वराहमिहिर ने जिसे शय्या कहा है वह आधुनिक डबलबैड है व आसन आधुनिक सोफासैट व उससे मिलती-जुलती चीजें हैं। उन्होंने वृहत्ïसंहिता में इन दोनों विषयों को लेकर एक पूरा अध्याय ही रच दिया है। वराह्ïमिहिर ने अपने वास्तु संबंधित प्रावधानों में अधिकांशत: यादव कुल के आचार्य महर्षि गर्ग तथा उनके अलावा विश्वकर्मा और रावण के ससुर मयासुर से प्रेरणा ग्रहण की।

उनके अनुसार शय्या के लिए विजयसार, स्पंदन, हरिदा, देवदारु, तिन्दुकी, शाल, काश्मरी, अंजन, पदम्ïक, शॉल और शिंशपा आदि वृक्ष शुभ बताए हैं। इन वृक्षों की काष्ठ ही सोफासैट इत्यादि में काम लेनी चाहिये। बिजली, जल, वायु या हाथी के आघात से गिरे हुए, मधुमक्खियों के छत्ते वाले वृक्ष या पक्षियों के घोंसले वाले वृक्ष प्रधान या सबसे बडे वृक्ष, शमशान या मार्ग में स्थित वृक्ष तथा जिन वृक्षों पर सूखी हुई बहुत बडी लताएं हो इनकी काष्ठ डबलबैड के लिए बहुत अशुभ बताई गई है। कांटे वाले, बहुत बड़ी नदियों मेें पैदा हुए या देवालय में उत्पन्न वृक्ष या गिरते समय जो वृक्ष दक्षिण या पश्चिम दिशा में गिरें उनकी काष्ठ भी अशुभ बताया गया है। इस काष्ठ से कुल का नाश, रोग, भय, धन की हानि कलह आदि कष्ट आते हैं।

यदि काटे हुए वृक्ष के परीक्षण के समय उसका इतिहास ज्ञात नहीं हो परन्तु उस पर अचानक कोई बालक खेल खेल में चढ़ जाए तो उसको अत्यन्त शुभ धन, पुत्र व पशु दायक माना जाता था।

यदि आप डबलबैड बनवा रहे हों और जिस समय बढई घर में यह कार्य कर रहा हो उस समय सफेद फूल, मतवाला हाथी, दही, अक्षत, जल से भरा हुआ घडा, रत्न, सुहागन स्त्री और आभूषण आदि देखने को मिल जाएं तो वह शय्या आसन अत्यन्त शुभ फल देता है। अन्य मंगलकारक वस्तुओं को देखने से भी शुभ फल आता है।

राजपुत्र, मंत्री और सेनापति की शय्या का आकार क्रमश 90, 84, 78 अगुंल का बताया गया है। इन सब का समीकरण जिला कलेक्टर, डिविजनल कमिश्नर, जिला एवं सेशन जज, सांसद, मुख्य सचिव एवं सचिव, मंत्री एवं उससे ऊपर के सभी वर्ग से किया जा सकता है। इनसे तुल्य अधिकार रखने वाले सत्ता के अन्य भोगियों को भी इसमें शामिल माना जा सकता है। इस शय्या का आकार नौ फुट से 12 फुट के बीच में माना जा सकता है। चौड़ाई के लिए भी एक फार्मूला दिया गया है। शय्या की लम्बाई का आधा कर लें उस का आठवां हिस्सा घटा देने से जो शेष बचे वह शय्या की चौडाई होगी। चौडाई के तीसरे भाग के बराबर कुक्षि तथा सिर के साथ पाये की ऊंचाई होती है। यह अनुपात विश्वकर्मा ने बताया है।

