सप्तनाड़ी चक्र : वर्षा का श्रेष्ठ वैदिक ज्ञान

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

वेदांग ज्योतिष में सर्वश्रेष्ठ विज्ञान सप्तनाड़ी चक्र के रूप में देखा जा सकता है, जो किसी क्षेत्र विशेष की वर्षा भविष्यवाणी के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। यद्यपि वर्षा के लिए रोहिणी का तपना अर्थात् रोहिणी नक्षत्र में सूर्य के 13 दिन की अवधि का ज्ञान, हिरणी का तपना, हिरणी मृगशीर्ष नक्षत्र मण्डल के लिए प्रयुक्त किया जाता है, वायु परीक्षण, चन्द्रशृंग व कई पूर्णिमाओं पर मेघों की स्थिति इत्यादि का विषद् वर्णन शास्त्रों में मिलता है। हजारों वर्षों के अनुभव में यह आया है कि वर्षा के लिए वेदाङ्ग ज्योतिष में जो योग व चक्र मिलते हैं वे असाधारण रूप से सफल जाते हैं। कई बार तो देखा गया है कि सरकारी विभागों के आँकड़े उतने सही नहीं होते, जितने कि ज्योतिषियों की भविष्यवाणियाँ।

आर्द्रा से शुरु करके स्वाति नक्षत्र तक दस नक्षत्र स्त्री नक्षत्र मान लिये गये और मूल से लेकर मृगशिरा तक 14 नक्षत्रों को पुरुष नक्षत्र माना गया और विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा को नपुंसक नक्षत्र माना गया। इन नक्षत्रों में अलग-अलग एक ही समय पर सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति और पुरुष-स्त्री के सहयोग से वर्षा की तिथियाँ और उसकी मात्रा निर्धारित की जाती रही है।

आमतौर पर 21-22 जून पर पड़ने वाले आर्द्रा प्रवेश को ऐसा दिन माना गया जब भारत में से गुजरती हुई, कर्क रेखा पर सूर्य भ्रमण करने ही वाले होते हैं। मिथुन राशि के मध्य अंशों में सूर्य जब कर्क रेखा पर आने को आतुर होते हैं, तो वर्षा दक्षिण भारत से प्रवेश करके मध्य भारत पर होने की स्थिति में आ जाती है। इसके बाद देश-विशेष के लिए सप्तनाड़ी चक्र अत्यधिक उपयोगी भविष्यवाणियों के लिए श्रेष्ठ माना गया है।

कुल मिलाकर सात नाड़ियाँ होती हैं, जिनमें चण्डा नाड़ी में भारी हवा और तूफान देखने को मिलता है। शनि को वर्षा रोकने वाला माना गया है जो इस राशि के स्वामी है। वायु नाड़ी के स्वामी सूर्य है, जो बादलों को सुखा देते हैं और वर्षा नहीं होने देते। अग्नि नाड़ी के स्वामी मंगल है जो भयानक गर्मी तो देते हैं परन्तु वर्षा नहीं होने देते। अगर सूर्य से आगे-आगे मंगल भ्रमण कर रहे हों तो बादल घूमते तो रहेंगे बरसेंगे नहीं। सौम्य नाड़ी के स्वामी गुरु हैं और थोड़ी  बहुत वर्षा करा देते हैं।

