भूत, प्रेत और पिशाच

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

भूत का अर्थ है जीवन के बाद की स्थिति। यहाँ जीवन भूत हो गया। परन्तु मृत्यु के बाद प्राणी की संज्ञा प्रेत की है और इन्हीं प्रेत योनियों में जो अधम श्रेणी के हैं, वे पिशाच श्रेणी के हैं। पिशाच के बारे में राय बहुत अच्छी नहीं है। उदाहरण के रूप में कोई मनुष्य यदि घृणित अपराध करता है तो उसे नर पिशाच की उपाधि दे दी जाती है। परन्तु प्रेत और पिशाच में अन्तर करना सामान्य मनुष्य के लिए संभव नहीं है।

पितरों को लेकर मन में सम्मान की भावना उत्पन्न होती है, क्योंकि वे हमारे अपने ही बुजुर्ग हैं, जिनकी योनि बदल गयी है। इनके बारे में कई पुराणों में उल्लेख मिलता है। भारतीय वाङ्गमय जो कि कर्मवाद और पुनर्जन्म को मान्यता देता है, वह प्रेत  योनि के अस्तित्व को स्वीकार करता है। 84 लाख योनियों में देव योनि भी शामिल है, प्रेत योनि भी शामिल है और जितना भी जीव जगत है, वृक्षों सहित, सब शामिल हैं। ज्योतिष के होरा ग्रन्थों में वियोनि जन्माध्याय में मनुष्येतर योनियों का उल्लेख है। इस अध्याय की विषय वस्तु उन कर्मों का विश्लेषण करती है, जिनके कारण मनुष्य का पुनर्जन्म अन्य योनियों में होता है।

मनुष्य देह से मुक्त होने के बाद प्रेत योनि मिलती है। कूर्मपुराण में विवरण है कि मृत्यु के बाद जो पिण्डदान किये जाते हैं, उनसे प्रेत की सूक्ष्म देह का निर्माण होता है। यह क्रिया दशगात्र विधान कहलाती है, जिसमें प्रतिदिन एक पिण्ड का दान मृतक के निमित्त किया जाता है और प्रत्येक पिण्ड से एक-एक अंग का निर्माण होता है। सूक्ष्म शरीर के निर्माण के बाद ही प्रेत उसको अर्पित किये गये भोजन आदि के अर्पण स्वीकार कर पाता है। इस प्रक्रिया के साथ ही मरण अशौच दूर होता है और शुद्धि की प्रक्रिया शुरु हो जाती है।

ऐसी मान्यता है कि यदि मनुष्य अपनी प्रदत्त आयु से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो ईश्वर प्रदत्त शेष आयु के वर्ष वह प्रेत योनि में बिताता है। शास्त्रों में प्रेत योनि के सुख-दुःख भी बताये गये हैं। प्रायःकरके पृथ्वी पर उनके उत्तराधिकारी प्रेत के निमित्त तिथि श्राद्ध करते हैं। अमावस्या को उनके लिए अर्पण करते हैं और श्राद्ध पक्ष पर जब सारे ही प्रेत पृथ्वी पर अवतरित होते हैं तो हम अपने प्रेतों को जिन्हें कि लोक भाषा में पितृ (पितर) भी कहते हैं, का आह्वान करते हैं। शास्त्र कथन है कि ब्राह्मण भोजन के रूप में प्रेत अपना भक्ष्य ब्राह्मण के शरीर में अवतरित होकर प्राप्त करते हैं। इस विधान से ब्राह्मणों को भी मुक्ति नहीं है। अर्थात् ब्राह्मण भी अन्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर ही अपने पितरों को भक्ष्य प्रदान करता है। पितरों की प्रसन्नता के लिए लोग उनकी आयु और रुचि के अनुसार भोजन और वस्त्र आदि अर्पण करते हैं। उचित अवसरों पर, कर्मकाण्ड के अवसर पर तर्पण व जलांजलि प्रदान करते हैं। इससे पितरों की योनि उन्नयन होता है और वे उस मार्ग पर जाते हैं जो कि उनके लिए नियत है। तर्पण श्राद्ध को तो बहुत ही अधिक महत्त्व दिया गया है। पितरों के लिए जब तर्पण करते हैं तो देव पितर व ऋषि पितरों के लिए भी  अर्पण किया जाता है। लोक पितरों के लिए यदि तर्पण नहीं किये गये तो वे दुःख पाते हैं और वे प्रसन्न हों तो कुल को आगे बढ़ाने के लिए आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

