भारत एक अद्भुत देश है। जहाँ सदा से ही राजतंत्र रहा है। परन्तु हजारों वर्ष पूर्व ही यहाँ गणतंत्र पद्धति के प्रमाण हैं। हजारों वर्ष पूर्व भारत के उत्तर में लिच्छवी गणराज्य पूर्णतः लोकतंत्र था और प्रसिद्ध जनपद था। परन्तु एक लम्बे समय से विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी राजशाहियों का अस्तित्व रहा है। राजा वंशानुगत होते थे और राजा की अकाल मृत्यु होने पर उसके नाबालिग पुत्र को ही राजा घोषित कर दिया जाता था और उसके वयस्क होने तक मंत्रि-परिषद के वरिष्ठ सदस्य राज्य संचालन राजा की ओर से करते थे। यह प्रवृत्ति भारत में मुगल सल्तनत में भी देखी गई है। सम्राट अकबर स्वयं 13 वर्ष का था जब उसे सम्राट घोषित किया गया।

 

अवयस्क को सम्राट घोषित करने पर उसके सगे चाचा को भी दरबार में आने पर नजराना व सजदा पेश करना होता था। इतिहास में ऐसे बहुत से चाचा हुए जो भतीजे की गद्दी नशीनी के बाद विस्मृत हो गये।

परन्तु लोकतंत्र की पद्धतियों में शासन संचालन बहुत मुश्किल था और राजा में ईश्वर का अंश होता है, यह अवधारणा कमजोर हुई। फलतः बहुत सारे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति अपना निर्धारित काल भी पूरा नहीं कर पाये और उन्हें सत्ता से हटना पड़ा। आधुनिक काल में यदि शासकों ने तमाम तरह के छल-प्रपंच या अत्यधिक राजनैतिक कौशल का परिचय नहीं दिया तो वे बहुत अधिक समय तक शासन में नहीं रह पाये। आधुनिक भारत के इतिहास में जब-जब केन्द्रीय सत्ता या भारत के चक्रवर्ती सम्राट स्वरूप प्रधानमंत्री कमजोर हुए तो विभिन्न राज्यों में स्थानीय छत्रप बलवान होने लगे। राजशाहियों के जमाने में तो स्वतंत्र सेनाएँ बना लेते थे और राज्य अपने-आप को राष्ट्र घोषित कर देते थे। परन्तु आजकल सेनाओं के आधुनिकीकरण, संचार माध्यमों के शक्तिशाली होने के कारण और सम्पूर्ण राष्ट्र की समन्वित सेना होने के कारण स्वतंत्र राष्ट्र बनाना तो संभव नहीं रहा परन्तु अलग-अलग राज्यों में अलग - अलग राजनैतिक दल पनप गये और उन्होंने सरकारें बनाई। ऐसी बहुत सी सरकारों के केन्द्रीय सत्ता से विरोध भी रहे।

 

भारत के कई प्रधानमंत्रियों पर आरोप लगे कि उनकी कार्यशैली में तानाशाही का अंश है। सबसे बड़ा नाम इंदिरा गाँधी का और यही बात कुछ लोग नरेन्द्र मोदी के लिए भी कभी-कभी कहते हैं। मैं इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक तानाशाह हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उनकी कार्यपद्धति लोकहित को ध्यान में रखकर और राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचने की अदम्य इच्छा शक्ति से संचालित है। यह कार्य इतना कठित है व निहित स्वार्थ या वे लोग जो सत्ता के संसाधनों का उपयोग करते रहे हैं, उन्हें परेशानी होने लगी है। इतने बड़े देश के संसाधन और सत्ता संस्थानों को लोकोन्मुखी बनाने में एक प्रधानमंत्री को समस्त ऊर्जा झोंकनी होती है और यह काम सामान्य लोकतांत्रिक पद्धतियों से होना नामुमकिन प्रतीत सा होता है। इस देश में इतना वैचारिक वैमनस्य है, इतनी विचारधाएँ हैं, इतने अन्तर्विरोध हैं तथा इतने निहित स्वार्थ वाले समूह है कि उन्हें किसी एक नियम से संचालित करना असंभव सी बात जान पड़ती है और जब आप उन्हीं स्थापित नियम व संविधान की पालना सख्ती से पालन करवाते हैं तो शासक में तानाशाही नजर आने लगती है, जो सत्ता केन्द्र बिखरने लगते हैं, जो अपनी गरिमा खो देते हैं, जो अपनी समस्त ऊर्जा खो बैठते हैं वे अनर्गल प्रलाप करने लगते हैं और इस तरह के आरोप लगाते हैं।

