ज्योतिष में सर्वश्रेष्ठ ऋषि पाराशर

पं. सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर, नेशनल दुनिया

राजस्थान की घनी पर्वत उपत्यकाओं के बीच में स्थित 800 वर्ग किलोमीटर में फैले सरिस्का टाइगर सेन्चुरी में अगर आप जाएँ तो आकर्षित करने वाले कई स्थान वहाँ हैं। राजा भर्तृहरि की समाधि जिन्होंने कि श्रृंगार शतक, वैराग्य शतक और नीति शतक की रचना की, पाण्डुपोल जहाँ पर कि हनुमान जी की लेटी हुई प्रतिमा है जिसे देखकर भीम और हनुमानजी का वह प्रकरण याद आ जाता है जहाँ गर्वोन्मत्त भीम बूढ़े वानर की पूँछ भी नहीं हिला पाये थे। इसी स्थान पर वह पहाड़ है, जिसे भीम ने गदा प्रहार से तोड़कर विराट नगर जाने का रास्ता बनाया था। आज इसी स्थान पर एक बड़ा झरना बहता है। यहाँ से राजा विराट की राजधानी विराट नगर मुश्किल से 15-20 किलोमीटर ही है। हमें ध्यान रहे कि पाण्डवों के अज्ञातवास का बहुत बड़ा समय सरिस्का टाइगर सेन्चुरी में बीता है और अंतिम अज्ञातवास का वर्ष राजा विराट के यहाँ। इसी राजधानी में अर्जुन ने अपनी भावी पुत्रवधू उत्तरा को गन्धर्व विद्या सिखाई थी।

इस बाघ अभयारण्य के एक कौने पर ऋषि पाराशर का आश्रम व यज्ञ करने वाली धूनी स्थित है। आज यहाँ पानी कम आ रहा है, परन्तु किसी समय यह आश्रम बहुत बड़े जल प्रपात के नीचे स्थित था। मैंने जब पहली बार इंडियन कांउसिल ऑफ एस्ट्रोलोजिकल साइन्सेज का राष्ट्रीय अधिवेशन ऋषि पाराशर के आश्रम पर आयोजित करवाया तो देश भर के सैंकड़ों विद्वान यह देखकर चकित हो गए कि ऋषि पाराशर ने घने जंगल के बीच में हजारों शेरों व जंगली जानवरों के होते हुए यहाँ कैसे तपस्या की होगी? दक्षिण भारत के कुछ विद्वान ऋषि पाराशर की धूनी के दर्शन करके इतने रोमांचित हो गए और आँखों में अश्रुपात लिये हुए मुझ से प्रतिक्रिया व्यक्त की कि ''हमारा जीवन धन्य हो गया।'' हम सभी जानते हैं, जिसने ऋषि पाराशर रचित 'बृहत पाराशर होराशास्त्रÓ नहीं पढ़ा, वह क्या ज्योतिष करेगा? ज्योतिष के सभी विषयों का यह एक सम्पूर्ण ग्रंथ है।

वेदों की बहुत सी ऋचाओं के दृष्टा भी हैं ऋषि पाराशर। वशिष्ट के पौत्र पाराशर की महाभारत काल में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। राजा विराट के साले कीचक ने द्रौपदी को पाने की इच्छा की तो भीम ने उसका वध कर दिया था। घटनाक्रम तेजी से घूमा और जब दुर्योधन और उसकी सेनाएँ विराट नगर आ खड़ी हुर्ई तो पाण्डवों को प्रकट होना पड़ा। ऐसा माना जाता है कि पाण्डवों का अज्ञातवास पूरा हो गया है, यह ज्योतिष निर्णय देने वाले ऋषि पाराशर ही थे। इस निर्णय को चुनौती भी दी गई, परन्तु दुर्योधन अपनी राजधानी में इस चुनौती को पूर्ण नहीं कर सका।