ज्योतिष में पितर -

ज्योतिष में कुछ योग पितरों से सम्बन्धित या पितर दोष से सम्बन्धित बताये गये हैं। जन्म पत्रिका के 12 भावों में से 5वाँ भाव संचित कर्मो का भाव माना जाता है। गत जन्म के संचित कर्म यह तय करते हैं कि उन्होंने अपने पितरों के लिए कुछ नहीं किया होगा और वह काम इस जन्म में भी बकाया है। पंचम भाव पीड़ित होने पर जो कि आमतौर से राहु, शनि और मंगल के कारण होता है, पितृ दोष माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि हमने पितरों के कल्याण के निमित कोई कार्य नहीं किये, परन्तु इसका अर्थ कतई यह नहीं है कि पितर हमें बर्बाद कर देंगे। कुछ अशिक्षित ज्योतिषी पितृदोष का हव्वा खड़ा करके इसे शोषण का माध्यम बना लेते हैं, जबकि पितरों की कामना कोई खास नहीं होती। वर्तमान समय में कालसर्प और पितृदोष के नाम से ज्योतिषी अगर अनुचित रूप से व बिना शास्त्रीय समर्थन के डराता है तो उस ज्योतिषी का स्वयं का परलोक नष्ट होने वाला है, ऐसा मानना चाहिए। बल्कि इस जन्म में ही पतन हो जायेगा। पितृ क्यों नाराज हैं और वे क्या परिणाम देंगे, इसको नौसिखिए ज्योतिषी तो कभी बता ही नहीं सकते।

कर्मकाण्ड और पितृ -

जहाँ सामान्य यज्ञ में स्वाहा बोलकर आहुति दी जाती है, पितरों को तर्पण या आहुति स्वधा बोलकर दी जाती है। तर्पण अंगूठे के माध्यम से किया जाता है। प्राय हर कर्मकाण्ड में पितरों का आह्वान किया जाता है और उन्हें प्रसन्न करने के लिए तर्पण या आहुतियाँ प्रदान की जाती है। पिण्डदान और तर्पण को शास्त्रों में अत्यन्त महत्त्व दिया गया है। परन्तु निश्चित विधि से किया गया तर्पण या पिण्डदान ही सफल होता है। महाभारत का एक किस्सा प्रसिद्ध है कि भीष्म पितामह जब अपने पिता शान्तनु का श्राद्ध करने गये तो शान्तनु के हाथ पिण्डदान प्राप्त करने के लिए निकले, परन्तु भीष्म पितामह ने मृतक महाराज शान्तनु के हाथ पर पिण्डदान ना करके विष्णु पद पर पिण्डदान किया। शान्तनु इससे प्रसन्न ही हुए और भीष्म पितामह को विष्णु पद प्राप्त करने का वरदान दिया। भगवान राम का भी किस्सा प्रसिद्ध है, पिण्डदान के समय राजा दशरथ ने भी हाथ निकाला, परन्तु भगवान राम ने हाथ में पिण्ड ना देकर रुद्र पद पर पिण्ड दिया। उन्होंने रुद्र लोक को प्राप्त किया।

वास्तुशास्त्र -

वास्तुशास्त्र में उल्लेख मिलता है कि भवन के नैऋत्य कोण में सूई के नोंक के बराबर भी छेद हो जाए तो मकान में भूत-प्रेत, पिशाच घुस आते हैं। इसका अर्थ यह है कि अनियंत्रित प्रेत आत्माएँ मकान में प्रवेश कर सकती हैं। वास्तु चक्र के दक्षिण में स्थित अर्यमा पराई आत्मा को मकान में प्रवेश करने से रोकते हैं। 

