ब्रह्मा की मानसी सृष्टि को रूप देने में विश्वकर्मा को श्रेय प्राप्त है। विश्वकर्मा के बारे में समराङ्गण सूत्रधार में कुछ चर्चा मिलती है। विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र के 18 प्राचीन आचार्यों में से एक माने गए हैं। विश्वकर्मा के बारे में आख्यान है कि इन्द्र की नगरी अमरावती का निर्माण उन्होंने किया। यह मत्स्य पुराण के एक उल्लेख के अनुसार संसार के सर्वप्रथम शासक महाराज पृथु के समकालीन हैं और प्रभास वसु के पुत्र हैं। वेदों में 8 वसु बताए गए हैं। धर, धुव्र, सोम, अह:, अनल, अनिल, प्रत्यूष और प्रभास। इन आठ वसुओं में से कुछ अग्नि कला में, कुछ यातायात के साधनों में, कुछ तक्षण और कुछ वास्तु कलाओं में विशेषज्ञ थे। प्रभास वसु को आठवां माना जाता है और उनका विवाह बृहस्पति की बहिन से हुआ था। अपराजित-प्रच्छा में उल्लेख मिलता है कि प्रभास वसु ने बृहस्पति नहीं बल्कि महर्षि भृगु की बहिन से विवाह किया। विश्वकर्मा को बाद में पौरोहित्य के क्रम से वंचित कर दिया गया। उनकी संतानों में स्वर्णकार, लोहकार, रथकार व अन्य दस्तकार मिलते हैं।

 

वास्तु शास्त्र को स्थापत्य वेद भी माना जाता है। शिल्प शास्त्र अत्यंत प्राचीन है। विश्वकर्मा के वंशज आज भी वस्वायां के नाम से पुकारे जाते हैं। गुजरात के कई क्षेत्रों में कुम्हारों, तक्षकों, लुहारों और भवन निर्माता कारीगरों के लिए वस्वायां शब्द का प्रयोग किया जाता है। विश्वकर्मा के प्रतिनिधि न केवल श्रमजीवी हैं, बल्कि किसी भी भांति की निर्माण की प्रक्रियाओं से जुड़े हुए हैं।

पुराणों में सहदेवाधिकार एक आख्यान है जिसमें देवताओं और मनुष्य को एक साथ पृथ्वी पर साथ-साथ रहना बताया गया है। देवता मनुष्यों की अवज्ञा के कारण अपने स्थान को वापस चले गए और पृथ्वी को मनुष्यों के लिए छोड़ गए। ब्रह्मïा ने महाराज पृथु को आदेश दिया कि आप समस्त प्राणियों के लिए आवास की रचना करो और उधर विश्वकर्मा को आदेश दिया कि आप सामान्यजन के लिए भी वास्तु के नियमों का प्रावधान करो और राजदण्ड के भय के बिना राजा को अपनी तकनीकी सम्मति दो। आज के जो टाउन प्लानर हैं, वे विश्वकर्मा के श्रेष्ठ प्रतिनिधि हैं। उन्हें चाहिए कि शासन के भय के बिना निर्माण के नैतिक व तकनीकी पहलुओं को निर्भय होकर प्रकट करें और शासक वर्ग से अपेक्षा की जाती है कि निर्माण के जो सार्वभौमिक नियम हैं उनका पालन करें व राजकीय इच्छा शक्ति को विश्वकर्मा की तकनीकी राय पर आरोपित नहीं करें। लगभग सभी सरकारों में नगर नियोजकों की व्यवस्था है, पर देखने में आ रहा है कि उनकी तकनीकी सम्मति कभी-कभी राजकीय प्रभावों के सामने निष्प्रभ हो जाती है। पुराणों के पृथु-गौदोहन वृत्तांत के मूल में विश्वकर्मा को निर्माण के तकनीकी पक्ष की सर्वश्रेष्ठ सत्ता बताया गया है और शासक वर्ग से अपेक्षा की गई कि वे तकनीकी मापदण्डों का उल्लंघन नहीं करें। ये मापदण्ड वास्तु शास्त्र के अन्तर्गत आते हैं।