यह स्थान मत्स्य राज्य के अन्तर्गत आता है। ऋषि पाराशर का गंधर्व विवाह सत्यवती से हुआ था, जो कि केवट के द्वारा पालित पुत्री थी, जिससे कि कृष्ण द्वैपायन का जन्म हुआ। यह बाद में भगवान वेदव्यास कहलाये। कृष्ण द्वैपायन संन्यास लेने के बाद बद्री वन चले गये थे, जहाँ कि आज बद्रीनाथ धाम स्थित है। शंकराचार्य ने जब चार धाम स्थापित किये, तो बद्रीनाथ जी को शंकराचार्य की ज्योतिष पीठ इसीलिए घोषित किया क्योंकि वेदव्यास सबसे बड़े तत्कालीन ज्योतिषी ऋषि पाराशर के पुत्र थे और ज्योतिष में निष्णात थे। जहाँ ऋषि पाराशर ने सांख्यदर्शन की पैरवी की, उनके पुत्र वेदव्यास ने ब्रह्मसूत्र की रचना की, जो कि आज वेदान्त के नाम से प्रसिद्ध है।

सत्यवती, जिसने पाराशर को वेदव्यास जैसा पुत्र दिया, बाद में राजमहिषी बनीं और राजा शान्तनु से विवाह करके कौरव पाण्डवों की जननी बनीं और वेदव्यास से लिये वचन के आधार पर सत्यवती ने नियोग प्रथा के आधार पर वंश आगे बढ़ाने के लिए उन्हें अपने राज्य में बुलाया था।

पाराशर ने ही वनस्पति शास्त्र का प्रथम ग्रन्थ रचा था। उन्होंने कृषि कर्म को बहुत अच्छा बताया और उस पर रचनाएँ रचीं,  इसे कृषि पाराशर कहा जाता है। श्री विष्णु महापुराण और पाराशर उपपुराण इन्हीं से सम्बन्धित है। कृषि पाराशर के नाम से जो ग्रन्थ है, वह वस्तुत: वार्ताशास्त्र है, जिसमें मुख्य वार्ता कृषि, गोरक्षा तथा वाणिज्यवृत्ति है। इससे जुड़े हुए विषय में ही संवत्सर आदि के फल हैं जिसमें वृष्टि विज्ञान भी आता है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि वृक्षों को काटने, पृथ्वी को जोतने, गोडऩे आदि से बहुत से जीव मर जाते हैं इसीलिए कृषि कर्म करने वाले को खलयज्ञ करना चाहिए। ऐसा करने से वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

अन्नं निन्द्यात्। प्राणो वा अन्नम्। प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम्।

अन्नं बहु कुर्वीत। पृथिवी वा अन्नम्।

तैत्तिरीय उपनिषद के इस कथन का अर्थ है कि सतयुग में प्राण अस्थिगत होते हैं, त्रेता में माँसगत, द्वापर में रक्तगत किन्तु कलियुग में अन्न के आधार पर ही प्राण अस्थिगत रहते हैं। इस बात को पाराशर स्मृति में इस रूप में कहा गया है कि अन्न ही प्राण, अन्न ही बल तथा अन्न ही समस्त प्रायोजनों का साधन है। इस तरह से उन्होंने वर्षा को लेकर महत्त्वपूर्ण निर्णय दिये हैं-

वृष्टिमूला कृषि: सर्वा वृष्टिमूलं जीवनम्।

तस्मादादौ प्रयत्नेन वृष्टिज्ञानं समाचरेत्।।

पाराशर ने ऋग्वेद की ऋचाएँ रची हैं, पाराशर स्मृति या पाराशर धर्म संहिता रची है, बृहत पाराशर होराशास्त्र, लघु पाराशरी, मध्य पाराशरी और वृक्ष आयुर्वेद भी उन्हीं की रचना है। वे महर्षि वशिष्ठ के पौत्र, शक्ति के पुत्र थे तथा शरशैय्या पर पड़े भीष्म से भी मिलने गये थे। वे 26वें द्वापर के व्यास थे। राजा जन्मेजय ने जब सर्पों का यज्ञ करना शुरु किया तो पाराशर वहाँ उपस्थित थे।