क्या प्रेत हमें प्रभावित कर सकते हैं-

भूत, प्रेत, पिशाच के पास हमसे सम्पर्क करने का कोई माध्यम नहीं होता। एक तरह से वे हमसे निर्बल हैं और परवश हैं। उन्हें मनुष्य से बात करने के लिए जिस फ्रीक्वेंसी के स्तर तक आना पड़ सकता है, वह हमें प्राप्त नहीं है। इसीलिए वे अचेतन मन से सम्पर्क साधते हैं, जो कि स्वप्न या शकुन के माध्यम से ही सम्भव है। प्रेत आत्माएँ केवल संकेत कर सकती हैं। इसीलिए ज्योतिष के स्थापित तीन स्कन्धों में स्वप्न शास्त्र और शकुन शास्त्र भी जोड़े गये। चन्द्रमा का अदृश्य भाग, जो कि हमें कभी भी नहीं दिखता पितृ लोक कहलाता है और अधिकांश मुक्त प्राण वहीं से लौट कर पुनर्जन्म लेते हैं। गीता का कहना है कि सूर्य लोक या ब्रह्म लोक तक सब कुछ पुनरावर्ती है और इस लोक को पार कर गये तो प्रेत योनि सामाप्त हो जाती है या वे इस योनि से मुक्त हो जाते हैं।

षष्ठी देवी - संतान की रक्षक

ब्रह्मा की मानस पुत्री षष्ठी देवी साधारण नहीं है। देवी भागवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने देवताओं के सेनापति कुमार स्कन्द से देवसेना का विवाह कर दिया था। स्कन्द शिव - पार्वती के पुत्र हैं और गणेश जी के भाई हैं।

किसी भी कर्मकाण्ड में षोड़श मातृकाओं की पूजा अवश्य होती है। उनमें देवसेना ही षष्ठी देवी हैं और अति प्रसिद्ध हैं। षष्ठी देवी नाम इसलिए कि मूल प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं और बच्चे के जन्म के छठे दिन इनकी पूजा की जाती है। 21वें दिन और अन्नप्राशन्न के दिन भी इनकी पूजा की जाती है।

ये योग में निष्णात हैं और स्कन्द का जब दैत्यों से युद्ध हुआ तो इन्होंने भी सेना बनकर युद्ध किया। पुत्रहीन को पुत्र देती हैं, अविवाहितों को पत्नी और निर्धन को धन प्रदान करती हैं। स्कन्द अर्थात् स्वामी कार्तिकेय को यह बहुत प्रिय हैं और ब्रह्मवैवर्त पुराण का तो कहना है कि पृथ्वी पर हर बच्चे के लिए वे कल्याणकारी हैं।

स्वायंभुव मनु इस मन्वन्तर के प्रथम पुरुष थे। उनके पुत्र का नाम प्रियव्रत था जो कि राजा था। उनके एक मरे हुए पुत्र ने जन्म लिया। राजा प्रियव्रत संतान को लेकर श्मशान में गये। वहाँ स्मरण करते ही माँ षष्ठी देवी प्रकट हुई और पुत्र को जीवित कर दिया। संतान कल्याण के लिए इनका मंत्र इस प्रकार है-

मयूरवाहनां देवीं खड्गशक्तिधनुर्धराम्।

आवाहये देवसेनां तारकासुरमर्दिनीम्।।

 

 

घरों में मूर्ति

उदयपुर के राणाओं के दरबारी वास्तुशास्त्री मण्डनसूत्रधार थे। उनके कई ग्रन्थों में से ‘रूप मण्डन’मूर्ति शिल्प को लेकर प्रसिद्ध हुआ है। इस ग्रन्थ में मूर्तियों के बारे में विवरण मिलता है। सामान्य घरों में बड़ी मूर्ति लगाने का निषेध किया गया है। घरों में एक अंगुल से लेकर 12 अंगुल तक की मूर्तियों का पूजन करना चाहिए, इससे अधिक बड़े आकार की मूर्तियों का पूजन मंदिरों में ही किया जाना चाहिए। 12 अंगुल से लेकर 9 हाथ तक ऊँची प्रतिमा को मंदिरों में स्थापित करके, प्राण प्रतिष्ठा करके विधि-विधान द्वारा पूजन करना चाहिए। इससे अधिक ऊँची अगर मूर्ति हो तो आवश्यक नहीं उसके लिए मंदिर ही बनाया जावे, उसे खुले में ही स्थापित किया जा सकता है। परन्तु 36 हाथ से ऊँची और 45 हाथ तक की मूर्ति को चबूतरे पर स्थापित करके ही पूजा जाना चाहिए।

यदि मूर्तियाँ बहुत पुरानी हो जाएं अर्थात् 100 वर्ष से अधिक की मूर्ति यदि खण्डित हो जाए या चटक जाये तो उसका निषेध नहीं करना चाहिए और उसका पूजन किया जा सकता है। परन्तु यदि मूर्ति की आयु इससे कम हो और खण्डित हो जाए तो उसका पूजन रोक दिया जाना चाहिए।