वास्तुकला एक यांत्रिक कला न होकर निर्जीव भूखण्डों में धर्म, दर्शन और आध्यात्म की प्रतिष्ठा की सार्वभौम योजना है। वैदिक ऋषि यह मानते रहे कि जिस भांति किसी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा किए बिना उससे फल प्राप्त नहीं किए जा सकते, उसी भांति किसी निर्जीव भूखण्ड से तब तक फल प्राप्त नहीं किए जा सकते जब तक कि उसमें स्थित वास्तु पुरुष, उनका आश्रय लेने वाले 45 देवता या देवताओं के रूप में ऊर्जा चक्र व देवता स्वरूप प्रकृति की अन्य सभी शक्तियों का नियोजन उचित परिमाण में किसी भूखण्ड में नहीं कर दिया जाए।

वास्तुशास्त्र में विश्वकर्मा  के रूप में भवन के अंग सौष्ठव का विश्लेषण अधिक है तथा अलंकरण पक्ष को गौण माना गया है। एक भू-स्वामी के सुखद जीवन की कल्पना में भवन का आनुपातिक सौंदर्य अधिक प्रमुख माना गया है। इस पक्ष को देखते हुए विश्वकर्मा को भी असीमित सत्ता प्रदान नहीं की गई। विश्वकर्मा की सत्ता को भी वास्तु पुरुष की सत्ता से बाधित कर दिया गया। वास्तु पुरुष ब्रह्मïा से बड़ा वरदान और अभयदान पा गए थे, अत: विश्वकर्मा को अपने समस्त कौशल का नियोजन वास्तु पुरुष की सीमाओं के अंतर्गत ही करना होता है।

चित्तौड़ के राणाओं के दरबारी वास्तु शास्त्री मंडन सूत्रधार ने विश्वकर्मा का वर्णन इस भांति किया है-

विश्वकर्मा चतुर्बाहुरक्षमालाञ्च पुस्तकम्ï

कम्बां(म्बुं) कमण्डलुं धत्ते त्रिनेत्रो हंसवाहन:

अर्थात विश्वकर्मा की चार भुआएं हैं, जिनमें से एक में अक्षमाला, एक में पुस्तक, एक में शंख तथा एक में कमंडलु धारण किए हुए हैं। उनके तीन नेत्र हैं और उनका वाहन हंस है। एक अन्य विवरण में विश्वकर्मा के सिर पर उत्तम मुकुट बताया गया है, जिनका शरीर सब ओर फैला हुआ है। जिन्होंने तीनों लोक और सब देवगृहों को बनाया है तथा उन्हें सूत्रधार कहा गया है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में एक उल्लेख मिलता है जिसमें स्थपति को विश्वकर्मा के नौ पुत्रों में से एक माना गया है। स्थपति को शूद्र पुत्र माना गया है। एक श्राप के कारण सूत्रधार हीनवर्ण हो गए एवं यज्ञ कर्म से या पौरोहित्य कर्म से उनको वंचित कर दिया गया। यही कारण है कि शास्त्र संबंधी निर्णय ब्राह्मणों के हाथ में आ गया और उसके क्रियान्वयन का निर्णय सूत्रधार के हाथ में आ गया। इससे वर्तमान काल में दोनों के बीच में सामंजस्य की कमी आ गई क्योंकि वास्तु कर्म के शास्त्रीय पक्ष को मानने वाले पिछले वर्षों में दिनों दिन कम होते चले गए। अब सूत्रधार भी वह नहीं रहे जो गलत कार्य करने से इंकार कर दें। सूत्रधार परम्परा में पीढी दर पीढी वास्तु कौशल का निर्वाह करते थे। अब विप्र वर्ग भी दिक् साधन में प्रशिक्षित नहीं हैं। कॉलेज स्तर की शिक्षा में नक्षत्रों तक की पहचान नहीं कराई जाती तो नक्षत्रों के माध्यम से दिक् साधन करना कौन सिखाये? पर अब चुम्बकीय कम्पास आ गए हैं।