पाराशर के दादा के शाप से एक राजा राक्षस हो गये थे। उन्होंने वशिष्ठ के 100 पुत्रों को खा लिया। दु:खी वशिष्ठ पुत्रवधू को लेकर हिमालय पर चले गये। वहाँ उन्होंने वेद ध्वनि सुनी। तब वशिष्ठ की पुत्रवधू ने बताया कि यह ध्वनि उनके गर्भ में स्थित पुत्र के द्वारा की जा रही है। गर्भ स्थित संतान ने यह राक्षस वर्णन सुन लिया था, इसीलिए जन्म के बाद मृत्यु पर्यन्त पाराशर राक्षसों के घोर विरोधी हो गए थे और राक्षस सत्र आरम्भ किया था।

पाराशर ने फलित ज्योतिष के महत्त्वपूर्ण सूत्र दिये हैं, परन्तु उपाय ज्योतिष के भी वे बड़े प्रणेता रहे हैं। बृहत पाराशर होराशास्त्र के अंतिम अध्यायों में से एक पूर्वजन्म शाप द्योतनाध्याय में उन्होंने सर्पशाप से सन्तान हानि के योग बताये हैं। अर्थात् गत जन्म में सर्प को सताया हो या मारा हो तो इस जन्म में सन्तान या तो होगी ही नहीं या नष्ट हो जाएगी। उपाय रूप में नागमण्डल की प्रतिष्ठा करके सोने का एक आना भर सर्प बनाकर विधान पूर्वक पूजा करवाई जाती है। इसी योग को किसी आधुनिक ज्योतिषी ने कालसर्प योग बनाकर धनदोहन का अच्छा माध्यम बना दिया है। कालसर्प योग से भारत का कोई भी गंभीर ज्योतिषी सहमत नहीं है।

पाराशर ने भारत वर्ष को अमूल्य उपहार दिये हैं। सत्यवती, जिसने एक तरफ पाराशर से वेदव्यास को उत्पन्न करके भारत के धार्मिक एवं दार्शनिक इतिहास को बदला, दूसरी तरफ राजा शान्तनु से उत्पन्न उसकी सन्तानों कौरव पाण्डवों ने भारत के राजनैतिक एवं भौगोलिक इतिहास को बदला। आधुनिक सरकारों द्वारा पाराशर के स्थलों की उपेक्षा के कारण इन स्थानों के आवागमन के साधन भी अच्छे नहीं है। पाराशर का आश्रम जहाँ स्थित है, उससे कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही भानगढ़ का वह किला है जहाँ एक जादूगर राजकुमारी ने तांत्रिक को नष्ट कर दिया था। इस स्थान में कभी राजपूतों की प्रधान राजधानी बनने की क्षमता उत्पन्न कर ली थी।

इसी उद्देश्य से मैंने वहाँ कई सारे ज्योतिष सम्मेलन पाराशर जी के आश्रम पर करा दिये हैं।

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भविष्य से जुड़े दो विश्वविख्यात पुरा-पत्थर