शय्या-काष्ठ फल

श्रीपर्णी वृक्ष से बनी हुई शय्या धन देने वाली होती है। आसन (विजयसार) वृक्ष का काष्ठ रोग हरता है। तिन्दुक सार से बनी हुई काष्ठ शय्या धन देने वाली शिंशपा वृक्ष से बनी शय्या तरह से तरह से वृद्धि करने वाली, चन्दन वृक्ष से बनी शय्या शत्रु का नाश करने वाली, स्वयं की आयु व कीर्ति बढाने वाली, पद्ïमक वृक्ष से बनी हुई शैय्या दीर्घ आयु, लक्ष्मी, धर्म और धन देने वाली और शाल वृक्ष से बनी हुई शैया सब तरह से कल्याण करती है। केवल चन्दन वृक्ष से बना हुआ बैड-रूम जो स्वर्ण से मंढा हुआ और रत्नखचित भी हो तो ऐसे व्यक्ति का देवता भी सम्मान करते हैं। भारत के बड़े ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इस बात का विचार किया जाता है। 

शाल और शाक वृक्ष की काष्ठ से अलग-अलग या मिश्रित करके शैय्या बनाई जाए तो शुभ परिणाम देती है। आम वृक्ष की लकड़ी के बने हुए डबल बैड या सोफा प्राणनाशक होते हैं। अन्य वृक्षों की लकड़ी से बने हुए जिनका विवरण नहीं आया है, किसी न किसी दोष से युक्त होते हैं। आम, स्पन्दन और चन्दन वृक्ष से युत पलंगों में स्पंदन वृक्ष के पाये लगाए जाएं तो शुभ माना जाता है। परंतु एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि फल देने वाले सभी वृक्षों की लकड़ी किसी पलंग में लगा दी जाए या उसका सोफा बनाया जाए तो अभीष्ट फल प्राप्ति होती है।

काष्ठ संयोग का प्रकार या कैसे करें?

बनाए हुए दक्षिण और वाम तरफ के काष्ठ का योग प्रदक्षिणा क्रम से हो, जैसे कि सिर के तरफ की काष्ठ के अग्रभाग में दक्षिण तरफ के काष्ठ की जड़ वाला भाग संयुक्त करें। इसी तरह दक्षिण की तरफ काष्ठ के अगले भाग में पांव की तरफ के काष्ठ की मूल को संयुक्त करें या पांव की तरफ की काष्ठ के अग्रभाग में उत्तर तरफ के काष्ठ की मूल या उत्तर तरफ के काष्ठ के अग्रभाग में सिर के तरफ की काष्ठमूल को लगाना शुभ माना गया है। यह सव्य क्रम कहलाता है। अपसव्य क्रम अर्थात इसका उल्टा क्रम से काष्ठ संयोग हो तो भूतात्माओं को शैय्या में विचरण का अवकाश मिल जाता है।

यदि शैय्या या आसन का एक पाया अधोमुख अर्थात काष्ठ के मूल में पाये का अग्रभाग या काष्ठ के अग्रभाग में पाये का मूल हो तो उस पर सोने वाले को पांव में पीड़ा रहेगी। अगर दो पाये इस भांति के हों अर्थात अधोमुख हों तो अजीर्ण और तीन और चार पाये अधोमुख हों तो क्लेश, वध और बंधन होता है। कदाचित पलंग पर ही शस्त्राघात से मृत्यु हो जावे। यदि इस बात का ध्यान रख लिया जाए तो वह पलंग शुभफल देने वाला हो जाता है।

ग्रंथयुक्त पाया

यदि पाये का सिर छिद्रयुक्त, विवर्ण या गांठदार हो तो शयन करने वाले को बीमारियां आती है। पैर के कुंभ में अर्थात पाये में जो गोलाकृति बना दी जाती है, उसमें गांठ हो तो पेट से संबंधित रोग, कुंभ से नीचे का भाग जिसे कि जंघा कहा जाता है में गांठ हो तो शयन करने वाले की जंघाओं में भय, यदि आधार जो कि जंघा के नीचे वाला भाग कहलाता है, में गांठ हो तो धननाश तथा पाये के तलहटी या खुर प्रदेश में गांठ हो तो खुर वाले जानवरों को पीड़ा होती है। इसी भांति पाश्र्व भाग के काष्ठ में या शीर्षणि अर्थात सिर की तरफ के काष्ठ में काष्ठ के एक तिहाई भाग में गांठ हो तो शुभफल नहीं होता। यदि काष्ठ के छिद्र के मध्य में घड़े की आकृति दिखे तो यह धननाश कराता है। यदि इन छिद्रों में कीट इत्यादि हों तो भी शुभ नहीं माना गया है। काले रंग का छिद्र हो तो कुलनाश का भय तक बताया गया है।

