वास्तु शास्त्र और जनधारणाएं

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया

घर का दौरा करके जैसे ही वास्तु शास्त्री घर से निकला तो लोग अनुमान लगाने लगते हैं कि बस अब कोई चमत्कार आने वाला है। अगर वास्तु शास्त्री ने कोई संशोधन बता दिया तथा क्लाइंट ने वह संशोधन कर लिया तो वह कल्पना करने लगता है कि बस अब कुछ दिन में ही कोई चमत्कार आने वाला है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो घोर निराशा जन्म लेती है।

मैंने उत्तर दिशा के दो द्वारों को लेकर मेरे भाषणों में यह कहना शुरु किया कि वास्तु चक्र में पास-पास स्थित इन दो द्वारों में एक करोड़ व सौ करोड़ का अन्तर है। मैं एक और सौ भी कह सकता था परंतु चूंकि करोड़ शब्द में आकर्षण होता है, इसलिए लोग ध्यान दे लेते हैं। परंतु मेरे शिष्य ने तो कमाल ही कर दिया। उसने अपने क्लाइंट को बताया कि यह खास गेट खोल दो तो सौ करोड़ आ जाएंगे। वह यजमान काफी दिनों बाद मेरे पास आया और अपनी व्यथा मुझसे कही। मैं समझ गया कि वास्तु शास्त्री के मुंह से निकला हुआ शब्द कितना महत्वपूर्ण होता है। जरा भी हल्का शब्द मुंह से निकला, यजमान उसे एक बार तो दैवीय वचन मान लेता है परंतु थोड़े दिनों बाद जब बड़ी-बड़ी बातें घटित नहीं होतीं तो वह घोर निराशा में डूब जाता है। इससे शास्त्र के प्रति आस्था में कमी आती है।

किसी एक मकान में मैंने उत्तर दिशा में शास्त्र वर्णित द्वार न पाकर ठीक वायव्य दिशा में द्वार पाया। शास्त्रों में वर्णन है कि इस द्वार से मृत्यु या बंधन (जेल) आता है। मैंने उस द्वार को बंद करने का निर्देश दिया। तीन साल बाद वह व्यक्ति मेरे पास आया और कहा कि मेरी समस्याएं यथावत हैं, कोई अंतर नहीं आया है। मैंने पूछा क्या तुमने वायव्य वाला वह द्वार बंद कर दिया था? उसने कहा हां बंद कर दिया। मैंने कहा ‘चलो दिखाओ?’ मेरे क्लाइंट ने केवल ताला लगा रखा था, जबकि मेरा निर्देश चिनाई कराकर द्वार को बंद कर देने का था। मैंने तुरन्त समझ लिया कि मुझे और अधिक स्पष्ट रूप से कहना था तथा इस निर्देश का प्रैटिकल डेमो भी देना चाहिए। व्यक्ति हमेशा आसान काम चुनता है। आप देखिये कि मंदिर में 1100 रुपये चढ़ाना आसान है परंतु यदि उसी व्यक्ति से मंदिर में झाडू-पौंछा लगाने को कहा जाए तो वह नहीं कर पाता। यह सदा ही हुआ है कि मैं सूर्य का मंत्र पढ़ने के लिए कहता हूं जबकि वह यजमान सूर्य को जल का अर्घ्य देकर ही अपनी इतिश्री मान लेता है। देवता भी कम थोड़े ही हैं, वैसा ही परिणाम दे देते हैं। मैंने भी देवताओं से प्रेरणा लेकर मेरे उन शिष्यों को फोन आशीर्वाद देना शुरु कर दिया है जो गुरु पूर्णिमा पर भी फोन से ही आशीर्वाद मांगते हैं।