वीरेन्द्रनाथ भार्गव

प्राचीन संसार में हिन्दू परम्परा पर आधारित ज्योतिष, खगोलीय और काल गणना से जुडे फलादेश की अपनी विशिष्टïता रही है। यह विशिष्टïता परा और अपरा विद्या के भेद के द्वारा जानी जा सकती है। हिन्दू साहित्य में असुरों के लिये निशाचर सम्बोधन पाया जाता है। प्राचीन असुरों (असीरिया) बेबीलोन सभ्यताओं में इष्टïदेवी अथवा कुलदेवी को ''अष्टïरथÓÓ नाम से जाना गया है, जिससे स्टार अथवा सितारा शब्दों की उत्पत्ति हुई और पश्चिमी साहित्य ने अपनाया। कदाचित पूर्व (भारत) अथवा प्राची की दिशा वाले सात अश्वों वाले रथी सूर्य  की तुलना में रात्रि में चाँद-तारों वाली इष्टï देवी 'आठÓ को अपनाकर अष्टïरथ सार्थक हुई। असीरिया और बेबीलोन के आंचल में आगे उत्पन्न हुए इस्लाम धर्म के ध्वज चाँद-तारे के प्रतीक के जुडे हैं। इस्लाम के उदय होने तक अरब देशों में हिन्दू धर्म (मानव धर्म) प्रचलित था और विगत चौदह शताब्दियों में वही हिन्दू धर्म इस्लाम की तलवार से आहत होकर भारतीय भूखण्ड तक सिमट गया है। क्या चौदह शती पहले हिन्दू ज्योतिषी इस शोचनीय स्थिति का आंकलन नहीं कर सके  थे? हिन्दू धर्म को पराभव क्यों देखना पडा? यह ज्ञातव्य है कि त्रेता युग में भगवान राम का राज्याभिषेक तथा सीता विवाह की घडियाँ राज ज्योतिषियों ने शोधकर निकाली थी लेकिन परिणाम कष्टïदायी रहे थे। क्या कोई अज्ञात ऐसा ही कुछ चौदह शती पूर्व हुआ था्र जब राम का जन्म हुआ था तब सूर्य पन्द्रह दिनों तक स्थिर हो गये थे और अन्य नक्षत्र चलते रहे, परिणामस्वरुप सम्पूर्ण ज्योतिषीय आंकलन गलत हो गए। नाभि में अमृतकुण्ड से अकर वरदान प्राप्त महापण्डित रावण तक का भी ज्योतिषीय आंकलन गलत रहा था और वह मारा गया। मान्यता है कि इस्लाम में अन्त में महाविनाश होगा किन्तु हिन्दू परम्परा सतयुग का आगमन देखेगी। ये दोनों अवधारणाएं भिन्न अर्थ लिए हैं। संसार एक है अत: कौन सत्य कह रहा है, इस पर विवाद उठना स्वभाविक है। इस्लाम में मूर्ति पूजा का निषेध है और हिन्दू धर्म में मान्य है। हिन्दू जगत का विगत काल का 360 प्रतिमाओं वाला काबा (मक्का) का मन्दिर इस्लाम के नियंत्रण में आने पर लगभग चौदह शती पूर्व विध्वंस करके मस्जिद बना दिया गया था। इस मन्दिर के प्रमुख देवता हुबल (सुबल अर्थात बलवान) की प्रतिमा सहित सूर्य, सप्ताह के सात दिन वाले ग्रहों के नामवाले देवता, अल्लात, मनात और उज्जा नामक तीन देवियों इत्यादि की प्रतिमाएं थीं। आज उस काबा में दो मूल प्रतिमाओं के खण्डित पत्थर के टुकडे दीवार में चिने गए है जिन्हें क्रमश: असवद और असद कहा जाता है। काबा मन्दिर दूसरी तीसरी शती में बने उत्तरी इराक  के हथरा नगर के सूर्य मन्दिर के वास्तु-शिल्प के अनुसार बना था और वहीं वास्तु शिल्प आज तक काबा में है। सन्ï 206 ई. में सीरिया के सेबियन-हिमाइट जाति के तिब्बन असद अबू करीब या अबू करीब अथवा ''तौबा'' नामक वीर पुरुष ने काबा की छत को चमडे से पहली बार ढका था और काबा को एक सोने का ताला भेंट किया था। अत: अबू करीब का हथरा साम्राज्य से भी सम्बन्ध अवश्य रहा था, जिसे उजागर नहीं किया गया।

