँ मौसम के परिवर्तन से आती हैं। तुलसी का सेवन अत्यंत लाभदायक होता है। अम्लता, पेचिश, कॉलाइटिस जैसी पाचन तंत्र की बीमारियों में तुलसी का रस निश्चय ही लाभ देता है। तुलसी के पत्तों का रस, अदरक का रस और एक चम्मच शहद के साथ लेने से ज्वर, खाँसी और दमे में अच्छा लाभ होता है। बारिश के कारण मच्छरों का प्रकोप बढ़ जाता है और मलेरिया का खतरा रहता है। मलेरिया के ज्वर में तुलसी का रस अमोघ सिद्ध होता है। वातावरण शीत कल की तरफ अग्रसर होने के कारण शीत लहर चलने लगती है और सर्दी जुकाम और शिरोवेदना दूर करता है तुलसी का रस । तुलसी का रस मूत्र पिण्ड की कार्य शक्ति बढ़ाता है और रक्त के कोलेस्ट्रोल का प्रमाण घटाता है।

कार्तिक के रोग विनाशक होने के पीछे तुलसी की महिमा छुपी है।

पुराणों में तुलसी को विश्वप्रिया माना है। आगामी कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी विवाह का दिन है। तुलसी में जो रासायनिक संरचनाएं हैं वह अन्य वनस्पतियों की अपेक्षा अत्यधिक है, बल्कि उसके रसायन दांतों को छय कर देते हैं। इसलिए तुलसी को दांतों से चबाने की मनाही कर दी है। तुलसी को उगाने और तुलसी के पत्ते तोड़ने के दिन भी नियत है और वह सब ज्योतिष और आयुर्वेद सम्मत है। तुलसी का एक नाम वृंदा रहा है, इसलिए कृष्ण का रास स्थली वृंदावन के नामकरण के पीछे तुलसी को वरदान है। कहा जाता है कि आसान मृत्यु के समय यदि तुलसी का वृक्ष रोगी के सिराने रख दिया जाए तो यमदूत पास नहीं आते परंतु आयुर्वेद को तुलसी को सही महत्व प्रदान किया है और लगभग हर श्वास और कास के रोगों में तुलसी का रस अत्यधिक प्रशस्त माना है।

 

विवाह बाद भाग्योदय या नहीं?

ज्योति शर्मा

भाग्योदय ऐसा शब्द है जो हर किसी व्यक्ति के जीवन से जुड़ा है अर्थात् हर किसी के जीवन में असफलताओं का अधिक होना, बार-बार प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिलना। भाग्योदय अर्थात् जिस समय असफलता मिलनी बंद हो जाती है व हमारे द्वारा किया गया प्रत्येक प्रयास सफलता की ओर हमें ले जाता है। किसी व्यक्ति का भाग्योदय शीघ्र हो जाता है और किसी का विवाह के बाद।

विवाह पूर्व जन्मों के कर्म पर आधारित है। अच्छे या बुरे कर्म के अनुसार ही हमें जीवनसाथी व संतान के रूप में प्राप्त होते हैं। किसी का विवाह उपरान्त तो किसी का संतान के उपरान्त भाग्योदय होता है।

प्रत्येक ग्रह अपने विशेष प्रभाव या भाग्योदय एक निर्धारित वर्ष में करते हैं। सूर्य 22 वर्ष, चंद्रमा 24 वर्ष, मंगल 28 वर्ष, बुध 32 वर्ष, गुरु 16 वर्ष व 40 वर्ष, शुक्र 25 वर्ष, शनि 36 वर्ष, राहु 42 वर्ष एवं केतु 48 वर्ष में भाग्योदय करते हैं। यदि जन्म पत्रिका  में ग्रह योगों के कारण कई बार किसी का भाग्योदय विवाह के बाद होता है या विवाह के बाद भाग्यहानि होती है।

ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार गुरु स्त्री के लिये विवाह के कारक व शुक्र पुरुष के लिये विवाह के कारक ग्रह माने जाते हैं परंतु कहीं-कहीं इनमें मतभेद मिलता है।

वृहत् पाराशर होराशास्त्र के अध्याय 32, श£ोक 20 में स्थित कारकों हेतु ‘शुक्रात पतिः’ अर्थात् शुक्र से पति का विचार करें। जैमिनी सूत्र के अ 1 पाद, 1 सूत्र 22 में ‘पितामाह पति पुत्रों इति गुरुमुखात व जानीयत’ अर्थात् पति का विचार गुरु से करना चाहिये। फलदीपिका के अनुसार ‘वैदुष्यं विजितेन्दि्रय धु्रवं सुख सम्मानमिज्यात’ अर्थात् गुरु सुख, सम्मान, विद्वता में पति को कारक माना है। शुक्र को स्त्री ग्रह कला-सौन्दर्य प्रधान व चंचल कहे गये हैं, जबकि गुरु को पुरुष ग्रह धीर, गंभीर, विद्वतावान कहा गया है।

पुरुषों का विवाहोपरांत भाग्योदय- विवाह के जीवन में सकारात्मक बदलाव आने लगते हैं, जिसके कारण जन्म पत्रिका में कुछ विशेष योग हैं, पत्नी के आगमन होने के बाद ही घर की काया बदल जाती है। ऐसे कुछ विशेष योग निम्न प्रकार हैं -

