वास्तुशास्त्र की कुछ प्रसिद्ध भ्रांतियाँ

पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो एडिटर, नेशनल दुनिया

वास्तु शास्त्र - कई वास्तुशास्त्री तक भी एक ही भूखण्ड में कई-कई वास्तु पुरुष की कल्पना करते हैं और ऐसी ही सलाह देते हैं जिसके कारण अच्छे परिणाम तो नहीं आते, बल्कि भूखण्ड के मालिक को नुकसान ही होता है। कुछ शिक्षण संस्थाएँ भी ऐसा कर रही हैं। जिस प्रकार से एक शरीर में आत्मा का वास होता है, उसी प्रकार वास्तु पुरुष भी एक भूखण्ड में वास करते हैं और उन्हें आत्मा या देवता माना जा सकता है। जिस तरह से एक शरीर में 2 आत्माओं का वास नहीं हो सकता, उसी तरह से एक भूखण्ड में भी दो वास्तु पुरुष का वास नहीं हो सकता। बल्कि एक व्यक्ति लगते हुए 2 भूखण्ड खरीद ले तो वास्तु पुरुष का विस्तार दूसरे भूखण्ड में भी हो जाता है। जिस प्रकार बच्चे का शरीर बढ़ने पर उसके चैतन्य का विस्तार बढ़े हुए आकार में भी हो जाता है, उसी प्रकार वास्तु पुरुष भी स्वमेव ही अपना आकार घटा या बढ़ा लेते हैं। इस सम्बन्ध में वास्तुशास्ति्रयों के मनगढ़ंत तर्क नहीं चलेंगे बल्कि शास्त्र का विधान ही अधिक प्रमाणिक है।

नैऋत्य कोण में मास्टर बैडरूम - बहुत सारे नौसिखिए शास्त्री नैऋत्य कोण में ग्रह स्वामी का शयन कक्ष प्रस्तावित करते हैं। यह अनुचित है। दुनिया के किसी भी वास्तु ग्रन्थ में साउथ- वेस्ट में मास्टर बैडरूम का प्रस्ताव नहीं है, बल्कि शयन कक्ष के लिए उचित स्थान दक्षिण दिशा ही बताया गया है। नैऋत्य कोण में शयन कक्ष की भ्रांति व्यापक रूप से फैली हुई है।

वास्तुशास्त्र महाधनी बना सकता है- वास्तु शास्त्र की मदद से सफलता तो मिलती है परन्तु महाधनी बन जाने की कल्पना अनुचित है। वास्तुशास्त्र प्रारब्ध को नहीं बदल सकता। हाँ, जन्म पत्रिका की सामर्थ्य के अनुरूप सफलता अवश्य दिला सकता है। अर्थात् किसी के जीवन में जन्म पत्रिका प्रदत्त सफलता नहीं मिल पा रही है, कोई रुकावट है, तो वास्तुशास्त्र की  मदद से उस रुकावट को दूर करके सफलता का प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। जो लोग अनुचित दावे करते हैं, वे शास्त्र के विरुद्ध जाकर कार्य करते हैं।

गोमुखी प्लॉट अच्छा होता है - गोमुखी प्लॉट या मकान केवल तभी अच्छा होता है, जब गोमुख दक्षिण या पश्चिम की तरफ हो। उसमें भी एक शर्त यह है कि यदि ईशान कोण बढ़ा हुआ होगा, तभी शुभ है अन्यथा बाकी हर कोण का विस्तार अशुभ सिद्ध होता है। शास्त्रीय दृष्टि से तो गोमुख का सिद्धान्त अधिकांश मामलों में गलत ठहरता है।