क्या असद और असवद शब्द भारतीय हिन्दू अश्वमेध यज्ञ परम्परा की अन्तिम आहुति अश्व + हत् अथवा अश्व + वध संस्कृत भाषा के शब्दों के अपभ्रंश हैं जो कि संभावित समानांतर पूरक इतिहास से जुडे है। यह ज्ञात नहीं है। प्राचीन काल से हिन्दू संस्कृससित में अश्वमेध यज्ञ राष्ट्रीय आत्मा की अभिव्यक्ति होते थे। शतपथ ब्राह्मण (13/1/3) के अनुसार ''राष्ट्र वा अश्वमेध:'' अर्थात अश्वमेध ही राष्ट्र है। एनसाइक्लोपीडिया ऑफ इस्लाम भाग 4 पृष्ठ 321 में उल्लेख मिलता है कि काबा का प्राचीन नाम दशहरा था जो कि पुराने यूनानी संदर्भ के आधार पर एपीफेनियस उल्लिखित करता है। इस दशहरा शब्द का सम्बन्ध पश्चिम एशिया के पुरा नगर पेतरा के विश्वविख्यात दशहरा (राम) मन्दिर से था। अरबी भाषा में दस की संख्या को अशरा कहा जाता है जो दशहरा से ही निकला है। प्रसंगवश ई.पू दूसरी शती में भारतीय सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने दो दिग्विजयी अभियान चलाए थे। दूसरे दिग्विजय का नेतृत्व पुष्यमित्र के पोते वसुमित्र शुंग ने किया था जिसने पश्चिमी एशिया में वादी मूसा (पेतरा) के समीप पहुंच कर यूनानी शासक दिमेत्रियस को निर्णायक पराजय देकर यूनानी शक्ति सदैव के लिए ध्वस्त कर दी थी। उसने पेतरा नगर बसाया। वहाँ दशहरा (राम) भगवान को समर्पित काले पत्थर की शिला को दिग्विजयी अश्व की बलि देकर विश्वविख्यात दशहरा मन्दिर बनवाया था। सन्ï 104 ई. में पेतरा में भारतीय सत्ता के पतन के बाद उस मन्दिर की विशाल धन राशि तथा दशहरा भगवान की प्रतिमा कहाँ ले जाई गई थी? इस पर कोई सूचना नहीं है। क्या यहीं दशहरा प्रतिमा तथा स्वर्ण रत्नाभूषण इत्यादि अन्तत: काबा में पहुंचाए गए थे? संभावित दशहरा प्रतिमा पुन: प्रतिष्ठिïत करने से लेकर इस्लाम के उदय होने के लगभग चार सौ वर्ष तक काबा वाले अरब राज्य का नाम हीरा था। समीप इराकमें मन्दिर और लक्ष्मी नामक विशाल राज्य (अथवा राष्ट्र) थे जिनके शासकों के पूर्वज हथरा से आए थे। ये तीनों नाम हिन्दू मूल के है और हीरा नामकरण से व्यक्त होता है कि कोई विश्वविख्यात हीरा इस मन्दिर के प्रमुख देवता की प्रतिमा अथवा प्रतिमा के मुकुट में जुडा था। क्या वही हीरा आज का कोहेनूर हीरा था? यह ज्ञान नहीं है। काबा की जिस दीवार में आज असवद पत्थर जडा है उसे मूलताजम कहा जाता है। उल्लेख मिलता है कि इस्लाम पूर्व काबा और उसके आसपास के मन्दिरो में पुजारियों को सादिन अथवा सादना कहा जाता था जो स्पष्टत: संस्कृत शब्द साधन और साधना के अपभ्रंश है। इन पुजारियों में से कुछ के नाम अमशु तथा हरिशु थे जो कि संस्कृत मूल के शब्द अंशु अर्थात् सूर्य तथा हरीश अथवा हर्ष प्रतीत होते हैं। मक्का के समीप एक पुराने दशहरा मन्दिर का उल्लेख मिलता है जहाँ के पुजारी के वंशज आज भी अब्द दिशहरा अर्थात् दशहरा के सेवक कहलाते हैं। कदाचित इसीलिए काबा की सवद वाली दीवार को मूलताजम (मूलदशम) कहते हैं। हजमास के दसवें दिन हजयात्री काबा के समीप मीना नामक स्थान पर शैतान के प्रतीक तीन खम्बों को पत्थर मारकर हज पूरा करते हैं। हिन्दूओं  में विजयदशमी के दिन तीन असुरों रावण, मेघनाथ तथा कुंभकरण के पुतलों का वध होता है तथा दहन किया जाता है। अत: इन उदाहरणों से यह  स्पष्ट संकेत मिलता है कि इस्लाम पूर्व काबा का भगवान राम (दशहरा) से अटूट संबंध रहा है, जिसका असवद पत्थर आज मूक साक्षी हैं।