ज्योतिष और तानाशाही -

कई योग ऐसे होते हैं जिनमें शासक अत्यधिक लोकप्रिय होता है और उस लोकप्रियता का फायदा उठाकर वह दो तरह के काम कर सकता है, या तो समस्त कार्य लोकहित या जनहित में करवाये जाऐं या शासक स्वयं लोकप्रियता की आड़ में अपने स्वयं को समृद्ध या शक्तिशाली बनाने में लग जाए। लोकप्रिय प्रधानमंत्री की असल ताकत उसकी लोकप्रियता ही होती है ना कि उसके स्वयं के निजी संसाधन। ऐसा भी देखा गया है कि कुछ लोकप्रिय शासक काफी अवधि बीत जाने के बाद सत्ता जाने के भय से ऐसे कदम उठाने लगते हैं जो उन्हें तानाशाही की ओर ले जाते हैं। जब शासक स्थापित नियमों का उल्लंघन करे, आम जनता पर अपनी इच्छा हठात् आरोपण करे, या ऐसे कार्य करें जो अत्याचार या शोषण की श्रेणी में आ जाएं तब सही मायने में तानाशाही मूर्त रूप लेती है। तानाशाही की अंतिम परिणिति लोकतांत्रिक या सैन्य विद्रोह ही होता है परन्तु लोकप्रिय और न्यायप्रिय शासन को हटाना संभव नहीं होता।

भारत जैसे देश में जब इंदिरा गाँधी ने संविधान के विरुद्ध जाकर आचरण किया और लोगों के मौलिक अधिकार तक छीन लिये, हजारों लोगों को जेल में डाल दिया गया, तो यह तानाशाही का लक्षण था और वह तानाशाही एक दिन ध्वस्त हो गई। इसका मूल कारण प्रधानमंत्री या शासक का लोकहित के विरुद्ध चले जाना था। नरेन्द्र मोदी के मामले में यह बात लागू नहीं होती। क्योंकि वे आलोचनाएँ सुनते हैं, सहन करते हैं और अपने राजनैतिक कौशल से शत्रुओं का निर्बल कर देते हैं, जब तक कि उनके शत्रु स्वयं ही अलोकप्रिय ना हो जाएं। जिसके अन्दर चारित्रिक दुर्बलता नहीं हो, संसाधनों के अपहरण की इच्छा नहीं हो, जो स्वयं के लिए धन संग्रहण नहीं करता हो तथा जिसकी प्रत्येक नीति देश के अंतिम गरीब व्यक्ति तक पहुँचकर उसका जीवन स्तर उठाने पर केन्दि्रत हो, उसे तानाशाह नहीं कहा जा सकता। विपक्षी दलों की सत्ता पुनः पाने में असमर्थता एक नपुंसक क्रोध को जन्म दे रही है, जो उन्हें वर्तमान प्रधानमंत्री को तानाशाह बताने को प्रेरित करती है।