वराहमिहिर कहते हैं कि एक वृक्ष के काष्ठ से बनी हुई शैय्या धन्य, दो वृक्ष की काष्ठ से बनी शैय्या धन्यतर, तीन वृक्षों की काष्ठ से बनी हुई शैय्या पुत्रों को बढ़ाने वाली और चार वृक्षों की काष्ठ से बनी हुई शैय्या उत्तम धन और यश देने वाली, पांच वृक्षों की काष्ठ से बनी हुई शैय्या मृत्यु भय, छह, सात या आठ वृक्षों की काष्ठ से बनी हुई शैया कुलनाश कराती है।

घर में प्रतिमाओं के स्थापन में प्रयुक्त की गई शैय्या अत्यंत श्रेष्ठ मानी गई है। जिन प्रतिमाओं की स्थापना की जानी होती है, उनको स्थापना से पहले नवनिर्मित शैय्या पर विश्राम कराया जाता है। प्रतिमा स्थापना से पूर्व प्रतिष्ठा करने वाला पुरुष स्नान कराई हुई, वस्त्र पहनाई हुई, भूषण, पुष्प और सुगंधित द्रव्यों से पूजित प्रतिमा को सुंदर बिछी हुई शैय्या पर स्थापित करें एवं बाद में उसकी प्राण प्रतिष्ठा करें। यह शैय्या अत्यंत शुभ हो गई मानी जाती है।

आधुनिक शैय्याओं में फोम और लौह आदि धातुओं का प्रयोग बहुत हो गया है। शास्त्रों में स्वर्ण या रजत धातुओं का तो उल्लेख है, लौह और ताम्र आदि धातुओं का उल्लेख नहीं मिलता है। आधुनिक काल में प्लास्टिक का प्रयोग भी बहुत अधिक बढ़ गया है। सोफे बनाने में भी प्लास्टिक या ग्रेफाइट इत्यादि का प्रयोग भी बहुत अधिक हो गया है। इन सबको लेकर शास्त्रीय नियमों की रचना अभी नहीं हुई है। परंतु शैय्या से लगती हुई एअर-कंडीशनिंग व्यवस्था या ऐसी मशीनों का प्रयोग जो वाईब्रेशन उत्पन्न करती है या कृत्रिम ठंड या गर्मी उत्पन्न करने वाली अन्य प्रणालियां अनुसंधान के विषय हैं। अत्यंत लोच वाले गद्ïदे भी चिकित्सा शास्त्र या मनोविज्ञान के क्षेत्राधिकार में आते हैं, उन पर भी अनुसंधान करके नियम बनाए जाने आवश्यक हैं। जिन वृक्षों की काष्ठ का उल्लेख शास्त्रों में नहीं है, उनमें यह ध्यान रखा जा सकता है कि जो काष्ठ मनुष्य के मित्र हैं, वे शुभफलद और जो काष्ठ क्रोध या भावनाओं का अतिरेक उत्पन्न करते हैं वे अशुभ हैं। जीर्ण या पूर्व प्रयुक्त काष्ठ को सर्वदा अशुभ माना ही गया है।

आसन और शय्या स्थापन में मनोविज्ञान से संबंधित कुछ नियमों का भी समावेश किया गया है। जैसे कि यदि ये शयनकक्ष के द्वार का वेध करें तो शुभ नहीं माना जाता। भूमि से कुछ ऊंचाई होना शुभ माना जाता है। घुटनों की ऊंचाई से उचित अनुपात में शय्या या आसन अधिक शुभ माने गए हैं।

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मेष राशि के लिए रत्न

आपके लिए माणिक और पुखराज रत्न शुभ हैं।

1. माणिक पहनने से आपके आत्म-विश्वास में बढ़ोत्तरी होगी, आसानी से बीमारी आपको प्रभावित नहीं कर पाएगी और Resistance Power बढ़ेगी। आपकी पद-प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी होगी, सम्मान बढ़ेगा, सरकारी लोगों से बनने वाले काम में रुकावटें कम आएंगी। इसको पहनने से केवल आपको ही फायदा नहीं होगा बल्कि आपके पिता को भी और यदि संतान हैं तो उनको और यदि नहीं है तो जब भी संतान होगी, उससे आपको लाभ मिलेगा।

