33 कोटि देवताओं से बना है वास्तु चक्र  पं.सतीश शर्मा, एस्ट्रो साइंस एडिटर


शास्त्रों में जिन प्रमुख देवताओं को प्रधान माना गया है उनकी संख्या कुल मिलाकर 33 है। इन 33 में 12 तो आदित्य हैं, 11 रुद्र हैं, 8 वसु हैं, इन्द्र और प्रजापति हैं। कहीं-कहीं इन्द्र और प्रजापति के स्थान पर 2 अश्विनी कुमारों को लिया गया है जो कि सूर्य की परम्परा के ही हैं। चूंकि 33 कोटि (प्रकार) के देवता हैं, तो सामान्य जन में यह संदेश गया कि 33 करोड़ देवी-देवता हैं। 
12 आदित्य इस प्रकार हैं- अंशुमान, अर्यमा, इन्द्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, वैवस्वत और विष्णु। कहीं-कहीं इन नामों में हल्का सा परिवर्तन मिलता है। 
11 रुद्रों में मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव, धृतध्वज आते हैं। 
अष्ट वसु हैं - आप, धुव, सोम, धर, अनिल, अनल, पृत्यूष और प्रभास। 
वास्तु चक्र में इन्द्र और प्रजापति हैं ही। ब्रह्मा के रूप में सभी प्रजापतियों को ले लिया गया है। 
 
जिन ऋषियों ने वास्तुचक्र की रचना की, उन्होंने कोशिश की कि भारतीय वाङ्गमय में वर्णित सभी देवताओं को एक ही स्थान या चक्र में ले आया जाए। वे यह भी चाहते थे कि किसी भी भवन में सभी देवता उपस्थित रहें, उनका आह्वान किया जाये, स्थापना की जाये एवं उनके निमित्त बलि प्रदान की जाये, जो कि वास्तु शान्ति यज्ञ और अग्निकर्म के समय किया ही जाता है।   
कुछ देवताओं को अन्य रूपों में भी वास्तु चक्र में शामिल किया गया है। वैदिक देवताओं के 3 वर्गों में से द्युलोक के देवता सूर्य, सविता, मित्र, पूषा, विष्णु, वरुण और मित्र तथा अंतरिक्ष स्थानीय देवताओं में इन्द्र, वायु, मरुत और पर्जन्य तथा पृथ्वी स्थानीय देवताओं में अग्नि, सोम तथा पृथिवी को किसी न किसी रूप में वास्तु चक्र में स्थान दिया गया है। 


एक ही चक्र में अन्तरिक्ष व ब्रह्माण्ड दर्शन -
जिस प्रकार एक छोटे से आकार की जन्म पत्रिका को देखते-देखते ही उस समय की तमाम ग्रहों और नक्षत्रों की स्थितियों का चित्र सामने उभर कर आता है, इसी तरह से एक वास्तु चक्र में जन्म पत्रिका से भी अधिक आध्यात्म भूमि का निर्माण किया गया है। जन्म पत्रिका केवल ग्रह और नक्षत्रों को दर्शाती है। उसका कारण यह है कि उन देवताओं का प्रभाव सौर मण्डल या नक्षत्र मण्डल से ही आकलन किया गया है। परन्तु वे देवता जो भौतिक पिण्ड के रूप में नहीं है तथा समस्त भारतीय वाङ्गमय में जिनकी प्रशस्ति की गई है, उन्हें वास्तु चक्र के अन्तर्गत ले आया गया है। दोनों के उद्देश्य अलग-अलग हैं और जैसे ही हम एक अन्य चक्र सर्वतोभद्र चक्र की कल्पना करते हैं तो चित्रपट और भी अधिक विशाल स्वरूप धारण कर लेता है। 
वास्तुचक्र में जहाँ आदित्य, रुद्र, नाग तथा गंधर्व को समूह रूप में आमंत्रित किया गया है तो सर्वतोभद्र चक्र में स्त्री देवियाँ, अश्विनी कुमार, सभी ग्रह, नदियाँ, इन्द्राणी, रुद्राणी, ब्रह्माणी इत्यादि 57 देवताओं की गणना की गई है। मातृका, योगिनी, क्षेत्रपाल, नवग्रह मण्डल, वारुण मण्डल, सप्तयक्ष, अष्टकुल नाग, अप्सरायें, दक्ष आदि सप्तगण, मरुत्गण, सप्तगंगा, अष्टआयुध, सप्तऋषि, मातृकाएँ आमंत्रित की गई हैं। इन सब का आह्वान पूजा-पाठ में किया जाता है। 