मेरी सत्ता में बैठे लोगों से और सत्ता से बाहर बैठे लोगों से कुछ ना कुछ चर्चा होती ही रहती है। सब यह मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कठोर निर्णय लेने के अभ्यस्त है। लेने से पहले पर्याप्त विचार करते हैं और बाद में किसी की परवाह नहीं करते। ऐसे प्रधानमंत्रियों के निर्णयों पर चर्चा करने के लिए इस देश में लोकसभा व राज्यसभा जैसी संस्थाएँ हैं और चुनाव आयोग, न्यायपालिका जैसी स्वतंत्र संवैधानिक सत्ताएँ हैं जो किसी भी व्यक्ति को तानाशाह बनने से रोक सकती हैं।

नरेन्द्र मोदी वृश्चिक लग्न व वृश्चिक राशि के हैं, राजीव गाँधी सिंह लग्न के थे और राशि भी सिंह ही थी, इंदिरा गाँधी के कर्क लग्न में शनि थे और लग्न के दोनों ओर पाप ग्रह थे। नरेन्द्र मोदी की जन्म लग्न पाप ग्रहों से घिरी हुई नहीं है। जवाहर लाल नेहरू भी कर्क लग्न के थे, उनके भी लग्न के दोनों ओर पाप ग्रह थे जो इन सब में तानाशाहियों के स्तर के अन्तर को स्पष्ट करते हैं।

कुछ प्रमुख देव

                नवग्रह-मण्डल में नवग्रहों, उनके अधिदेवताओं तथा प्रत्यधिदेवताओं के साथ गणेश, दुर्गा तथा वायु आदि पक् लोकपालों का भी आवाहन-प्रतिष्ठापूर्वक पूजन किया जाता है। यहाँ उनका संक्षिप्त निर्देश किया जा रहा है। विशेष विवरण इसी अंक के तत्तत् स्थलों में द्रष्टव्य है।

गणेश

                गणेश देवता परब्रह्मरूप हैं। किसी भी पूजा के पूर्व गणेश की पूजा अवश्य करनी चाहिये। इससे पूजक निर्विघ्रता पूर्वक पूजा का फल प्राप्त कर लेता है तथा इनके पूजन से सम्पूर्ण विश्व का विघ्र नष्ट हो जाता है। ये भगवान् सदाशिव  तथा माता पार्वती के पुत्र है।

                प्रत्येक कल्प में परब्रह्म गणेश बनकर पार्वती की गोद में आ जाते हैं (ब्रह्मवै.2/8)। इनके नमस्कार करने का मंत्र इस प्रकार है -

एकदन्तं गजमुखं शुण्डालं मोदकप्रियम्।

शूर्पकर्णं नमस्यामि शिरसासुखवरस्थितम्॥

(श्रीतत्त्वनिधि)।

                ‘गणेश जी का मुख हाथी का है, एक ही दाँत है, लम्बी सूँड है, कान सूप की तरह है, इन्हें लड्डू बहुत पसंद है, इनका वाहन मूषक है। मैं इन्हें प्रणाम करता हूँ।’

दुर्गादेवी

                पराम्बा  विश्व के कल्याण के लिये कभी गौरी रूप में आती है, कभी दुर्गा रूप में। ब्रह्मा की प्रार्थना पर मधु कैटभ के उद्घार के लिए फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी को महाकाली रूप में वे अवतीर्ण हुई (शिवपु., उमासं., अ. 43) तथा रम्भा पुत्र महिषा सुर के उद्घार के लिये महालक्ष्मी रूप में अवतीर्ण हुई और शुभ-निशुम्भ के उद्घार के लिये महासरस्वती रूप से अवतीर्ण हुई।

                आदि शक्ति को दुर्गा इसलिये कहा गया है कि ये अपने भक्तों की दुर्गतिको नष्ट कर देती है।

                दुर्गमासुर को मारने के बाद आदि शक्ति का दुर्गा नाम विख्यात हो गया। पांचों पाण्डव भी दुर्गति में पड़ गये थे। भगवती दुर्गा ने इनका अज्ञातवास सफल बनाया और विजय दिलायी।