वास्तु, शिल्प एवं नगर नियोजन इन तीनों को अलग अलग अर्थों में लिया जाता रहा है परन्तु विश्वकर्मा का विषय न केवल भवन, प्रासाद, राजहमर््य व प्रतिमा बल्कि नगर, राज्य, देश भी हैं। यदि विश्वकर्मा को महत्ï अर्थों में लिया जाए तो समस्त पृथ्वी ही  उनका विषय है। अत: ऐसी कोई भी रचना जो लौकिक रूप में  है उस पर विश्वकर्मा से संबंधित नियम लागू किये जाएंगे।

इन दिनों कई पोस्टर ऐसे देखे गये हैं जिनमें विश्वकर्मा के न तो तीन नेत्र दिखाए गये हैं तथा न ही उन्हें हंस पर आरुढ दिखाया गया है। कुछ और मूर्तियों में भी मंडन सूत्रधार या अपराजित पृच्छा में वर्णित अंग सौष्ठïव नहीं मिलता है। बाजार से खरीदी हुई मूर्तियों में शास्त्रीय प्रावधानों की रक्षा नहीं की जा रही है। शास्त्रों में तो यहाँ तक वर्णन है कि नियम विरुद्घ कार्य करने पर स्थपति का भी नाश हो जाता है। विश्वकर्मा इन सभी के शासक देवता हैं।

आलेख्य (चित्रकारी), लेपकर्म, दारुकर्म (वृक्ष काटना इत्यादि), काष्ठ कला (पच्चीकारी), चुनाइ, पत्थर, पारा और धातुकर्म तथा शिल्पकर्म एक स्थपति के प्रमुख लक्षण माने गये हैं। इसके अतिरिक्त विश्वकर्मा के प्रतिनिधियों में शास्त्र, कर्म, प्रज्ञा और शील भी होना चाहिये। ऐसा न होने पर विश्वकर्मा कुपित होते हैं। इन सबका समाधान तभी संभव है जब आधुनिक वास्तु शास्त्री भी विश्वकर्मा और वास्तु पुरुष के शास्त्रीय स्वरूप से पूर्णत: परिचित हों।

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नाड़ी दोष एवं उसके परिहार

मोहन लाल

            वर वधु के गुणों का मिलान 8 क्षेत्रों में किया जाता है। उनमें दिये जाने वाले अंकों को गुण कहा जाता है। मिलान में अधिकतम 36 अंकों का विवरण निम्र प्रकार होता है-

            वर्ण -1, वश्य- 2, तारा -3, योनि -4,  ग्रह - 5,  गण -6, भकूट -7  एवं नाड़ी -8 अंक । सबसे ज्यादा 8 अंक नाड़ी के होते हैं। अत: नाड़ी क्या है? इसके परिहार क्या है? यह यहाँ बतलाया जा रहा है। जिससे मेलापक में इसकी उपयोगिता एवं निदान में सहारा मिल सके।

            नाड़ी : मानव शरीर में वातपित्त व कफ प्रकृतियों का एक निश्चित मात्रा में संतुलन रहता है। इन तीनों का प्रतिनिधित्व तीन नाडिय़ाँ करती है। प्रथम अथवा आद्य नाड़ी वात प्रधान द्वितीय अथवा मध्य नाड़ी, पित्त प्रधान तथा तृतीय अथवा अन्त्य नाड़ी कफ प्रधान होती है।