वास्तु चक्र में एक विशेषता यह है कि उनमें वर्णित देवताओं को भूखण्ड में निश्चित स्थान दिया जाता है और वहीं पर उसकी स्थापना और बलि-विधान पूरा किया जाता है। एक धारणा यह भी है कि वास्तु चक्र या भूखण्ड के जिस स्थान पर कोई दोष उत्पन्न होता है तो उस स्थान के अधिपति देवता अपने चरित्र के अनुरूप ही परिणाम देते हैं। क्षेत्राधिकार पर आधारित यह अवधारणा अद्भुत और आश्चर्यजनक है। मंदिर स्थापनाओं के मूल में भी संभवतः यही  अवधारणा काम कर रही है। 
वास्तुशास्त्र के क्षेत्र में काम कर रहे कुछ लोग लापरवाही करते हुए मौखिक रूप से ही खड़े-खड़े कुछ उपाय बता देते हैं। अगर ऐसा करते समय वे किसी भी भूखण्ड पर वास्तुचक्र को स्थापित करके चक्र के देवताओं का क्षेत्राधिकार का ज्ञान नहीं करते और उनके क्षेत्र का निर्धारण नहीं करते हैं तो उनके द्वारा दी गई सलाह निष्फल हो जाती है। वास्तुचक्र एक अत्यधिक परिष्कृत वैज्ञानिक व्यवस्था है जिसमें अंतरिक्ष और भूगोल की सभी शक्तियों के प्रभाव को समाविष्ट किया गया है। देवता अपरिमित ऊर्जा के स्रोत हैं जिनमें किसी भी भांति का व्यतिक्रम आ जाये तो भवन में रहने वाले मनुष्य को पर्याप्त मात्रा में देवताओं की ऊर्जा या कृपा प्राप्त नहीं होती और जीवन में कोई न कोई कमी रह जाती है। 
कई लोगों के मन में देवताओं की संख्या को लेकर बड़ा संशय रहता है। एकेश्वरवाद की धारणा सत्य है परन्तु अन्य देवताओं की संख्या भी एक इतना बड़ा सत्य है जैसे कि एक देश में एक ही सम्राट हो परन्तु शासन चलाने के लिए बहुत बड़े मंत्रिमण्डल की आवश्यकता हो। जब एक सरकार चलाने के लिए पचासों मंत्रियों की आवश्यकता होती है तो उन परमेश्वर को अखिल ब्रह्माण्ड को संचालित करने के लिए प्रधान देवता, देवता, उपदेवता और अन्य सहचरों की आवश्यकता क्यों नहीं पड़ेगी? नास्तिक, विधर्मी और भारतीय संस्कृति का उपहास उड़ाने वालों को यह बात कभी भी समझ में नहीं आयेगी।

पूजा की कुछ आवश्यक बातें
आसन-समर्पण में आसन के ऊपर पाँच पुष्प भी रख लेने चाहिए। छः पुष्पों से स्वागत करना चाहिए। पाद्य में चार पल जल और उसमें श्यामा घास, दूब, कमल और अपराजिता देनी चाहिए। अर्घ्य में चार पल जल और गन्ध, पुष्प, अक्षत, यव, दूब, तिल, कुशा का अग्रभाग तथा श्वेत सरसों देने चाहिए। आचमनीय में छः पल जल और उसमें जायफल, लवङ्ग और कङ्कोल का चूर्ण देना चाहिए। मधुपर्क के बाद वाले आचमन में केवल एक पल विशुद्ध जल ही आवश्यक होता है। स्नान के लिए 50 पल जल का विधान है। वस्त्र 12 अंगुल से ज्यादा, नवीन और जोड़ा होना चाहिए। आभरण स्वर्ण निर्मित हों और उनमें मोती आदि जड़े हों। गन्ध-द्रव्य चन्दन, अगर, कर्पूर आदि एक में मिला दिये गये हों। एक पल के लगभग उनका परिमाण कहा गया है। पुष्प पचास से अधिक हों, अनेक रंग हों। धूप गुग्गुल का हो और कांस्यपात्र में निवेदन किया जाय। नैवेद्य में एक पुरुष के भोजन योग्य वस्तु होनी चाहिए। चर्व्य, चोष्य, लेह्य, पेय-चारों प्रकार की सामग्री हो। दीप कपास की बत्ती से कर्पूर आदि मिलाकर बनाया जाय। बत्ती की लंबाई चार अंगुल के लगभग हो और दृढ़ हो। दीपक के साथ शिलापिष्टका  भी