वायु देवता

                वायु देवता की उत्पत्ति विराट पुरुष के प्राण से हुई है (ऋक्. 10/90/13)। प्राणियों में जो प्राण है, उनके अधिष्ठातृ देवता वायु ही है।

                शरीर के पाँचों प्राणों में देवभाव वायु देवता से ही प्राप्त होता है। वेद ने बताया है कि वायु देवता में अमरता की विधि स्थापित है (ऋक्. 1/197/3)। आधिभौतिक दृष्टि से विचार किया जाय तो प्रतीत होता है कि साँस द्वारा वायु को ग्रहण न किया जाय तो मृत्यु निश्चित है। इस तरह हम प्रत्येक क्षण वायु के द्वारा अमरता को प्राप्त करते हैं। वायु देवता ने हमें सम्पूर्ण यजुर्वेद और वायु पुराण प्रदान कर आध्यात्मिक लाभ पहुँचाया है।

                वायु देवता प्रतिक्षण हमें मृत्यु से तो बचाते ही हैं। हमें सत्पथ पर भी चलाते रहते हैं। इनकी दया का पार नहीं है। एक बार जब विश्व विजेता कार्तवीर्यार्जुन ध्वंस के पथ पर चल पड़े थे, उन्हें अपने बल का गर्व हो गया था तब वायु देवता ने लम्बा उपदेश देकर उन्हें सँभाला (महा., अनु. 152/54)। इसी तरह विघसाशी ऋषियों को इन्होंने गूढ़ शाश्वत धर्म की शिक्षा दी थी (महा., शान्ति. 348/22)।

                वायु देवता बल के अंशी है। संसार में जितने बल है सबका केन्द्र ये ही है। इसलिये महाभारत में कहा गया है कि वायु के समान किसी का बल नहीं है। इन्द्र, अग्रि, यम, कुबेर तथा वरुण आदि देवता बल में वायु की समता नहीं कर सकते। चेष्टा की शक्ति और जीवन देने वाले वायु देवता ही है

आकाश देवता

                आकाश में न गन्ध है, न रस है न रूप है और न स्पर्श है, अतः यह निराकार निर्विकार ब्रह्म का प्रतिरूप है। वेद ने ‘खं ब्रह्म कहकर आकाश की यह प्रतिरूपता व्यक्त की है। सूर्य आदि ग्रह-नक्षत्र इसी में दीप्त होते हैं। अतः आकाश का नाम अन्वर्थक है। आकाश देवता पक्लोकपालों में आते हैं। यहाँ इनकी पूजा होती है।

                श्रुति ने बतलाया है कि आकाश की उत्पत्ति विराट पुरुष की नाभि से हुई है (यजु. 31/13)। भगवान ने आकाश को शब्द तन्मात्रा से उत्पन्न किया था, अतः इसमें केवल एक गुण शब्द है। ‘आकाश देवता का वर्ण नील है और इनक वस्त्र भी नीले है। चाँद और सूर्य इनके दो हाथ है। सभी अलंकारों से अलंकृत आकाश देवता का मैं ध्यान करता हूँ।’

अश्विनी कुमार

                भगवान सूर्य के द्वारा अश्वा के रूप में छिपी हुई संज्ञा से जुड़वीं संतानें हुई। इनमें एक का नाम दस्र दूसरे का नाम नासत्य है। माता ने नाम पर इनका संयुक्त नाम अश्विनीकुमार है।