भारी वर्षा कराने में सर्वश्रेष्ठ अमृता नाड़ी है, जिसके स्वामी चन्द्रमा हैं और अगर यह वर्षा के दिनों में श्रवण, धनिष्ठा, मघा और आश्लेषा में भ्रमण करें तो महावर्षा होती है और जलप्लावन होता है। दूसरे नम्बर पर जला नाड़ी है, जिसके स्वामी बुध हैं और वे भी यदि पूर्वाफाल्गुनी, शतभिषा, अभिजित और पुष्य नक्षत्र में हों तो काफी बरसात करवा देते हैं। नीरा नाड़ी के स्वामी शुक्र हैं और यदि वे बरसात के दिनों में पूर्वाभाद्रपद, उत्तराषाढ़, पुनर्वसु और उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र में पड़ जायें तो काफी वर्षा करा देते हैं। यदि जलदायक चार नाड़ियाँ यथा- अमृता, जला, नीरा और सौम्य में उनके स्वामी एक साथ आ जाएं तो पृथ्वी पर दूर-दूर तक जल ही जल दिखता है। बाढ़ की परिस्थतियाँ आती हैं और सरकारें असहाय सी हो जाती हैं। 18 सितम्बर, 2021 को चन्द्रमा धनिष्ठा नक्षत्र में थे, मंगल उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में थे, सूर्य भी उत्तराफाल्गुनी में थे, गुरु धनिष्ठा नक्षत्र में थे, शनि श्रवण नक्षत्र मे ंथे तो बंगाल में भारी जल प्लावन हुआ। मैंने देखा कि उस दिन कलकत्ता शहर में इतनी बरसात हुई, जितनी कि पिछले 20 वर्षों में नहीं हुई। सूर्य मंगल उत्तराफाल्गुनी में थे और बुध चित्रा में थे, जिनके कारण तूफान भी आया। कलकत्ता की सभी गलियों में 2 दिन तक पानी भरा रहा। परिणामस्वरूप 19 सितम्बर को जब पूर्णिमा आई और समुद्र में ज्वार-भाटा आया तो कलकत्ता का पानी समुद्र में ना जा सका और जल प्लावन बना रहा। यदि एक शब्द में कहा जाए तो यह कि चन्द्रमा की नाड़ी में चन्द्रमा स्वयं के अलावा शनि और गुरु मौजूद थे, जिनके कारण यह नाड़ी अत्यधिक सफल रही और अभूतपूर्व वर्षा हुई। इसीलिए सितम्बर के उत्तरार्द्ध में कलकत्ता और दिल्ली ही नहीं देश के कई भागों में भारी बरसात हुई।

अगस्त्य उदय के बाद भी भारी वर्षा-

परम्परागत ज्योतिष में यह माना जाता है कि अगस्त्य तारे के अस्त होने पर वर्षाकाल प्रारम्भ होता है और अगस्त्य तारे के उदय होने के बाद वर्षा काल समाप्त हो जाता है। अगस्त्य ऋषि के बारे में तो यह प्रसिद्ध है कि उन्होंने समुद्र जल को ही सोख लिया था। यह पुराण कथा है। तुलसीदास जी ने इसी को सुन्दरकाण्ड में इस प्रकार कहा है-

उदित अगस्ति पंथ जल शोषा

जिमी लोभहि शोषइ संतोषा।

परन्तु वर्ष 2021 में 17 सितम्बर को अगस्त्य तारे के उदय के बाद भी भारी वर्षा हुई जो कि आश्चर्य का विषय है। क्या हम यह मान लें कि सप्तनाड़ी चक्र अत्यधिक सक्रिय था और अमृता नाड़ी में तीन ग्रह होने के कारण देश के कई भागों में जल प्लावन की स्थिति आई। जब यह परीक्षण करने पर हमने सप्तनाड़ी चक्र को और उसके आधार पर की  गई भविष्यवाणी को अत्यधिक सफल पाया तो हमारी श्रद्धा वैदिक ऋषियों के दिये गये विभिन्न चक्रों में और भी अधिक बढ़ गई।

जो लोग पुराण कथाओं को तथा उनमें छुपे विज्ञान तत्त्व को उपहास की दृष्टि से देखते हैं या जो वैदिक ज्ञान को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, वे अज्ञानी हैं और नादान हैं और हमारी धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर से परिचित नहीं है। हम बचपन से सुनते आ रहे थे कि रोहिणी या हिरणी 13-13 दिन तप लें तो सावन-भादो अच्छे जाएंगे। यदि सूर्य की इन नक्षत्रों में उपस्थिति के दौरान यदि बीच में ही वर्षा हो जाए तो सावन-भादो का वर्षाकाल कमजोर पड़ जाता है। यह बात सदा सच उतरती है।