वे विद्यार्थी जो परीक्षा के आखिरी समय में आत्म-विश्वास खो देते हैं उनका विश्वास बढ़ेगा, किसी प्रतियोगिता या प्रतिस्पद्र्धा में भाग लेने पर भी सफलता का प्रतिशत बढ़ जाएगा। पिता और पितातुल्य हर व्यक्ति से विशेष सहयोग और मदद मिलेगी।

आप सवा पाँच रत्ती का माणिक सोने या ताँबे की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के रविवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की अनामिका अँगुली में पहनें। (सूर्योदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी को धो लें। इसके बाद  'ओम घृणि: सूर्याय नम:' मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।

2. पुखराज पहनने से आपके भाग्य में बढ़ोत्तरी होगी और कार्यों में आ रही रुकावटें दूर होंगी। भाग्यबल से काम बनेंगे। वे विद्यार्थी जो बहुत अधिक मेहनत करते हैं और अंतिम समय में भाग्य उनका साथ नहीं देता और वे कुछ ही अंकों से पिछड़ जाते हैं, उनको पुखराज पहनने से मदद मिलेगी। समाज के बुद्धिजीवी व्यक्तियों से सहयोग मिलेगा और सहयोग से ही काम बनेंगे, धन में भी बढ़ोत्तरी होगी।

आप सवा पाँच रत्ती का पुखराज सोने की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के बृहस्पतिवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की तर्जनी अँगुली में पहनें। (सूर्योदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी को धो लें। इसके बाद 'ओम बृं बृहस्पतये नम:' मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।

 

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कितने प्राचीन हैं कुम्भ पर्व?

वीरेन्द्र नाथ भार्गव

भारतीय खगोल शास्त्र और ज्योतिषीय गणनाओं की परम्परा के अनुसार कुम्भ पर्व का संबंध सूर्य अथवा सौर मण्डल की गति अथवा सौर मण्डल का सदस्य ग्रहों के विशेष राशियों में पहुंचने के विशेष अवसरों पर कुम्भ पर्व आयोजित होता रहा है। भारत में प्रत्येक 12 वर्षों के अन्तराल में हरिद्वार (गंगातट), प्रयाग (गंगा + यमुना + सरस्वती संगम तट), नासिक (गोदावरी तट), और उज्जैन (क्षिप्रा तट) में आयोजित होते हैं। स्कंद पुराण में महाकुम्भ पर्व के खगोलिय विधान का उल्लेख मिलता है। यथा:

पद्मिनी नायके मेषे कुंभाशि गते गुरौ।

गंगोद्वारे भवेद्योग: कुंभ नाम्रातदोत्तम:

अर्थात् सूर्य जब मेष राशि पर आए और गुरु ग्रह कुंभ राशि पर हो तब गंगाद्वार (हरिद्वार) में कुंभ पर्व का उत्तम योग बनता है।

प्रयाग (इलाहबाद) में कुंभ पर्व हेतु जब सूर्य मकर राशि तथा गुरु वृष राशि में हो ओर माघ मास हो तभी संयोग बनने का उल्लेख मिलता है।

उज्जैन में आयोजित कुंभ मेले को सिंहस्थ पर्व कहते हैं जब गुरु सिंह राशि पर अवस्थित हो तथा खगोलीय दृष्टिï से दस योग आवश्यक होने का उल्लेख मिलता है। नासिक में कुंभ पर्व को सूर्य एवं गुरु का सिंह राशि, पूर्णिमा तिथि और गुरुवार की स्थिति में होने  का उल्लेख मिलता है। हजारों वर्षोँ से लोक विश्वास का आधार वैदिक साहित्य, पौराणिक गाथाओं और सांस्कृतिक जीवनशैली के अनुसार कुंभ पर्व की प्रासंगिकता समय समय पर व्यक्त की जाती रही है।

