विष्णु अवतारों का समय और डार्विन का विकासवाद
पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर

भारतीय वाङ्गमय में भगवान विष्णु के 10 अवतारों की चर्चा आती है। मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुध ये 9 अवतार हो चुके हैं और कलियुग में कल्कि अवतार होना शेष है। प्रथम महायुग में मत्स्य, कूर्म और वराह अवतार हुए। इसे सत्ययुग या कृतयुग कहा जाता है। त्रेता युग में नृसिंह और वामन अवतार हुए।

इसी में भगवान राम हुए और अंशावतार के रूप में परशुराम हुए। कृष्ण और बलराम द्वापर युग में आए। भागवत पुराण के अनुसार कलियुग के अंत में भगवान कल्कि का अवतार होना है। कुछ लोगों ने तरह-तरह के भ्रम उत्पन्न किए हैं परन्तु शास्त्रों में कलियुग के अंत में ही कल्कि अवतार होना बताया है। चूंकि उन्हें घोड़े पर सवार और तीर -कमान लिए हुए तथा तलवार हाथ में लिये हुए बताया गया है तो इसका अर्थ यह है कि पृथ्वी पर एक विनाश हो चुका होगा। 


डार्विन ने जो विकासवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार सभी जीवों की उत्पत्ति पहले एक कोषीय, फिर द्विकोषीय से होती-होती, बहुकोषीय जीवों के रूप में हुई है और आधुनिक काल में जितने भी जीव हैं, वे उन्हीं से विकसित हुए हैं।

अतः पहले बैक्टीरिया, बाद में शैवाल जैसी वनस्पतियों तथा फिर चलने वाले जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति हुई और जीव जगत आधुनिकतम स्थिति में आकर पहुँचा है। डार्विन सहित अन्य वैज्ञानिकों ने जीव विकास क्रम का जो समय बताया है, वह बहुत ज्यादा पुराना नहीं है, परन्तु अन्य वैज्ञानिकों ने, जिनमें भारत के प्रो. बीरबल साहनी भी हैं, पूरे वनस्पति विज्ञान में अद्भुत खोज की और वनस्पतियों के विकास क्रम पर नई धारणाएँ उपस्थित की। स्वीडन के वैज्ञानिकों ने तो भारत में शैवाल और वनस्पतियों की बहुलता का जो समय बताया है, वह आश्चर्यजनक रूप से 1.6 अरब वर्ष पूर्व बताया है और उसका स्थान चित्रकूट के आसपास ही है। 


भारतीय ऋषियों ने जो विवरण दिए हैं, उसके अनुसार डार्विन के सिद्धान्त से बहुत पहले ही जीव विकास क्रम को अवतारों के विकासक्रम के रूप में खोजा जा सकता है। जब पृथ्वी पर कभी मछलियों का ही राज रहा होगा, उस समय भगवान ने मत्स्य अवतार के रूप में जन्म लिया। जब समुद्री जीवों का कुछ और विकास हुआ होगा तथा वे स्थल पर चलने लगे होंगे, जैसे कि कछुआ, तो भगवान कूर्म अवतार के रूप में प्रकट हुए। जीवों का विकासक्रम कुछ आगे बढ़ा होगा और समुद्री जीव निकलकर पृथ्वी पर स्वतंत्र विचरण करने लगे होंगे और उनकी बहुत सारी जातियाँ उत्पन्न हो गई होंगी, तब भगवान ने वराहअवतार लिया होगा।

मगरमच्छ, गिरगिट, छोटे से लेकर बड़ी छिपकलियाँ तथा सम्भवतः डायनोसोर का राज जब पृथ्वी पर चल रहा होगा, तब भगवान विष्णु ने उनके अनुरूप ही वराह अवतार लिया होगा। इस समय पृथ्वी पर अण्डे के रूप में और शरीर सहित जन्म लेने वाले जीव पृथ्वी पर आ चुके थे।