उपयोग करना चाहिए। इसी को श्री अथवा आक कहते हैं, जो आरती के समय सात बार घुमाया जाता है। दूर्बा और अक्षत की संख्या सौ से अधिक समझनी चाहिए। एक-एक सामग्री अलग-अलग पात्र में रखी जाए। वे पात्र सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी के हों। अपनी शक्ति के अनुसार ही करना चाहिए। जो वस्तु अपने पास नहीं हो, उसके लिये चिंता करने की आवश्यकता नहीं और अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुसार जो मिल सकती हों, उनके प्रयोग में आलस्य, प्रमाद और संकीर्णता नहीं करनी चाहिए। 
पूजा के पांच प्रकार - 
शास्त्रों में पूजा के पांच प्रकार बताए गए हैं- अभिगमन, उपादान, योग, स्वाध्याय और इज्या। देवता के स्थान को साफ करना, लीपना, निर्माल्य हटाना - ये सब कर्म ‘अभिगमन’ के अंतर्गत हैं। गन्ध, पुष्प आदि पूजा-सामग्री का संग्रह ‘उपादान’ है। इष्टदेव की आत्मरूप से भावना करना ‘योग’है। मन्त्रार्थ का अनुसंधान करते हुए जप करना, सूक्त, स्त्रोत आदि का पाठ करना, गुण, नाम, लीला आदि का कीर्तन करना, वेदान्तशास्त्र आदि का अभ्यास करना - ये सब ‘स्वाध्याय’हैं। उपचारों के द्वारा अपने आराध्यदेव की पूजा ‘इज्या’है। ये पांच प्रकार की पूजाएं क्रमशः सार्ष्टि, सामीप्य, सालोक्य, सायुज्य और सारूप्य-मुक्ति देने वाली हैं। भगवान सदाशिव की पूजा की उपासना में एक रहस्य की बात यह है कि जहां एक ओर रत्नों से परिनिर्मित लिङ्गों की पूजा में अपार समारोह के साथ राजोपचार आदि विधियों से विशाल वैभव का प्रयोग होता है, वहां सरलता की दृष्टि से केवल जल, अक्षत, बिल्वपत्र और मुखवाद्य (मुख से बम-बम की ध्वनि) से भी परिपूर्णता मानी जाती है और सदाशिव की कृपा सहज उपलब्ध हो जाती है, इसीलिए वे आशुतोष और उदार शिरोमणि कहे गये हैं।
फूल तोड़ने का मंत्र-
मा नु शोकं कुरुत्व त्वं स्थानत्यागं च मा कुरू।
देवतापूजनार्थाय प्रार्थयामि वनस्पते॥
पहला फूल तोड़ते समय ‘ॐ वरुणाय नमः’दूसरा फूल तोड़ते समय ‘ॐ व्योमाय नमः’और तीसरा फूल तोड़ते समय ‘ॐ पृथिव्यै नमः’बोलें।
बिल्वपत्र तोड़ने का मंत्र- 
बिल्वपत्र तोड़ने का निषिद्ध काल - चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या तिथियों को, संक्रांति के समय और सोमवार को बिल्वपत्र न तोड़ें, किंतु बिल्वपत्र शंकर जी को बहुत प्रिय हैं, अतः निषिद्ध समय में पहले दिन का रखा बिल्वपत्र चढ़ाना चाहिये। शास्त्र ने तो यहां तक कहा है कि यदि नूतन बिल्वपत्र न मिल सके तो चढ़ाये हुए बिल्वपत्र को ही धोकर बार-बार चढ़ाते रहें।
बासी जल, फूल का निषेध
जो फूल, पत्ते और जल बासी हो गए हों, उन्हें देवताओं पर न चढ़ाएं, किंतु तुलसीदल और गङ्गाजल बासी नहीं होते। तीर्थों का जल भी बासी नहीं होता। वस्त्र, यज्ञोपवीत और आभूषण में भी निर्माल्य का दोष नहीं आता। माली के घर में रखे हुए फूलों में बासी-दोष नहीं आता। मणि, रत्न, सुवर्ण, वस्त्र आदि से बनाए गए फूल बासी नहीं होते। इन्हें प्रोक्षण कर चढ़ाना चाहिए।
सामान्यतया निषिद्ध फूल