                ये देवताओं के वैद्य हैं। चिकित्सा प्राणियों पर अनुकम्पा करने के लिये ही बनायी गयी है- ‘अथ भूतदयां प्रति’ (चरक)। अश्विनी कुमारों ने चिकित्सा के द्वारा बहुत लोगों का कल्याण किया। परावृज नामक ऋषि लंगडे हो गये थे, अश्विनी कुमारों ने उनको भला-चंगा  बना दिया। ऋजाश्व ऋषि अन्धे हो गये थे, इन्होंने उन्हें आँखें दे दीं (ऋ. 1/112/8)। खेल नामक एक राजा थे, संग्राम में उनकी पत्नी विश्पला के पैर को शत्रुओं ने काट डाला था। खेल तथा पुरोहित अगस्त्य जी ने अश्विनी कुमारों की स्तुति की दोनों दयालु देवता वहाँ आ गये और उन्होंने तत्काल लोहे की टाँग लगाकर विश्पला को चलनेलायक बना दिया। च्यवनऋषि जर्जर-वृद्घ हो चुके थे। अश्विनीकुमारों ने उन्हें युवा-अवस्था दी और अपने समान सुन्दर बना दिया (ऋ. 1/116/25)। ऋग्वेदादि शास्त्रों में इनके उपकारों की लम्बी सूची प्रस्तुत की गयी है।

 

किसकी कुण्डली? स्त्री या पुरुष!

                जन्मपत्रिका पुरुष की है या स्त्री की, क्या किसी भांति से जाना जा सकता है? इसका उत्तर इस बात में मिलेगा कि क्या जन्म के आंकड़े देते समय स्त्री या पुरुष में लिंग भेद विषयक कोई जानकारी देनी अति आवश्यक है जिसके बिना जन्म-पत्रिका का निर्माण न किया जा सके? संभवतः नहीं। इस विषय पर सांख्यिकीय अध्ययन कराया गया और सैकड़ों जन्म-पत्रिकाओं पर विचार किया किया। इस अध्ययन में जो मानक विचार दिए गए थे, वे निम्न थे-

1. क्या पुरुष की जन्म-पत्रिका सव्य (सीधे क्रम में) और स्त्री की जन्म-पत्रिका अपसव्य (घड़ी की दिशा के क्रम में) देखी या बनाई जा सकती है।

2. क्या कोई ऐसे लक्षण जन्म-पत्रिका में ढूंढे जा सकते हैं, जिससे स्पष्ट पहचान हो कि यह जन्म-पत्रिका पुरुष की न होकर स्त्री की है।

3. जब जन्म-पत्रिका में लिंङ्ग - भेद पता न हो तो क्या शारीरिक बल या क्षमताओं का पता लगाना संभव है।

4. बहुत ही तकनीकी विषय यह था कि पुरुष जातक की जन्म-पत्रिका में पंचम भाव से गर्भाशय की उपस्थिति या अनुपस्थिति का पता लगाया जाना संभव है।

    ये मानक बनाए जा सकते हैं।

1. जन्म-पत्रिका कालखंड पर एक निर्णय है, क्या इसके विरोध में कोई तर्क है?

2. क्या जन्मपत्रिका निर्माण में स्त्री योषा या पुरुष योषा को पहचानने की कोई विधि प्राचीन ऋषियों ने लिखी है?

3. क्या जैमिनी ऋषि, जिन्होंने चर दशा का आविष्कार करते समय सव्य (क्लॉक वाइज) और अपसव्य क्रम का खुलकर प्रयोग किया था, उनके मस्तिष्क में यह विचार नहीं आया होगा कि स्त्री और पुरुष का क्रम एक-दूसरे से उल्टा हो सकता है।

4. जन्म लग्न के विपरीत धु्रव सप्तम स्थान को स्त्री के लिए नियत करने के पीछे क्या कोई कम चिंतन था।

 लग्न के बाद द्वादशेश, एकादेशश, दशमेश और नवमेश इस क्रम में दशाएं लगाई, परन्तु परिणाम कोई खास नहीं निकला। इसके बाद स्त्री जातकों में लग्न के बाद द्वितीय भाव उसको माना जहां द्वादश भाव पड़ता था तथा चतुर्थ भाव उसको माना जहां दशम भाव माना जाता है, अर्थात् परंपरागत दृष्टिकोण से एकदम उल्टी धारणाओं पर चलकर भी कोई परिणाम प्राप्त नहीं हुआ। फिर दो नए पैरामीटर तैयार किए। ये दो नए पैरामीटर थे-

1. क्या स्त्री पुरुष की छायाकृति या मिरर इमेज है?