वास्तु शास्त्र में निर्माण कार्य करते समय बहुत लापरवाहियाँ देखने में आ रही हैं। कई वास्तु शास्त्री वास्तु पुरुष के मर्म स्थानों की रक्षा का कोई उपाय नहीं करते। क्लाइंट को या उसके आर्किटेक्ट को मन-मर्जी से दीवारें या स्तम्भ बनाने देते हैं। वास्तु पुरुष के कई स्थान तो ऐसे हैं जहां से एक दीवार गुजर जाए तो तुरन्त कोई न कोई घटना सामने आती है। एक व्यक्ति ने मकान बनाकर खम्भा ऐसी जगह बनाया जहां वास्तु पुरुष की आंखें व सिर आता था। मेरे मना करने पर भी आर्किटेक्ट ने स्तम्भ की जगह नहीं बदली। उसका फाउंडेशन 6 x 6 का था। ठीक मुहूर्त के दिन गृह स्वामी की  मृत्यु हो गई। गाजियाबाद का एक प्रसिद्ध किस्सा था जिसमें सीढ़ियों की संख्या 15 रखी गई थीं। उस घर का द्वार भी दक्षिण दिशा से अग्निकोण के मध्य में था। नतीजा,  निर्माण के समय ही घर के बालक को षड़यंत्रकारी मजदूर अपहरण करके ले गये जहां वह अलवर शहर में पुलिस एनकाउंटर  में अपहरणकर्त्ताओं के साथ ही मारा गया। उधर गाजियाबाद में गृह स्वामिनी की मुहूर्त के दिन ही सीढ़ियों से गिरने के कारण मृत्यु को प्राप्त हुई। इन दोनों ही मामलों में वास्तु शास्त्र की गम्भीरता को न समझने के कारण दुर्घटनाएं हुईं।

शुरुआती दिनों में कई आर्किटेक्ट मेरी राय मानने से इंकार कर देते थे। बड़ी समस्या थी। जयपुर शहर के एक आर्किटेक्ट को मकान में डबल हाइट रचना बनाने का व स्पि्लट लेवल फ्लोरिंग का शौक था। वह भूखण्ड के मध्य में सीढ़ियाँ इस ढंग से बनवाते थे कि उनका फाउंडेशन दो मर्म स्थानों को आहत करता था। जैसे मनुष्य के शरीर में मर्म स्थान होते हैं, ऐसे ही वास्तु पुरुष के भी मर्म स्थान बताए गए हैं। उस आर्किटेक्ट के बनाए हर मकान में मृत्यु आ जाती थी। जब भी मैंने उन्हें टोका तो वह कहते थे कि वास्तु पुरुष ही सब कुछ थोड़े ही करते हैं। यह बात जब उजागर हो गई तो उनका काम-धंधा ही बंद हो गया। मुझे इस बात की खुशी है कि अब नई पीढ़ी के आर्किटेक्ट वास्तु शास्त्र को गम्भीरता से लेते हैं।

कुछ नौसिखिये वास्तु शास्त्री एक भूखण्ड में बने हुए मकान को अलग से वास्तु पुरुष मानते हैं अर्थात् एक बड़े भूखण्ड के वास्तु पुरुष अलग और उसके एक छोटे भाग में बने पक्के निर्माण को अलग से वास्तु पुरुष मानते हैं। भला एक शरीर में दो आत्माएं कैसे हो सकती हैं? जो वास्तु शास्त्री वास्तु पुरुष के सिद्धान्त या दर्शन को नहीं जानता वह कैसी वास्तु करता होगा और अपने क्लाइंट का कितना नुकसान करता होगा, अनुमान का ही विषय है। आगरा के एक प्रकाशक मुझसे इस बात के लिए नाराज थे कि मैं उनके एक लेखक की वास्तु शास्त्र की पुस्तक की समीक्षा अपनी पत्रिका ‘ज्योतिष मंथन’ में प्रकाशित नहीं कर रहा था। वह मुझसे लड़ने जयपुर आ गए। उस किताब में वास्तु चक्र में वास्तु पुरुष का जो चित्र था वह ईशान कोण से नैर्ऋत्य कोण तक लेटे हुए एक मनुष्य की तरह था, जिसकी कोहनियाँ और घुटने मुड़े हुए नहीं थे। 45 में से 18 पदों पर वास्तु पुरुष आवृत्त नहीं थे। मैंने उस प्रकाशक को तर्क दिया कि यह किताब टीप-टाप कर लिखी गई है। जो लेखक वास्तु पुरुष के सिद्धान्त को ही नहीं जानता वह अनर्गल पुस्तक लिखकर कितने घरों को बर्बाद करेगा। मैंने अगर समीक्षा छाप दी तो तुम्हारी पुस्तक बिकनी बंद हो जाएगी। अभी भी यह हो रहा है कि लोग चार पुस्तकों से सामग्री लेकर पांचवीं पुस्तक गढ़ देते हैं, यह गलत है।

