ज्योतिष जगत में मंगल और शुक्र का एक राशि में एक साथ बैठना या ज्योतिष के किसी भी नियम से परस्पर दृष्टि या सम्बन्ध होना बड़ा कुख्यात सा रहा है। लाखों वैवाहिक सम्बन्ध इस सम्बन्ध के कारण या तो आगे बढ़ ही नहीं पाये। पंडितों ने रिश्ते नकार दिये या पति-पत्नी के बीच पारस्पर दोषारोपण के कारण बनें। इसे चरित्र दोष का प्रमाण मान लिया। मंगल को सदा से ही शक्ति का प्रतीक माना गया और शुक्र को काम का प्रतीक माना गया। किसी पाश्चात्य लेखक ने तो यह भी लिख माना कि पुरुष मंगल ग्रह से आते हैं और स्त्रियाँ शुक्र ग्रह से। यह नितांत भ्रामण धारण है।

जन्म पत्रिका का तीसरा भाव पराक्रम का है और उसके कारण मंगल ग्रह माने गये हैं। तीसरे भाव का कमजोर होना, पराक्रम में कमी होना माना गया है तथा पुत्र संतति उत्पन्न करने के लिए पराक्रम का होना आवश्यक माना गया है। यह भी एक भ्रामक धारणा सिद्ध हुई। अगर कोई पहलवान है और पराक्रमी है तो क्या उसके कन्या उत्पन्न नहीं हो सकती? अगर कोई वीर  है तो क्या उसके कन्या उत्पन्न नहीं होगी। दूसरी बात यह है कि सैक्स में पराक्रम को स्थान कहाँ है? रति कौशल में सौन्दर्य और लालित्य की प्रधानता है। भाव प्रवण, परस्पर सम्बन्ध कामोत्तेजना के लिए अत्यधिक आवश्यक है। दैहिक आकर्षण एक अलग बात है। परन्तु इसी क्रम में मन और भावनाओं का नियोजन अत्यधिक आवश्यक है। तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि चन्द्रमा की भूमिका और भी अधिक हो गई। एक बलात्कार और सहयोग से किये गये रति कर्म में यही अन्तर है कि बलात्कार में मन और इच्छा का अभाव होता है। इसीलिए उसका वीभत्स रूप सामने आता है।

पराक्रम में आधिपत्य की भावना होती है। परिस्थितियों के वशीभूत विजित स्त्री मन से समर्पण नहीं करती है, केवल प्राण रक्षा के भय से चुपचाप सह लेती है। अत: यहाँ मंगल प्रधान व्यक्ति वह सब प्राप्त नहीं कर पाएंगे, जिसकी कामना हर किसी को करनी चाहिए। शुक्र प्रदत्त कोमल भावनाओं का आदान-प्रदान, अंग सौष्ठव व रति कौशल शुक्र से उद्भूत हो सकता है। ज्योतिष में 12वें भाव में बैठे शुक्र की इसी लिए प्रशंसा की गई है कि वह भाव शयन सुख से सम्बन्धित है और शुक्र वहाँ उस भाव को प्राण दान दे देते हैं। इस योग में ज्योतिष ग्रन्थों में कहीं भी मंगल की भूमिका की चर्चा नहीं की गई है।