धातु और रत्नों से निर्मित मूर्ति को सुधारा जा सकता है। उन्हें पुनः आकार दिया जा सकता है। परन्तु पत्थर और लकड़ी की मूर्तियों को टूट जाने या खण्डित हो जाने पर विसर्जित कर दिया जाना चाहिए।

यदि आप मूर्ति बनवाने जा रहे हों तो यह ध्यान रखें कि शास्त्र वर्णित अंग-अनुपात का पालन किया जाये। अधिक अंग वाली और हीन अंग वाली मूर्ति अशुभ फल देती है। अकेली मूर्तियों को रखे जाने की प्रथा नहीं रही है और यह कोशिश की जानी चाहिए कि उचित अंग षौष्ठव वाली मूर्तियाँ यदि घर में स्थापित करें और पूजें तो वे परिवार सहित ही हों।

वराहमिहिर ने अपने उत्पात लक्षण वाले अध्याय में कहा है कि यदि देवता की प्रतिमा नाचती है, रो रही है, हँस रही है, नेत्रों को खोल-बंद रही है या मूर्ति को पसीना आ जाए तो राजा और सेनापति को महाभय उत्पन्न होता है।

साधारण मकानों में बिना प्राण प्रतिष्ठा के रखी गई मूर्तियों से कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। हाँ, पूजा करते समय बैठने की मुद्रा, बैठने की दिशा और बैठने का स्थान अत्यंत महत्त्व के हैं। अतः इन मामलों के लिए दक्ष सलाह ले लेना उचित रहेगा।

कबूतर विनाशकारी है

बाज, कबूतर, बगुला, उल्लू, भास, गिद्ध, चील, सियार, हिरण, सूअर, सिंह व बंदर घर में प्रवेश करे तो धननाशक होते हैं। गृह के द्वार पर सर्प प्रवेश करें तो गृहिणी की मृत्यु होती है। द्वार पर मुर्गा पक्षी अगर घोंसला बनाएं या उल्लू बोले तो विनाश होता है।

कबूतर को लेकर विशेष चिंता करनी चाहिए। समराङ्गण सूत्रधार के अनुसार कबूतर मृत्यु व विनाश का वाहक है। पुराने, नये अथवा अधूरे निर्माण में यदि कबूतर प्रवेश कर जावें तो अशुभ होता है जिसके लिये शान्ति कर्म के प्रावधान किये गये हैं। कबूतर चार प्रकार के माने गये हैं - 1. श्वेत, 2. विचित्र कण्ठ 3. विचित्र 4. कृष्णक।

यदि भवन में कहीं श्वेत कपोत प्रवेश पा जाएं तो यश-प्रतिष्ठा व धन का नाश कर देते हैं। रोग बढ़ाते हैं व शिशु पीड़ा होती है। यदि विचित्र कण्ठ कबूतर गृह में प्रवेश कर जाए तो स्त्री का नाश करता है। विचित्र नामक कबूतर पुत्रों का विनाश करता है। कृष्णक कबूतर समस्त सिद्धियों का नाश करके कुल भी नष्ट करता है। कुल में व्यसन, बंधन व अन्य विपदाएं आती है। कपोत शांति कर्म में कपोत की ही आहुतियां यज्ञ में देने के प्रावधान ग्रंथों में मिलते हैं।

मकानों की छतों पर कबूतरों को चुग्गा डालने की प्रथा गलत है। इससे कबूतरों को वहाँ आने और बसने की प्रेरणा मिलती है। यदि दाना डालना बंद भी हो जाए, तब भी वहाँ कबूतर बैठना बंद नहीं करता। ऐसा तभी होता है, जब कोई खराब दशा-अन्तर्दशा शुरु हुई हो। कबूतर और कौआ घोंसला बनाने में सबसे मूर्ख प्राणी हैं। इन्हें घोंसला बनाना नहीं आता। यही कारण है कि कबूतर के अण्डे अच्छा घोंसला नहीं होने के कारण इधर-उधर लुढ़क कर गिर जाते हंै और टूट जाते हैं। बिल्ली भी कबूतर को ही अधिक शिकार बनाती है।