वास्तु शास्त्र में यह उपदेश मिलता है कि मुख्य द्वार बनाए बिना व मुख्य कारीगर को प्रसन्न किए बिना गृह प्रवेश नहीं करना चाहिए। इसमें भेद छिपा है। अधिकांश मामलों में आर्किटेक्ट या मुख्य कारीगर का विवाद निर्माण के अंतिम दौर में होता है। उसका कारण लेन-देन संबंधी बातों को लेकर होता है। शिल्पी के पूजन का निर्देश इसलिए किया जाता है कि भूमि स्वामी उसके किए गए कार्य की महत्ता को समझे और गृह प्रवेश के समय उसका सम्मान करें। अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो कोई न कोई वास्तु संबंधी गलती मकान में रह जाएगी, जिसका परिणाम स्वामी को भोगना पड़ेगा। मुख्य द्वार की बात इसलिए कही गई है कि आजकल स्ट्रक्चर का कार्य पूरा होने के बाद वास्तु शास्त्र के नियमों का पालन तो हो चुका होता है। अब इंटीरियर डेकोरेशन का काम कई महीनों तक चलता है, इसलिए सीमेंट गारे के निर्माण के बाद गृह प्रवेश की कार्यवाही करके पुरोहित व मिस्त्री को सम्मान करके विदा किया जा सकता है। अब आगे कोई और एजेंसी ही कार्य करेगी। जनधारणा यह है कि अगर आखिरी छत डल गयी है तो मकान का पूरा होना मान लिया जाता है और मुख्य द्वार बनाने का अर्थ यही है कि मकान निर्माण पूरा हो चुका है। आर्थिक कारणों से बाकी काम धीरे-धीरे आगे चलता रहेगा। यह अब सम्मान-असम्मान का विषय नहीं रहा है।

 

हस्त रेखा व संतान

एन.पी. थरेजा

संतान होने के चिह्न- अब हम हाथ पर पाये जाने वाले ऐसे निशान बताते हैं जिनसे पता लगेगा कि व्यक्ति संतानवान होगा या संतानहीन।

ऐसे चिह्न जो संतान प्राप्ति बताते हैं

(1)          यदि हृदय रेखा बुध पर्वत पर कांटे जैसी हो।

(2)          यदि भाग्य रेखा कलाई से निकलती हो व शनि पर्वत तक पहुंचती हो।

(3)          शुभ चिह्नों में से हाथ पर कोई हों - जैसे मछली, कमल, व घड़ा।

(4)          यदि नाखून गुलाबी रंग के हैं व चंद्र पर्वत उभरा है।

(5)          हथेली चौड़ी है व सभी रेखाएं स्पष्ट अंकित हैं।

(6)          जिन स्ति्रयों की हथेली पर मछली का चिह्न स्पष्ट होता है, उन्हें संतान सुख अवश्य प्राप्त होता है।

(7)          यदि अंगूठे के मध्य में यव का चिह्न हो तब भी उन्हें संतान सुख अवश्य प्राप्त होता है।

(8)          गुरु या सूर्य की ऊंगली के पहले भाग पर यदि खड़ी रेखा हो, तब भी वे स्ति्रयां संतानवती होती हैं।

संतान होने के चिह्न :-

(1)          वे स्ति्रयां जिनका पहला पौंचा ऊपर उठकर नीचे गिरता है, ऐसी स्ति्रयों को बच्चे होने में परेशानी हो सकती है व उन्हें संतान सुख नहीं मिलता।

(2)          वे व्यक्ति जिनका शुक्र का पर्वत दबा हुआ हो। यह पर्वत यौन शक्ति व वासना को व्यक्त करता है। उसकी कमी के कारण व्यक्ति संतानरहित हो सकता है।