यंत्र या खिलौनों से समृद्धि बढ़ती है-  श्रीयंत्र या कुबेर यंत्र या बीसा यंत्र समृद्धि लाते हैं, ऐसी धारणा है। परन्तु बाजार से खरीदे हुए ऐसे यंत्र यदि सीधे ही पूजा कक्ष में रख दिये जायें तो वे निष्फल हैं और शो पीस से अधिक कुछ भी नहीं। यंत्रों की पर्याप्त पूजा की जाये, उन्हें अभिमंत्रित किया जाए और उनकी दैनिक आधार पर पूजा-उपासना होती रहे, तभी वे फल देने की स्थिति में आते हैं, अन्यथा उनका पूजा घर में रखा जाना निरर्थक सिद्ध होता है।

पड़ौसी ने बड़ा और ऊँचा मकान बना लिया तो आपके लिए अशुभ है- यह कोरी भ्रांति है और यह सच नहीं, आपके वास्तु पुरुष केवल आपके मकान में ही स्थित हैं, क्योंकि आपने उसका भुगतान किया हुआ है। आपके घर से बाहर उस  व्यक्ति का अधिकार है, जिसने उस स्थान का भुगतान किया है और उसके वास्तु पुरुष भी अलग ही हैं, इसलिए पड़ौसी के मकान का ऊँचा या नीचा होना आपको किसी भी रूप में प्रभावित नहीं करता है।

नदी में सिक्के फैंकने या कपड़ा बहाने से कोई लाभ हो जाएगा - छोटे-मोटे उपायों से देवता प्रसन्न नहीं होते। कुछ आधुनिक शास्ति्रयों ने छोटे - छोटे बहुत सारे किस्से फैला दिये हैं, वह सब शास्त्र सम्मत नहीं है और छोटे-छोटे इलाज बड़ा परिणाम लाने में समर्थ नहीं है। गत जन्मों के बहुत सारे कर्मों के कारण हम इस जन्म में दुःख पाते रहते हैं। इसीलिए वैदिक उपाय थोड़ा सा जटिल है, परन्तु पाप कर्मों का क्षय उन्हीं से होना सम्भव है। छोटे उपाय बहुत बड़े और बुरे संचित कर्मों को क्षय नहीं कर सकते।

वास्तु शास्त्र का सही मतलब एक भूखण्ड में या फ्लैट में वास्तु चक्र में उपस्थित सभी देवताओं की उपस्थिति व प्रसन्नता से है। हमारे शास्त्रों का उल्लंघन करके भी फेंगशुई का आइटम या पिरामिड जैसी चीजें वास्तुशास्त्रीय उपाय बताकर प्रयोग में लायी जा रही हैं। यह सब देवताओं को प्रसन्न नहीं कर पाते, बल्कि ब्रह्मा जी की आज्ञा के अनुसार वास्तु पुरुष की इच्छा का ध्यान रखते हुए या शास्त्रीय उपाय करके जो सुधार किया जाता है, वही परिणाम लाता है। बाजारू उत्पाद जीवन में सफलता नहीं लाते। बल्कि श्रीयंत्र जैसा वैदिक उपाय भी अभिमंत्रित किये जाने के बाद ही फल देता है।

दक्षिणमुखी भूखण्ड बुरे होते हैं-  यह भ्रांति है कि दक्षिण मुखी दिशा के भूखण्ड बुरे होते हैं। देखा जाये तो दिशाओं का निर्णय मनुष्य ने ही किया है, ईश्वर ने नहीं। वैदिक ऋषियों ने सभी दिशाओं को शुभ माना है, यदि उन दिशाओं से सम्बन्धित उपाय शास्त्र सम्मत तरीके से किया जाए। मैं कई बड़े घरानों को जानता हूँ, जिनके बड़े-बड़े कारखाने दक्षिणी-मुखी हैं और वे लाभ कमा रहे हैं।