2. स्त्री को पुरुष से एकदम विपरीत या विपरीत धु्रव मानने का क्या आधार हो? यथा लग्न से सप्तम तो कालखंड के आधार पर है, स्त्री और पुरुष के आधार पर नहीं, परंतु शारीरिक बनावट के आधार पर ऐसा किया जाना संभव नहीं है। प्रकृति ने ये दो भिन्न रचनाएं बनाई हैं।

 

                स्त्री और पुरुष की जन्म-पत्रिका सव्य (क्लॉक वाइज) और अपसव्य आधार पर देखा जाना उचित नहीं है। अमूर्त सत्ताओं से उत्तर प्राप्त किया जा सकता है, परंतु मूर्त सत्ता यथा मनुष्य का शरीर जैसे विषयों के आधार पर भेद करना तर्कसंगत नहीं है। काल, दूरी, गति जैसे आधार तो किसी नियम बनाने के लिए सार्वभौतिक सिद्ध हो सकते हैं, परंतु शारीरिक बनावट या भिन्नता के आधार पर भेदाभेद करना एक उचित तर्क नहीं है। इससे अंत में कर्मफल के सिद्धांत को आघात पहुंच सकता है।

 

                फिर भी ऋषियों ने स्त्री और पुरुष में भेद करने की चेष्टा की है और सीमित रूप में स्त्री जातकाध्याय की रचना की है। पाराशर कहते हैं (कुछ लोग उन्हें पराशर कहते हैं) कि जो भी फल पुरुष की जन्म-पत्रिका में देखे जाते हैं, वे स्त्री की जन्म-पत्रिका से भी देखे जाने चाहिए। स्त्री की जन्मपत्रिका में लग्न से शरीर, पंचम भाव से संतान, सप्तम भाव से पति का सौभाग्य तथा अष्टम भाव से वैधव्य देखे जाने चाहिए।

 

वैतरणी

जब भी गरुड़पुराण का पाठ होता है तो एक उल्लेख आता है कि वैतरणी नदी आने पर जीव से पूछा जाता है कि तुमने क्या कोई पुण्य कार्य किया है? उन पुण्य कार्यों के सहारे ही वैतरणी नदी पार की जा सकती है और मनुष्य को उत्तम लोक मिलता है। इसी विश्वास में गाय दान की प्रथा है। लोक मान्यता है कि मृतक गाय की पूँछ पकड़कर वैतरणी पार कर लेता है। पौराणिक मान्यता यह है कि वैतरणी नदी पृथ्वी और यम लोक के बीच में ही कहीं है। पापी लोग वैतरणी पार नहीं कर पाते और उसमें दुःख झेलते रहते हैं।

 

भारतीय ज्योतिष में भी आकाश की एक नक्षत्र प्रणाली को वैतरणी के रूप में पहचाना है, जो कि सर्पाकृति होने के साथ-साथ आकाश का सबसे लम्बा नक्षत्र मण्डल है। यह मृगशिरा से शुरु होकर पहले पश्चिम दिशा में जाता है बाद में घूमकर दक्षिण-पूर्व में और फिर दक्षिण में घूम जाती है और फिर 58 डिग्री अक्षांश तक पहुँच जाता है। इसे दक्षिणी गोलार्द्ध से ज्यादा अच्छी तरह देखा जा सकता है। अरब में एक तारे को आखरनार नाम दिया गया है। आखरनार का अर्थ है - नदी का अंत। परन्तु भारतीय ज्योतिष ने इसका नाम नदीमुख रख दिया है। दक्षिणी ध्रुव से 32 डिग्री ऊपर से यह शुरु होता है और बहुत सारे अक्षांशों को पार करते हुए उत्तरी अक्षांशों में मृगशिरा नक्षत्र मण्डल तक पहुँच जाता है। उसे पहचाने के लिए वृषभ राशि के राइगेल तारे को पहचानना पड़ता है जो कि बहुत चमकिला है।

