मीरा

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

मुझे मीरा अपने श्रेष्ठतम स्वरूप में तब लगती हैं जब वे अकेली भारत के सभी शासकों, क्षत्रपों और साधु मठों के खिलाफ अपने समर्पण और भक्ति के अवलम्बन से जनता में चली जाती हैं। उस जमाने में ऐसा वही कर सकता था जो या तो पागल हो गया हो या जिसने जीते जी ही मृत्यु का वरण कर लिया हो। नया-नया ज्योतिष सीखने वाले, शतरंज खेलने वाले उस पागलपन का थोड़ा सा अंश पा सकते हैं। सिगरेट या चाय पीने वालों को भी साधारण सी तलब विचलित कर देती है। पर मीरा की तलब यूं ही नहीं थी। उनको पता था कि उनको किसी भी क्षण मार देंगे, तब भी वे अपने महाप्रयाण मार्ग पर चल पड़ीं। जिन राणा ने उनको जहर दिया, उन्हीं राणा ने मीरा के अंत समय में उन्हें द्वारिका से वापस बुलाने का प्रयास किया था। जो विप्र वहां गए, वे मीरा को वापस लाने के लिए अनशन पर बैठ गए। परंतु मीरा ने मंदिर में प्रवेश करके अपने को गिरधर नागर से लीन कर लिया था। उनके आखिरी दो पद वहीं कहे गए थे जिन्हें उनकी सखी ने सुनकर याद कर लिया था।

मीरा की जन्मपत्रिका तो मुझे ज्ञात नहीं है परंतु राधा और रुक्मणि को चुनौती देती सी कोई जन्मपत्रिका रही होगी।  वे बहुत अच्छी गायक और गीतकार थीं। उनके गंधर्व विद्याओं के योग रहे होंगे, जो कि उन्हें जन सामान्य से जोड़ सके। मैं इस लेख में यह कहना चाहूंगा कि जिन भक्तों के गंधर्व विद्याओं के अच्छे योग रहे होंगे वे ही जनता में सफल हो पाए हैं और वे ही उच्चकोटि की भक्ति-साधना में लीन हो पाए हैं।

तानसेन के लिए अबुल फजल ने लिखा है कि पिछले एक हजार साल में ऐसा संगीतकार नहीं मिला। तानसेन ने मल्हार राग पर एक पद लिखा है, जिसमें उसने मीरा का उल्लेख किया है। मीरा ने मल्हार पर आधारित बहुत सारे पद लिखे हैं। संगीत मकरंद में राग ललित तथा राग मल्हार के उल्लेख मिलते हैं, जो कि प्रातःकाल गाए जाते हैं। मीरा के पद प्रातःकाल में भी गाये जाने वाले कई थे। वर्षा से संबंधित पद मीरा ने लिखे है। मल्हार और वर्षा ऋतु का संबंध है। संगीत प्रेमियों ने सूर, मियां और रामदास की मल्हार के समान ही उन पदों को ढूंढ लिया, जिनमें राग मल्हार का खुलकर प्रयोग हो। बाद में मीरा की मल्हार प्रसिद्ध हो गई। आरोह-अवरोह सोलह स्वर के हों तो राग आसावरी थाट से उत्पन्न मल्हार रात्रि के दूसरे प्रहर का संगीत हो जाता है।

इस विवरण से एक बात समझ में आती है, जिसका बृहस्पति उच्चकोटि का हो वह भोर में उठकर गायन और अध्यात्म में रुचि लेता है। जिसका शुक्र उच्चकोटि का हो और चंद्रमा से संबंध हो तो वह संगीत प्रधान होते हुए भी अध्यात्म की ओर मुड़ जाता है। जिसके जलदायक ग्रह परस्पर संबंध करते हों, चंद्र, बुध और शुक्र तो वह न केवल वर्षा व मल्हार में रुचि लेता है बल्कि उसके संगीत में आरोह-अवरोह अत्यंत भाव प्रवण हो जाता है और वह उच्चकोटि की भक्ति और समर्पण की स्थिति में पहुंच जाता है। इन ग्रहों का संबंध जहां चरित्र संबंधी लांछन लाता है, वहीं जन सामान्य में वर्षा जैसी शीतलता का संचार करता है।