भूमि पूजन भूखण्ड के कोने में - कई कर्मकाण्डी पण्डित भूखण्ड के किसी भी कोने में पंचांग से निर्णय लेकर भूमि पूजन करवा देते हैं। वे पंचांग की मदद तो लेते हैं परन्तु कम्पास की मदद नहीं लेते। बाद में जब कभी कोई वास्तुशास्त्री जाता है तो पाता है कि दिशाओं के कोण तो किसी और स्थान पर हैं और पाये की स्थापना गलत स्थान पर हो गई है। अगर भूखण्ड की बाहरी दीवारों के मध्य से दिशाएँ नहीं निकलती हों और भूखण्ड विदिशा या बदगुणिया हो तो वास्तु चक्र भी उसी के अनुरूप स्थापित किया जायेगा और दिशाओं के कोण भूखण्ड के कोण से अलग स्थान पर नजर आएंगे। ज्योतिषियों का एक बहुत बड़ा वर्ग यह गलतियाँ कर रहा है, परिणामतः मकान सफल सिद्ध नहीं होते। अतः दिशाओं का निर्णय कम्पास की मदद से ही किया जाना चाहिए।

दक्षिण में ऊँचाई बढ़ाने के लिए झण्डा लगाना - बहुत सारे लोग दक्षिण दिशा की ऊँचाई बढ़ाने के लिए लम्बे बाँस में एक झण्डा लगा देते हैं या हनुमान जी का झण्डा लगा देते हैं। यह भ्रान्त धारणा है। यह भी भ्रान्त धारणा है कि दक्षिण की बाउण्ड्री वॉल ऊँची करने से ही मकान की ऊँचाई बढ़ जाएगी। ऊँचाई का निर्णय ब्रह्म स्थान से दक्षिण में बनी हुई रचनाओं से किया जाना चाहिए, न कि दक्षिण दिशा की बाहरी बाउण्ड्री वॉल से। हम देवताओं या वैदिक उपायों को धोखा नहीं दे सकते।

मकान का पिछवाड़ा भारी होना चाहिए- यह पुरानी कहावत है परन्तु यह तब प्रचलन में आई जब वास्तुशास्त्री दक्षिण और पश्चिममुखी मकान नहीं बनने देते थे, क्योंकि दक्षिणमुखी या पश्चिममुखी मकानों में व्यवसायिक वृत्ति आ जाती है। शास्त्री घर से व्यवसाय नहीं चाहते थे। वे पूर्व दिशा और उत्तर दिशा को हमेशा ही खाली रखना चाहते थे, जिसकी पूर्ति लॉन इत्यादि बनाने से हो जाती थी। परन्तु अगर दक्षिण या पश्चिममुखी मकान हो तो फिर पिछवाड़ा नहीं अगवाड़ा ही भारी होना चाहिए। इससे फ्रंट एलिवेशन भी सुधर जायेगा।

श्वेतार्क गणपति

सफेद आकड़े की जड़ में प्राकृतिक रूप से गणेश जी की आकृति बन जाती है। संस्कृत में आकड़े को मदार कहते हैं। जब मदार वृक्ष पुराना हो जाता है तो कई बार 10-12 फीट तक ऊँचाई जाती है और तना भी मोटा हो जाता है। आकड़े का दूध विषाक्त होता है। आकड़े के फल पकने पर जब फट जाते हैं तो उसमें से रूई निकलती है।

विष होने के कारण आकड़े का दूध आँखों को बहुत नुकसान पहुँचा सकता है। परन्तु प्रतिविष दवाएँ बनाने में आयुर्वेदाचार्यों ने आकड़े को खूब काम में लिया है।

शिवजी की पूजा में मदार के पुष्प चढ़ाये जाते हैं। जिस मदार को पशु भी नहीं खाते, उसे अर्पण करने से शिवजी प्रसन्न होते हैं। नीले या काले रंग के पुष्प बहुतायत से मिलते हैं। सफेद अर्क या सफेद आकड़ा तंत्र शास्त्र में बहुत प्रयोग में लाया गया है। श्वेत अर्क के फूल बैंगनी रंग के ना होकर बिल्कुल सफेद होते हैं और पत्ते भी गहरे रंग के ना होकर सफेदी लिये हुए होते हैं। श्वेतार्क में पुष्प तो बहुत अधिक होते हैं परन्तु फल की संख्या अधिक नहीं होती। श्वेतार्क गणेशजी को भी बहुत प्रिय है।