(3)          एक ऐसी रेखा जो शुक्र पर्वत से निकलती हो, जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा व हृदय रेखा को काटती हुई शनि की ऊंगली के तीसरे भाग तक पहुंचती हो, बताती है कि वह व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष संतानहीन रहेगा।

बच्चे कितने होंगे : हथेली से ये जानना कि बच्चे कितने होंगे बड़ा मुश्किल काम है। विशेष रूप से आजकल के समय में जब परिवार नियोजन का प्रचलन है ये बताना और भी कठिन हो गया है क्योंकि ऐसे में व्यक्ति की इच्छा व पसंद अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है भाग्य की अपेक्षा। संतान का जन्म बिना पति-पत्नी दोनों की इच्छा के संभव नहीं है इसलिए पति-पत्नी दोनों का हाथ देखा जाना जरूरी है। पति-पत्नी दोनों का हाथ देखकर ही यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने बच्चे होने की संभावना है। मेरे विचार से पत्नी के हाथ में जितनी संतान की रेखाएं हों वे अधिक विश्वसनीय हैं चाहे पुरुष के हाथ में उससे कम हों। मेरा अनुभव है कि कई बार बच्चों की रेखाएं अविवाहित लोगों के हाथ में, व उन लोगों के हाथ में जो विवाहित तो हैं पर संतान नहीं है, पाई जाती हैं। एक बार एक पति-पत्नी दोनों के हाथ में तीन बच्चों की रेखाएं थीं व दोनों के चाहते हुए व सभी उपाय करने के बाद भी  उनके एक भी संतान नहीं थी। कुछ मामलों में दोनों पति-पत्नी के हाथ में तीन बच्चों की रेखाएं थीं पर अपनी इच्छा व पसंद के कारण वे संतान नहीं चाहते थे। यह एक रहस्य है व इसके लिए और अधिक हाथों का अध्ययन करने की जरुरत पड़ेगी।

संतान के लिए हाथ पर पाए जाने वाले चिह्न ये हैं। विवाह रेखा पर खड़ी रेखाएं हों जो बुध की उंगली की ओर जाती हों। जितनी रेखाएं हों उतने ही बच्चे मानने चाहिए। यदि रेखाएं स्पष्ट गहरी व लंबी हों तो पता लगता है बच्चे स्वस्थ व दीर्घायु होंगे। लंबी व स्पष्ट रेखाएं पुत्रों के लिए व छोटी धंुधली व पतली रेखाएं  पुत्रियों के लिए होंगी। एक दृष्टिकोण ये भी है कि जो माता-पिता बच्चों के लिए अधिक त्याग करते हैं उनके हाथ पर रेखाएं अधिक स्पष्ट होंगी व वे आसानी से गिनी जा सकती हैं। इसके विपरीत यदि माता-पिता विशेष रूप से पिता बच्चों के प्रति लापरवाह होंगे व केवल धन इकट्ठा करने में लगे होंगे या अपनी खुशियों को पूरा करने में लगे होंगे तब बच्चों की रेखाएं बहुत स्पष्ट नहीं होंगी व उनके हाथों से बच्चों के बारे में कुछ भी पता लगाना कठिन होगा।

भारतीय लेखकों के अनुसार हथेली पर कुछ और भी ऐसे निशान हैं जिनसे बच्चों का पता लगाया जा सकता है।

(1) शुक्र पर्वत की तली से- यदि वहां लंबी मोटी व स्पष्ट रेखा हो तो वे  पुत्रों की ओर  संकेत करती हैं। छोटी व पतली रेखाएं पुत्री बताती हैं। बिना कटी व दोषरहित रेखाएं बताती हैं कि बच्चे दीर्घजीवी होंगे। टूटी व कमजोर रेखाएं छोटी आयु बताती हैं।

(2) मस्तिष्क हृदय रेखा के बीच हथेली के सिरे पर जितनी रेखाएं हों - उतने ही बच्चे होते हैं। स्पष्ट मोटी व लंबी रेखा पुत्रों के लिए व पतली रेखाएं लड़कियों के लिए होती हैं।