जीव जगत के विकासक्रम में अगली पीढ़ी उन जीवों की थी जो बिल्ली से लेकर शेर तथा वानर, अन्य जीव -जन्तु, पृथ्वी पर आ चुके थे। उनकी आबादी बहुत अधिक हो गई थी और चौपायों दो पायों का अस्तित्व पृथ्वी पर आ चुका था। नृसिंह अवतार के रूप में भगवान का आना इस बात की पुष्टि करता है। इसके बाद भगवान विष्णु ने कभी भी अन्य जीवों के रूप में अवतार नहीं लिया बल्कि मनुष्य योनि में ही जन्म लिया। वामन अवतार, भगवान राम, कृष्ण और बुध का अवतार, मनुष्य के रूप में ही हुआ, अर्थात् इन अवतारों के समय पृथ्वी पर मनुष्यों का ही राज था और उन्होंने बाकी समस्त जीव जगत पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। 


वस्तुतः डार्विन ने कुछ भी नया नहीं दिया है। जैव विकास क्रम के संकेत तो भारतीय वाङ्गमय और पुराणों में पहले से ही उपलब्ध हैं। ऋषियों को नई शोध को अपने नाम करवाने या पेटेन्ट करवाने की आवश्यकता नहीं थी। अगर पुराणों में लिखित वर्णन देखे जाएं तो जैव विकास क्रम उनके छिपा हुआ है। 


शास्त्रों में 84 लाख योनियों का उल्लेख आता है। अगर 84 लाख योनियों का अस्तित्व है तो यह डार्विन के विकासवाद को चुनौती भी है कि सभी योनियाँ मानव या उससे भी अधिक उन्नत योनि में विकसित क्यों नहीं हुई? सत्य तो यह है कि पृथ्वी पर प्रथम बार अस्तित्व में आया एक कोषीय जीव जो कि करीब 3.5 अरब साल पहले अस्तित्व में आया, यूकेरियोटिक कोशिकाओं का अस्तित्व 2 अरब वर्ष पहले माना जाता है। 80 करोड़ वर्ष पहले एक आनुवांशिक परिवर्तन ने कई तरह के बहुकोशीय जीवों के विकास का मार्ग खोल दिया। पिछले 50 करोड़ वर्षों में पौधे, कवक, रेंगने वाले जीव, पक्षी विकसित हुए। कई स्तनधारियों ने जन्म लिया। करीब 1.5 करोड़ वर्ष पहले और आधुनिक मानव अस्तित्व में आया ढाई लाख वर्ष पहले। मजेदार बात यह है कि एक कोशीय जीव से लेकर सभी बहुकोशीय जीव किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं। बहुत सारी प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं और उनके उन्नतस्वरूप अस्तित्व में आ गये। 


कितना भी कर लें, डार्विन का विकासवाद इससे पुरानी कोई भी तारीख नहीं बता सकता। परन्तु भारतीय वाङ्गमय हर कल्प में नई सृष्टि के जन्म और सभी योनियों के पुनः-पुनः जन्म और विकास की कथा कहता है। एक कल्प में 4 अरब 32 करोड़ वर्ष होते हैं और एक मनवन्तर में 30 करोड़ 68 लाख 20 हजार वर्ष होते हैं। एक कल्प में सतयुग से लेकर कलियुग के चतुर्युग जैसे एक हजार महायुग होते हैं। हमारा कलियुग तक भी 4 लाख 32 हजार वर्ष का है। वर्तमान कल्प का नाम वराह कल्प है।