श्रीमद् भागवत महापुराण में सागर-मंथन की प्रसिद्घ घटना के आलोक में जब देवों, असुरों के समन्वित प्रयास से समुन्द्र मंथन के द्वारा अमृत का कुंभ (घडा) प्राप्त हुआ था तो उसके लिए परम्परा युद्घ हुआ था। तब युद्घकाल में हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में उस कुंभ से अमृत की कुछ बूंदें छलक कर गिर गई थीं। उन स्थानों पर अब इन विशेष खगोलीय ज्योतिषीय स्थिति में कुंभ पर्व आयोजित होते रहे हैं। इन चारों स्थानों पर कुंभ पर्वों की व्यवस्थित रूपरेखा आदि शंकराचार्य के द्वारा प्रस्तुत की गई मानी जाती है। कुंभ पर्व कब से आरम्भ हुए थे? इस प्रश्न की ऐतिहासिक प्राचीनता आज भी अनुमान तथा शोध का प्रसंग है। सम्राट हर्षवर्धन के द्वारा प्रयाग-कुंभ में सर्वस्व दान करने का प्राचीन उल्लेख मिलता है। कुंभ राशि जल की परिपूर्णता की प्रतीक मानी जाती है अत: भारत में अन्य नदियों के पास भी कुंभ मेलों के समान मेले आयोजित किये जाते रहे हैं। इन समान मेलों को आन्ध्र प्रदेश में तेलुगु भाषा में पुष्कर कहा जाता है। तमिलनाडु में कावेरी नदी के तट पर बृहस्पति के तुलाराशि में प्रवेश के अवसर पर कुंभ मेला आयोजित किया जाता है। यह कुंभ मेला महामखम्ï नामक तालाब के किनारे लगता है जो कि कुंभकोणम् नामक स्थान पर है। इस स्थान पर बहने वाली कावेरी नदी तीव्र कोण (मोड) बनाती है इसलिए इसका नाम कुंभ कोणम् है। सन् 1674 में आयोजित इस कावेरी कुंभ में तंजावुर के राजा रघुनाथ नायक ने स्वयं का स्वर्ण से तुलाभार करवाया था और उस स्वर्ण को वहाँ वितरित कर दिया गया था। कावेरी कुंभ की पौराणिकता कुंभ (घडे) से उत्पन्न अगस्त्य ऋषि के सार्थक प्रयासों से जुडी है जब उन्होंने उत्तर भारत और दक्षिण भारत के भू-भागों को एक रूप सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और वैचारिक समन्वय का स्वरुप प्रदान करने का भगीरथ प्रयास किया था। यद्यपि भारतीय पौराणिक गाथाओं की प्राचीनता युगों और कल्पों (चार युगों के एक सम्पूर्ण चक्र को कल्प कहते हैं) से पहले तक का वर्णन करती हैं तथापि एक सहज जिज्ञासा उठती है कि पौराणिक सागर मंथन की घटना पहले घटी थी अथवा ''गंगावतरण'' की घटना पहले घटी थी? यदि गंगावतरण बाद में हुआ था तो  हरिद्वार अथवा गंगाद्वार पर कुंभ पर्व होने की सार्थकता कितनी प्राचीन है? ऐतिहासिक और पुरातात्विक इतिहास के अनुसार प्रचंड असुर सभ्यता (असीरिया) का उदय ई.पू. 2300 के  लगभग उत्तरी इराक में दजला नदी के तट पर हुआ था। इस असुर सभ्यता का निर्णायक पतन ई.पू. 612 में हुआ था। किन्तु  असुर साहित्य में सागर मंथन की गाथा और अमृत घट का उल्लेख अभी तक उजागर नहीं हुआ है। ऐसी पृष्ठ भूमि में कुंभ पर्व की प्राचीनता का प्रसंग सांस्कृतिक दृष्टि से विश्वशोध को आमंत्रण देता है। परिस्थिति जन्य कारणों के संकेत से कुंभ पर्व की प्राचीनता के प्रसंग का संक्षेप यहाँ प्रस्तुत है।

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माला फेरने के नियम

हिमांशु शर्मा

जप के लिए माला को अनामिका अंगुली पर रखकर अंगूठे से स्पर्श करते हुए मध्यमा अंगुली से फेरना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार सुमेरु का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। माला फेरने में तर्जनी न लगायें। जप करते समय हिलना, डोलना तथा बोलना नहीं चाहिए। यदि जप करते समय बोल दिया जाए तो भगवान का स्मरण कर फिर से जप करना चाहिए। यदि माला गिर जाए तो एक सौ आठ बार जप करें। यदि माला पैर पर गिर जाए तो इसे धोकर दुगुना जप करें।