यहां उन निषेधों को दिया जा रहा है जो सामान्यतया सब पूजा में सब फूलों पर लागू होते हैं। भगवान पर चढ़ाया हुआ फूल ‘निर्माल्य’कहलाता है, सूंघा हुआ या अङ्ग में लगाया हुआ फूल इसी कोटि में आता है। इन्हें न चढ़ायें। भौंरे के सूंघने से फूल दूषित नहीं होता। जो फूल अपवित्र बर्तन में रख दिया गया हो, अपवित्र स्थान में उत्पन्न हो, आग से झुलस गया हो, कीड़ों से विद्ध हो, सुन्दर न हो, जिसकी पंखुड़ियां बिखर गई हों, जो पृथ्वी पर गिर पड़ा हो, जो पूर्णतः खिला न हो, जिसमें खट्टी गंध या सड़ांध आती हो, निर्गन्ध हो या उग्र गंधवाला हो, ऐसे पुष्पों को नहीं चढ़ाना चाहिये। जो फूल बायें हाथ, पहनने वाले अधोवस्त्र, आक और रेंड के पत्ते में रखकर लाये गये हों, वे फूल त्याज्य है। कलियों को चढ़ाना मना है, किंतु यह निषेध कमल पर लागू नहीं है। फूल को जल में डुबाकर धोना मना है। केवल जल से इसका प्रोक्षण कर देना चाहिए।
अथ चाणक्य उवाच
परिचये दोषा न छाद्यन्ते।
    परिचय होने पर दोष छिपे नहीं रहते।
    अंग्रेजी की एक कहावत है- ‘नो बडी इज हीरो टू हिज वैलेट, अर्थात कोई भी आदमी अपने खिदमतगार के लिए सूरमा नहीं होता। खिदमतगार हरेक समय हरेक काम करता है। वह अपने मालिक से पूरी तरह परिचित हो जाता है। उसके स्वभाव को पहचान जाता है। उसकी कोई भी अच्छी या बुरी बात या आदत खिदमतगार से छिपी नहीं रहती। इसलिए वह बाहर अपनी चाहे जितनी शेखियाँ बघारे, उसका खिदमतगार उसकी असलियत जानता है।
    बात यह है कि हर आदमी में कुछ न कुछ दोष होता है, कुछ बुराइयाँ होती हैं, कोई ऐब होता है। जो आदमी उसके निकट संपर्क में आता है उसे इन दोषों वगैरा का पता लग जाता है।
    एक कहावतः ‘घर का जोगी जोगडा, आन गांव का सिद्घ’। अपने  गांव में रहने वाले जोगी का लोग उतना आदर नहीं करते जितना किसी दूसरे गांव से नवागन्तुक जोगी का। कारण यही है कि अपने गांव के जोगी के दोष लोगों को मालूम होते हैं, और बाहर से आने वाले के दोष वे नहीं जानते। 
स्वयमशुद्घः परानाशंकते।
    स्वयं अशुद्घ मनुष्य दूसरों से आशंका करता है।
    आशंका का अर्थ शंका या सन्देह भी होता है और भय भी। पाप कर्मों में रत रहने वाला मनुष्य अशुद्घ होता है।
    जो मनुष्य पापी या दुष्कर्मी होता है, वह दूसरों को भी अपने ही जैसा समझता है और सबको सन्देह की दृष्टि से देखता है। जैसे चोर आदमी को आशंका रहती है कि कोई उसे पकड न ले।
    पापी मनुष्य दूसरों से डरता भी है। उसे भी पकडे जाने का डर लगा रहता है। लोकनिन्दा का भी भय होता है।
स्वभावो दुरतिक्रमः।
    स्वभाव को छोड़ना बहुत मुश्किल होता है।
    मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति को स्वभाव कहते हैं। मनुष्य सारे कार्य अपने स्वभाव के अनुसार करता है, इनके लिए उसे किसी की प्रेरणा की जरूरत नहीं होती। अंग्रेजी में इसे मनुष्य की ‘नेचर’ कहते हैं।
    स्वभाव दो प्रकार के होते हैं- एक प्राकृतिक तथा जन्मजात जिन्हें सहज वृत्ति (इन्स्टिन्क्ट) कहते हैं। मनुष्येतर जीवों के कार्य सहजवृत्ति के अनुसार होते हैं। मनुष्यों में भी सहज वृत्तियाँ होती है। आहार, निन्द्रा, भय, मैथुन आदि सहज वृत्तियाँ हैं। खरा सामने आने पर आदमी भागने लगता है, सहसा कोई धड़ाका हो तो चौंक पडता है। ये सहज वृत्तियाँ हैं। परन्तु इनके अलावा मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार तरह तरह की आदतें बना लेता है। कुछ आदतें तो ऐसी जड़ पकड़ लेती हैं कि वे लतें बन जाती हैं। शराब पीना ऐसी ही एक लत है। कुछ लोगों को झूठ बोलने की आदत पड़ जाती है। इसी तरह की और भी बहुत सी बुरी आदतें होती है।