शनि की अच्छी स्थिति और राहु की मदद के बिना कोई व्यक्ति क्रांतिकारी कदम नहीं उठा सकता है। राहु शासन के विरुद्ध षड्यंत्र तो करा सकता है परंतु जनता में ले जाने का कार्य शनि ही करते हैं, बल्कि मीरा के विरुद्ध ही षड्यंत्र होते रहे हैं। मीरा के जनता में चले जाने का और उनसे समर्थन पाने का कार्य अच्छे शनि के बिना होना संभव नहीं था।

चंद्रमा शनि जैसे पापग्रहों से विद्ध होने पर व्यक्ति को मीरा जैसा विकल बना सकता है। शनि के साथ चंद्रमा की स्थिति भी खासतौर से चंद्र-शनि युति चतुर्थ भाव से संबंधित हो तो घर छोड़ने की पे्ररणा देती है। नरसी जी का मायरा मीरा रचित माना जाता है। इसमें भक्त नरसी द्वारा भरे गए भात का विवरण आता है। ऐसा माना जाता है कि नरसी की ओर से भगवान कृष्ण ने ही उनकी बहन के यहां भात भरा था। इस ग्रंथ की रचना को लेकर एक उल्लेख उपलब्ध है।

माघ मास सुद सप्तमी, अश्विन अरु रविवार।

माहेरो नरसी तणौं, साँवल भयो अंजार॥

सोला सै सोला तणौं, विक्रम संवत् जान।

चवदासै इकियासियौ, शाके सालिवाहन॥

भक्तों के हित करणै, जद हरि बाँध्यो मौड़।

माहैरा मैं रूपिया, लागा छप्पन क्रोड़॥

उक्त रचना चाहे मीरा की हो, चाहे मीरा से प्रेरणा लेकर किसी और ने लिखी हो (क्योंकि अपभ्रंश बहुत हैं)। मीरा के तिथि, वार इत्यादि के ज्ञान का प्रतीक है, इसलिए मीरा के बुध ग्रह बहुत अच्छे रहे होंगे ऐसा अनुमान लगाया जाता है। मीरा के सूर्य अवश्य उच्च के नहीं रहे होंगे, वरना उनका राजमहलों को छोड़ना संभव नहीं था। राजकुल छोड़कर जनता में ले जाने का कार्य तभी संभव है, जब सूर्य एक तरफ कमजोर हो गए हों और दूसरी तरफ शनि प्रबल होते चले गए।

‘रुक्मणि मंगल’मीरा का लिखा हुआ बताया जाता है। इसमें रुक्मणि का आत्मनिवेदन वर्णित है। मीरा ने रुक्मणि पर लिखा है तो यह उनके विराट स्वरूप का प्रतीक है, जिसमें वे रुक्मणि की वर्जना नहीं करतीं। चंद्र, बुध, शुक्र यदि परस्पर संबद्ध हो तो जातक में सहअस्तित्त्व की संभावना बढ़ जाती है।

मीरा के बारे में एक लेख आता है कि जब वे मथुरा-वृंदावन गईं तो प्रसिद्ध संत जीव गोस्वामी ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया था। इस पर मीरा ने संदेश भेजा कि ‘मैंने तो सुना है कि बृज में एक कृष्ण ही पुरुष है, बाकी सब ही गोपियां है।’ कहते हैं कि इस पर जीव गोस्वामी को अपने शास्त्रीय या दार्शनिक ज्ञान के खोखलेपन का अनुमान हो गया और वे स्वयं मीरा की आवभगत के लिए उठकर बाहर गए।  जीव गोस्वामी इससे पहले त्रिया दर्शन नहीं करते थे। एक अन्य उल्लेख में वल्लभ सम्प्रदाय की चौरासी वैष्णवन वार्ता के अनुसार मीरा ने कृष्णदास अधिकारी के पहुंचने पर श्रीनाथ जी के लिए भेंट दी थी और एक अन्य अवसर पर अपने पुरोहित रामदास से ठाकुरजी के पद गाने का आग्रह किया था। इस पर रामदास ने मीरा को उल्टी-सीधी सुनाई। उन्होंने बड़ी नम्रता और शिष्टता के साथ बहुत दबाव के बाद भी ठाकुरजी के अतिरिक्त किसी अन्य की आराधना का पद गाने की बात पर समझौता नहीं किया। इस कथानक से यह पता चलता है कि मीराबाई श्रीनाथजी के प्रति श्रद्धा अवश्य रखती थी परंतु उनके इष्टदेव ठाकुरजी ही थे। नागरीदास लिखते हैं कि मीरा ठाकुरजी के आगे ही गाती थी और ठाकुरजी के आगे ही नाचती थी।     