      

  

 

करमाला - माला हाथ की सहायता से भी की जाती है।

                       

 

ऊपर के चित्र  A के अनुसार अंक 1 से प्रारम्भ कर 10 अंक तक अंगूठे से जप करने से एक करमाला होती है। इसी प्रकार दस करमाला जप करके चित्र संख्या  B के  अनुसार 1 अंक से आरम्भ करके 8 अंक तक जप करने से 108 संख्या की माला होती है।

चित्र  A अनामिका के मध्य वाले पर्व से शुरु कर क्रमश: 5 अंगुलियों के दसों पर्वत पर अंगूठे को घुमावें और मध्यमा अंगुली के मूल में जो दो पर्व है, उन्हें मेरु मानकर उल्लंघन न करें।

इसी प्रकार अंक ना पड़े पर्वो को चित्र  B  में मेरु मानकर उसका उल्लंघन न करें।

पूजन की मुद्रा : कुश, कम्बल, मृगचर्म, व्याघ्रचर्म और रेशम का आसन जपादि के लिए उपयुक्त है।

कौशेंय कम्बलं चैव अजिनं पट्टमेव च।

दारुजं तालपत्रं वा आसन परिकल्पयेत्॥

पुत्रवान गृहस्य तो मृगचर्म पर ना बैठे।

पद्यासन, सिद्घासन, स्वस्तिक और सुखासन जप साधन के लिए उपयुक्त है। इसमें पद्यासन सर्वश्रेष्ठï माना गया है।

पद्यासन : यह आसन जप ध्यान के लिए श्रेष्ठï माना गया है। इसमें दाहिने पैर को बायी जंघा पर और बायें पैर को दाहिनी जंघा पर रखें। उसके पश्चात दायें हाथ को दायें घुटने पर और बायें हाथ को बायें घुटने पर रखें। इस आसन पर सिर, गला, रीढ की हड्डी सभी एक सीध में होना चाहिए।

सिद्घासन : इसमें बायें पैर की एडी को गुदा के स्थान पर रखें और दायें पैर को लिंग पर रखें।

स्वस्तिक आसन : घुटने और जंघो के बीच के स्थान पर पैर के तलवों को लगाकर सुविधा पूर्वक बैठने से यह आसन बनता है।

सुखासन : पालती मारकर सुविधापूर्वक बैठने को सुखासन कहते हैं।

जप दिशा : पूर्व की दिशा की और मुंह करके पूजन करना श्रेष्ठï माना गया है।

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पुरुष लक्षणाध्याय

अंगुलियां

जिनकी अंगुली लंबी हों, वे दीर्घायु, सुभग व्यक्तियों की सीधी उंगली, बुद्धिमानों की पतली अंगुली और जिनकी अंगुली चपटी होती है, वे दूसरों की सेवा करते हैं। जिनकी अंगुली मोटी होती है, वे निर्धन और बाहर को झुकी हुई अंगुली शस्त्रघात कराती है। जिनके हाथ वानर के समान हो, वे धनी और जिनके हाथ बाघ जैसे हों वे पापी होते हैं।

मणिबंध

दृढ़, सुगठित और सरल संधि हो ऐसे मणिबंध राजा बनाते हैं। छोटे मणिबंध वाले का हस्तच्छेद हो जाता है।

हथेली

जिनकी हथेली नीची होती है, उनको पिता का धन नहीं मिलता है। जिनकी नीची हथेली हो, परंतु वर्तुलाकार हो वे धनी होते हैं तथा जिनकी ऊंची हथेली हो वे दानी होते हैं। जिनकी हथेली बेड़ौल आकार की हो वे दुष्ट और निर्धन होते हैं, परंतु जिनकी हथेली का रंग लाख के समान लाल हो जाए वे धनी होते हैं। जिनकी पीली हथेली हो, वे अगम्या अर्थात निषेधित स्त्री में गमन करते हैं और रूखी हथेली गरीब बनाती है।