श्वेतार्क की जड़ में गणेश जी का वास होता है और उनका दैनिक पूजन करना प्रचलन में रहा है। लोग भ्रांतिवश घर में श्वेतार्क का पौधा ही लगा लेते हैं जबकि वास्तुशास्त्र में इसकी मनाही है। हाँ, श्वेतार्क गणपति अवश्य शुभ माने गये हैं परन्तु वह जड़ विधानपूर्वक तंत्र-मंत्र के प्रयोग के साथ प्राप्त की जाए और विधान के साथ ही घर में स्थापना पूजा हो तो फिर सफलता प्रदान करती है। आमतौर से 20-25 वर्ष पुराने श्वेतार्क की  जड़ से ही गणपति की आकृति अच्छी बनती है। यह जड़ के अंत में होती है। स्वास्थ्य, सुरक्षा, वशीकरण, काम्यप्रयोग, स्तम्भन और लाभ प्राप्ति के लिए श्वेतार्क मूल का प्रयोग किया जाता है। कहते हैं कि घर के बाहर यदि श्वेतार्क पौधा हो तो नजर-टोना, आधि व्याधि और तंत्र प्रयोग से मकान की रक्षा होती है। रविपुष्य में श्वेतार्क गणपति को घर में लाना बड़ा शुभ माना गया है। गुरु पुष्य को भी शुभ माना गया है।

बालकों की अधिष्ठात्री देवी षष्ठी

पुराणों में षष्ठीदेवी बालकों की अधिष्ठात्री देवी मानी गयी है। नवजात शिशु के जन्म के छठे दिन जिस देवी के पूजन की परम्परा है, वे षष्ठी देवी हैं। लोकभाषा में इसे नवजात शिशु का छठी महोत्सव भी कहते हैं। मूल प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण ये षष्ठी देवी कहलाती हैं। इन्हें विष्णुमाया और बालदात्री भी कहा जाता है। मातृकाओं में ये देवसेना नाम से प्रसिद्घ हैं। स्वामिकार्तिकेय की पत्नी होने का सौभाग्य इन्हें प्राप्त है। बालकों को दीर्घायु बनाना तथा इनका भरण-पोषण एवं रक्षण करना इनका स्वाभाविक गुण है। अपने आराधकों की सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली ये सिद्घयोगिनी देवी अपने योग एवं प्रभाव से बच्चों के पास सदा विराजमान रहती हैं।

स्वायम्भुव मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत के मृत बालक उत्पन्न होने पर उस मृत बालक को लेकर श्मशान में गये और पुत्र को छाती से चिपकाकर दीर्घ स्वर से रोने लगे। इतने में उन्हें वहां एक दिव्य विमान दिखायी पड़ा। उसमें से एक देवी प्रकट हुईं। रत्नमय आभूषण उनकी छवि बढ़ाये हुये थे। योगशास्त्र में पारङ्गत वे देवी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए आतुर थीं। ऐसा जान पड़ता था मानो वे मूर्तिमती कृपा ही हों। उन्हें सामने विराजमान देखकर राजा ने बालक को भूमि पर रख दिया और बड़े आदर के साथ उनकी पूजा-स्तुति की। उन्हें प्रसन्न देखकर राजा ने उनसे परिचय पूछा।