पंडित लोग मंगल-शुक्र युति देखते ही जन्म पत्रियाँ सामने से हटा देते हैं या सम्बन्ध को उचित नहीं मानते। यह सरासर नादानी है। कामतत्त्व का आधिक्य या उसका रचनात्मक प्रयोग ऐसे विषय हैं, जिनके बीच में एक बारीक सी संवेदनशील लक्ष्मण रेखा है। रिश्तों को तोडऩा और बिगाडऩा पाण्डित्य कौशल का प्रयोग हो सकता है, परन्तु अनुचित निर्णय से पंडितजी पाप के भागीदार भी हो सकते हैं। आज से पाँच सौ साल पहले शुक्र से प्रभावित कोई कन्या अगर घर से बाहर कहीं नृत्य कर लेती तो उसे वेश्या तक कहने में संकोच नहीं होता था और घर में संकट का कारण बनता था और आत्म हत्या या मार देने के प्रकरण भी सामने आते थे। परन्तु उसी योग वाली कन्या को आज उसका पिता अंगुली पकड़ कर स्टेज या टेलीविजय पर ले जाता है और सब वाह-वाह कर उठते हैं। यह शुक्र ग्रह का बदला हुआ स्वरूप है या सामाजिक व्यवस्थाओं में बदलाव है कि शुक्र प्रधान कन्या गीत - नृत्य या कला की अभिव्यक्ति के माध्यम से सम्मान पाती है और कदाचित धर्नाजन भी करती है। आज कौन सा घर है जिसमें अवयस्क कन्याएँ नृत्य या गीत नहीं सीखतीं। आज जितने भी कलाकार हैं, छोटे या बड़े, शक्तिशाली शुक्र के कारण कलाकार बनते हैं और यदि उस कला में भावाभिव्यक्ति भी आवश्यक है तो चन्द्रमा का शक्तिशाली वरदान सिद्ध हो सकता है। भरतनाट्यम या कत्थक में या सिनेमा में भावों की अभिव्यक्ति ही काम करती है। तो आज के समय में शुक्र अभिशाप नहीं है, बल्कि वरदान है।

मैंने मुम्बई के बहुत सारे फिल्मी कलाकारों की जन्म पत्रियाँ एकत्रित कीं और मंगल शुक्र का परस्पर सम्बन्ध जानने की कोशिश की। केवल आधे मामलों में मंगल और शुक्र आपस में सम्बन्ध रखते हुए पाए गये। तो क्या चरित्र दोष के लिए और भी ग्रह उत्तरदायी हैं? 29 जुलाई, 1959 को जन्मे संजय दत्त की वृश्चिक लग्र की जन्म पत्रिका में सप्तम भाव में वृषभ राशि के चन्द्रमा हैं। परम उच्च स्थिति वृषभ के तीन अंश पर आती है और उनके चन्द्रमा 1.41 अंश पर हैं। उन्होंने खुद ने बहुत बड़ी स्वीकारोक्ति की है और यहाँ चन्द्रमा शुक्र से भी अधिक काम कर रहे हैं।

अस्तु, प्राचीन योगों का समायानुकूल विश्लेषण करना ही उचित है और विप्र वर्ग को इस योगों की अच्छाइयाँ खोज कर ही निर्णय करना चाहिए।

कौन हैं शुक्र -

पुराण कथाओं में शुक्र असुरों के गुरु हैं और उन्हें मृतसंजीवनी विद्या का ज्ञान था। देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच तक शुक्राचार्य से मृतसंजीवनी विद्या सीखने को आतुर थे। भारतीय ज्योतिष में शुक्राचार्य का समीकरण शुक्र ग्रह से किया गया है। सूर्य से सबसे अधिक नजदीक बुध ग्रह हैं और उसके बाद शुक्र ग्रह। ऋग्वेद के वेनसूक्त में यह उल्लेख है - 'अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा, ज्योतिर्जरायू रजसो विमान’ अर्थात् यह सूर्य की किरणों जैसा प्रकाश से उत्पन्न वेन उदित हुआ है। सम्भवत: वेन से ही वीनस शब्द निकला है, यह मत लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का है। रोमन लोगों ने इस विनस को सौन्दर्य की देवी माना है। सूर्य से करीब 11 करोड़ किमी. दूर है शुक्र। परन्तु जब वह अपने परिभ्रमण मार्ग में पृथ्वी के नजदीक आते हैं तो उनकी दूरी 4 करोड़ किमी. तक रह जाती है और वह चन्द्रमा और सूर्य को चुनौती सी देते हुए प्रतीत होते हैं। जब ये बहुत चमकीले दिखते हैं तो कभी इन्हें भोर का तारा कहा जाता है जो कि सूर्योदय से पहले दिखता है तो कभी सूर्यास्त के बाद पश्चिमी आकाश में दिखते हैं। आकाश का सबसे चमकीला नक्षत्र लुब्धक या व्याध है, परन्तु शुक्र उससे भी 13 गुण अधिक चमकते हैं।