    अच्छी आदतें भी होती हैं। सज्जनों का स्वभाव परोपकार करना होता है। सत्यपरायण जन सदा सत्य व्यवहार करते हैं।
    सभ्यता और संस्कृति के प्रभाव से मनुष्य जाति ने अनेक आदिम वृत्तियों पर विजय प्राप्त कर ली है। परन्तु अलग अलग लोगों के जो स्वभाव हैं उन्हें छोड़ना वास्तव में बहुत मुश्किल होता है। चोरी, झूठ, शराबखोरी आदि ऐसी आदतें हैं जो बहुत ही मुश्किल से छूटती हैं। सज्जन भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ते।
अपराधानुरूपो दंडः।
    दंड अपराध के अनुरुप होना चाहिए।
    दंड के विषय में पिछले कई सूत्रों की व्याख्या में लिखा जा चुका है। मनुस्मृति कहती है -
दंडः शास्ति प्रजाः सर्वाः दंड एवाभिरक्षति।
दंड सुप्तेषु जागर्ति दंड धर्म विदुर्बुधाः॥
    दंड प्रजा का शासन करता है और वही उसकी रक्षा भी करता है। दंड सोते हुओं को जगाता है, इसलिए विद्वान-जन दंड को ही धर्म कहते हैं।
    दंड जिसे सजा कहते हैं, अपराध के अनुरुप होना चाहिय, अर्थात जैसा अपराध हो, वैसा ही उसके लिए दंड होना चाहिए, छोटे अपराध के लिए हलकी सजा और बडे अपराध के लिए भारी सजा।
यूरेनस
    यूरेनस सूर्य से दूरी के अनुसार सातवां है। इसकी कक्षा शनि की कक्षा के बाहर है। शनि की सूर्य से जितनी दूरी है, यह उस दूरी से लगभग दो गुनी दूरी पर है। यह शनि से 2-1/2 गुना छोटा है। इसे 13 मार्च 1781 तक नहीं खोजा जा सका था। इसकी सूर्य से औसत दूरी 28696 लाख किलोमीटर (17838 लाख मील) है।
    इसका भूमध्यीय व्यास 52,290 किलोमीटर (32,000 मील) है। इसका औसत तापमान -1400 सैल्सियस (-2200 फारेनहाईट) है। यद्यपि यूरेनस, नेपच्यून और प्लूटो की सूर्य की दूरी बहुत अधिक है, तब भी यह सूर्य की आकर्षण शक्ति से बंधे हुए हैं। इन्हें सूर्य की गर्मी और प्रकाश बहुत कम मिलता है।
दूरदर्शी के अविष्कार के लगभग दो शताब्दी बाद तक कोई नया ग्रह नहीं खोजा जा सका था। विलियम हर्षल जो कि एक संगीतज्ञ और शौकिया खगालेविद् थे, उन्होंने 16 सैन्टीमीटर व्यास की दूरदर्शी से एक ऐसी वस्तु देखी जो तारे की तरह नहीं थी और यह 6 मास में थोड़ी सी चली भी थी। इस समय तक कोई नया ग्रह नहीं खोजा गया था। कुछ खगोलविद् इस ग्रह को हर्षल नाम से पुकारते थे मगर बाद में ग्रीस-रोमन मान्यतानुसार (बृहस्पति का पिता शनि और शनि का पिता यूरेनय) शनि के पिता के नाम पर यूरेनस रखा। इस ग्रह को खोजने के बाद हर्षल पूरे समय वाला खगोलविद् और दूरदर्शी बनाने वाला हो गया। उसने यूरेनस के दो उपग्रह टाईटानिया और ओबरान 1787 में खोजे। पहले के लेखों से ज्ञात हुआ कि इसके पथ में अनियमितताएं हैं; जिसके कारण नेपच्यून ग्रह को खोजा जा सका।