भगवती देवसेना ने कहा -राजन्, मैं ब्रह्मा की मानसी कन्या हूँ। जगत् पर शासन करने वाली मुझ देवी का नाम देवसेना है। विधाता ने मुझे उत्पन्न करके स्वामि कार्तिकेय को सौंप दिया है। मैं सम्पूर्ण मातृकाओं में प्रसिद्घ हूँ। भगवती मूलप्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने के कारण विश्व में देवी षष्ठी नाम से मेरी प्रसिद्घि है। मेरे प्रसाद से पुत्रहीन व्यक्ति सुयोग्य पुत्र, प्रियाहीन जन प्रिया, दरिद्र धन तथा कर्मशील पुरुष कर्मो के उत्तम फल प्राप्त कर लेते हैं। राजन्, सुख-दुःख, भय, शोक, हर्ष, मङ्गल, सम्पति और विपत्ति- ये सब कर्म के अनुसार होते हैं। अपने ही कर्म के प्रभाव से पुरुष अनेक पुत्रों का पिता होता है और कुछ लोग पुत्रहीन भी होते हैं। किसी को मरा हुआ पुत्र होता है और किसी को दीर्घजीवी- यह कर्म का ही फल है। गुणी, अङ्गहीन , अनेक पत्नियों का स्वामी, भार्यारहित, रुपवान, रोगी और धर्मी होने में मुख्य कारण अपना कर्म ही है। कर्म के अनुसार ही व्याधि होती है और पुरुष आरोग्यवान् भी होता है। अतएव राजन् कर्म सबसे बलवान है।

इस प्रकार कहकर देवी षष्ठी ने उस बालक को उठा लिया और अपने महान् ज्ञान के प्रभाव से खेल-खेल में ही उसे पुनः जीवित कर दिया। राजा ने देखा-सुवर्ण के समान प्रतिभावान् वह बालक हँस रहा है। अभी महाराज प्रियव्रत उस बालक की ओर देख ही रहे थे कि देवी देवसेना उस बालक को लेकर आकाश में जाने को तैयार हो गयी। यह देख राजा के कण्ठ, ओष्ठ और तालु सूख गये, उन्होंने पुनः देवी की स्तुति की। तब संतुष्ट हुई देवी ने राजा से कहा-

राजन् तुम स्वायम्भुव मनु के पुत्र हो। तीनों लोकों में तुम्हारा शासन चलता है। तुम सर्वत्र मेरी पूजा कराओ और स्वयं भी करो। मै तुम्हें कमल के समान मुखवाला यह मनोहर पुत्र प्रदान करुंगी। इसका नाम सुव्रत होगा। यह सर्वगुणसम्पन्न होगा तथा इसमें समस्त विवेकशक्तियां विद्यमान रहेंगी। यह भगवान नारायण का कलावतार तथा प्रधान योगी होगा। इसे पूर्वजन्म की बातें याद रहेंगी। क्षत्रियों में श्रेष्ठ यह बालक सौ अश्वमेध यज्ञ करेगा। सभी इसका सम्मान करेंगे। उत्तम बल से सम्पन्न होने के कारण यह ऐसी शोभा पायेगा, जैसे लाखों हाथियों में सिंह। यह धनी, गुणी, शुद्घ विद्वानों का प्रेमभाजन तथा योगियों, ज्ञानियों एवं तपस्वियों का सिद्घरुप होगा। त्रिलोकी में इसकी कीर्ति फैल जायेगी।

इस प्रकार कहने के पश्चात् भगवती देवसेना ने उन्हें वह पुत्र दे दिया। राजा प्रियव्रत ने पूजा की सभी बातें स्वीकार कर लीं। यों भगवती देवसेना ने उत्तम वर दे स्वर्ग के लिये प्रस्थान किया। राजा भी प्रसन्न-मन होकर मन्ति्रयों के साथ अपने घर लौट आये।

अप्रयोज्य-प्रयोज्य

शासनाधिकारियों के, राजनीतिकों, नगर श्रेष्ठियों या साधारण जन के घर में हर चीज को प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। शास्त्रों में हर वस्तु का या चित्र का विश्लेषण किया गया है, उनमें से कुछ विषयों का उल्लेख इस लेख में किया जाता है।