आपुन गिरिधर न्याव कियो यह, छान्यो दूधरु पानी

मीरा प्रभु गिरधर नागर के चरन कमल लपटानी।

इतना तत्त्व चिंतन तभी हो सकता है जब जन्मपत्रिका में बहुत बलवान शनि हो और नवमांश में बृहस्पति से संबंध हो या विंशांश में बृहस्पति से संबंध हो या मीरा के आत्मकारक का संबंध दशम भाव से हो। मीरा ने साधारण शब्दावली में ही उच्चकोटि के दार्शनिक चिंतन का परिचय दिया था जो कि एक साधारण बात नहीं है।

मीरा ने सौंदर्य पक्ष पर लिखा है और उच्चकोटि की कवि होने का परिचय दिया है। बिना प्रशिक्षण के वे सारस्वत कवि की श्रेणी में आती हैं जो कि शुक्र और बुध के अद्भुत समन्वय के बिना संभव नहीं है। उनकी एक रचना की बानगी प्रस्तुत है।

कृष्ण का रूप-चित्रण

मोर मुकुट पीताम्बर सोहां कुंडल झलक्यां हीर,

मीरा के प्रभु गिरधर नागर क्रीड्यां संग बलवीर॥

 

 

 

पढ़ाई कहाँ करें?

कई बच्चे बहुत प्रतिभाशाली होते हैं परंतु उनका पढ़ाई में मन नहीं लगता। कुछ बच्चे पढ़ना चाहते हैं परंतु जब पढ़ने की जगह अनुकूल नहीं हो तो उनका मन नहीं लगता है और वे ज्यादा समय पढ़ाई के लिए नहीं बैठ पाते हैं। कुछ बच्चे प्रतिभाशाली भी होते हैं, उनके पास बैठने की टेबल और जगह भी होती है परंतु परीक्षा परिणाम उनकी प्रतिभा के अनुकूल नहीं आता। इन सबका समाधान वास्तु शास्त्र के माध्यम से किया जा सकता है।

 

शास्त्रों में विद्याभ्यास के लिए पश्चिम दिशा बताई गई है। पश्चिम दिशा मध्य से दक्षिण की ओर चलते ही जो स्थान आता है वह विद्याभ्यास के लिए उत्तम होता है, इसलिए भवन की वास्तु योजना में क्यों न उस स्थान को बच्चों के शयन कक्ष के रूप में विकसित कर लिया जाए। यदि पश्चिम दिशा में बच्चों का शयन कक्ष हो, वे दक्षिण दिशा में सिर करके और उत्तर में पैर करके सोएं तो अच्छे परिणाम लाए जा सकते हैं। शास्त्रीय आधारों पर जो अन्य परीक्षण किए गए हैं उनमें उन बच्चों के लिए जो तकनीकी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उन्हें अच्छे परिणाम लाने के लिए सामान्य विद्याभ्यास नहीं चाहिए बल्कि कुछ अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करके मैरिट में आना चाहते हैं, दक्षिण-पूर्व या अग्नि कोण में विद्याभ्यास शुभ परिणाम लाता है। अग्निकोण में यदि बच्चे सीमित घंटों के लिए बैठें तो उन्हें अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त होती है। उनका मस्तिष्क उर्वर होता है और वे अन्य की अपेक्षा ज्यादा अच्छा परिणाम ले पाते हैं। जिन बच्चों को अनिद्रा रहती है, उन्हें अग्निकोण में न सोकर दक्षिण दिशा मध्य में सोना चाहिए। दक्षिण दिशा-मध्य यद्यपि गृह स्वामी के लिए ही प्रशस्त बताई गई है, परंतु अनिद्रा या पढ़ाई में मन न लगने की स्थिति में विद्यार्थी को दक्षिण दिशा का सीमित अवधि के लिए प्रयोग प्रशस्त रहता है। ध्यान रहे कि शयन दक्षिण दिशा में सिर करके ही करना चाहिए। विद्यार्थियों के लिए पूर्व दिशा में सिर करके सोना शास्त्रोक्त है परंतु उच्च तकनीकी प्रशिक्षण वाले विद्यार्थियों के लिए दक्षिण में सिर और उत्तर में पैर अधिक लाभदायक पाये गए हैं। विश्वकर्मा प्रकाश नामक ग्रंथ में शयन से संबंधित एक श्लोक मिलता है-