इसी कल्प में विष्णु के अवतार हुए हैं। 7 चिरंजीवियों में से 1 हनुमान जी की आयु इस कल्प के अन्त तक बताई गई है। मजेदार बात तो यह है कि सृष्टि का एक कल्प ब्रह्मा के एक दिन के बराबर होता है और ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष बताई गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारे सूर्य और उनके परिवार की आयु ब्रह्मा के एक दिन के बराबर ही मानी गई है। अर्थात् ब्रह्मा के हर नये दिन में मनुष्य और जीव जातियाँ ही नहीं ग्रहों को भी दुबारा जन्म लेना पड़ेगा। 
चूंकि शास्त्र बार-बार नये ब्रह्माण्डों के जन्म और पुनः पुनः समस्त सृष्टि के विकास की बात कहते हैं अतः ऋषियों की दृष्टि चार्ल्स डार्विन की अपेक्षा बहुत अधिक उन्नत प्रतीत होती है। डार्विन के विकासवाद में एक ही कमी है कि अगर उसने मनुष्य का विकास बंदर से होना बताया है तो सारे बंदर मनुष्य क्यों नहीं हो गये। डार्विन 84 लाख योनियों के शास्त्र कथन को कभी समझ ही नहीं पाये। देर-सवेर वैज्ञानिक जगत को भारतीय दार्शनिकों के दिये गये निष्कर्षों पर आना ही पड़ेगा।

भारतीय दर्शन के बहुत सारे सिद्धान्त तो आधुनिक वैज्ञानिक मानने ही लगे हैं। इसकी पराकाष्ठा तब होगी जब आधुनिक विज्ञान भारतीय दर्शन में वर्णित सृष्टि की उत्पत्ति के दर्शन को पूरी तरह स्वीकार कर लेगा। हो सकता है यह बात हमारी अगली पीढ़ियों के समय में आये परन्तु यह होगा अवश्य।

पाया : जन साधारण की ज्योतिष
यदि जन्मपत्रिका में चन्द्रमा दूसरे, पाँचवें व नवें भाव में हो तो चाँदी के पाये में जन्म माना जाता है। इसमें जन्मा व्यक्ति धनी और गुणी होता चला जाता है। उसे सारे सुख प्राप्त होते हैं। नम्बर 2 पर ताँबे का पाया आता है, जब चन्द्रमा जन्म लग्र (प्रथम भाव) से तीसरे, सातवें और दसवें भाव में होता है। तीसरे नम्बर पर सोने का पाया माना जाता है। प्रथम भाव से एक, छः और ग्यारह भाव में चन्द्रमा हो तो सोने का पाया माना जाता है। तरह-तरह की परेशानियाँ, मुश्किल से जीवन-यापन और रोग आते रहते हैं। भारी परिश्रम करने से ही गुजारा होता है। यदि प्रथम भाव से चौथे, आठवें, बारहवें भाव में चन्द्रमा स्थित हो तो धन हानि, घाटा, दुर्घटना, अड़चनें, बार-बार आती रहती है और व्यक्ति परेशान रहता है। 


 
चाँदी के पाये वाले व्यक्ति बहुत भाग्यवान माने गये हैं, क्यों कि वे पुत्र, पौत्र आदि से सुखी रहते हैं, कुटुम्ब को जोड़े रखते हैं और अच्छा स्वास्थ्य और धन सम्पन्नता देखने को मिलती है।
28 तारीख को पुष्य नक्षत्र
कार्तिक मास में पुष्य नक्षत्र को अत्यंत शुभ माना गया है। कार्तिक कृष्ण सप्तमी 28 अक्टूबर को चन्द्रमा पुष्प नक्षत्र में रहेंगे। इनका समय वैसे तो 9.40 मिनट से लेकर 29 अक्टूबर को 11 बजकर 37 मिनट तक रहेगा, परन्तु कुछ मिनटों के अन्तर से सारे भारत में शुभ काम के लिए लाभ और अमृत के चौघड़ियों को काम में लिया जा सकता है। दिन में 12 बजकर 10 मिनट से लेकर 2 बजकर 55 मिनट तक लाभ व अमृत तथा शुभ का चौघड़िया शाम को 4 बजकर 22 मिनट से लेकर 5 बजकर 46 मिनट तक रहेगा। आगे रात्रि का अमृत चौघड़िया 1 बजकर 34 मिनट से लेकर 2 बजकर 58 मिनट तक रहेगा। 
विवाह और वास्तु के मुहूर्त्त को छोडकर बाकी शुभ काम इसमें किये जा सकते हैं।