सभी देवताओं को प्रयोज्य नहीं माना है। दैत्य, ग्रह, तारा गंधर्व, राक्षस, पिशाच, पितर, प्रेत, सिद्ध पुरुष, विद्याधर, नाग, चारण, भूतों का कुल व उनकी स्ति्रयां और पुत्र, उनके शस्त्र और अस्त्र व सभी अप्सराओं के गण इत्यादि के चित्र  या मूर्तियां इत्यादि भवन में प्रयोज्य या प्रशस्त नहीं माने गए हैं।

दीक्षित, वृती, पाखण्डी, नास्तिक, क्षुधा से व्याकुल, व्याधि, बंधन, शस्त्र, अग्नि, तैल, रुधिर, कीचड़, धूल, शूल और ज्वर से पीड़ित लोग, मत्त, उन्मत्त, जड़, नपुंसक, नंगे, अंधे और बहरे भी घर में चित्र, मूर्ति या साक्षात व्यक्ति प्रशस्त नहीं माने गए हैं। हाथियों का ग्रहण, महाभारत जैसे संग्राम, देवासुर जैसे संग्राम व युद्ध के दृश्य भी प्रशस्त नहीं माने गए हैं।

प्राणियों का युद्ध, उनका विमर्दन या शिकार भी प्रशस्त नहीं मानी गई है। रौद्र, दीन, अद्भुत, त्रास, वीभत्स और करुण रस भी प्रशस्त नहीं माने गए है। भवन के अलंकरण में हास्य और शृंगार रस ही शुभ माने गए हैं, अन्य रस शुभ नहीं माने गए हैं। आंतरिक सज्जा में या भित्ति चित्रों में शृंगार रस की प्रधानता शुभ मानी गई है परंतु प्रणय दृश्य अंतःवास में ही शुभ माने गए हैं, सार्वजनिक स्थानों में अशुभ माने गए हैं।

वन, पुष्प फल से रहित वृक्ष, पक्षियों के रहने से दूषित वृक्ष, केवल एक या दो शाखाओं वाले वृक्ष, रूखे, टूटे, सूखे हुए, खंडित और कोटर (पक्षियों के रहने का स्थान) वाले वृक्ष के साथ-साथ कदम्ब, शाल्मली, शैलु, तार, क्षार आदि वृक्ष भी भूतों के निवासियों के माने जाने के कारण शुभ नहीं माने गए हैं। कड़वे और कांटेदार वृक्ष भी प्रशस्त नहीं माने गए हैं। गिद्ध, उल्लू, कबूतर, बाज, कौआ और कंक आदि पक्षी भी अशुभ माने गए हैं। जो पक्षी रात्रि में जागते हैं, उन्हें भी भवन में शुभ नहीं माना है। हाथी, घोड़ा, भैंस, ऊंट, बिल्ली, गधा, बंदर, सिंह, व्याघ्र, सुअर, हिरन व सियार आदि पक्षी शुभ नहीं माने गए हैं।

परंतु कुछ वस्तुएं ऐसी है, जिनका प्रयोग घर में शुभ माना गया है। इष्टदेवता का एक हाथ तक का चित्र शुभ माना गया है। भवन के दरवाजों के दोनों तरफ दो अलंकृत प्रतिहारों का चित्र या मूर्ति बनाना चाहिए। दोनों प्रतिहार या रक्षक बेंत की छड़ी हाथ में लिए हों, तलवार और म्यान को धारण किए हों। रूप और यौवन से युक्त तथा अलंकृत वस्त्राभूषणों से सजे प्रतिहार शुभ माने गए हैं। बड़े भवनों में यह फैशन अब पुनः लौटने लगा है।

अपने अनुरूप शंख और कमल से चित्र मुख से निकलते हुए रत्न और अशर्फियों के ढेरों को धारण करते हुए खजाने भी शुभ माने गए हैं। इसी भांति पद्म पर बैठी हुई पूर्ण कुंभ वाली रत्न और वस्त्रों से विभूषित टेढे एवं ऊंचे उठे हुए पुष्प, फल और पत्तों से भरे हुए पूर्ण कुंभ, अंकुश, छत्र, बिल्ववृक्ष, आदर्श अर्थात शीशा और शंख और मछलियों की मालाओं से अलंकृत अष्टमंगला गौरी से द्वार को सुशोभित करना प्रशस्त माना गया है।