भारत सरकार को चाहिए कि समृद्ध वैदिक ज्ञान की मदद लें और सरकारी संसाधनों को उन पर शोध करने और उनका लाभ उठाने के लिए प्रयास करें। कम से कम वर्षा काल को लेकर मेरा अनुभव यह रहा है कि सरकारी विभागों की अपेक्षा मेदिनी ज्योतिष के विद्वान अधिक अच्छी भविष्यवाणी कर रहे हैं। मैं स्वयं इतना आश्वस्त हूँ कि दस वर्ष बाद के भी वर्षा काल के प्रतिदिन की वर्षा का ज्ञान मैं दे सकता हूँ, जबकि सरकारी संसाधन और उपग्रहों से प्राप्त सूचनाएँ एक मौसम से अधिक आगे का अनुमान लगाने में सफल नहीं हो पाती हैं। देश में आज भी कई ऐसे विद्वान हैं जिनकी गहरी पकड़ इस विषय पर है।

 

शारदीय नवरात्र

आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को शारदीय नवरात्र प्रारम्भ हो रहे हैं। नवरात्र शक्ति संचय के दिन होते हैं। ऋतु का परिवर्तन भी इसी समय होता है। इस परिवर्तन काल में मन और बुद्धि विकारों और व्यसनों से दूर रहें। इनमें पूजा-आराधनाएं विशेष रुप से की जाती हैं। आराध्य देव की प्रसन्नता के लिए तरह-तरह के विधान अपनाये जाते हैं।

दुर्गा माता की प्रसन्नता के लिये शाक्त उपासक, श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ, बीज मंत्रों का चैतन्य, यंत्रों का निर्माण आदि तथा स्ति्रयाँ दुर्गा चालीसा के पाठ, नवार्ण मंत्र के जाप आदि करती हैं और माताजी से अपना सुहाग और बच्चों की दीर्घायु व घर में सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। ये नवरात्र विशेष रूप से देवियों की आराधना और तंत्र साधन के होते हैं। इन दिनों सात्विक,राजसिक और तामसिक मार्गों में प्रवृत्त भक्त  अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार उपासनाएं करते हैं।

भगवान श्री राम की प्रसन्नता के लिए श्रीराम चरित मानस, श्रीमद् वाल्मिकी रामायण के पाठ, श्री हनुमान जी की प्रसन्न्ता के लिऐ श्रीमद् वाल्मिकी सुन्दरकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, हनुमान चालीसा, हनुमान बाहुका, बजरंग बाण आदि के पाठ निश्चित संख्या का संकल्प लेकर करते हैं। हनुमान चालीसा और बजरंग बाण के प्रतिदिन 108 पाठ करने से अति शुभफल प्राप्त होते हैं। किसी मंत्र के 16 संस्कार इस नवरात्रों में पूरे कर लिये जावें तो वह मंत्र सिद्ध हो जाता है फिर इस मंत्र का सम्पुट लगाकर श्री दुर्गा सप्तशती, रामायण आदि का पाठ जिस कामना से किया जाये वह शीघ्र पूरी हो जाती है।

विषम संख्या में कन्याओं को और एक बालक वटुक को भोजन कराने और उन्हें यथाशक्ति वस्त्रादि तथा दक्षिणा देने का बहुत पुण्य मिलता है। शक्ति संचय के इन दिनों में जिस आंगन में कन्याओं और वटुकों के पैरों की धूल फैलती है, वह घर पवित्र हो जाता है।