मय सभ्यता के ज्योतिषी तो ज्योतिष में भी निष्णात थे और वे शुक्र को प्रधानता देते हुए उसके लिए नरबलि तक देते थे। शुक्र के वायुमण्डल में 96 प्रतिशत कार्बन-डाई-ऑक्साइड है इसलिए वनस्पति तो वहाँ हो ही नहीं सकती।

अगर पृथ्वी और सूर्य के  ठीक बीच में चन्द्रमा आ जाएं तो सूर्य ग्रहण होता है परन्तु जब बुध या शुक्र पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाए तो सूर्य पर काला सा धब्बा दिखता है और इससे पारगमन कहते हैं। बहुत कम अवसर पर पारगमन हुआ है। ईस्वी सन् 1631, 1639, 1761, 1769, 1874, 1882, 2004 व 6 जून 2012 को शुक्र के पारगमन ने बड़ी घटनाओं को प्रेरित किया है। पुराणों में जिन शुक्राचार्य का वर्णन है वे मायावी युद्ध के प्रणेता थे, यंत्रों का आविष्कार उन्होंने कर लिया था एवं वे व उनके समस्त शिष्य असुर शिव व शक्ति के उपासक थे। इसीलिए वे बृहस्पति  और देवताओं को यज्ञ कर्म से शक्ति प्राप्त करने से रोकते थे। कभी देवता बलवान होते थे तो कभी असुर। भारतीय ज्योतिष में शुक्र को शिक्षक, गुरु, ब्राह्मण व शास्त्रों का प्रवक्ता माना गया है

लक्ष्मी का वास

लक्ष्मी कहाँ नहीं जाती -

दीपावली पर महालक्ष्मी का आह्वान किया जाता है किन्तु महालक्ष्मी प्रत्येक स्थान पर नहीं जातीं। ब्रह्मवैवत्र्तपुराण में स्वयं लक्ष्मी ने उन स्थानों का उल्लेख किया, जहाँ वह नहीं जाती। हम विचार करेंगे कि कहीं हमारा घर-परिवार भी ऐसा तो नहीं बन चुका, जहाँ लक्ष्मी आ ही न सके। लक्ष्मी वहाँ नहीं जाती जहाँ आचार्य माता, पिता तथा अतिथि का अपमान होता हो। जहाँ मिथ्याभाषण, वासना, दीनता, आलस्य, विश्वासघात तथा कृतध्रता के दुर्गुण रहते हैं, वहाँ लक्ष्मी नहीं जाती। चिन्ता, भय, क्रोध, सुरापान, ऋणग्रस्तता तथा कृपणता से लक्ष्मी को चिढ़ है। जहाँ स्त्रियाँ मर्यादा का उल्लंघन करें, मनुष्य उद्विग्न रहें, नास्तिकता का साम्राज्य हो, लोभ और हिंसा हो, दान देकर वापिस लेने की भावना हो, आश्रितों को सहारा न दिया जाता हो, अश्लीलता का सेवन हो, मलिनता तथा अस्तव्यस्तता हो, वहाँ लक्ष्मी नहीं रहतीं।

मलिनता, पेटूपन, कठोर भाषण तथा आलस्य से लक्ष्मी को इतनी चिढ़ है कि यदि चक्रपाणि विष्णु में भी ये दोष हों तो लक्ष्मी उन्हें भी छोड़ देती है। महाभारत में भी भीष्मपितामह ने इसी प्रकार प्रसङ्ग उठकार यह बताया कि कत्र्तव्य-पराङ्मुख, नास्तिक, अशुद्ध, कृतघ्न, आचारहीन, क्रूर, चोर, तथा ईष्र्यालु पुरुषों के पास लक्ष्मी नहीं जाती। एक विशेष बात महाभारत में यह कही गयी कि व्यक्ति को कभी भी थोड़े में संतुष्ट होकर नहीं बैठना चाहिए। जिस घर में बरतन भांडे बिखरे रहते  हैं, परस्पर कलह होता रहता है, अधिक चकचक होती रहती है ऐसे घरों में लक्ष्मी नहीं रहती।