            आयुर्वेद में इस प्रकार से वर्णित है।

            आदौ वातौ वहती मध्ये पित्ते तथैव

            अन्तये वहती श्लेस्मा नाडिका त्रय लक्षणम्

आद्य नाड़ी वात प्रधान, मध्यनाड़ी अग्रि प्रधान तथा अन्त्यनाड़ी कफ प्रधान होती है। आद्य नाड़ी वाला व्यक्ति चंचल मध्यनाड़ी वाला उष्ण तथा अन्त्यनाड़ी वाला व्यक्ति शीतल होता है। वातिक नाड़ी वाले व्यक्ति को वात वर्द्धक, पैत्तिक नाड़ी वाले को पित्त वर्द्धक तथा कफज नाड़ी वाले व्यक्ति को कफ वर्द्धक वस्तुओं का अधिक सेवन हानिकर सकता है । इसी आधार पर समान नाड़ी युक्त वर कन्या का विवाह हानि कारक माना जाता है । वर-वधु दोनों एक ही प्रकृत्ति (वातिक, पैत्तिक या कफज) के हो तो उनमें आकर्षण के बजाय विकर्षण होगा और जीवन संचालन, संतानोत्पत्ति आदि में व्यवधान हो सकता है। इसलिए वर-वधु की प्रकृति समान नहीं होने पर नाड़ी दोष माना जाता है।

            आद्य मध्य अन्त्य नाडिय़ों के अनुसार नक्षत्रों को तीन वर्गो में विभाजित किया गया है-

आद्य नाड़ी                        मध्य नाड़ी        अन्त्य नाड़ी

अश्वनी                           भरणी                कृत्तिका

आद्रा                               मृगशिरा             रोहिणी

पुर्नवसु                           पुष्य                  आश्लेषा

उ.फा.                            पू.फा.                मघा

हस्त                              चित्रा                 स्वाति

ज्येष्ठा                             अनुराधा             विशाखा

मूल                               पू.षाढा              उ.षाढा

शतभिषा                                        धनिष्ठा               श्रवण

पू. भाद्रपद                                          उ. भाद्रपद                          रेवती

            वैवाहिक संबंध में नाड़ी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। नाडिय़ों का संबंध शारीरिक रसों व धातुओं से है। यदि नाड़ी दोष हो तो सन्तानोत्पत्ति में बाधा उपस्थित हो सकती है। इसलिए मेलापक में 36 गुणों में से सर्वाधिक 8 गुण नाड़ी के रखे गए हैं। समान नाड़ी होने पर 0 गुण मिलता है। असमान नाड़ी में पूर्ण 8 गुण मिलते हैं।

            नाड़ी दोष : आचार्यो के अनुसार नाड़ी दोष ब्राह्मणों को अधिक लगता है।

            नाड़ी दोषस्तु विप्राणां, वर्ण दोषश्च क्षत्रिये।

            गणदोषश्च वैश्येषु योनिदोषस्तु पादजे॥

            परन्तु दोष तो दोष ही है जो सभी वर्णो के लिए मान्य होना चाहिए। दोनों की आद्य नाड़ी हो तो पति के लिए, मध्य नाड़ी हो तो पत्नी के लिए और दोनों की अन्त्य नाड़ी हो तो दोनों के लिए हानिकारक होती है।

नाड़ी दोष परिहार

1. निम्न नक्षत्रो में समान नाड़ी होने पर भी नाड़ी दोष नहीं माना जाता।

आद्य नाड़ी- आद्रा, ज्येष्ठा,

मध्य नाड़ी - मृगशिरा, पुष्य, उत्तरा भाद्रपद,

अन्त्य नाड़ी - कृत्तिका रोहिणी श्रवण रेवती।

2. वर वधु का जन्म नक्षत्र एक ही होने से यदि नाड़ी दोष हो तो निम्न स्थिति में नाड़ी दोष का परिहार है।

(अ) एक ही नक्षत्र व एक ही राशि में जन्म हो तो वधु का चरण वर के चरण से पहले नहीं होना चाहिए।

(ब) एक ही नक्षत्र परन्तु मित्र राशि में जन्म हो तो नाड़ी दोष नहीं माना जाता है परन्तु वधु का चरण तथा राशि वर के चरण व राशि से पहले नहीं होने चाहिए।

3. वर-वधु का जन्म एक ही राशि में हो परन्तु नक्षत्र भिन्न हो फिर भी नाड़ी दोष हो तो नाड़ी दोष नहीं माना जाता है।

4. वर-वधु  की नाड़ी समान हो परन्तु दोनों की राशियों का स्वामी शुक्र, गुरु  अथवा बुध हो तो नाड़ी दोष का परिहार हो जाता है परन्तु वधु का नक्षत्र वर के नक्षत्र से पहले नहीं होना चाहिए।