प्राक्शिरः शयने विद्याद् दक्षिणे सुखसंपदः।

पश्चिमे प्रबला चिन्ता हानिमृत्यू तथोत्तरे॥

स्वगेहे  प्राक्शिरः सुप्याच्छ्वसुरे दक्षिणा शिरः।

प्रत्यच्छिराः प्रवासे नोदक्सुप्यात्कदाचन॥

उत्तर और पश्चिम दिशा में सिर करके सोने से मृत्यु का भय होता है। चाईपाई के बांसों पर सिर करके सोने से रोग और पुत्र को कष्ट होता है। पूर्व दिशा में सिर करके सोने से विद्या लाभ, दक्षिण दिशा में सिर करके सोने से सुख संपत्ति का लाभ होता है। पश्चिम दिशा में सिर करके सोने से अत्यधिक चिंता और उत्तर दिशा में सिर करके सोने से हानि व मृत्यु होती है। स्वयं के घर में पूर्व दिशा में सिर करके सो सकते हैं। ससुर के घर में दक्षिण दिशा में सिर, परदेश में पश्चिम दिशा में सिर करके सोना चाहिए परंतु उत्तर दिशा में सिर कदापि नहीं करना चाहिए। परदेश में पश्चिम दिशा में सिर करने से तात्पर्य यह है कि गहरी निद्रा न आने से सुरक्षा बढेगी। इसका अर्थ यह भी हुआ कि परीक्षार्थियों को परीक्षा की रात ऐसा करने में कोई हानि नहीं है।

जिन विद्यार्थियों का अध्ययन कक्ष वायव्य कोण में होता है, उनके मन में उच्चाटन की प्रवृत्ति होती है। निश्चित ही ऐसे विद्यार्थी मन लगाने के लिए घर से बाहर जाएंगे और नई-नई मित्रता तलाश करेंगे। वायव्य कोण में अध्ययन करने वाले बच्चों के मित्रों पर माता-पिता को नजर रखनी चाहिए। संगत न बिगड़े यह जरूरी है, परंतु माता-पिता को ऐसे मामलों में प्रतिभाशाली बच्चों से मिलने-जुलने की अनुमति दे देनी चाहिए। कोशिश करें कि बच्चे अपने से ऊंची मेरिट वाले बच्चों से ही मिलें।

उत्तर दिशा में मुंह करके पढ़ना श्रेष्ठ माना गया है। माता-पिता को चाहिए कि किसी ऐसी दीवार के सहारे जिनमें खिड़की हो, बच्चे को एक टेबल-कुर्सी व उसके ऊपर टेबल लेंप लगाकर दें। बच्चा यथासम्भव उत्तर में अन्यथा पूर्व में मुंह करके बैठे। उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों की एकाग्रता भंग होने की स्थिति में उन्हें पॉकेट ट्रांजिस्टर दिया जाना चाहिए या लिविंग रूम में टी.वी. पर सूचना देने वाले चैनल देखने की आज्ञा दी जानी चाहिए। ब्रह्म स्थान में अध्ययन एवं शयन वर्जित हैं। उत्तर दिशा या ईशान कोण में उत्तर दिशा में मुंह करके अध्ययन करना प्रशस्त है परंतु परीक्षा से ठीक एक सप्ताह पहले अग्निकोण या दक्षिण में स्थापित हो जाना लाभ प्रदान करता है। नैऋत्य कोण में केवल उन्हीं बच्चों को स्थान दिया जाए जो बहुत संस्कारित हों और पितृनिष्ठ और मातृनिष्ठ हों। यहां बच्चों के जिद्दी हो जाने की आशंका रहती है। अग्निकोण में शयन उचित नहीं है केवल अध्ययन के लिए तीन-चार घंटे बिताए जा सकते हैं। यंत्रों के साथ अध्ययन करना अग्निकोण में उचित रहता है। सलाहकार बनने के लिए किए जाने वाले अध्ययन भी अग्निकोण में प्रशस्त माने गए हैं। बाकी सभी मामलों में पश्चिम दिशा ही श्रेष्ठ है।