नक्षत्र मेलापक कितने सार्थक

श्रीमती पद्मा शर्मा

प्रायः नक्षत्रों के आधार पर विवाह मेलापक कर दिया जाता है। उसमें चन्द्र राशि व गुण मेलापक से ही अधिकांश विवाह सम्पन्न कर दिये जाते हैं, परन्तु व्यवहार में देखने में आया है कि कई बार 25 से अधिक गुण मेलापन के बाद भी विवाह सफल नहीं रहता है और तरह-तरह की समस्याएं आती हैं। प्रायः विप्रगण पंचांग खोलकर गुणों की संख्या बताकर दो से पांच मिनट के अन्दर मिलान कर देते हैं। यदि ईमानदारी से मेलापन कार्य किया जाए तो इसमें कुछ घंटों का समय लगना अपरिहार्य है। हम इस बात की चर्चा करेंगे कि केवल नक्षत्र मिलान के अलावा किन विषयों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। साधारणतः लोगों का ध्यान गुण मेलापन के अलावा मांगलिक दोष पर तो जाता है, किन्तु अन्य विचारणीय बिन्दु अधूरे रह जाते हैं। मंगल दोष केा लेकर भी अनेक भ्रान्तियां हैं। जो लोग जीवन में महान हुए या असाधारण हुए उनके पीछे मंगल का भारी योगदान है। हमें निम्न बातों पर भी केन्दि्रत होना चाहिए।

1. वर-वधु के परस्पर लग्न का मिलान

2. सप्तम और सप्तमेश की स्थिति

3. सप्तम् में बैठै अवांछनीय ग्रह और राशि

4. भाग्य भाव का अध्ययन

5. पुत्र भाव का अध्ययन

6. नवमांश कुण्डली का अध्ययन

1. वर-वधु के परस्पर लग्न का मिलान- वर और कन्या की परस्पर लग्न का अध्ययन उतना ही आवश्यक है जितना कि एक दूसरे से चन्द्र राशि। वर की जन्म लग्न से कन्या की जन्म लग्न यदि एक-दूसरे से 6, 8, 12 में पड़े तो इससे उन दोनों के वैवाहिक संबंधों में असर आएगा। इसी तरह से नवांश लग्नों की तुलना भी आवश्यक है। जन्म लग्न से या नवांश लग्न से किसी एक में भी परस्पर लग्न एक-दूसरे से केन्द्र त्रिकोण में पड़ें तो विवाह के सफल होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। मेरा अनुभव है कि परस्पर लग्न की स्थिति अत्यधिक प्रभावी है न कि लग्नेशों की स्थिति।

2. सप्तम और सप्तमेश की स्थिति- सप्तम् का या सप्तमेश का षडबल या षोडश वर्ग अच्छा होना चाहिए। प्रायः  शुभ ग्रह जैसे शुक्र और बुध जो सप्तम् में बैठकर अनिष्ट करते  हैं वही ग्रह अगर सप्तम भाव पर दृष्टिपात करें तो वैवाहिक जीवन में सौन्दर्य ला देते हैं। यह बात बृहस्पति पर सबसे अधिक लागू होती है। सप्तमेश का मित्र राशि में बैठना तथा मित्र ग्रह या शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट होना वैवाहिक जीवन के लिए वरदान माना जाता है।

3. सप्तम में बैठे अवांछनीय ग्रह और राशि- प्रायः सप्तम भाव में पाप ग्रहों की उपस्थिति अच्छी नहीं मानी जाती। एक से अधिक पापग्रहों की उपस्थिति तो बिल्कुल भी अच्छी नहीं मानी जाती। सप्तम् भाव में मिथुन राशि या सिंह राशि के स्वामी यदि सप्तम् से शुभ भावों में न हों तो कष्टकारी सिद्ध होते हैं। अतः इन ग्रहों की शान्ति का उपाय करना ही चाहिए।

4. भाग्य भाव का अध्ययन- एक प्रबल भाग्यशाली कुण्डली से हत् भाग्य का मिलान नहीं करना चाहिए। यह सम्भव है कि इससे बहुत अधिक बड़े परिवार पर असर आये। प्रायः कहा जाता है कि स्त्री का पग फेरा घर को या तो उन्नति देता है या अवनति। अगर समान भाग्य की स्त्री भी घर में आए तो दोनों का भाग्य मिलकर द्वि-गुणित तो हो ही जाता है।