पुरुष की कुण्डली में ‘शुक्र’ को पत्नी और वैवाहिक जीवन का कारक ग्रह माना गया है व सप्तम भाव व सप्तमेश की कुछ विशेष स्थितियाँ व्यक्ति के विवाह के बाद ही भाग्योदय करती है।

शुक्र का दशमेश और भाग्येश के साथ होना विवाह के बाद अपनी पत्नी द्वारा भाग्योदय होता है।

दशमेश और सप्तमेश का आपस में राशि परिवर्तन हो तो ऐसे पुरुषों का भाग्योदय विवाह के बाद ही होता है।

पुरुषों की कुण्डली में शुक्र यदि नवम या तीसरे भाव में हो तो भी व्यक्ति विवाह के बाद ही अच्छी उन्नति प्राप्त करता है।

यदि दशम भाव पर शुक्र की दृष्टि या शुक्र का दशम भाव में स्थित होना, विवाह के बाद ही विशेष सफलता दिलाते हैं।  सप्तमेश व शुक्र दशमेश के साथ हो तो जीवनसाथी नौकरी पेशा होती है।

यदि पुरुषों की कुण्डली में शुक्र बारहवें भाव में स्थित हों तो उनको विशेष सफलताएं विवाह के बाद ही मिलती हैं। शुक्र का सप्तमेश से संबंध हो तो पत्नी जीवन में बहुत सहायक सिद्ध होती है। हर कदम पर साथ मिलता है।

सप्तमेश व नवमेश का राशि परिवर्तन भी विवाह के बाद भाग्योदय देता है।

तृतीयेश यदि बारहवें भाव में हो तो जातक का भाग्योदय स्त्री द्वारा होता है।

शुक्र : यदि शुक्र 2, 3, 9, 11 या उपचय स्थान में हो तो द्वितीयेश से युति, दृष्ट हो व लग्नेश शुभ दृष्ट हो, सप्तमेश शुक्र के साथ हो व सप्तमेश उक्त भावों के नक्षत्र में भी स्थित हो तो विवाह के उपरांत धन लाभ होता है व सफलता प्राप्त होती है, परंतु अशुभ प्रभाव अधिक नहीं हो।

द्वितीयेश व सप्तमेश धन लाभ में लग्नेश के साथ हैं। शुक्र व सप्तमेश की युति कुटुम्ब भाव में होने से ससुराल से बहुधन लाभ की पुष्टि करते हैं।

यदि शुक्र धन भाव में हैं तो पत्नी से लाभ प्राप्त होता है।

यदि पत्नी की राशि निम्न में से कोई एक हो तो शुभ होता है अर्थात् ऐसी पत्नी सुख और समृद्धि बढ़ाने वाली होती है।

सप्तमेश जिस राशि में हो, सप्तमेश जिस नवांश में हो। सप्तमेश उच्च राशि या स्वराशि में हो, शुक्र जिस राशि में हों, उससे सप्तम राशि।

सर्वाष्टक वर्ग में जिसमें सबसे अधिक शुभ बिन्दु हो ऐसी राशि वाली पत्नी सुख तथा समृद्धि देने वाली होती है।

लग्नेश जिस राशि या नवांश में हो ऐसी राशि वाली लग्न पत्नी से भी भाग्योदय होता है, सुख-समृद्धि  घर आती है।

इसी प्रकार जन्म पत्रिका में कुछ ऐसे ग्रह योग होते हैं, जिस कारण से विवाह के बाद भाग्य हानि व धन नाश होता है। फल दीपिका के अनुसार कलत्र भाव में लिखा है  -

अर्थात् यदि लग्न से पंचम और सातवाँ स्थान शुभ ग्रह या अपने स्वामी से युत हो या दृष्ट हो और चंद्रमा से पंचम तथा सप्तम स्थान अपने स्वामी या शुभ ग्रह से युत या देखा जाये तो पांचवें और सातवें भाव संबंधी फल उत्तम प्राप्त होते हैं। यदि ऐसा न हो तो इसके विपरीत समझना चाहिये।

1. शुक्र से चतुर्थ, अष्टम, द्वादश में पाप ग्रह हो तो विवाह के बाद सफलताओं में रुकावट आती है।

2. शुक्र व सप्तमेश दोनों पाप ग्रहों के साथ हों या पाप ग्रह से दृष्ट या किसी भी प्रकार का संबंध हो तो धन नाश, भाग्योदय में रुकावट आती है।

इसी प्रकार शास्त्रों में सूर्य व राहु और कुछ ग्रह स्थिति को लेकर भी उल्लेख मिलता है -

यदि सूर्य व राहु सप्तम में हों तो स्त्री के कारण धन का नाश होता है, भाग्योदय में रुकावट आती है।

मीन राशि के शनि सप्तमेश में हों तो धन नाश।

मकर राशि के बृहस्पति सप्तम में हों तो स्त्री के कारण धन नाश।

वृश्चिक राशि के शुक्र सप्तमेश में हों तो धन व स्त्री से कष्ट।

वृषभ राशि के बुध सप्तम में हों तो सफलताओं में रुकावट, स्त्री को कष्ट होता है।

यदि सूर्य व राहु सप्तम में हों और शुक्र पाप ग्रहों से युति या दृष्टि करते हों, नीच के हों तो व्यक्ति स्त्री के साथ धन का नाश करता है अर्थात् ऐसा व्यक्ति अपनी स्त्री के अलावा भी अन्य स्त्री से संसर्ग में धन गवाता है।