नख

जिनके नख तुष के समान रेखाओं से युत हों, वे नपुंसक, बुरे और रंगहीन नख वाले सदा दूसरों का मुख देखते हैं और जिनके ताम्रवर्ण के नख हो वे वीर और सेनापति होते हैं।

यव रेखा और अंगुली के पर्व

जिसके अंगुष्ठ मध्य में या अंगुष्ठ मूल में यव रेखा होती हैं, वे पुत्रवान होते हैं। जिनके अंगुलियों के पोरे लंबे हों  वे भाग्यशाली तथा दीर्घायु होते हैं।

हस्तरेखाएं

स्निग्ध तथा गहरी रेखा धनी बनाती है। रूखी तथा ऊंची रेखाएं धनी व्यक्तियों की होती है। विरल अंगुलियों वाले निर्धन और सघन अंगुलियों वाले धन संचय करते हैं।

जिनके मणिबंध से तीन रेखाएं निकलकर हथेली में जाए तो वह राजा के समान होता है। जिसके हथेली में दो मत्स्य रेखाएं हों तो वह सदा परोपकार के कार्य करता है। यदि वज्र के समान रेखा हो तो धनी, मछली के समान रेखा हो तो विद्वान तथा शंख, छत्र, पालकी, हाथी, घोड़ा और कमल के समान रेखा हो तो राज्य भोगता है। पताका या अंकुश के जैसी  या कलश या मृणाल जैसी रेखा हो तो भूमि में धन गाडने के योग होते हैं। यदि रेखा रस्सी जैसी हो तो अति धनी, स्वस्तिक जैसी रेखा हो तो धनी होता है। चक्र, खड़्ïग, फर्शा, तोमर, बर्छी, धनुष या भाला जैसी रेखा हो तो सेनापति और ऊखल जैसी रेखा हो तो यज्ञ करने वाला होता है। मगरमच्छ, ध्वजा और भण्डार की तरह हाथ में रेखा हो तो बहुत धनी और वेदी की तरह अंगुष्ठ मूल हो तो अग्निहोत्री होता है। वापि, मंदिर या त्रिभुज जैसी रेखा हो तो धार्मिक तथा अंगूठे की जड़ में जितनी स्थूल रेखाएं हो उतने ही पुत्र होते हैं। जितनी सूक्ष्म रेखाएं होती हैं उतनी ही पुत्रियां होती है। जिनके तर्जनी के मूल तक तीन रेखाएं चली जाएं उनकी आयु 100 वर्ष होती है। रेखाएं छोटी हों तो उसी अनुपात में आयु में कमी आ जाती है। जिनके हाथ में रेखाएं टूट गई हो तो उनको गिरने से कष् ट होता है। अधिक रेखाएं या बहुत कम रेखाएं भी अशुभ मानी गई हैं।

ठोढी, दांत और ओंठ

अत्यंत पतले और अत्यंत दीर्घ अधर निर्धनता लाते हैं। मांसल अधर धनी बनाते हैं, बिम्बफल के समान लाल और जिन अधरों में वक्रता नहीं हो वे राजा बनाते हैं तथा फटे, खंडित, रंगहीन या शुष्क अधर गरीब बनाते हैं।

स्निग्ध, घने, तीक्ष्ण और सम आकार वाले दांत शुभ होते हैं।

जीभ तथा तालु

लाल, लंबी, सुंदर और समान जीभ जिनकी हो वे संपन्न होते हैं एवं भोगी होते हैं तथा सफेद, काली और रूखी जीभ जिनकी हों वे गरीब होते हैं। तालु के लक्षण भी यही बताए गए हैं।

मुख

     सुंदर, वर्तुल, निर्मल और समान आकार वाला मुख राजयोग देता है। कुरु, वक्र, मलिन और विषम मुख भाग्यहानि कराता है। स्त्री के समान मुख वाले पुरुष संतानहीन, गोल मुख वाले शठ, लंबे मुख वाले निर्धन, भयानक मुख वाले धूर्त, निम्न मुख वाले पुत्रहीन, छोटे मुख वाले कृपण तथा संपूर्ण और सुंदर मुख वाले भोगी होते हैं।