पढाई कभी भी ब्रह्म स्थान में और वायव्य कोण में नहीं करनी चाहिए। इससे मन में उच्चाटन रहता है और पूर्ण परिणाम नहीं मिलता है। यह भी आवश्यक है कि पढ़ाई के साथ घर के द्वार उचित स्थान पर हो। यदि इन्द्र नामक द्वार पूर्व दिशा में हो तो जातक की महत्त्वाकांक्षा ऐसी पढ़ाई के लिए जागृत होती है जो उसे राजयोग दें। यदि पश्चिम दिशा मध्य में द्वार हो तो जातक ऐसी पढ़ाई करता है जो उसे बड़ा धन देवें। छात्र में जो भी मूल प्रेरणा है, उसके अनुरूप ही वह श्रम करेगा।

होरा

होरा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के अहोरात्र शब्द से हुई है।  अहो का अर्थ दिन व रात का अर्थ रात्रि होता है। अहो का हो तथा रात्रि का रा लेकर होरा शब्द बना।

होरा का उपयोग मुहूर्त में बहुत है। मुख्यतया होरा से वार क्रम तय किया जाता है। एक वर्ष में 12 मास होते हैं। और एक मास में दो पक्ष। इस आधार पर सम्पूर्ण वर्ष में 24 पक्ष हुए। उसी आधार पर एक दिन में भी 24 होरा माने गये। एक होरा का मान 1 घण्टा माना जाता है। प्रत्येक होरा का एक ग्रह स्वामी होता है जो ग्रह पहली होरा का स्वामी होता है वही उस दिन का स्वामी माना जाता है। अर्थात उस दिन वह वार होता है। रविवार को पहली होरा सूर्य की सोम को चन्द्रमा की, मंगल को मंगल की, बुध को बुध की, गुरु को गुरु की तथा शुक्र को शुक्र की, शनि को शनि की प्रथम होरा होती है। इस प्रकार वारों का नामकरण हुआ। यहाँ प्रश्न होता है कि वारक्रम कैसे तय हुआ तो समाधान में कहते हैं कि पृथ्वी से ग्रहों की दूरी के अनुसार क्रम तय हुआ। सूर्य से पृथ्वी के बीच में बुध व शुक्र हैं इन्हीं आन्तरिक ग्रह कहते हैं। गुरु, मंगल, शनि, अरुण, वरुण, यम ये ब्राह्यग्रह है। अरुण, वरुण यम ये पृथ्वी से इतने दूर है कि इनका प्रभाव पृथ्वी वासियों पर लगभग नहीं पडता। इसलिए  इन्हें वारक्रम में शामिल नहीं किया गया और चन्द्रमा स्वयं पृथ्वी का उपग्रह इन ग्रहों को दूरी से घटते क्रम में रखा गया।

शनि, गुरु, मंगल, यहाँ सूर्य का स्थान आएगा क्योंकि सूर्य से पृथ्वी का स्थान समान है। जबकि शुक्र, बुध, चन्द्र का परिवर्तन शील तदनन्तर शुक्र बुध चन्द्र। इस प्रकार सात ग्रहों का क्रम तय किया गया जो वार क्रम में े सहायक है।

माना शनिवार से गणना प्रारम्भ हुई तो शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्रमा। इस प्रकार सात, द्वितीय बार सात, तृतीय बार सात। 21 होरा तक चले। अब आगे 24 तक गिनने के लिए पुनः शनि-22, गुरु-23, मंगल-24 होगा जो उस दिन की होरा होगी। अगली होरा यानि 25वी होरा सूर्य की होगी जो अगले दिन की  प्रथम होरा होगी। इस प्रकार शनि के बाद रविवार आएगा। इस तरह सर्वत्र जानना चाहिए।

पुनः प्रश्न उत्पन्न होता है कि सृष्टि का प्रथम वार कौनसा रहा होगा। सृष्टि का उद्भव सूर्य से माना जाता है तो स्वतः सिद्घ है कि प्रथमवार सूर्य या रविवार का ही रहा होगा। हमारे यहाँ का होरा पश्चिमी देशों में जाकर आवर्स बन गया। उन्होंने हमारे वार क्रम स्वीकार कर नाम परिवर्तन किये। हमारा वार क्रम अतिवैज्ञानिक  है।