पिंजरे में बैठे हुए चकोर, तोते, सारिकाएं, कोयल, मयूर और मुर्गी भी शुभ बताए गए हैं। ये जीवित या मूर्ति रूप में भी शुभ माने गए हैं।

किन नक्षत्रों में गया हुआ धन वापस नहीं मिलता

गुन पू गुन बि अज कृ मू गुनु साथ।

हरो धरो गाड़ो दियो धन फिरि चढ़इ हाथ।।

ऊ से आरम्भ होने वाले तीन नक्षत्र (उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा व उत्तराभाद्रपद), पू से आरम्भ होने वाले तीन नक्षत्र (पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद), वि (विशाखा), अज (रोहिणी), कृ (कृत्तिका), म (मघा), आ (आर्द्रा), भ (भरणी), अ (आश्लेषा) और मू (मूल) को भी इन्हीं के साथ समझ लो- इन चौदह नक्षत्रों में हारा हुआ, चोरी गया हुआ, धरोहर रखा हुआ, गाड़ा हुआ तथा किसी को दिया हुआ धन फिर लौटकर नहीं आता।

रेकी

रेकी एक जापानी शब्द है। रे का अर्थ है ईश्वरीय सृष्टि (ब्रह्माण्ड) की का अर्थ है प्राण स्पर्श जीवन शक्ति। हमारे शास्त्रों में इसका वर्णन प्राण शक्ति, चेतना शक्ति व दिव्य शक्ति के रूप में किया गया है। रेकी ब्रह्माण्ड में अकूट मात्रा में उपलब्ध है। यह शक्ति ही सब जीवों का निर्माण व संचार करती है। रेकी कोई नया धर्म नहीं है। इसके अभ्यास के लिए हमें अपना धर्म छोड़ने या बदलने की आवश्यकता नहीं है, अपितु रेकी के अभ्यास से आध्यात्मिक विकास अपने आप ही हो जाता है।

यह पद्धति भारतीय शास्त्रों से मिली है। डा०निकाऊ ऊशई ने उन्नीसवीं शताब्दी में हमारे ही संस्कृत शास्त्रों से इस पद्धति के रहस्य की खोज की और इसके बाद उन्होंने रेकी द्वारा सैकड़ों दुखी और पीड़ित लोगों का सफलतापूर्वक उपचार किया। इस प्रकार इस हजारों वर्ष पुरानी उपचार पद्धति का पुनर्जन्म हुआ।

सभी चाहते हैं कि वह आनन्दित, तंदुरुस्त और शक्तिशाली हों। मनुष्यों में आत्मविकास करने की इच्छा तो होती है लेकिन किसी कारणवश हम इसमें पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाते हैं। हम सभी जानते हैं कि खाना खाने से हमें ताकत मिलती है, लेकिन कम लोग जानते हैं कि जो प्राण शक्ति ब्रह्माण्ड में अपार है, उसे हम अपने फेफड़ों द्वारा लगभग 33 प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं, जिस कारण हमारे शरीर में प्राण शक्ति की लगभग 67 प्रतिशत कमी रहती है।  दूसरी तरफ हमारे शरीर पर तीन प्रकार के सतत् आक्रमण हो रहे हैं

1. वातावरण में बढ़ता हुआ प्रदूषण

2. खाने-पीने में अनियंत्रण व अनियमितता

3. जीवन के बढ़ते तनाव

एक ओर जो प्राण शक्ति श्वासों द्वारा हमारे शरीर में जा रही है, उसकी मात्रा में गिरावट और दूसरी ओर हमारे  शरीर पर बढ़ते हुये तनाव, इस कारण हम अपने आप को अशक्त व कमजोर महसूस करते हैं और विभिन्न बीमारियों की पकड़ में आ जाते हैं।