5. पुत्र भाव का अध्ययन- पंचम भाव का अध्ययन संतानोत्पत्ति के लिए ही नहीं किया जाना चाहिए बल्कि गत जन्मों के अभुक्त कर्म या इस जन्म के संचित कर्मों की दृष्टि से भी किया जाना चाहिए। प्राचीन भारतीय मान्यताओं के अनुसार पितृ ऋण से मुक्ति के लिए पुत्र का मुख देखना आवश्यक है, परन्तु ऐसा नहीं है कि पुत्र न होने की स्थिति में शास्त्रों में वैकल्पिक उपाय नहीं किए गए। सुपुत्र और कुपुत्र की दृष्टि से भी अध्ययन किया जाना आवश्यक है।

6. नवमांश कुण्डली का अध्ययन- नवांश कुंडली को कलत्र सुख के लिए देखा जाता है। जो बातें जन्म कुण्डली से देखी जाती हैं, वे ही नवांश कुण्डली से भी देखी जानी चाहिए। जैसे-नवांश कुण्डली के सप्तमेश या सप्तम में स्थित ग्रह या सप्तम से सम्बन्ध रखने वाले ग्रह अपनी महादशा, अन्तर्दशा व प्रत्यंतर्दशा में विवाह देते हैं। नवांश कुण्डली का सप्तम भाव पीड़ित होने पर विवाह सुख में बाधाएं आती हैं। सूर्य और केतु पार्थक्य के ग्रह हैं और सप्तम भाव में स्थित होने पर अलगाव की स्थितियां ला देते हैं। यदि दो या तीन ग्रह सप्तम भाव में स्थित हों तो दाम्पत्य जीवन में विपरीत प्रभाव आते हैं।

सप्तम भाव के अध्ययन के साथ कुछ ऐसे दोष हैं जिनका निराकरण होना आवश्यक है। अति कामुकता के दोषों में-मंगल शुक्र युति तथा इस युति से राहु या शनि का सम्बन्ध या सप्तम् में कई ग्रहों की स्थिति, सप्तमेश के साथ दो या तीन जलीय ग्रहों का सम्बन्ध आदि शामिल हैं। मंगल शुक्र या शनि का नवांश कुण्डली में भी परस्पर सम्बन्ध अच्छा नहीं माना गया है।

विवाह मेलापक के समय इस बात पर ध्यान देना अति आवश्यक है कि पति या पत्नि की जन्म पत्रिका में शुभ दशाएं क्रमवार आएं। जैसे कि पति की अच्छी दशा के बाद खराब महादशा आ जाये, ठीक उसी समय पत्नी की कोई अच्छी महादशा काम करने लगे। चरित्रहीनता के प्रायः सभी ज्ञात दोष एक कुण्डली में हों तथा दूसरी जन्मपत्रिका में न हों तो वैवाहिक जीवन में प्रायः बहुत असंतुलन देखने को मिला है। गुण मेलापक में अष्टकूट गुण बहुत कम संख्या में मिलते हों उसके पश्चात् भी सप्तमेश सप्तम को देखें या सप्तमेश सप्तम में हो तथा सप्तम पर शुभ प्रभाव हो तो भी वैवाहिक जीवन की सफलता निश्चित हो जाती है।

विवाह असफल होने के कारण तलाक हो यह आवश्यक नहीं, पति-पत्नी का व्यावसायिक कारणों से दूर रहना, पति या पत्नि का स्वास्थ्य के कारणों से दूर रहना व दाम्पत्य जीवन में बाधा, सामूहिक परिवार में रहने वाले व्यक्तियों के लिए हर क्षेत्र में सीमित अवसर रहना व परस्पर संदेह के कारण तलाक पूर्व की स्थिति काफी समय तक रहना जैसे विषय विवाह की सफलता को सीमित कर देते हैं।