5.कभी कभी नाड़ी दोष ऐसे पुरुष और स्त्री के मामले में लागू होता है, जिनके नक्षत्र क्रम से एक दूसरे के समीप है। आद्य नाड़ी के अन्तर्गत एक दूसरे के समीपवर्ती नक्षत्रो की ये चार जोडियाँ अर्थात प्रत्येक जोडी में एक ही नाड़ी है और नाड़ी दोष लागू है।

1. आद्रा और पुनर्वसु, 2. उत्तराफाल्गुनी और हस्त, 3.ज्येष्ठा और मूल, 4. शतभिषा और पूर्वाभाद्रपद

अन्त्य नाड़ी

1.कृत्तिका- रोहिणी, 2. आश्लेषा  - मघा, 3. स्वाति-विशाखा, 4. उत्तराषाढ़ा- श्रवण

मध्य नाड़ी के अन्तर्गत नक्षत्रों को एक ही नाड़ी वाले कोई नक्षत्र एक-दूसरे के समीपवर्ती नहीं है।

यदि किसी पुरुष और स्त्री का जन्म उपर्युक्त नक्षत्र युगलो की किसी एक जोड़ी में हो और दोनों में से किसी एक का भी जन्म पूर्ववर्ती नक्षत्र के अन्तिम दो पाद में है और दूसरे व्यक्ति का जन्म परवर्ती नक्षत्र में प्रथम दो पाद में हो तो उनके संबंध में नाड़ी दोष पूर्ण रूप से लागू होगा।

            अत: नाड़ी दोष का यदि परिहार उपर्युक्त विधियों से हो रहा है। तब भी नाड़ी दोष पूर्ण रूप से खत्म नहीं होता है परंतु नाड़ी दोष में कमी आती है। यह गुण मिलान मेलापक में महत्वपूर्ण है।

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इराक की विश्वविख्यात हिन्दू राजकुमारी

वीरेन्द्र नाथ भार्गव

ज्योतिष, तंत्र-मंत्र और शक्ति उपासना का सिद्घपीठ उत्तरी इराक की दो हजार वर्ष पूर्व रही राजधानी हथरा में प्रसिद्घ था। हथरा का ज्ञात सर्वप्रथम हिन्दू शासक तुरगसेन (सेनतुरक) था, जिसे प्रथम शती में अरब संस्कृति का प्रवर्तक तथा प्रथम शासक होने का गौरव प्राप्त है। इस ऐतिहासिक सत्य की पुष्टिï बगदाद (इराक) से प्रकाशित एनसाइक्लोपीडिया ऑफ माडर्न इराक में है। हथरा को अजेय होने का श्रेय प्राप्त था क्योंकि न केवल उसका दुर्ग मजबूत था अपितु उसको तंत्र-मंत्र से भी सुरक्षित किया गया था। हथरा के ध्वस्त पुरावशेषों में पाए अनेक मंदिरों के अवशेष तथा सिंहवाहिनी दुर्गा सहित अनेक हिन्दू प्रतिमाएं ढूंढ निकाली गई। पुरामंदिरों में सूर्य का विश्वविख्यात मंदिर भी है जिसके वास्तु आयामों-परिक्रमा के अनुरुप ही इस्लाम के काबा (मक्का) का वास्तु आयाम आज तक प्रसिद्घ है जिसकी पुष्टिï इराक के पुराविशेषज्ञों ने की है। हथरा के सात ग्रहों (सप्ताह के सात दिनों के अनुरुप) के दूसरी-तीसरी शती के मन्दिर के पुरावशेष तत्कालीन हथरा नगर में ज्योतिष परम्परा की महत्ता की मूक गाथा व्यक्त करता है।