अरबी भाषा में असद पत्थर का अर्थ भाग्यशाली के संदर्भ में व्यक्त होता है। यह पत्थर काबा के पूर्वी कोने में पांच फीट की ऊँचाई पर दीवार में चिना गया है। काबा के तीर्थ यात्री इस पत्थर का सपर्शमात्र ही करते हैं और असवद पत्थर के समान इसे चूमा नहीं जाता। असद नामकरण अथवा वंश की प्राचीनता की सूचना बहुत कम है। तीसरी शती के प्रारम्भ में ये लोग मध्य अरब में रहते थे तथा कालान्तर फरात नदी के पार जाकर बस गए। ये लक्ष्मी-हीरा साम्राज्य की प्रजा थे। एक हीरा राज्य के लक्ष्मी वंश राजा की समाधि के समीप ''दो असद'' का रहस्यमय उल्लेख मिलता है। इस 'दो' से जुडे रहस्य को अभी तक नहीं सुलझाया जा सका हैं। यह भी कहीं व्यक्त नहीं किया गया है कि मध्य अरब क्षेत्र में किस मूल स्थान से आकर ये लोग बसे थे। पहली से तीसरी शती के भारत को पाश्चात्य मान्यता प्राप्त इतिहासकारों ने अन्धकार युगीन कहा है। भारत में इस अवधि में चार अश्वमेंध यज्ञ किये गए थे जिनकी पुष्टि जगतग्राम (देहरादून के समीप हिमालय क्षेत्र) के पुराअवशेषों से होती है। तत्कालीन भारतीय गणराज्यों जैसे शिवि, कुणिंद, मालव, यौधेय, भारशिव, अर्जुनायन (पार्थियन) इत्यादि ने इनमें अपना योगदान दिया था। पहला अश्वमेध अभियान तब आरंभ हुआ था जब सन्ï 116 में रोमन शासक ट्रेजन ने शपथ ली थी कि वह अपने पूर्वज सिकन्दर के भारत विजय के अधूरे स्वप्न को भारत जीतकर पूरा करेगा। उसने उत्तरी इराक के हिन्दू राज्य हथरा पर आक्रमण करके बारह वर्षों तक घेराबंदी की। वहाँ असफल रहकर वह वापस लौटा ही था कि इराक के मेसान प्रान्त में भारतीयों के हाथों रोमन सेना बुरी तरह पराजित हुई थी और ट्रेजन मारा गया था। भारत विजय अथवा विश्व विजय का स्वप्न लिये ट्रेजन मारा गया था। भारत विजय अथवा विश्व विजय का स्वप्न लिये ट्रेजन के हथरा में 12 वर्षों तक क्यों युद्घ अभियान चलाया था? इससे अनुमान लगता है कि सन्ï 104 में पेतरा के पतन के पश्चात्ï भारतीय दिग्विजय की ऐतिहासिक दशहरा प्रतिमा तथा मन्दिर के धन को सुरक्षित हथरा में लाकर रखा गया था। यदि ट्रेजन हथरा जीतकर दशहरा प्रतिमा पर कब्जा कर लेता तो वह स्वयं को भारत सहित सम्पूर्ण दिग्विजय विजेता होने की घोषणा कर देता। दूसरा अश्वमेध अभियान लगभग 200 ई. में रोमन शासक सेप्टीमस सेवरस के द्वारा पुन: हथरा पर आक्रमण करने के फलस्वरुप भारत के द्वारा सम्पन्न हुआ। इस युद्घ में यह रोमन शासक भी भारतीयों से निर्णायक पराजित होकर लौटा। इस विजय के उपलक्ष्य में तथा भविष्य की सुरक्षा के दृष्टिकोण से कोई आश्चर्य नहीं पेतरा की मूल दशहरा  प्रतिमा को मक्का स्थित काबा में भारतीयों के द्वारा प्रतिष्ठिïत किया गया। तत्कालीन हथरा के शासक का नाम उथाल (उत्ताल) पाया जाता हैं। हथरा में पाई मोसूल (इराक) संग्रहालय में रखी इस शासक की संगमसरमर की पुरा प्रतिमा में अधोवस्त्र धोती होने से इस शासक की भारतीय-हिन्दू मौलिकता की पुष्टिï होती है। यह सहज है कि भारत से दूसरे अश्वमेध विजयी अभियान का नेतृत्व राजा उत्ताल ने किया था जिसके सहयोगी अनेक भारतीय राजाओं ने भाग लिया। तौबा अर्थात्ï प्रायश्चित तथा उत्ताल (ऊँची तरंगे) कदाचित एक अभियान से जुडी उपाधियाँ प्रतीत होती है कि इस भारतीय तूफान को शत्रु