चमगादड़ तो बड़े भवनों के उजड़ने के बाद बसते हैं, परन्तु कबूतर पहले ही बसना प्रारम्भ कर देता है। छतों पर जाली लगाकर कबूतरों का बसना रोका जा सकता है।

चातुर्मास और देवशयन

पं. ओमप्रकाश शर्मा

देवशयन के विषय में पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है कि जब आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में नवरात्र पूरे हो जाते हैं और सूर्य उत्तरायण की अवस्था में मिथुन राशि में प्रवेश करते हैं तब एकादशी तिथि को श्री विष्णु भगवान सो जाते हैं। श्री विष्णु भगवान के सोने पर देवता-गंधर्व (रसिकता)-गुह्यक (गुप्त क्रियाओं के कारक) और देव माताएं भी सो जाती हैं। ये सभी देवशयनी एकादशी को जो आषाढ़ शुक्ल पक्ष में आती है, सो जाते हैं।

देवशयन का प्रमुख आधार भारतीय संस्कृति और यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियां ही हैं। देवशयन काल जो चार मास का होता है, इसके काल के नियम केवल भारत में ही मान्य होते हैं, अन्य देशों में चातुर्मास के नियम मान्य नहीं हैं।

देवशयन काल में प्रत्येक देवता अलग-अलग तिथि में शयन करते हैं, इसमें सर्वप्रथम श्रीविष्णु-गंधर्व-गुह्यक और देवमाताएं सोती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि श्री विष्णु भगवान पालनकर्ता हैं और गृहस्थों के परम् आराध्य हैं, जो कि भोग विलास के दाता हैं। विवाह के समय भी कन्या को लक्ष्मी रूप और वर को विष्णु रूप मानकर ही विवाह विधि सम्पन्न होती हैं। अर्थात् किसी गृहस्थ दम्पत्ति को श्री लक्ष्मी नारायण का ही रूप माना जाता है। श्री विष्णु के शयन से यह बात समाज को बताई जाती है कि भोग-विलास के अधिष्ठाता का शयन हो गया है और गृहस्थ को अब भोग विलास में रुचि नहीं रखनी चाहिये इसलिए विवाह आदि मांगलिक कार्यों पर रोक लग जाती है। भोग विलासों का त्याग अथवा उनको अति सीमित कर देना चाहिये, अन्यथा दोष लगता है। यह दोष किसी रोग के रूप में भी प्रकट होता है। श्री विष्णु के साथ ही गंधर्व और गुह्यक भी शयन करते हैं। गंधर्व जहां रसिक क्रियाओं के कारक हैं, वहीं गुह्यक गुप्त क्रियाओं और प्रसंगों के कारक हैं। तात्पर्य यह है कि सामाजिक लोगों को अब रसिक क्रीड़ाओं और चेष्टाओं से तथा गुप्त क्रियाओं (रति संबंधी) से भी दूर हो जाना चाहिये। यह भी कह सकते हैं कि उक्त कार्यों में रुचि व्यर्थ सिद्ध होती है जो रोग का कारण बनती हैं।

भारत में इन दिनों वर्षा ऋतु आ जाती है। वर्षा ऋतु में जल में भी कच्चापन रहता है। जैसे कि मान्यता है कि वर्षा में नदियाँ (देवनदियों के अतिरिक्त) रजस्वला हो जाती हैं। उनके जल का स्पर्श और पान नहीं करना चहिये। वर्षा ऋतु में पाचन शक्ति भी कमजोर रहती है इसलिए भोग-विलासों की वर्जना की गई हैं। शरीर इन दिनों सामान्य गतिविधियों में ही लगा रहे तो स्वस्थ रहता है। दूसरा यह भी कि मन में निठल्लापन और विकार न आवे इसके लिए इन दिनों भजन-देवपूजन और हरि कथाओं का श्रवण करना उचित होता है। एक कारण यह भी है कि भारत चूंकि कृषि प्रधान देश है अतः वर्षा ऋतु में कृषक वर्ग कठोर मेहनत करता है, वहीं व्यवसायी वर्ग सुस्त रहता है। दोनों प्रकार के लोगों को ही भोग-विलास विष तुल्य होते हैं। इन दिनों वातावरण सौम्य और मंद ऊर्जा से व्याप्त रहता है। सूर्य का ताप मन्द बना रहता है जिससे दैहिक ऊर्जा भी कम गतिशील रहती है। रोग की अवस्था या आशंका होने पर चिकित्सक जिस प्रकार सर्वप्रथम भोग-विलासिता और गरिष्ठ भोजन से परहेज की सलाह देते हैं। इसी प्रकार रोगकारी मौसम के आने पर सर्वप्रथम भोग-विलास के स्वामी श्री विष्णु का शयन उचित ही तो है।