लक्ष्मी कहा निवास करती हैं-

स्कंदपुराण तथा महाभारत में लक्ष्मी के निवास करने की भी शर्ते विस्तार से दी गई है। जो घर साफ-सुथरे हैं, जहाँ गृहिणी कुशल है, जहाँ का कोठियार साफ सुथरा है, सब मीठी वाणी बोलते हैं, सदस्य मितभाषी हैं, विद्या तथा विनय है, वहाँ लक्ष्मी का वास है। जहाँ लोग बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार की शुद्धि रखते हैं, जहाँ निरन्तर प्रसन्नता बनी रहती है, उत्सव होते रहते हैं, वहीं लक्ष्मी का वास है। महाभारत में लक्ष्मी के निवास की अनेक शर्ते दी गयी हैं- सत्य, प्रियदर्शन, सुन्दरता, पुरुषार्थ, विनय, श्रद्धा तथा स्वाध्याय। लक्ष्मीपूजन की विधि है, उस विधि से पूजन होना चाहिए, किन्तु साथ ही साथ हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि क्या हमें अपने घर में वे शर्ते पूरी की हैं, जिनका होना लक्ष्मी के निवास के लिए आवश्यक है, अन्यथा सब पूजा-पाठ बेकार हो जाएगा।

यात्रा रेखाएं

अवतार कृष्ण चांवला

आम तौर पर चन्द्रमा से निकलने वाली रेखाएं यात्रा बताती हैं। ये रेखाएं तिरछी व खङी हो सकती हैं। इन्ही रेखाओं के माध्यम से जातक के जीवन में विदेश यात्राओं का आकलन किया जाता है। यदि रेखाओं की संख्या अधिक हो तो जल्दी जल्दी यात्रा होती हैं। यदि लम्बी रेखा हो तो देश या विदेश में लम्बी यात्रा बताती हैं।

- चन्द्र पर्वत से निकलने वाली रेखाओं की स्थिति के आधार पर ही यात्रा की दूरी का अनुमान लगाया जा सकता है। रेखा लम्बी हो तो यात्रा लम्बी होगी अन्यथा लाइन छोटी हो तो यात्रा छोटी होगी।

- अंगूठे के मूल से निकल कर जीवन रेखा में मिल जाने वाली रेखाएं भी विदेश यात्रा की रेखा कहलाती है।

- कनिष्ठका अंगुली के मूल क्षेत्र से उत्पन्न होकर जीवन रेखा पर पहुँचने वाली प्रभाव रेखा भी जातक के जीवन में यथोचित समय पर विदेश यात्रा का अवसर प्रदान करती है।

- चन्द्र पर्वत से निकल कर कोई स्पष्ट रेखा निर्दोष रूप से बुध पर्वत की ओर जाती है तो जातक निश्चित ही विदेश यात्राएं करता है।

- यदि शुक्र पर्वत के मूल में कोई रेखा जीवन रेखा की ओर से आकर मिलती हो और दूसरी शाखा रेखा चन्द्र पर्वत की और जाती हो तो जातक अनेक वर्षों तक विदेश में प्रवास करता है।

- यदि चन्द्र पर्वत से निकल कर कोई रेखा सूर्य पर्वत तक पहुँच जाए  तो जातक को विदेश यात्रा के दौरान धन और मान सम्मान की प्राप्ति होती है।

- चन्द्र पर्वत से निकल कर जब कोई रेखा भाग्य रेखा को काटती हुई जीवन रेखा में मिल जाए तो व्यक्ति को दुनिया भर के देशों की यात्रा करवाती है।

- यदि आयु रेखा ही घूम कर चन्द्र पर्वत की ओर पहुँच जाए तो जातक अनेक देशों की यात्रा करता है और उसकी मृत्यु  भी दूर देश में होती है।

- प्रथम मणिबंध से निकल कर चन्द्र पर्वत की ओर जाने वाली रेखा शुभ मानी जाती है। ऐसे व्यक्तियों की यात्रा सफल और लाभदायक होती है।

- यदि किसी जातक की हथेली में चन्द्र पर्वत से निकल कर स्पष्ट रूप से ह्रदय रेखा में मिल जाए तो जातक को यात्रा के दौरान प्रेम सम्बन्ध अथवा प्रेम विवाह होने की पूरी संभावना होती है।