(3) अंगूठे के जोड़ के पास सीधी हथेली पर जितने द्वीप हों- जितने द्वीप होंगे उतनी ही संतान होंगी। बड़े द्वीप पुत्र व छोटे द्वीप पुत्री बताते हैं।

(4) बुध की ऊंगली का दूसरा भाग- बुध की उंगली के दूसरे भाग पर जितनी स्पष्ट खड़ी रेखा हो उतने बच्चे भाग्य में होते हैं।

(5) शनि की ऊंगली के दूसरे भाग पर- स्पष्ट खड़ी रेखाएं शनि की उंगली के दूसरे भाग पर, जितने बच्चे भाग्य में हों, बताती हैं।

ग्रहफल पाक विचार

ग्रहों का फल हो या अन्य शकुनादि हो, उनके फल को लेकर एक स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि यह फल कब मिलेंगे? इसके बारे में कुछ तो होरा ग्रंथों में और कुछ मेदिनी ग्रंथों में सामग्री मिलती है। पाकफल व पाक समय के बारे में इस लेख में हम चर्चा करेंगे।

सूर्य का फल एक पक्ष में, चन्द्रमा का एक मास में, मंगल का कुछ दिनों में, बुध का फल उदय रहने तक और बृहस्पति का फल एक वर्ष में पक्का है। शुक्र का फल 6 मास, शनि का एक वर्ष में, चन्द्र ग्रहण का 6 महीने में, सूर्य ग्रहण का 1 वर्ष में, त्वष्टा नामक ग्रह का फल तुरंत और तामस कीलकों का फल भी बहुत शीघ्र मिलता है।

धूमकेतु का फल तीन मास, श्वेत धूमकेतु का फल 7 रात्रि में, परिवेश, इन्द्रधनुष, संध्या इत्यादि का फल एक सप्ताह में होता है। सर्दी में गर्मी या गर्मी में सर्दी, अकाल में उत्पन्न फल-फूलादि, दिग्दाह, स्थिर और चर वस्तुओं का अन्यत्र अर्थात चर तो चलना बंद हो जाए और स्थिर चलने लग जाए तथा प्रसूति में विकृति दोष का फल 6 माह में आता है। हताहत कार्य, भूकम्प,  अनिष्ट, न सूखने वाले कुए का सूख जाना, नदी आदि का प्रवाह उल्टा होना, इन सब बातों का फल 6 मास में आता है। खम्भा, मिट्टी की कुटिया, देवप्रतिमा का रोना, हंसना, कांपना और पसीना तथा इन्द्रधनुष और उपद्रव इनका फल तीन मास में मिलता है। कीड़े, चूहे, मक्खी और सर्प बहुत हो जाएं, मृग व पक्षियों के शव, हवा का चलना और जल में ढेले का तैरना इन सबका फल 3 मास में देखने को मिलता है। वन में कुत्तों का प्रसव, जंगली जानवरों का घर में बसना, मधुमक्खी का छत्ता, तोरण व इन्द्रध्वज में इसी प्रकार के उत्पात का फल एक वर्ष में देखने को मिलता है। सियार और गिद्धों के समूह दिख जाए तो 10 दिन में फल होता है तथा श्राप और भूमि में फटने का फल एक पक्ष में मिल जाता है। बिना अग्नि के आग जलना और घी, तेल, चर्बी आदि का ऊपर से गिरना शीघ्र फल को प्राप्त होता है। अफवाह फैलने का फल डेढ़ मास में पकता है। छत्र, खम्भ, अग्नि और बोए हुए बीजों का फल 7 पक्ष में अर्थात साढ़े तीन महीने में पकता है। छत्र और तोरण का फल एक महीने में प्राप्त होता है। परम शत्रु जीवों का परस्पर स्नेह, आकाश में प्राणियों का शब्द, बिलाव नेवले की चूहे के साथ दोस्ती इन बातों का फल एक महीने में मिलता है। गंधर्व नगर का दिखाई देना, रसों में विकार अर्थात स्वाद में फर्क आना तथा सोने में विकार का फल एक महीने में प्राप्त होता है। इसी प्रकार सभी दिशाएं  धुंआ इत्यादि से ढंक जाए तो उसका फल भी एक मास में मिलता है।