शुक्र मुद्रिका (वलय)
    हस्त रेखा में लगभग अर्धवृत्ताकार आकृति को वलय को नाम से जाना जाता है। इसको मेखला या मुद्रिका के नाम से भी जाना जाता है। वलय बहुत कम जातकों के हाथ में पाए जाते हैं। जिन जातकों के वलय पाए जाते हैं उनमें भी प्रमुख है शुक्र वलय। शुक्र वलय का संबंध शुक्र पर्वत से नहीं है और न ही यह शुक्र पर्वत पर पाया जाता है तथापि शुक्र वलय का संबंध काम वासना से है और इसका कारक है शुक्र। अतः इसे शुक्र वलय का नाम दिया गया है। शुक्र मुद्रिका का हाथ में पाया जाना अच्छी बात नहीं है। शुक्र का संबंध ज्योतिष में विलासिता, भोग, ऐश्वर्य तथा काम भाव से जोड़ा है। सौदंर्यप्रियता, गंधर्व विद्या आदि का संबंध भी शुक्र से है। शुक्र का संबंध काम वासना से विशेष रूप से जोडा है परन्तु जब इस पर बुद्घि रूपी अंकुश लग जाता है तो यह गायन, कला एवं सौदंर्य के रूप में सामने आता है और एक कलाकार का बोध होता है।


    अतिविकसित शुक्र जातक को कामी, व्यभिचारी एवं विलासी बनाता है। इस पर बुद्घि का अंकुश यानि स्वस्थ व सबल मस्तिष्क  रेखा एवं सबल अंगूठे का पहला पोरा हो तो व्यक्ति संयमी हो जाता है। इसके विपरीत यदि अंगूठे का पहला पोरा कमजोर हो तथा सूर्य, गुरु कमजोर हो एवं द्वीपयुक्त हृदय रेखा एवं कमजोर व छोटी मस्तिष्क रेखा हो तो जातक शीघ्र ही पथभ्रष्ट हो जाता है।
 