होरा का मुहूर्त में उपयोग

मुहूर्त में संबंधित कार्य के लिए विशेष संबंधित वार बताया गया है। यदि समया भाव हो और कार्य करना आवश्यक है तो संबंधित वार का कार्य उसकी होरा में करके शुभफल प्राप्त किये जा सकते हैं।

जैसे आज बुधवार है और आपको नूतन गृहारम्भ करना है तो उसके लिए शनिवार श्रेष्ठ कहा गया है पर शनिवार तक हम प्रतीक्षा नहीं कर सकते  तो हम शनि की होरा के समय नूतन गृहारम्भ कर वही फल प्राप्त कर सकते हैं।

निम्न होरा में निम्न कार्य श्रेष्ठ है।

सूर्य  :  टेण्डर भरने व देने व राजकार्य के चार्ज देने व लेने के लिए श्रेष्ठ।

चन्द्रमा  :  सभी कार्यों हेतु श्रेष्ठ होते हैं।

मंगल  :  युद्घ, द्युत, सभा-सोसायटी में जाना, कर्ज देना तथा न्यायालय संबंधी कार्य।

बुध  :  नवीन व्यापार करना, नवीन लेख व पुस्तक प्रकाशन विद्या का आरम्भ, कोष संग्रह एवं प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करने के लिए।

गुरु  :  उच्चाधिकारियों से मिलने, विवाह संबंधी कार्यक्रम, नवीन काव्य लेखन व प्रकाशन, कोष संग्रह आदि अनेक शुभ कार्यो हेतु।

शुक्र  :  नवीन वस्त्र व आभूषण धारण, सौभाग्य वर्धक कार्य एवं चलचित्र शूटिंग कार्य तथा यात्रा हेतु।

शनि  :  नूतन गृहारम्भ, भूमि क्रय, मशीनरी  शुभारम्भ, द्रव्य संग्रह, मकान, नींव,  आदि स्थिर कार्य हेतु।

होरा कैसे जानें  :  सूर्योदय में एक होरा जोडकर क्रमानुसार होरा का ज्ञान होता है।

 

धनदायक सुखकारक वस्तुएं

एकाक्षी नारियल - नारियल को श्रीफल भी कहा जाता है। श्रीफल सामान्यतया सभी स्थानों पर आसानी से उपलब्ध हो जाता है क्योंकि भारतीय संस्कृति में कोई भी पूजा बिना श्रीफल के नहीं हो सकती। इसे सबसे बड़ा और पुण्यकारक फल माना गया है। सामान्यतया दो आंख और एक मुख वाले नारियल सभी जगह उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु एकाक्षी नारियल आसानी से प्राप्त नहीं हो पाता। एकाक्षी नारियल के मुख पर दो काले निशान होते हैं एक मुख और एक आंख का प्रतीक होता है। एकाक्षी नारियल को घर में रखना बड़ा ही शुभ माना जाता है।

घर के मुख्य द्वार पर द्वार गणपति के साथ एकाक्षी नारियल भी रखने की परम्परा रही है। एकाक्षी नारियल को मां लक्ष्मी के समान ही माना जाता है। श्री लक्ष्मीजी का स्वरूप मानकर ही इसे शुभ दिवस में प्राप्त कर इसकी स्थापना घर के मंदिर में या पूजा स्थल में की जाती है। फिर प्रतिदिन अपने इष्टदेव के साथ इसकी भी पूजा चंदन, अक्षत, धूप-दीप आदि से करते रहना चाहिए, हो सके तो मां लक्ष्मी के किसी भी मंत्र या स्त्रोत का पाठ करना चाहिए।

घर से दरिद्रता दूर करने, व्यापार में वृद्धि और सुख सम्पन्नता के लिए एकाक्षी नारियल अति शुभ होता है।

दक्षिण मुख शंख - यह समुद्र से प्राप्त होता है। यह सफेद-पीली-नीली आभा लिए हुए होता है। इसकी प्राकृतिक बनावट के आधार पर इसके कई नाम प्रचल में हैं।