नहीं झेलï पाए। कुछ स्थानीय नागरिकों को जो भारत के शत्रु के साथ सहयोग कर रहे थे उनको दंडित करने अथवा तौबा करवाने भारतीय सेनाएं सीरिया- फिलिस्तीन तक गई। ''तौबा'' अबू करीब (संभावित संस्कृत मूल का अनुवादित नाम) ने उनका नेतृत्व किया हों। खूजिस्तान प्रांत (दक्षिण पश्चिम ईरान) में दूसरी-तीसरी शती में विख्यात मुक्त शिला का मन्दिर था जहाँ ब्राह्मïण पुजारी रहते थे। मुक्तशिला मन्दिर  से जुडा विस्तृत इतिहास उपलब्ध नहीं हैं किन्तु क्या यह वही शिला थी जहाँ दूसरे अश्वमेध के अश्व की बलि दी गई थी? यदि ऐसा हुआ था तो सम्भव है  यहीं भाग्यशाली ''मुक्त शिलाÓÓ कालान्तर काबा मन्दिर में पहुंचा दी गई जो आज असद पत्थर के नाम से जानी जाती है। उसी काल के भारतीय गणराज्यों के सिक्कों में यौधेय-2 तथा यौधेय-3 लिखा हुआ पाया गया जिसके विषय में  कोई निश्चित सूचना नहीं है। एक ही काल के  क्या अरब में उल्लिखित असद-2 तथा (भारत में उल्लिखित) यौधेय-2 एक ही सत्य इतिहास की घटना को संजोये हुए हैं? यह ज्ञात नहीं है। सेबियन शब्द शिबि गणराज्य की मौलिकता से ध्वनित होता है और हिमाइट अथवा हिमराइट शब्द हिमवत (गांधार से लेकर बलख क्षेत्र) प्रदेश की मौलिकता से जुडा प्रतीत होता है। जब भारतीय अश्वमेध की सेनाएं  हिमवत प्रदेश अर्थात्ï खैबर दर्रे से आगे गई होंगी तो स्थानीय वीर सैनिक उस अभियान से अवश्य जुडे होंगे। अंवलेश्वर (प्रतापगढ) राजस्थान में पाए एक पुरा शिलालेख पर भारतीय अश्वमेध अभियान का उल्लेख है जिसका सम्बन्ध जगतग्राम के चार अश्वमेधों से जुडे होने की भारतीय पुराविदों ने पुष्टिï की है। किन्तु अंवलेश्वर का उल्लिखित अश्वमेध इन चारों में से कौनसा था? यह ज्ञात नहीं है। बादवा (कोटा) राजस्थान के अन्य एक पुरा शिलालेख के अनुसार सन् 238 में मालव वीरों ने त्रिराज अनुष्ठान सम्पन्न किया था। यदि शिवि (अंवलेश्वर-प्रतापगढ) गण इस तीसरे अभियान का अंग होते तो उनके शिलालेख में भी इसका उल्लेख मिलता। अत: यह सहज है कि शिवि प्रदेश (प्रतापगढ-चित्तौडगढ क्षेत्र) से दूसरे अश्वमेध की सेनाएं गई थीं और शिवि (सेबियन) अबू करीब ''तौबा'' भारतीय मूल का मेवाडी हिन्दू क्षत्रीय था। अवश्य ही इन भारतीय वीरों ने इस अश्वमेध अभियान में अभूतपूर्व सफलता पाई थी जिसकी स्मृति में अंवलेश्वर-शिलालेख बनाया गया।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि इस्लामी राष्ट्रों के पुरालेखागारों में इस्लाम के आरम्भिक वर्षों के इतिहास से जुडी पुरासामग्री का असवद और असद पत्थर की भविष्य में सम्भावित उपयोगिता को ध्यान में रखकर पुनर्शोध किया जाना चाहिए। कियामत (महाविनाश) की संभावित आग से झुलसते हुए भविष्य के इस्लाम को उदार हिन्दू सहायता की अपेक्षा होने पर क्या इन दोनों पुरापत्थरों का मूकक्रंदन सम्पूर्ण  मानवता को एक करने में सहायक होगा? इस्लामी सूफी साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पैगम्बर मोहम्मद प्राय: कहा करते थे कि उन्हें भारत (पूर्व) की ओर से ठंडी हवाएं आकर राहत देती है। कदाचित मोहम्मद की भविष्य की इस भारतीय ठंडी आह का मूर्त प्रमाण ये दोनों पुरा पत्थर है जो आज भी काबा (मक्का) में अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।