एकादशी को श्री विष्णु का (भोग विलास का त्याग) शयन होता है और त्रयोदशी को कामदेव का शयन होता है अर्थात् रति संबंधी क्रियाओं पर विराम लग जाता है। चतुर्दशी को यक्ष लोग शयन करते हैं, पूर्णमासी को भगवान शंकर एक विशेष प्रकार के चर्म वस्त्र को जटाओं में बांधकर शयन करते हैं इसलिए चूंकि अगले दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से पवित्र श्रावण मास शुरु होता है जिसमें भगवान शंकर जोकि रोगों का नाश करने वाले हैं, इसलिए इस नम ऋतु में रोग हावी न हो पायें, अतः बार-बार भगवान शंकर का नाम लेते हुए पूजा करते हैं। इस नाम सुमिरन से शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। साथ ही इन दिनों बिल्व पत्र भगवान शंकर पर विशेष रूप से चढ़ाये जाते हैं।

इसी प्रकार भाद्रपद मास में भी इन भोग विलासों की अति से बचना चाहिये। श्रावण की वर्षा से उपजे कीड़े-मकोड़े प्रभावी हो जाते हैं, जो विकार पैदा करते हैं। इन दिनों भगवान की कथाओं का श्रवण और संकीर्तन होता है। जन्माष्टमी इन दिनों आती है जबकि रात्रि जागरण किया जाता है।

आश्विन कृष्ण पक्ष में पितरों की पूजा विशेषतः की जाती है। सूर्य इन दिनों कन्या राशि पर होते हैं। गोल परिवर्तन का यह समय होता है। ऊर्जा की आवश्यकता समाज को होती है। इसी समय नवरात्र आते हैं, जब शक्ति उपासना की जाती है और कार्तिक मास तो पूरा ही भक्तिमय आचरण का होता है।

कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही देवउठनी एकादशी कहा जाता है। इस दिन सभी देवताओं को उठाया जाता है अर्थात् मन की कामनाओं को भी जाग्रत किया जाता है। इस दिन से विवाह आदि मांगलिक कार्यों पर लगी रोक हट जाती है। शरद ऋतु चल रही होती है। भोग-विलासों की ओर व्यक्ति उन्मुख होने लगते हैं। गृहस्थोचित कार्य पुनः उसी तरह होने लगते हैं, जैसे देवशयनी एकादशी से पूर्व यानि चातुर्मास प्रारम्भ से पूर्व संपादित हो रहे थे इसलिए चातुर्मास की यह व्यवस्था और नियम केवल भारत में ही मान्य होते हैं। क्योंकि यहां की जलवायु में ही कालगत परिवर्तन होते हैं।

युतियाँ जो धर्म और आध्यात्म की ओर ले जाती हैं

1. शनि-चन्द्र : यदि शनि और चन्द्रमा की युति दशम् भाव में हो तो यह वैराग्य देती है। मोह माया का नाश होता है। यह युति व्यक्ति को चित्त की एकाग्रता प्रदान करती है और व्यक्ति निग्रही व दयालु होता है और समस्याओं का समाधान देने वाला होता है।

2. रवि-शनि : यदि रवि, शनि की युति केन्द्र, त्रिकोण या धन स्थान में हो तो व्यक्ति की आत्मा को बल प्राप्त होता है। यह युति ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कराती है। व्यक्ति मान-सम्मान से नहीं घबराता है। गुरु से आत्म साक्षात्कार कर व्यक्ति ज्ञान योग प्राप्त करता है।

3. शुक्र-शनि युति : इस युति में व्यक्ति बहुत से सांसारिक कष्टों को भोग कर वैराग्य ग्रहण करता है। ये कष्ट उसे अपनी पत्नी और संतान से प्राप्त होते हैं। ऐसा वैराग्य व्यक्ति को इस पथ से विमुख नहीं होने देता क्योंकि वह मोह माया के सत्य से परिचित हो चुका होता है।