सामान्य शंख का बायीं ओर वाला भाग खुला होता है, जिस शंख का दाहिनी ओर वाला भाग खुला हो वह दक्षिणावर्ती या दक्षिण मुखी कहलाता है।

इसे मुंह से बजाया नहीं जाता, बजाने वाले सामान्य शंख होते हैं। दक्षिण मुखी शंख को केवल पूजा में रखा जाता है और अपने इष्टदेव को स्नान-आचमन आदि इसमें जलादि लेकर करवाए जाने से इष्टदेव की प्रसन्नता होती है। इसे सदा पूजा स्थल अथवा शुद्ध और पवित्र स्थान पर अथवा तुलसी वृक्ष की छांव में, सदा गंगाजल या जल भरकर और उसमें तुलसी पत्र और केशर चंदन लगाकर रखा जाता है।

इस तरह दक्षिण मुखी शंख की पूजा जिस घर में होती है वहां श्रीलक्ष्मी जी प्रसन्न होकर स्थिर रूप से निवास करती हैं। परिवार का आर्थिक व सामाजिक स्तर उत्तरोत्तर ऊंचा होता जाता है। अपने अधिकारों की प्राप्ति और योजनाओं के क्रियान्वयन में सुविधाएं बढ़ती हैं।

श्वेतार्क गणपति - श्वेतार्क पौधे की जड़ से श्वेतार्क गणपति का निर्माण होता है। श्वेतार्क (सफेद आंकड़ा) यह एक मरुस्थलीय पौधा है। श्वेतार्क गणपति की स्थापना रविवार को सवार्थसिद्धि योग में विधि पूर्वक पूजा करके की जाती है। प्रतिदिन श्वेतार्क गणपति की पूजा आराधना करने से घर में धन-धान्य और समृद्धि बढ़ती है। श्वेतार्क गणपति विद्या, बुद्धि की वृद्धि करते हैं। विद्यार्थी वर्ग को प्रतियोगिताओं और परीक्षा में सफलता के लिए इसकी पूजा करनी चाहिए। व्यापारी वर्ग को अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान में व्यापार वृद्धि के लिए, आय में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए तथा दाम्पत्य जीवन में सामंजस्य बनाए रखने के लिए इनकी पूजा-आराधना करना अत्यधिक प्रभावशाली होता है।

रुद्राक्ष - रुद्राक्ष को शिवजी के नेत्र से उत्पन्न बताया गया है। भगवान शंकर की पूजा में रुद्राक्ष का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है। रुद्राक्ष एक फल के रूप में पौधे से प्राप्त होता है। रुद्राक्ष कई प्रकार के होते हैं। एक मुखी से लेकर 21 मुखी तक रुद्राक्ष पाए जाते हैं। मुख से तात्पर्य रुद्राक्ष दाने पर उभरी हुई रेखाओं से है।

रुद्राक्ष को प्राप्त करके गंगाजल अथवा गौ दुग्ध से उसे शुद्ध कर लिया जाता है फिर चंदन आदि लगाकर रुद्राक्ष को पवित्र कर लिया जाता है, फिर रुद्राक्ष पर चंदन आदि लगाकर श्वेत पुष्प, अक्षत और बेल पत्र चढ़ाकर धूप-दीप से रुद्राक्ष पूजा करनी चाहिए। रुद्राक्ष के पूजन में ‘ॐ नमः शिवाय’ बोलते रहना चाहिए। रुद्राक्ष का केवल एक दाना होता है तो 108 बार ‘ॐ नमः शिवाय’ बोलें और यदि माला हो तो 11 माला उक्त मंत्र की फेरनी चाहिए और एक ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए। फिर रुद्राक्ष को या रुद्राक्ष की माला को भगवान शंकर के मंत्र का जाप करते हुए धारण करनी चाहिए। रुद्राक्ष की जो माला गले में पहनी जाती है, उससे जप नहीं किया जाता इसलिए जाप करने वाली अलग और पहनने वाली अगल माला होनी चाहिए।

रुद्राक्ष धारण करने से कई प्रकार की समस्याओं से मुक्ति मिलती है। मुख्यतया रक्तचाप, वायु विकार, भूत-प्रेतादि से तथा टोने-टोटके आदि अभिचार कर्मों से रक्षा रुद्राक्ष करता है, घर में सुख-शांति और स्वास्थ्य की वृद्धि होती है।