            भारतीय इतिहास में जो स्थान सम्राट पृथ्वीराज चौहान और जयचंद राठौड़ की पुत्री संयोगिता के विवाह प्रसंग के द्वारा परिणति एकता के प्रतिकूल शत्रुता में बदल गई थी परिणाम स्वरुप दोनों पक्षों का विनाश हुआ था। लगभग समानान्तर इतिहास को संजोये हुए हथरा की राजकुमारी नादिरा और ईरान के अग्रिपूजक जो राष्ट धर्म मानने वाले सासानी शासक शाहपुर प्रथम के विवाह की नाटकीय घटना का कारुणिक अंत रहा जिसके परिणामस्वरुप समन्वित भारतीय और ईरानी राजवंशों में फूट पड़ गई थी। एक पाश्चात्य विद्वान हैंस एंडरसन ने नादिरा-शाहपुर की गाथा को पश्चिमी जगत में लोककथा के रूप में प्रसिद्धि दिलवाई थी। प्रसंगवश जो श्रेय तीसरी शती ई.पू. के सम्राट अशोक को बौद्घ धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु दिया जाता है वही श्रेय हिन्दू धर्म (मानवीय धर्म) के प्रचार प्रसार हेतु शाहपुर को दिया जाता है जिसने मानवीय धर्म के प्रवर्तक मणि (मने, मनु) को संरक्षण देकर इस धर्म का भारत से लेकर रोम की सीमा तक प्रचार-प्रसार करने हेतु हिन्दू धर्म का प्रथम संरक्षक होने का स्थान पाया। शाहपुर ने बलपूर्वक पश्चिम में रोमन साम्राज्य तथा मध्य एशिया की बर्बर जातियों को रोका। हथरा साम्राज्य शाहपुर को खटक रहा था, इसलिए शाहपुर ने हथरा को जीतने का असफल प्रयास किया। अन्त में हथरा की राजकुमारी नादिरा ने पटरानी बनाए जाने की शर्त पर शाहपुर से विवाह का प्रस्ताव किया जिससे हथरा और ईरान के बीच शत्रुता समाप्त हो जाए। संबंध तय होने के उपरान्त नादिरा ने हथरा दुर्ग की सुरक्षा के गोपनीय रहस्य शाहपुर को बतला दिये। विवाह के उपरान्त सुहागरात्रि को शाहपुर के सलाहकारों ने शाहपुर के कान भरे कि जो अपनी जन्मदाता के रहस्य बतलाकर सगी नहीं वह ईरान साम्राज्य के लिए सगी कैसे हो सकती है। अत: लोगों के भड़काने पर शाहपुर सुहागकक्ष में नहीं गया। दूसरे दिन नादिरा पर जादू-टोना करने के आरोप में नादिरा के सिर के बालों को घोड़े की पूंछ पर बांधकर घसीटकर तड़पाकर मार डाला गया। शाहपुर ने हथरा को रोंद डाला। इस अप्रत्याशित  छलपूर्वक हथरा के विध्वंस की घटना ने तत्कालीन भारतीय राजाओं को कु्रद्घ कर दिया। पश्चिमी एशिया के पामीरा (सीरिया) के भारतीय मूल के हिन्दू शासक उदयनाथ ने विशाल सेना एकत्र करके ईरान पर आक्रमण किया और अंतत: ईरान की राजधानी पारसीपुर (परसीपोलिस) में रनिवास तक को घेर लिया। शाहपुर की मृत्यु के पश्चात उसके उत्तराधिकारी ने मानवीय धर्म के प्रवर्तक मणि (मने, मनु) को बंदी बनाकर राजद्रोह के आरोप में जंजीरों से बांध दिया। बंदी अवस्था में मणि की मृत्यु हो गई। परिणाम स्वरुप भारत ईरान के संबंधों में दरार पड गई जिसकी परिणति आज तक भारत झेल रहा है।

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भारतीय गणना पद्धति

खगोल शास्त्र में 21 मार्च विशेष महत्त्व रखता है। इस दिन संसार भर में अर्थात अक्षांश के निरपेक्ष दिन व रात की कालावधि समान होती है। आदिकाल से जबसे ऋतुओं का ज्ञान हुआ, इस दिन को पहचाना गया तथा इस ऋतु को बसंत ऋतु का नाम दिया गया। जिस क्षण सूर्य विषुवत रेखा की सीध में आता है उसे बसंत संपात कहा गया है। इसी समय ऋतु में नव सृजन का आभास होने लगता है। खेतों में सरसों के फूल वृक्षों में फलों के बोर व नयी कोपलें फूटती है। मानो प्रकृति ने नये जीवन सृजन का कार्य प्रारम्भ कर दिया हो।