4. गुरु-शुक्र युति : यह युति व्यक्ति को बुद्धिमान, आध्यात्म ज्ञानी, वेदों का ज्ञाता और दयालु बनाती है। अपने उन्नत ज्ञान के कारण ये व्यक्ति शास्त्रार्थ में कभी नहीं हारते।

5. सूर्य-गुरु : यह युति यदि जन्मपत्रिका में हो तो व्यक्ति धार्मिक कार्यों में रत रहता है तथा अत्यधिक श्रद्धालु होता है।

6. चन्द्र-बुध : यह युति भी धार्मिक कार्यों की ओर प्रवृत्त करती है। व्यक्ति शास्त्रों में रुचि लेता है और शास्त्र सम्मत व्यवहार करता है।

7. चन्द्र-गुरु : जातक पारिजात के अनुसार यदि जन्मपत्रिका में यह युति चतुर्थ भाव में हो तो व्यक्ति धार्मिक होता है। सारावली के अनुसार इस स्थिति में व्यक्ति देवताओं और ब्राह्मणों की पूजा सत्कार में रत रहता है।

8. बुध-गुरु : यदि लग्न से 6, 8, 12 में हो तो भी व्यक्ति धार्मिक होता है।

धार्मिक होने के योग

श्रीकंठ योग : यदि लग्न के स्वामी, सूर्य और चन्द्रमा अपनी स्वराशि, मित्र राशि या उच्च राशि में स्थित होकर लग्न से केन्द्र या त्रिकोण में स्थित हों तो श्रीकंठ योग होता है। इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति रुद्राक्ष धारण करने वाला, भगवान शंकर का भक्त, धार्मिक, अच्छे आचरण वाला होता है जो सदाचार के नियमों का पालन करता है। ये शिव सम्प्रदाय में दीक्षित होता है परन्तु अन्य सम्प्रदायों का पूर्ण सम्मान करता है।

श्रीनाथ योग : यदि बुध, शुक्र और भाग्य स्थान के स्वामी ये तीनों उच्च राशि, स्व राशि या मित्र राशि में स्थित होकर लग्न से केन्द्र या त्रिकोण में हों तो श्रीनाथ योग होता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति मधुर वाणी वाला, भगवान नारायण के चिह्नों से चिह्नित होता है, भगवान विष्णु का भक्त एवं उनके स्त्रोतों का पाठ करने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति सुन्दर होते हैं तथा धन, धान्य पुत्रादि का सुख प्राप्त करते हैं।

विरञ्चि योग : यदि पंचम के स्वामी, बृहस्पति और शनि ये तीनों उच्च राशि, स्व राशि या मित्र राशि में स्थित होकर लग्न से केन्द्र या त्रिकोण में हों तो विरञ्चि योग होता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति बुद्धिमान, वैदिक धर्म के ज्ञाता एवं गुणी होते हैं। ये वेद मार्ग का अनुसरण करते हैं और खुश रहते हैं। ये जितेन्दि्रय होते हैं तथा इनके शिष्यों की संख्या अधिक होती है। इनके शिष्य भी इनका अनुसरण करते हैं तथा प्रख्यात होते हैं। इनका राज भी सम्मान करते हैं।

सुपारिजात योग : यदि लाभेश अस्त न होकर अपनी राशि या उच्च राशि में स्थित होकर लग्न से उत्तम स्थान में बैठे हों और लाभ स्थान में शुभ ग्रह बैठे हों या इस स्थान को शुभ ग्रह देखते हों तो सुपारिजात योग बनता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति शुभ कार्यों में भाग लेने वाला, पुण्य कथाओं के सुनने में तथा भक्ति में समय लगाने वाला, विद्वान और सत्कर्म करने वाला होता है।

शारदा योग : जातक पारिजात के अनुसार यह योग दो प्रकार से बन सकता है- 1. यदि दशमेश पंचम में हो, बुध केन्द्र में हो और सूर्य अपनी राशि में बलवान हो और चन्द्रमा से त्रिकोण में गुरु हों। 2. बुध से त्रिकोण में मंगल हो, बुध से एकादश में गुरु हों।

इन दोनों ही स्थितियों में शारदा योग बनता है। इस योग में जन्मा व्यक्ति सुखी, गृहस्थ, ब्राह्मण एवं देवताओं का भक्त, तपोबल से युक्त और धर्म में लीन रहता है।