अश्विनी, नक्षत्र में उपद्रव का फल 9 मास में, भरणी का एक मास, कृत्तिका का 18 मास, कृत्तिका में 1 मास, राोहिणी का फल एक मास मृगशिरा में छह माह और आर्द्रा से लेकर पुनर्वसु तक 3-3 महीने तक पकता है। आश्लेषा नक्षत्र में उत्पात तुरन्त फल देता है। हर नक्षत्र का फल इस तरह से एक से लेकर 6 महीनों के बीच में प्राप्त हो जाता है। यदि किसी कारण से यह फल उपरोक्त अवधि में प्राप्त न हो तो वराहमिहिर कहते हैं कि कुछ कम तीव्रता से यह फल दुगुने कम समय में प्राप्त होता है। परन्तु इन सबका अशुभ फल स्वर्ण रत्न और गोदान इत्यादि करने से शमन हो सकता है।

ग्रहों के गोचर का फल बहुत महत्त्वपूर्ण है, उसमें शनि का सबसे महत्त्वपूर्ण है। शनिदेव राशि में प्रवेश करने के 6 माह पूर्व से ही परिणाम देने लग जाएंगे। इसी तरह से शनिदेव राशि छोड़ने से कुछ महीने पूर्व ही तात्कालिक राशि पर से प्रभाव हटा देते हैं। शनि अपनी महादशा के अतिरिक्त साढ़े साती अर्थात 2700 दिनों तक शुभ-अशुभ करते है, इसे दीर्घ कल्याणी कहा जाता है। परन्तु शनि लघु कल्याणी में भी असर करता है। यदि जन्म राशि से चौथे और आठवें शनि हों तो गोचर में 4 या आठवीं राशि का भोगकाल अर्थात लघुकल्याणी अथवा शनि की ढैया कहा जाता है। यद्यपि शनि सम्पूर्ण ढाई वर्ष परिणाम देते हैं, फिर भी शनि के परिणाम राशि प्रवेश या राशि से निकलते समय अधिक आते हैं।

इसके साथ ही एक अन्य बात पर भी विचार करना समीचीन है। प्रत्येक ग्रह की महादशा से कुछ महीने पूर्व ही उसका फल आना शुरु हो जाता है। साधारण भाषा में हम यह जान सकते हैं कि किसी महादशा का गर्भकाल कुछ महीने का हो सकता है, उसमें पिछली महादशा के परिणामों से निवृत्ति और अगली महादशा से प्राप्त होने वाले परिणामों की पृष्ठभूमि बनती है। अतः फलकथन में यदि इसका ध्यान रखकर किया जाए तो फलकथन में अधिक शुद्धि आ सकती है। इसमें आने वाली महादशा के स्वामी ग्रह की छाया का विचार, जैमिनि चरदशा से जीवन मेंआने वाले मोड़ व मंडूकदशा इत्यादि से जीवन में आने वालें उछाल इत्यादि का ज्ञान कर लिया जाए तो चमत्कारिक भविष्यकथन किए जा सकते हैं।

शनिदेव के किस्से

पांडवों का वनवास : शनि देव के प्रवेश ने ही द्रौपदी की बुद्धि को भ्रमित कर के बुरे वचन कहलाए, परिणामस्वरूप पांडवों को वनवास के दिन देखने पड़े।

शनि और रावण : 6 शास्त्र और 18 पुराणों के प्रकांड पंडित विद्वान रावण का पराक्रम तीनों लोकों में फैला हुआ था उसे भी शनि से डर था कि ये कहीं मेरे जीवन में न आ जाए। रावण ने अपने बचाव के लिए शिव से प्राप्त त्रिशूल से शनिदेव को घायल कर उन्हें अपने बंदीगृह में उल्टा लटका दिया।

लंका को जलाते समय हनुमानजी ने देखा कि शनि उल्टे लटके हुए हैं। हनुमानजी ने उन्हें खोलकर छुटकारा दिलाया। शनिदेव हनुमानजी के अहसानमंद हो गए। शनिदेव ने हनुमानजी से योग्य सेवा बताने का अनुरोध किया। हनुमानजी ने यही कहा कि तुम मेरे भक्तों को कभी कष्ट मत देना।