वर्ष का प्रारम्भ सूर्य के विषुव बिन्दु के आने पर वैदिक काल से ही माना जाता रहा है, परंतु मास चूंकि चंद्रमा की कलाओं पर परिभाषित थे, अत: वर्ष का आरम्भ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से ही माना गया। दूसरी तरफ सूर्य संक्रांतियों के आधार पर सूर्य के मेष राशि प्रवेश से वर्ष प्रारम्भ माना गया। इसका प्रचलन आज भी पंजाब, बंगाल, उड़ीसा व केरल में रेखा जा सकता है। पंजाब में वैशाखी, बंगाल वर्ष प्रवेश लगभग एक ही दिन होता है। केरल में चिंगम (सूर्य का सिंह राशि में प्रवेश) के समय से वर्ष प्रारंभ माना जाता है।

जहां कहीं भी इस विषुव दिवस की उपेक्षा की गयी अथवा इसकी अज्ञानता रही, वहां के संवत्सरी में दुविधाएं उत्पन्न हो गयी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण रोमन कलैण्डर है। अरबिक कलैण्डर में ये कमी अभी भी विद्यमान है। रोमन कलैण्डर जब बना, उस समय उनको वर्ष के मान का पूरा ज्ञान नहीं था, परंतु इतना ज्ञान अवश्य था कि वर्ष का प्रारम्भोत्सव (एस्टर) विषुव दिवस (21 मार्च) के आसपास की रविवार को होता था, परंतु धीरे-धीरे उनके माहों के अनुसार में दिन खिसकता गया और अंतर 2-3 माह का हो गया, जिससे ऋतु परिवर्तन भी हो चुका था। इस विषय पर क्राइस्ट के 46 वर्ष पूर्व राजा ज्यूलियस सीजर व उनके ज्योतिषी अगस्टस ने अपने कलैण्डर में सुधार किया और दो माह जनवरी व फरवरी जोड़ दिया। फरवरी अंतिम माह होने के कारण दिनों की गणना का समायोजन 365 दिन एक वर्ष का मानते हुए इसी माह में किया गया। इसके पूर्व रोमन कलैण्डर (मात्र 10 माह, 700 बी.सी.) का प्रारम्भ मार्च माह से होता था, अप्रैल, मई, क्विंटिलस, पोंटिलस, सेक्टिलस, सेप्टेम्बर, ओक्टोबर, नोवम्बर, व दिसम्बर थे। इस गणना में स्पष्ट दिख रहा है कि मास का नामकरण अंकों के आधार पर है। चूंकि ज्यूलियस व अगस्टस ने इसमें सुधार किया। अत: इनके सम्मान हेतु जुलाई व अगस्त जोड़े गए एवं दोनों में 31 दिन गिने गए।

क्योंकि वर्ष का मान ठीक-ठीक 365 दिन नहीं होता, बल्कि कुछ अधिक होता है, इस कारण से 300 से 325 वर्ष में इस कलैण्डर में फिर दुविधा पैदा हुई। साथ ही इस्टर व विषुवत दिन का मिलाप नहीं हो सका। ज्योतिषियों के ज्ञान में यह बात आयी और उस समय से फरवरी में प्रति चौथे वर्ष एक दिन बढ़ा दिया गया, जिससे कि विषुव दिन व इस्टर का मिलाप किया जा सके। तब से लीप ईयर की योजना शुरु हुई।