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मिथुन राशि के लिए रत्न

आपके लिए पन्ना शुभ है।

आपके लिए पन्ना रत्न फलदायी है। इसको पहनने से आपका आत्म-विश्वास बढ़ेगा और बीमारी से लडऩे की क्षमता में बढ़ोत्तरी होगी। आपकी निर्णय लेने की क्षमता में भी बढ़ोत्तरी होगी। जिसकी वजह से आप अपने कार्यों को सही ढंग से पूरा कर पाएंगे। आपकी मानसिक कौशल बढ़ेगा और एडजेस्टमेंट करने की क्षमता भी बढ़ेगी, आपके काम आसानी से बनेंगे और अपनी इसी बढ़ी हुई खूबी से आप अपने सामाजिक कार्यों को बढ़ा पाएंगे, जिसका फायदा आपको हर जगह मिलेगा। जमीन-जायदाद और अचल संपत्ति, माँ और माता पक्ष, मातातुल्य व्यक्तियों से फायदा मिलेगा।

आप सवा पाँच रत्ती का पन्ना, सोने की अँगूठी में, शुक्ल पक्ष के बुधवार को, अपने शहर के सूर्योदय के समय से एक घंटे के भीतर, सीधे हाथ की कनिष्ठा अँगुली में पहनें। (सूर्योदय का समय आप अपने शहर के स्थानीय अखबार में देख सकते हैं)। पहनने से पहले पंचामृत (दूध, दही, घी, गंगाजल, शहद) से अँगूठी  को धों लें। इसके बाद 'ॐ बुं बुधाय नम:' मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें। इसके बाद ही रत्न धारण करें।

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विवाह में बाधक ग्रह

विवाह  ऐसी सामाजिक आवश्यकता है जिसे कोई भी नकार नहीं सकता। कई बार देखने में आता है कि सुयोग्य लड़का व लड़की होते हुए भी उनका विवाह नहीं हो पाता है या विवाह मे काफी विलम्ब हो जाता है। इसको ज्योतिष के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है कि इस जातक के विवाह में विलम्ब क्यों हो रहा है।

विवाह में विलम्ब के लिए किसी एक ग्रह को दोष नहीं दिया जा सकता है। विवाह के लिए सप्तम सप्तमेश पंचमेश नवमेश लग्नेश बृहस्पति व शुक्र तथा द्वादशेश को देख जाता है।

वैवाहिक विलम्ब के लिए मुख्यत: मंगल को दोषी माना जाता है लेकिन यह कहना गलत होगा कि केवल मंगल ही वैवाहिक विलम्ब करता है। अगर यदि सप्तमेश पीडि़त हो तो भी विवाह में विलम्ब होता है। सप्तमेश सूर्य विवाह में एकाकीपन देता है। अगर यदि बृहस्पति या शुक्र दोनों लड़की व लड़के की कुण्डली में बिगड़े हुए हों तो निश्चित है कि बहुत प्रयास के पश्चात् ही विवाह संभावित होता है। सप्तमस्थ केतु कुजवत परिणाम देता है। अगर यदि कोई शुभ प्रभाव नहीं हो तो विवाह विलम्ब अवश्यम्भावी होता है। विवाह में आने वाली बाधाओं को ज्योतिषीय उपचार द्वारा दूर किया जा सकता है पीड़ा कारक ग्रह के जप दान से उस ग्रह को संतुष्ट करके पीड़ा समाप्त की जा सकती है।

देखने में आया है कि मांगलिक दोष मात्र मंगल की महादशा समाप्त होने अथवा जातक के मंगल की आयु प्राप्त करने के साथ ही क्षीण हो जाता है। ज्योतिष में मंगल की आयु 28 वर्ष मानी गई है, परंतु 28 वर्ष के बाद भी मंगल के परिणाम देखे गए हैं।