मुकुंद





कोडाइकनाल सौर वेधशाला ने सूर्य के अध्ययन के 125 वर्ष पूरे कर लिए। इसका उत्सव (वर्षगांठ) पहली अप्रैल को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के स्वायत्त संस्थान भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान ने मनाया। इस दौरान कोडाइकनाल सौर वेधशाला के इतिहास का स्मरण किया गया। वैज्ञानिकों का अभिनंदन कर इसकी विरासत का सम्मान किया गया। कोडाइकनाल सौर वेधशाला देश में खगोल विज्ञान के लिए प्रमुख और बड़ी उपलब्धि है। इस वेधशाला में 20वीं सदी की शुरुआत से हर दिन रिकॉर्ड की जाने वाली 1.2 लाख डिजिटल सौर छवियों और सूर्य की हजारों अन्य छवियों का एक डिजिटल भंडार उपलब्ध है।



भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान की अधिशासी परिषद के अध्यक्ष एएस किरण कुमार ने कोडाइकनाल सौर वेधशाला की 125वीं वर्षगांठ के प्रतीक चिह्न का अनावरण और एक पुस्तिका का विमोचन भी किया। इस वेधशाला की स्थापना पहली अप्रैल 1899 को अंग्रेजों ने की थी। खुशी की बात यह है कि वेधशाला के पास दुनिया में सूर्य के सबसे लंबे समय तक के निरंतर दैनिक रिकॉर्ड के अद्वितीय डेटाबेस को डिजिटल कर दिया गया है। यह डेटाबेस अब दुनिया भर के खगोलविदों के लिए सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है। कोडाइकनाल सौर वेधशाला वर्तमान में भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान के अंतर्गत फील्ड स्टेशन के रूप में कार्यरत है। यह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग का स्वायत्त संस्थान है।

उत्सव में भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान की निदेशक प्रो. अन्नपूर्णी सुब्रमण्यम ने वेधशाला की विरासत पर चर्चा की। संस्थान के पूर्व निदेशक और सौर भौतिक विज्ञानी प्रो. सिराज हसन ने वर्ष 1909 में वेधशाला में गैस के रेडियल प्रवाह के कारण सनस्पॉट में देखे गए एवरशेड प्रभाव की खोज की जानकारी दी। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के अंतरिक्ष विज्ञान कार्यक्रम कार्यालय की पूर्व निदेशक एस. सीता ने रेखांकित किया कि विद्यार्थियों के बीच इसकी विशिष्टता के बारे में जागरुकता बढ़ाने के लिए विद्यालयों और महाविद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में कोडाइकनाल सौर वेधशाला पर सामग्री होनी चाहिए।



एएस किरण कुमार ने इस अवसर पर "भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम" पर चर्चा की। सफल चंद्रयान-3 मिशन के लिए दूर की गई तकनीकी चुनौतियों और गगनयान के साथ भविष्य पर प्रकाश डालते हुए रिमोट सेंसिंग, मैपिंग और संचार के विभिन्न क्षेत्रों में हुई प्रगति के बारे में भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि यह आयोजन इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि कोडाइकनाल सौर वेधशाला में वैज्ञानिक भारतीय धरती से सूर्य को समझने, ग्रहणों का अध्ययन करने, वर्ष 1868 में हीलियम की खोज करने, सूर्य में प्लाज्मा प्रक्रिया को समझने और इसके विस्तार, प्रमुखता और चमक-दमक को समझने का प्रमाण है।



कोडाइकनाल सौर वेधशाला तमिलनाडु में पश्चिमी घाट के ऊंचे देवदार के पेड़ों के बीच स्थित है। यह एक हिल स्टेशन भी है। कोडाइकनाल में कॉफी, यूकेलिप्टस और चॉकलेट की खुशबू आती है। यह दुनिया की हलचल से दूर पलानी पहाड़ियों में बसा हुआ है और इसे 'जंगल का उपहार' कहा जाता है। इसकी सुंदर और घुमावदार सड़कें इलाके के भू-भाग और भू-विज्ञान की प्रतिक्रिया हैं। यहां की कोडाई झील ऊंची पहाड़ियों से तारे की तरह टिमटिमाती है। कोडाइकनाल के मुख्य शहर से चार किलोमीटर दूर यह वेधशाला 2343 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इससे पहले यह गतिविधियां मद्रास वेधशाला से संचालित होती थीं। मद्रास वेधशाला को वर्ष 1786 में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी विलियम पेट्री ने शुरू किया था। प्रोफेसर चार्ल्स मिक्सी स्मिथ ने कोडाइकनाल सौर वेधशाला की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सौर विज्ञानी कहते हैं कि आने वाले समय में हमारे अपने अस्तित्व के लिए सूर्य के भविष्य को समझना महत्वपूर्ण है । इस अर्थ में, पिछली शताब्दी में किए गए सूर्य के अवलोकन हमें अतीत में झांकने की अनुमति देते हैं । ये ऐतिहासिक अवलोकन हमें अपने निकटतम तारे के पहले चरण में उसके व्यवहार को समझने में सक्षम कर सकते हैं और उसके आधार पर ही हम उसके भविष्य की भविष्यवाणी कर सकते हैं। सूर्य की नियति को समझने से अंतरिक्ष अन्वेषण के लिए हमारी योजनाओं को आकार मिलेगा, क्योंकि सूर्य हमारे अंतरिक्ष मौसम की स्थिति के लिए चालक है।

और भी वेधशाला हैं देश मेंः मध्य प्रदेश के उज्जैन ने भी खगोल विज्ञान के क्षेत्र में काफी महत्व का स्थान प्राप्त किया है। सूर्य सिद्धान्त और पंच सिद्धान्त जैसे महान ग्रंथ उज्जैन में लिखे गए हैं। भारतीय खगोलविदों के अनुसार, कर्क रेखा को उज्जैन से गुजरना चाहिए, यह हिंदू भूगोलवेत्ताओं के देशांतर का पहला मध्याह्न काल भी है। लगभग चौथी शताब्दी ई.पू. उज्जैन ने भारत के ग्रीनविच होने की प्रतिष्ठा का आनंद लिया। यहां वेधशाला का निर्माण जयपुर के महाराजा सवाई राजा जयसिंह ने 1719 में किया था। तब वे दिल्ली के राजा मोहम्मद शाह के शासनकाल में मालवा के राज्यपाल के रूप में उज्जैन में थे। राजा जयसिंह असाधारण रूप से एक विद्वान थे। उन्होंने उस समय फारसी और अरबी भाषाओं में उपलब्ध एस्टर-गणित पर पुस्तकों का अध्ययन किया। उन्होंने खुद खगोल विज्ञान पर किताबें लिखीं। राजा जयसिंह ने के अलावा जयपुर, दिल्ली, मथुरा और वाराणसी में वेधशालाओं का निर्माण कराया। राजा जयसिंह ने अपने कौशल को नियोजित करने वाली इन वेधशालाओं में नए यंत्र स्थापित किए। उन्होंने उज्जैन में आठ वर्षों तक स्वयं ग्रहों की गतिविधियों का अवलोकन करके कई मुख्य खगोल-गणितीय उपकरणों में परिवर्तन किया।



(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

हिन्दुस्थान समाचार/मुकुंद