अभी तक हमारे पास स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम,योगा, प्राणायाम और ध्यान जैसे मार्ग थे परन्तु इनमें से किसी भी मार्ग पर नियमित चलना आसान नहीं है क्योंकि हमारे पास समय, साथ, साज-सामान और उचित मार्ग दर्शन की हमेशा ही कमी रहती है। जब हमें यह अहसास होता है कि हमें अपनी सेहत की ओर ध्यान देना चाहिए था, तब तक हमें एसीडिटी, ब्लड प्रेशर, अस्थमा, डायबिटीज, पीठ-कमर व जोड़ों के दर्द जैसी एक या अधिक बीमारियों का शिकार हो चुके होते हैं।

रेकी इन शारीरिक और मानसिक तकलीफों से मुक्ति पाने का एक सरल व सहज मार्ग है। स्वस्थ रहने के दूसरे मार्गों से रेकी निम्नलिखित रुप में उच्चतर हैः-

1. रेकी से स्वस्थ रहने का एक बहुत ही आसान तरीका है कि हमें रेकी के अभ्यास के दौरान किसी कठिन मुद्रा में बैठने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

2.  रेकी अभ्यास के लिए किसी विशेष वातावरण, जगह, साज-सामान व साथ की जरुरत नहीं है।

3. रेकी खाना खाने के बाद भी की जा सकती है।

4. रेकी द्वारा हम अपने साथ दूसरों का भी उपचार कर सकते हैं।

5. रेकी उन व्यक्तियों को भी आसानी से सिखाई जा सकती है जो अधिक बीमारी के कारण बिस्तर पकड़े हुये हैं।

6. रेकी चैनल बनने के लिए किसी विशेष मानसिक क्षमता व निपुणता की आवश्यकता नहीं है। छः वर्ष की आयु से अधिक कोई भी व्यक्ति रेकी सीख सकता है।

हमारे शरीर को हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वस्थ रखता है। तनावों के कारण यह क्षतिग्रस्त व कमजोर पड़ जाता है, इस कारण हम विभिन्न बीमारियों के शिकार हो जाते हैं और बुढ़ापा भी जल्दी आ जाता है।

हमारे प्रतिरक्षा तंत्र का नियंत्रण अंतःस्रावी ग्रंथियाँ द्वारा बनाये गये विभिन्न हार्मोन्स करते हैं। इन्हीं हार्मोन्स द्वारा शरीर के अन्य क्रियाओं का भी नियंत्रण होता है, जैसे सांस लेना, खाना पचाना, तापमान संतुलित करना, बीमारियों से लड़ना इत्यादि। आधुनिक  वैज्ञानिक खोज यह भी सिद्ध कर चुकी है हार्मोनल ट्रीटमेंट द्वारा उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को रोका जा सकता है। रेकी भी इसी प्रकार से काम करती है लेकिन शरीर में प्राण शक्ति बढ़ाकर। प्राणशक्ति के शरीर में बढ़ने से हमारे अंग और प्रणाली के कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है और वे स्वस्थ व तंदुरुस्त हो जाते हैं। अंतःस्रावी ग्रंथियाँ के कार्य करने की क्षमता भी बढ़ जाती है फलस्वरुप हार्मोन्स का संतुलन अपने आप ही, बिना दवाओं के स्थापित हो जाता है।

रेकी द्वारा हमारा मन शांत व स्थिर तो हो ही जाता है और साथ ही नकारात्मक विचार भी आने बंद हो जाते हैं। इससे भी हमारा प्रतिरक्षा तंत्र और भी बलवान व शक्तिशाली होता जाता है। जिस कारण से हम एक लम्बा, सुखद और स्वस्थ जीवन व्यतीत कर पाते हैं।