विवाह मेलापक में त्रिंशांश कुण्डली का अध्ययन प्रायः नहीं किया जाता। ग्रहों का पाप ग्रहों के त्रिंशांश में चला जाना प्रायः अशुभ माना गया है परन्तु ऐसे विवरण स्त्री-जातक में अधिक मिलते हैं और स्ति्रयों के विषय में ही देखे जाते हैं। मेरी मान्यता है कि त्रिंशांश कुण्डली के योग पुरुषों की कुण्डली में भी देखे जाने चाहिए। जब काल खण्ड पर निर्णय करते समय जन्म लग्न निर्धारण स्त्री और पुरुष होने के आधार पर नहीं किया जाता बल्कि समय के आधार पर किया जाता है तब स्त्री-जातक योगों  को पुरुष कुण्डली में समान रूप से देखा जाना चाहिए।

इस लेख का सार संक्षेप यह है कि समान दोष या समान गुणों वाली जन्म पत्रिका के मेलापक ही अच्छे रहते हैं। जिस तरह से मंगल दोष निवारण के लिए समान दोष वाली जन्म पत्रिका का मेलापक किया जाता है, उसी तरह से चरित्र आदि दोष का आजीविका आदि दोषों के साथ समीकरण करना आवश्यक है। यह बात संतानोत्पत्ति, आर्थिक स्थिति, माता-पिता से सम्बन्ध तथा आर्युदाय से संबंधित मामलों में भी लागू की जानी चाहिए।

 

 

 

तुलसी की दृष्टि में मुहूर्त

सरस्वती शर्मा

कुछ समय पहले हमने चर्चा की थी कि किस प्रकार तुलसी कृत ‘रामायण’में ‘शकुन’ का प्रयोग हुआ है। सर्व साधारण की भाषा में प्रकृति कृत संकेत का वर्णन ही शकुन है, यही बात साधारण तरीके से ही वर्णित की गई। ज्योतिष ग्रन्थों की उपादेयता यही है कि अमुक तिथि को क्या-क्या योग निर्मित होकर किसी घटना को क्या अंजाम दे रहे हैं। किसी कार्य को किस तिथि, किस योग, किस मुहूर्त में शुरु करें ताकि सर्व साधारण जन कार्य का समुचित लाभ उठा सकें। यही मुहूर्त है।

तुलसीदास जी एक संत, कवि, ज्ञानी एवं एक ज्योतिषी भी दिखाई देते हैं, अपनी रचनाओं में उनका ज्योतिष ज्ञान इतना विशद है कि उनकी कोई भी कृति हम लें, ज्योतिष की चर्चा अवश्य मिलेगी। जब ज्योतिष ज्ञान की चर्चा करते हैं तो वे तिथि से लेकर अमावस्या, पूर्णिमा तक, ग्रहों से लेकर योगों तक, योग से मुहूर्त तक की दृष्टि से दिखाई देते हैं। उनका ज्योतिष ज्ञान यत्र-तत्र रचनाओं में संकलित है। तात्पर्य यही है कि व्यक्ति की आध्यात्मिक यात्रा में भी यह ज्ञान अहम् भूमिका निभाता है। व्यक्ति को दकियानूस या वहमी न बनाकर ज्योतिष करें तो हितकारी है।

गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ‘दोहावली’ से कुछ सांकेतिक मुहूर्त चर्चा हम विषय बनाते हैं। देखें किस प्रकार उनकी दृष्टि में तिथि, योग, मुहूर्त स्वतः शामिल हैं। नक्षत्रों को कैसे वर्णित किया हैः-

1 बारह नक्षत्र व्यापार के लिए अच्छे हैं-

श्रुति गुन कर गुन पु जुग मृग हय रेवती सखाउ।

देहि लेहि धन धरनि धरु गए हुँ जाइहि काउ॥

अर्थात श्रवण नक्षत्र से तीन नक्षत्र (श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा) हस्त नक्षत्र से तीन नक्षत्र (हस्त, चित्रा, स्वाति), ‘पु’ से आरम्भ होने वाले दो (पुष्य, पुनर्वसु) और मृगशिरा, अश्विनी, रेवती तथा अनुराधा इन बारह नक्षत्रों में धन, जमीन और धरोहर का लेन-देन करो। ऐसा करने से धन जाता प्रतीत होता हुआ भी नहीं जाएगा।