    शुक्र वलय तर्जनी अथवा तर्जनी एवं मध्यमा के मध्य से लेकर कनिष्ठा अथवा कनिष्ठा व अनामिका के मध्य बनने वाली अर्ध चंद्राकार आकृति होती है। जो सूर्य, बुध, गुरु या शनि पर्वत की जड़ों को घेरे होती है। शुक्र वलय एक तरह से हृदय रेखा ही दूसरा रूप अथवा उसकी सहायक रेखा जैसा होता है। हृदय रेखा जातक की प्रेम, भावनाओं तथा मानसिक आवेगों को उजागर करने का कार्य करती है यह जैसे-जैसे अंगुलियों की जड़ों की तरफ उठती है अर्थात सूर्य, बुध तथा शनि क्षेत्रों को संकुचित करती है तो जातक में कामुकता, ईर्ष्या तथा प्रेम में दुराग्रह उत्पन्न करती है। शुक्र वलय की उपस्थिति हृदय रेखा की इसी स्थिति को प्रकट करती है तथा कामभावनाओं में वृद्घि करने का कार्य करती है।
    यह सब बातें तय करने में हाथ की बनावट एवं पर्वतों का सौष्ठव का भी महत्वपूर्ण हाथ होता है। तथा शुक्र क्षेत्र की स्थिति भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
    भारी एवं चौकोर हाथ तथा अति उन्नत शुक्र वाले जातक में शुक्र वलय कामभावना की अति बताता है। इसके विपरीत कमजोर एवं जाल युक्त पतले हाथ वाले जातक में शुक्र वलय ईर्ष्या, क्रोध एवं चिन्ता बताता है। ज्यादातर यह माना जाता है कि शुक्र वलय का होना काम वासना का द्योतक है परन्तु उपरोक्त हाथ वाली स्थिति में यह जातक के चिडचिड़ा होने तथा बात-बात पर गुस्सा होने को दर्शाता है।
    यदि शुक्र पर्वत दबा हुआ, कमजोर एवं चपटा हो तथा जीवन रेखा अत्यन्त कम गोलाई लेकर चले यानि शुक्र क्षेत्र को घेरकर अत्यन्त छोटा कर दे तथा रक्त की कमी हो अर्थात हाथ की रंगत सफेद सी हो एवं अंगुलियों के पर्व भी कमजोर हो तो यह शुक्र वलय केवल घबराहट एवं चिन्ता का द्योतक होगा।
    यदि जीवन रेखा काफी गोलाई लेकर चले यानि शुक्र क्षेत्र विस्तृत, पुष्ट व जालयुक्त हो, गहरी हृदय रेखा हो, अंगुलियों के तीसरे पोरे पुष्ट हो व शुक्र को मंगल भी सहयोग करें अर्थात मंगल भी पुष्ट हो तो यह शुक्र वलय उग्र कामवासना या व्यभिचार का लक्षण है। ज्योतिष में मंगल एवं शुक्र का संबंध ठीक नहीं माना गया है। मंगल उग्रता, रक्त का एवं शुक्र ऐन्दि्रक सुख का प्रतिनिधि है दोनों का मेल जातक में इस प्रकार के संबंधों में उग्रता एवं अति प्रदान करता है।
    यदि जातक का हाथ पतला, कमजोर हो तथा शुक्र मंगल क्षीण हो तथा शुक्र वलय मौजूद हो तो जातक की कल्पना शक्ति तो बली होती है लेकिन शारीरिक क्षमता कम होने के कारण जातक मानसिक रूप से कामविकार से ग्रस्त रहता है।
बहु शाखायुक्त या भग्न शुक्र वलय मूर्छा रोग प्रदान करता है। स्थान-स्थान से भग्न होने से मनुष्य लंपट हो जाता है। यदि यह वलय बृहस्पति क्षेत्र को भी घेर ले तो व्यक्ति ऐन्द्र जालिक और साहित्यिक हो जाता है। ऐसा उल्लेख शास्त्रों में  मिलता है। अखण्डित शुक्र वलय कामविकृति को प्रकट करता है। खण्डित शुक्र वलय से जातक काम विकार के कारण स्नायु रोग, हिस्टीरिया इत्यादि से ग्रसित हो जाता है। ऐसी स्थिति के साथ यदि मस्तिष्क रेखा भी क्रॉस, द्वीप या सितारे से युत हो जाए तो जातक के मानसिक रूप से विकृत हो जाने की संभावना रहती है।
चौघडिया
आज के इस भौतिक युग में किसी व्यक्ति के पास इतना समय नहीं है कि वह शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा कर सके। उसे प्रत्येक कार्य शीघ्रता  से करना होता है। इसलिए ऋषियों ने चौघडिया मुहूर्त का निर्माण किया। चौघडिया मुहूर्त के तहत एक दिन में तीन से चार तक शुभ मुहूर्त आ जाते हैं। जिनका उपयोग व्यक्ति स्वतंत्र रूप से मुहूर्त के अन्य पहलुओं को छोडकर कर सकता है। उसके लिए किसी पंडित जी या ज्योतिषी की सलाह लेना आवश्यक  नहीं है।