वैतरणी नक्षत्र मण्डल में कुछ बातें बहुत अद्भुत है। इसका एक तारा है इप्सीलोन। वह हमारे सूर्य की तरह ही चमकीला है और अपनी ही धुरी पर घूमता है। इससे खगोल वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि इप्सीलोन के आसपास हमारे सौर मण्डल की तरह ही ग्रह होने चाहिए और इसीलिए वहाँ किसी-न-किसी में जीवन होना चाहिए। हमसे 10 प्रकाश वर्ष दूर यह तारा है। 10 प्रकाश वर्ष का अर्थ है 10000000000000 किमी.।

चूंकि वैतरणी तारा मण्डल लम्बा - चौड़ा है और भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार अगर मृतात्माओं को इसे ही पार करना होता है तो खगोल वैज्ञानिक भी यही मानते हैं कि यदि मनुष्य ने सबसे निकटवर्ती तारों की यात्रा की योजना कभी बनाई और यह कभी संभव हुआ तो वह शुरुआत वैतरणी तारा मण्डल के इप्सीलोन तारे से ही होगी।

फलादेश के दोहे

पं. लीलाधर शर्मा (बंधु)

ज्योतिष योगों के फल

1. गोल योग

यदि राहु-केतु को छोड़कर सारे ही ग्रह एक ही राशि में हों तो यह योग होता है।

दीन, बली, सेना में जावे, करे पुलिस में काम।    

अल्पज्ञान, चालाकी ज्यादा, ‘गोल’योग है नाम॥

2. युग योग

यदि राहु-केतु को छोड़कर बाकी सारे ग्रह केवल दो राशियों में ही स्थित हों तो यह योग होता है।

धर्महीन पाखण्डी बनकर, हो समाज से दूर।

मातापिता के सुख से वंचित ‘युग’ योगी मजबूर॥

3. शूल योग

यदि सातों ग्रह कुल मिलाकर 12 राशियों में से तीन ही राशियों में स्थित हों तब शूल योग होता है।

वीर, युद्घ से जय पाता है, सेवा नृप की करता।

निर्धन, हिंसक, ‘शूल’ योग में बना आलसी फिरता॥

4. केदार योग

जब सातों ग्रह कुल मिलाकर 4 ही राशियों में स्थित हों तो केदार योग होता है।

सचबोले, उपकारी होवे, करे कृषि में काम।

धन, भूमि का धार कर्ता, योग ‘केदार’ नाम॥

5. पाश योग

यदि सातों ग्रह कुल मिलाकर 5 ही राशियों में स्थित हों तो यह योग बनता है।

‘पाश’ योग परिवार बड़ा हो, जेल कभी जा सकता है।

करे नौकरी गुप्तचरी की, सेना में पद पा सकता है।

6. दाम योग या दामनिका

यदि सातों ग्रह कुल मिलाकर 6 राशियों में हों तो यह योग बनता है।  इसका फल इस प्रकार है-

परोपकारी, वैभवशाली, राजनीति में अल्प सफल।

लब्धप्रतिष्ठित, पुत्रवान हो, दाम योग का ऐसा फल॥

7. वीणा योग

यदि सातों ग्रह एक -एक कर सात ही राशियों में स्थित हों तो इसे वीणा योग कहते हैं। इसे अत्यंत श्रेष्ठ माना गया है। इसका फल इस प्रकार है-

वीणा योग नृत्य, गीत से, मन को मोहित करता है।

धन अर्जन कर, नेता बनता, संचालन कर सकता है॥