नयी दिल्ली:भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा महामारी की पहली लहर के दौरान किए गए एक अध्ययन के अनुसार, कोविड-19 से उबरने वाले अधिकांश लोगों ने किसी न किसी तरह के लांछन का अनुभव किया है।

महामारी ने बीमारी की अप्रत्याशित प्रकृति, इसके प्रसार और रोकथाम के बारे में विश्वसनीय जानकारी की कमी और इससे संक्रमित होने के डर के कारण सार्स सीओवी-2 वायरस से संक्रमित या संवेदनशील व्यक्तियों के खिलाफ लांछन और भेदभाव को जन्म दिया।

राष्ट्रीय चिकित्सा सांख्यिकी संस्थान (निम्स) की एक वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सरिता नायर ने कहा कि महामारी की पहली लहर के दौरान इस संदर्भ में देश के प्रमुख क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले सात राज्यों के 18 जिलों में किए गए बहु-केंद्रित मिश्रित-पद्धति के अध्ययन के जरिए उन समुदायों और व्यक्तियों के बीच लांछन की धारणाओं, अनुभवों और कारकों का पता लगाया, जो इस दौरान कोविड-19 से ठीक हो गए थे।

अध्ययन में संक्रमण के कारणों की जानकारी, इसके प्रसार के तरीके, जोखिम की भावना, कोविड-19 के रोकथाम के तरीकों और उससे संबंधित धारणा को खत्म करने के कदमों को लेकर बनी धारणा का भी आकलन किया।

अध्ययन के परिणामों से पता चला है कि 60 प्रतिशत से अधिक प्रतिभागियों को कोविड-19 के सही कारण, प्रसार के तरीके और निवारक उपायों के बारे में पता था। आईसीएमआर-निम्स के निदेशक डॉ. एम. विष्णु वर्धन राव ने कहा कि ऐसा सरकार द्वारा प्रसार के तरीकों, बचाव के उपायों, संकेतों और लक्षणों पर प्रसारित प्रमुख संदेशों के प्रसार की वजह से हो सकता है।

राव ने अध्ययन के निष्कर्षों पर प्रकाश डालते हुए कहा, ‘‘अध्ययन में पता चला है कि कोविड-19 से उबरे प्रतिभागियों में से अधिकतर (80.5 प्रतिशत) ने कम से कम एक प्रकार के लांछन का अनुभव किया है। इसमें 1,978 उत्तरदाताओं में से 51.3 प्रतिशत ने कोविड​​​​-19 से ठीक हो चुके लोगों के प्रति गंभीर अपमानजनक धारणा का जिक्र किया।

अध्ययन स्थलों पर धारणाओं का अनुभव अलग-अलग था। नायर ने कहा कि संक्रमण का डर और पर्याप्त ज्ञान की कमी को राय कायम करने से जोड़ा गया है। उन्होंने कहा कि निष्कर्षों ने जागरूकता बढ़ाने और बीमारी की रोकथाम के उपायों और प्रसार के तरीकों पर गलत धारणाओं को दूर करके कोविड-19 को लेकर लोगों की गलत राय को दूर करने के लिए समय पर हस्तक्षेप की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।