2. 14 नक्षत्रों में हाथ से गया धन वापस नहीं मिलता-

ऊगुन पूगुन, वि अज, कृ मू गुनु साथ।

हरो धरो गाड़ो दियो धन फिरी चढ़इ हाथ॥

अर्थात् उ से आरम्भ होने वाले तीन नक्षत्र (उत्तरा फाल्गुनी, उ. षाढ़ा, उ. भाद्रपद) पू. से आरम्भ होने वाले तीन नक्षत्र (पूर्वा फाल्गुनी, पू. षाढ़ा, पू. भाद्रपद) विशाखा, अज (रोहिणी) कृ (कृतिका), म (मघा), आ (आर्द्रा) भ (भरणी) अ (आश्लेषा) मू (मूल) को भी इन्हीं के साथ समझो। इन चौदह नक्षत्रों में हरा हुआ (चोरी गया हुआ), धरोहर रखा हुआ, गाड़ा हुआ, उधार दिया धन फिर लौटकर हाथ नहीं आता।

3. कौन सी तिथि कब हानिकारक होती है-

रवि हर दिसि गुन रस नयन मुनि प्रथमादिक बार।

तिथि सब काज नसावनि होई कुजोग विचार॥

अर्थात्     द्वादशी तिथि -       रविवार को, एकादशी – सोमवार, दशमी -               मंगलवार, तृतीया – बुधवार, षष्ठी – गुरुवार, द्वितीया – शुक्रवार, सप्तमी - शनिवार को।

ये तिथि क्रम से इन दिनों में पड़े तो सभी कार्य बिगाड़ने वाली है, यह कुयोग समझा जाता है। पुनः इन तिथियों का सम्बन्ध कुछ इस प्रकार भी समझा जाता है-

आदित्य - 12 (रवि)  -         द्वादशी

 हर (रुद्र) - 11 (हर) -            एकादशी

  दिशाएं दिशी (दस) - 10 (दिशी) – दशमी

  गुण (सत्व, रजस, तमस) - 3   (गुन) – तृतीया

रस  - 6   (रस) -   षष्ठी

 नयन  - 2   (नयन) – द्वितीया

(सप्त ऋषि) मुनि   - 7  (मुनि) - सप्तमी

चन्द्रमा - एक - (प्रथमा) बाण (5) पाँच बाण-फल-4 एवं वसु - 8 से क्रमशः प्रथमा, पंचमी, चतुर्थी, अष्टमी से तात्पर्य है एवं नव व्याकरण से नवमी तिथि का संभवतया अर्थ हो सकता है यथा हनुमान जी नव (9) व्याकरण ज्ञाता हैं।

4.                                              संग सरल कुटिलही भए हरि हर करहिं निबाहु।

ग्रह गनती गनि चतुर बिधि कियो उदर बिनु राहू॥

ग्रहों की वक्री स्थिति के बारे में कहा-

सरल वक्र गति पंच ग्रह चपरि न चितवत काहू।

तुलसी सूधे सूर, ससि समय बिडंबित राहू॥

अर्थात् दोनों प्रकार की चाल सरल व वक्र (वक्री मार्ग) चलने वाले पाँच ग्रह (मं., बु., गु., शु., शनि) को राहु आँख उठाकर नहीं देखता जबकि सीधी चाल वाले सूर्य व चन्द्र को राहु त्रास देता है (ज्ञात हो कि सूर्य, चन्द्र कभी वक्री नहीं होते)।

भाव देखिए की टेढ़ों से सभी डरते हैं, सीधे को सभी खाने को दौड़ते हैं।

इस प्रकार अन्यत्र उन्होंने शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष की विशेषता, द्वितीया के चन्द्रमा की महिमा, केतु, राहु के व्यवहार आदि का ज्योतिष भाषा से दोहों में वर्णन किया है।