चौघडिया लगभग चार घटिका होता है इसलिए इसे चौघडिया या चतुर घटिका इत्यादि भी कहते हैं।
चौघडिया मुहूर्त कैसे देखें 
प्रत्येक वार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक रहता है जो 24 घंटे का समय है। एक दिन में 16 बार चौघडिया बदलता है। जिन्हें हम 8 दिन के व 8 रात्रि के चौघडिये के रूप में जानते हैं। चौघडिये का नामकरण मुख्य रूप से ग्रहों की प्रकृति के अनुसार ही हुआ है। शुभ ग्रह का शुभ व पापग्रह का चौघडिया अशुभ फल प्रद होता है। दिन या रात्रि का जो प्रथम चौघडिया होता है। अन्तिम या आठवां चौघडिया भी वही होता है अर्थात दिन व रात्रि में आठ चौघडिये होते हैं पर वह मुख्य रूप से सात ग्रहों के सत्त चौघडिये हैं क्योंकि प्रथम व अन्तिम चौघडिया समान है। ग्रहों की प्रकृति अनुसार चौघडिये निम्न प्रकार जाने जाते है :-
चर : चर का अर्थ चलायमान है। ग्रहों में सर्वाधिक तेज गति चन्द्रमा की है इसलिए इसे चद्रमा के साथ जोडा गया। यह मन की तरह चंचल भी इसलिए इसे चंचल जैसे अपर नाम से भी संबोधित किया गया।
लाभ : वैसे तो लाभ का संबंध प्रत्येक कार्य से है पर लाभ स्मरण होते ही सर्वप्रथम ध्यान किसी व्यापार का आता है। ज्योतिष में बुध वणिक (व्यापारी) कहा गया है। इसलिए लाभ को बुध ग्रह से जोडा गया।
अमृत : शुक्र दैत्यों के गुरु हैं जो हमेशा देवताओं से युद्घ करते रहते थें। पराजित होने पर अपने शिष्यों को अपनी संजीवनी विद्या से जीवित किया करते थे। सम्पूर्ण विश्व में संजीवनी विद्या के ज्ञाता शुक्राचार्य थे। संजीविनी को अमृत नाम से भी सम्बोधित किया जा सकता है। इसलिए अमृत का संबंध शुक्र से है।
शुभ : ज्योतिष में सर्वाधिक शुभ ग्रह गुरु को कहा जाता है। इसकी दृष्टि को अतिशुभ माना जाता है। इसलिए शुभ का संबंध गुरु से माना गया।
उद्वेग : उग्रता, अग्नि व क्रूर ग्रह के रूप में ज्योतिष में सूर्य को माना जाता है। इसलिए उद्वेग का प्रतिनिधित्व ग्रह सूर्य है।
रोग : मंगल पाप ग्रह इसका संबंध रोग से हो सकता है।
काल : काल स्वरुप, विकराल काले, दण्ड नायक शनि से काल का सीधा संबंध है। दण्डनायक शनि ज्योतिष में दण्ड देने का कार्य करते हैं। ये साढे साती के रूप में विख्यात है। बुरे कर्मो का प्रतिफल मिलता है। इसलिए जन साधारण में शनि खराब ग्रह माने गये हैं।
इस प्रकार विभिन्न चौघडियों का संबंध ग्रहों से है। वे अपनी प्रकृति के अनुसार फल देते हैं। 
शुभ फल प्रदाता - चर, लाभ, अमृत, शुभ
अशुभ फल प्रदाता - उद्वेग, रोग, काल
गणितीय व्याख्या के अनुसार लगभग डेढ घंटे का एक चौघडिया होता है। सम्पूर्ण दिन-रात 24 घंटे की होती है। 12 घंटे का दिन व 12 घंटे की रात्रि होती है। 12 घण्टे में 8 से भाग देने पर डेढ घण्टा आता है जो एक चौघडिया का समय होता है। इस प्रकार चौघडिये की गणना होती है। जब हम गहराई में जाए तो वास्तविक रूप से चौघडिया का मान निम्न प्रकार निकालना चाहिए। सम्पूर्ण दिन-रात का मान 60 घटि का होता है। पंचाग में दिन मान दिया होता है। उसमें 8 का भाग देने पर वास्तविक रूप से एक चतुर घटिका का मान प्राप्त होता है। 60 में से दिनमान को घटाने पर रात्रि मान प्राप्त होता है। उसमें 8 का भाग देकर प्रत्येक रात्रि चौघडिये को प्राप्त करते हैं ये वास्तविक मान होता है। क्योंकि सर्दी में रात बडी व दिन छोटे होते हैं। इसलिए रात्रि चौघडिया का मान बढ जाएगा, जबकि गर्मी में उल्टा होता है। दिन के चौघडिये का मान बडा व रात्रि चौघडिये का मान छोटा होता है। इसलिए शुद्घ चौघडिया प्राप्त करने के लिए दिनमान व रात्रिमान में उचित संस्कार करना चाहिए।
वास्तविक दिनमान व वास्तविक रात्रिमान से ही चौघडिया की गणना करना चाहिए।