इतने पर भी काम नहीं रुका। 16वीं सदी के अंत तक इसमें 10 से 11 दिन का अंतर और आ गया जिसे ग्रेगोरियन ने भांपा। ग्रेगोरियन ने व्यवस्था बदली और उसने 1600 ए.डी. के बाद हर सेंचुरी को लीप ईयर नहीं माना (जबकि शताब्दी में 4 का भाग जाता है)। जिस शताब्दी में 400 का भाग जाता उस शताब्दी को ही लीप ईयर माना गया। इस नियम के अनुसार 1700 ई. 1800, 1900 लीप ईयर नहीं थे। 2000 लीप ईयर हुआ। 2100, 2200, 2300 लीप ईयर नहीं होंगे। 2400 लीप ईयर होगा। इस समय तक रोमन कलैण्डर का नाम ग्रेगोरियन कलैण्डर कर दिया गया एवं क्विंटिलस आदि के स्थान पर जून कर दिया गया। इस तथ्य को अंग्रेजों ने नहीं माना, परंतु अंतत: 1752 में उनको मानना पड़ा। उस समय उन्होंने कलैण्डर में 4 अक्टूबर को 15 अक्टूबर (बीच के दिन विलुप्त कर दिये) कर दिया।

अरबी कलैण्डर पूर्णत: चान्द्र मास के आधार पर चलता है। सूर्य की स्थिति का वहां कहीं ध्यान नहीं है। इस कारण ईद व अन्य त्यौहार की ऋतुएं बदलती रहती है।

भारत में भी चान्द्र मास का महत्त्व है, परंतु विशेषता यह है कि भारतीयों को सूर्य की स्थिति का पूर्ण ज्ञान था। इस कारण उन्हें अपने वर्ष, माह व त्यौहारों में सामंजस्य बैठाना आता था। संक्षेप में इस व्यवस्था की विशेषता इस प्रकार है- पहली बात यहां महीनों में घट-बढ़ मनमर्जी से नहीं है, अपितु पूर्णत: प्राकृतिक नियमों पर आधारित है। दूसरी बात इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए चान्द्र मासों को सूर्य संक्रांति से जोड़ा गया। यहां मास को गणितीय दृष्टि से शुक्ल पक्ष की एकम से लेकर अमावस्या तक गिना गया है। इस मास के अंतर्गत जो सूर्य संक्रांति पड़ती है, उसके अनुसार उसका नामाभिधान किया गया। जैसे जिस मास में मेष संक्रांति पड़े उसे चैत्र, वृष संक्रांति में वैशाख आदि कहते हैं।  अब यदि किसी मास में कोई संक्रांति न आए तो उस मास को अधिमास या अधिकमास माना गया। इसके विपरीत जिस मास में दो संक्रांति आ जाये, उनमें से एक क्षय मास माना गया।

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सिंह राशि के लिए रत्न

आपके लिए माणिक और मूँगा रत्न शुभ हैं।

1. माणिक को पहनने से आपका बौद्धिक स्तर बढ़ेगा। आपके व्यक्तित्व में निखार आएगा, स्वास्थ्य अच्छा होगा और आत्म-विश्वास भी बढ़ेगा। राजसी लोगों से संपर्क बढ़ेंगे, उन संपर्कों से फायदा भी होगा।

आप सवा पाँच रत्ती का माणिक सोने या ताँबे की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के रविवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की अनामिका अँगुली में पहनें। (सूर्योदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी को धो लें। इसके बाद ॐ घृणि: सूर्याय नम: मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।

2. मूंगा पहनने से आपके भाग्य में बढ़ोत्तरी होगी और कार्यों में आ रही रुकावटें दूर होंगी। आपके धन और ऐश्वर्य में बढ़ोत्तरी होगी, परिवार का सुख बढ़ेगा, भूमि और अचल संपत्ति अधिक रहेगी और उससे लाभ भी मिलेगा। आपको मिलने वाली सुख-सुविधाओं में भी बढ़ोत्तरी होगी। पद और सम्मान बढ़ेगा। आपकी आजीविका के साधन आसानी से मिलेंगे और मिलने वाले अवसरों का पूरा फायदा उठा पाएंगे।

आप सवा पाँच रत्ती का मूँगा, सोने या ताँबे की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के मंगलवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की अनामिका अँगुली में पहनें। (सूर्योदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी को धोलें। इसके बाद ॐ अं अंगारकाय नम: मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।