शनिदेव ने प्रसन्न होकर अविलंब अपनी सहमति दे दी। शनिदेव ने अंत में रावण को परिवार सहित नष्ट करने में अपनी कुदृष्टि का भरपूर प्रयोग किया। परिणामस्वरूप भगवान राम की विजय हुई।

राजा विक्रमादित्य पर जब शनि की दशा आई तो मयूर का चित्र ही हार को निगल गया। राजा विक्रमादित्य के हाथ-पैर तोड़ दिए गए तथा तेली के घर पर कोल्हू चलाना पड़ा। शनि की ही दशा में राजा हरिश्चंद्र को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं। पत्नी को बेचना पड़ गया। राजा नल के जब शनि की दशा आई तो भुनी हुई मछली पानी में कूद गई। राम के राजतिलक के समय शनि ने ही कैकयी की बुद्धि भ्रष्ट करके श्रीराम को वनवास दिलवाया।

शनि शांति के अचूक उपाय

1. हनुमदुपासना : रावण ने शिव से प्राप्त त्रिशूल से शनिदेव को घायल कर उन्हें अपने बंदीगृह से उल्टा लटका दिया और घोर यातना भोग रहे शनि को हनुमानजी ने बंधन मुक्त किया। हनुमानजी की उपासना करने वाले को कभी परेशान न करने का शनिदेव ने वचन दिया अतः सुंदरकांड, मंगलवार का व्रत, हनुमान चालीसा, बजरंग बाण तथा हनुमान बाहुक का पाठ कर शनिदेव की कुदृष्टि से आसानी से बचा जा सकता है। निम्न मंत्र का पाठ भी प्रति मंगलवार 151 बार करना लाभदायक होता है।

ह्व हनुमते रूद्रात्मकाय हुं फट्

2. सूर्य की उपासना : शनिदेव की अपने पिता सूर्य से पटरी नहीं बैठती, लेकिन यह अपने पिता का बहुत सम्मान करते हैं, अतः इनके पिता की उपासना से इन्हें शांत किया जा सकता है। सूर्य के निम्न बीज मंत्र का सात हजार पांच सौ जाप करने से चमत्कारिक परिणाम प्राप्त होते हैं।

ह्वां ह्वीं ह्वीं सूर्याय नमः

3. शनिवार व्रत : जो व्यक्ति शनि की दशा से पीड़ि¸त हैं उन्हें शनिवार का व्रत करना चाहिए। इस व्रत में हनुमानजी की पूजा आवश्यक है। पूजा में सिंदूर, काली तिल्ली का तेल, दीपक तथा लाल रंग का फल अवश्य लेना चाहिए।

4. पीपल के वृक्ष की पूजा : शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष  की पूजा शनि शांति के लिए अति शुभ मानी गई है। पीपल के वृक्ष के सात बार कच्चा सूत लपेटना चाहिए। कहा भी गया है- पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत, दीप दान दै बहु सुख पावत।

5.शनि व्रत कथा : शनि से पीड़ित व्यक्ति को शनिदेव के व्रत की कथा का श्रवण करना चाहिए। श्रावण मास के शनिवार से व्रत प्रारंभ करना अच्छा माना गया है।

6. नीलम, काले घोड़े तथा नाव की सतह की कील से बना छल्ला भी ज्योतिषी की राय से पहनना चाहिए। कर्क एवं सिंह, लग्न के जातकों को शनि का रत्न नहीं पहनने की सलाह दी जाती है।

7. शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए उसकी पत्नी के निम्न नामों का नित्य पाठ करना चाहिए-

ध्वजिनि धीमिनी चैव कंकाली कलहप्रिया।

कंटकी कलही चाडथ तुरंगी महिषी अजा।

शनेर्ना मानि पत्नीनामेताति संजपन पुमान।

दुखानि नाशयेन्नित्यं सौभाग्यवेधते सुखम।

8.            शनि अष्टक का पाठ विश्वासपूर्वक किया गया जाए तो निश्चित लाभ देता है।