- यात्रा रेखा पर यदि कोई क्रोस हो या चतुष्कोण हो तो अक्सर यात्रा का कार्यक्रम अकस्मात रद्द हो सकता है।

- यदि किसी की हथेली में चन्द्र पर्वत से कोई निर्दोष रेखा निकल कर जीवन रेखा की और आती हो और वहां से भाग्य रेखा निकल कर शनि पर्वत की और पहुँचती हो तो वह जातक उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश जाता है।

- रेखा जीवन रेखा से निकल कर चन्द्रमा पर जाए तो विदेश में ही निवास का निर्णय हो सकता है। यदि यह रेखा काफी गहरी हो तो व्यक्ति विदेश में बसने का निर्णय के सकता है। परन्तु यदि जीवन रेखा एवं उससे निकल कर चन्द्रमा की और जाने वाली रेखा दोनों काफी स्पष्ट और मजबूत हो तो व्यक्ति विदेश यात्राएं लगातार करता रहेगा। परन्तु इस तरह की कोई भी रेखा उपस्थित ना होने पर भी विदेश यात्रा या विदेश में बसना हो सकता है।

 

 

विवाह और नक्षत्र

27 नक्षत्रों में से मघा, मूल, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, स्वाति, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी तथा रेवती ये नक्षत्र अत्यंत शुभ माने जाते हैं। कुछ विशिष्ट नक्षत्र अन्य कार्यों में तो शुभ होते हैं परंतु विवाह के लिए शुभ नहीं होते।

पुष्य : पुष्य नक्षत्र सभी शुभ-मांगलिक कार्यों में शुभ होता है लेकिन विवाह के लिए महा अशुभ होता है। धारणा है कि इस नक्षत्र में ब्रह्माजी ने अपनी पुत्री का विवाह किया लेकिन विवाह के अवसर पर मद से ग्रसित होकर ब्रह्मा जी को पतित होना पड़ा। इसलिये ब्रह्मा जी ने पुष्य नक्षत्र को शाप दिया कि-संसार में कोई भी इस नक्षत्र में विवाह नहीं करेगा।

पूर्वाफाल्गुनी : वाल्मीकि ऋषि ने कहा है कि पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में श्रीराम और सीता का विवाह हुआ था, जो सफल नहीं रहा और दम्पत्ति को वियोग सहना पड़ा।

अभिजित् : अत्रि ऋषि ने अभिजित् नक्षत्र को विवाह में अशुभ कहा है क्योंकि राजा नल और दमयन्ती का विवाह 'अभिजित’ नक्षत्र में हुआ था और उन्हें सुख नहीं मिला।

मूल : मूल नक्षत्र को पहले विवाह में शुभ नहीं माना जाता था परंतु मूल नक्षत्र में देवकी का विवाह हुआ और देवकी ने भगवान श्रीकृष्ण को जन्म दिया। इसलिए मूल नक्षत्र विवाह में शुभ माना जाता है।

मघा : मघा नक्षत्र के स्वामी पितृगण होते हैं। विवाह में पितृकर्म (श्राद्धादि) वर्जित होते हैं लेकिन मघा नक्षत्र विवाह में शुभ माना गया क्योंकि दक्ष प्रजापति की कन्याओं का विवाह कश्यप ऋषि के साथ मघा नक्षत्र में हुआ और वे सभी कन्याएं सौभाग्यशालिनी रहीं।

त्याज्य नक्षत्र : जिस नक्षत्र में ग्रहण हुआ हो, भूकंप आया हो या धूमकेतु का उदय हुआ हो वह नक्षत्र भी अगले छह माह तक विवाह में वर्जित होता है।

 

चंद्रमा से बनने वाले योग

जन्म कुण्डली में सभी 9 ग्रहों का अपना-अपना महत्व है, लेकिन जब सूर्य-चंद्रमा की बात आती है तो यह अपना अलग ही महत्व रखते हैं। दो प्रकाशित ग्रह जब जन्म पत्रिका में बली हों तो जन्म पत्रिका काफी हद तक ठीक हो जाती है। सूर्य-चंद्र से बनने वाले योग व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते हैं।