गोरोचन - यह एक औषधि है जो गाय के शरीर से निकलती है। इसे शिवा मंगला-वन्दनीय, मेधा शक्ति बढ़ाने वाली, भूत निवारिणी आदि गुणवाचक नामों से भी जाना जाता है। गोरोचन को धूप-दीप आदि से पूजा करके चांदी की डिब्बी में घर में रखा जाए तो घर का वातावरण मंगलमय सुख-शांतिपूर्ण बना रहता है। शुभ मुहूर्त में गोरोचन को तिजोरी या गल्ले में रखने से व्यापार में वृद्धि होती है और धन-सम्पत्ति की वृद्धि होती है।

कुश - यह एक प्रकार की घास होती है किन्तु इसके गुण अनेक होते हैं। भारतीय संस्कृति में कुश को अत्यन्त श्रेष्ठ और पवित्र माना गया है। यह कभी अपवित्र नहीं होती अपितु सदा दूसरों को पवित्र करती है। यह प्रबल कीटाणुरोधक है। ग्रहण काल में जब सभी वस्तुए अपवित्र हो जाती हैं उस समय जिन-जिन वस्तुओं में कुश रख दी जाती है वे अपवित्र नहीं होती, कीटाणु उनमें प्रवेश नहीं कर पाते। प्रत्येक पूजा-उपासना में यह प्रयुक्त होती है और इसे घर में रखना शुभ माना जाता है। कुश से बने आसन पर बैठकर मंत्र जाप करने से शरीर स्वस्थ रहता है।

कुश ग्रंथियों की 108 दानों की माला से मंत्र जाप किया जाए तो मनोकामना शीघ्र पूरी होती है। कुश मूल को शुभ मुहूर्त में प्राप्त करके, देव प्रतिमा की भांति पूजकर, लाल कपड़े में लपेटकर, तिजोरी में रखें तो धन-सम्पत्ति और व्यापार में वृद्धि होती है।

नागकेसर- यह एक पवित्र और प्रभावशाली वनस्पति है। आयुर्वेद की दृष्टि से यह पोषक-सौन्दर्य वर्द्धक और कीटाणुनाशक होती है। शिवजी की पूजा में विशेष रूप से इसे शामिल किया जाता है। नर्मदेश्वर शिवलिंग की नागकेसर से पूजा की जाती है।

नागकेसर को लाल कपड़े में साबुत हल्दी, सुपारी, एक सिक्का, एक तांबे का सिक्का और चावल के साथ बांधकर एक पोटली बांध ली जाती है। इस पोटली को भगवान शंकर के आगे धूप-दीप आदि से पूजा करके, तिजोरी, आलमारी या भण्डार में रखने से घर में धन-सम्पत्ति की वृद्धि होती है। नागकेसर को कूट-छानकर घी के साथ चंदन की तरह माथे पर लेप करने से मान-सम्मान में बढ़ोत्तरी होती है।

अपामार्ग- अपामार्ग जिसे ओंगा या चिरचिटा भी कहते हैं। यह एक सर्वसुलभ पौधा है। यह वर्षा ऋतु में उगता है और सर्दियों में पकता है। यह दो रूपों में लाल और सफेद पाया जाता है। लाल अपामार्ग की जड़ को शुभ मुहूर्त में प्राप्त कर जड़ को जलाकर भस्म बना लें। इस भस्म का प्रतिदिन दूध के साथ सेवन किया जाए तो संतान प्राप्ति में आ रही बाधा दूर होती है। श्वेत अपामार्ग की जड़ को घिसकर माथे पर चंदन की तरह लगाने से व्यक्ति की प्रभाव क्षमता में वृद्धि होती है।

बिक्री बढ़ाने का मंत्र - यह एक सुप्रसिद्ध मंत्र है। रविवार के दिन प्रातः हाथ में काले उड़द के 21 दाने लेकर 21 बार मंत्र पढ़कर उड़द के दाने दुकान में बिखेर दें। प्रयोग एक बार करना ही यथेष्ट है।

ॐ भंवर वीर तु चेला मेरा, खोल दुकान बिलरा कर मेरा। उठे जो डंडी बिके जो माल, भंवर वीर सौं करे निहाल।।