अनफा योग - जन्म पत्रिका में चंद्रमा से द्वादश भाव में यदि कोई ग्रह स्थित हो (सूर्य के अतिरिक्त) व द्वितीय भाव में कोई ग्रह न हो अनफा योग होता है।

उदाहरण - वृषभ लग्न की कुण्डली में पंचम भाव में कन्या राशि के चंद्रमा से द्वादश भाव में स्थित सिंह राशि के सूर्य स्थित हैं व द्वितीय भाव में कोई ग्रह स्थित नहीं है जो की अनफा योग का निर्माण कर रहे हैं। अनफा योग के जातक निर्मल व शीलवान प्रभाव के होते हैं, समाज में अपनी मान-प्रतिष्ठा बनाते हैं।

सुनफा योग - जन्म पत्रिका में यदि चंद्रमा से द्वितीय भाव में कोई ग्रह स्थित हो (सूर्य के अतिरिक्त) व द्वादश भाव में कोई ग्रह न हो तो सुनफा योग का निर्माण होता है। इस योग वाले व्यक्ति बुद्धिमान, चतुर होते हैं, सौभाग्यशाली व धनी के साथ-साथ विशेष ख्याति अपने जीवन में प्राप्त करते हैं।

उदाहरण - धनु लग्न की कुण्डली में एकादश भाव में तुला राशि के चंद्रमा स्थित हैं। चंद्रमा से द्वितीय भाव में वृश्चिक राशि के मंगल स्थित हैं। चंद्रमा से द्वादश भाव में कोई ग्रह स्थित नहीं है। इस जन्म पत्रिका में यह स्थिति सुनफा योग का निर्माण कर रही है।

दुरुधरा योग - जन्म पत्रिका में यदि चंद्रमा से द्वितीय भाव में व द्वादश भाव में ग्रह हो (सूर्य के अतिरिक्त) तो दुरुधरा योग का निर्माण होता है। दुरुधरा योग वाले व्यक्ति त्याग की भावना रखने वाले होते हैं। हमेशा सुखी जीवन जीने वाले होते हैं। एक से अधिक वाहनों का सुख इस योग वाले व्यक्तियों को प्राप्त होता है। सांसारिक व भौतिक सुख-सुविधाओं को भोगने वाले व एक से अधिक स्त्रोतों से आय प्राप्त करने वाले होते हैं।

उदाहण - तुला लग्न की कुण्डली में तृतीय भाव में धनु राशि के चंद्रमा स्थित हैं। चंद्रमा से द्वितीय भाव में मकर राशि के शुक्र स्थित हैं व द्वादश भाव में वृश्चिक राशि के शनि स्थित हैं। यह स्थिति दुरुधरा योग का निर्माण कर रही है।

उपर्युक्त योगों के लिए चंद्रमा की स्थिति बली होना आवश्यक है अर्थात् अमावस्या के  चंद्रमा व नीच के चंद्रमा यदि हों तो फलों के अन्दर कमी आती है, योग पूर्णत: नहीं फलता।  चंद्र से द्वितीय व द्वादश भाव की बात करें तब चंद्रमा जहां स्थित हैं उसे प्रथम भाव मानकर सभी भाव क्रमश: होंगे। जैसे चंद्रमा से पीछे वाला भाव द्वादश भाव, चंद्रमा से आगे वाला भाव द्वितीय भाव माना जाएगा।

केन्द्रुम योग - जन्म पत्रिका में चंद्रमा से द्वितीय व द्वादश भाव में यदि कोई भी ग्रह  स्थित न हो तो केन्द्रुम योग होता है। यह योग शुभ नहीं माना गया है। इस योग से व्यक्ति को जीवन में दरिद्रता का सामना, मान-हानि का सामना करना पड़ता है। व्यक्ति को जीवन में हमेशा प्रयासों से बहुत कम फल प्राप्त होता है। व्यर्थ की भाग-दौड़ अधिक होती है। काफी कठिन मेहनत के बाद भी सफलता पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हो पाती है।