यूरेनस की पृथ्वी से औसत दूरी 27,200 लाख किलोमीटर (16,900 लाख मील) है। इतनी दूरी प्रकाश 2 घन्टे 45 मिनट में चलता है। यह सूर्य की परिक्रमा 84.0139 वर्ष में करता है। इसका संयुति काल 369.66 दिन है। इसका एक दिन 17-1/4 घन्टे का होता है। इसका द्रव्यमान जल के अनुपात से 1.19 है, जो कि काफी कम है। उसकी भूमध्य रेखा का कक्षा का झुकाव 980 है। इस कारण यह अपनी कक्षा में लट्टू की तरह घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करने के बजाय लुढ़कता हुआ परिक्रमा करता है। सौर मंडल के समस्त ग्रह लट्टू की तरह घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करते हैं, केवल यही ऐसा ग्रह है जो लुढ़कते हुए परिक्रमा करता है। एक ध्रुव 42 वर्ष तक सूर्य के सामने रहता है और दूसरा अन्धकार में। फिर 42 वर्ष उल्टा हो जाता है। भूमध्यीय क्षेत्र पर एक परिक्रमा में दो बार गर्मी और दो बार सर्दी की ऋतु आती है।
पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुव पृथ्वी की धुरी से 110.6 का कोण बनाते हैं, मगर यूरेनस के चुम्बकीय ध्रुव इसकी धुरी से 600 का कोण बनाते हैं। इसका चुम्बकीय क्षेत्र अति शक्तिशाली है।
यूरेनस नीली हरी तश्तरी की तरह दिखाई देता है क्योंकि इसके वायुमंडल में मीथेन गैस है जो प्रकाश के लाल रंग को सोख लेती है। यूरेनस ग्रह में 99 प्रतिशत हाईड्रोजन और हीलियम है।
वोयेजर के अभियान से पहले इसके केवल 5 उपग्रह ही ज्ञात थे। दस छोटे काले चंद्रमा (उपग्रह) वोयेजर के चित्रों के माध्यम से ही खोजे जा सके।
इसके चारों और शनि की तरह छल्ले हैं। यह छल्ले काले हैं। यह छल्ले बहुत पतले हैं और इनकी मोटाई कुछ मीटर ही है।
भद्रा का मुख और पूंछ का समय ज्ञान करना
प्रत्येक तिथि में आठ प्रहर माने गये हैं। तिथि के प्रारंभ से समाप्ति काल तक के मान का आठवां भाग ही एक प्रहर कहलायेगा।
तिथि के आधे भाग में ही भद्रा का निवास रहेगा कारण भद्रा या विष्टि करण है और करण तिथि के आधे भाग में ही रहता है।
भद्रा का मध्यमान 30 घटी है। पुच्छ 3 घटी की रहने के कारण कुल मध्यमान का दसवां भाग है। मुख 5 घटी रहने के कारण कुल मध्यमान का छठा भाग है।
पंचांग में भद्रा उ. लिखा रहने पर भद्रा के प्रारम्भ का समय समझे तथा भद्रा या. लिखा रहने पर समाप्ति का समय समझना है। उ. का उपरान्त तथा या का यावत् समझना है।
भद्रा का कुल मान ज्ञात करके दसवें भाग को पूंछ का विशुद्घ मान तथा छठे भाग को मुख का सही मान समझना है। कुल मान / 10 = पूंछ तथा कुलमान / 6 = मुख है।
पूर्णिमान्त माह में कृष्ण पक्ष पहिले तथा शुक्ल पक्ष बाद में रहता है। कृष्णपक्ष में तीज और दशमी के उत्तरार्द्घ में तथा सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्वाद्घ में भद्रा का निवास रहता है। इस प्रकार इस पक्ष की चार तिथियाँ भद्रा से प्रभावित रहती है।
शुक्ल पक्ष में चतुर्थी और एकादशी के उत्तरार्द्घ में तथा अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वार्द्घ में भद्रा का निवास रहता है। इस पक्ष की भी चार तिथियाँ भद्रा से प्रभावित रहती है।
शुक्ल पक्ष की अष्टमी में भद्रा की प्रथम प्रहर की अंकित 3 घटी में पूंछ तथा पूर्णिमा को तीसरा प्रहर की अंतिम 3 घटी में पूंछ काल रहता है। यह 3 घटी का मान कुल भद्रामान का दसवां भाग समझना है। यह 3 घटी से कम या अधिक होता है।
शुक्ल पक्ष की चतुर्थी में भद्रा की चौथी प्रहर की अंतिम 3 घटी में पूंछ तथा पूर्णिमा को तीसरा प्रहर की अंतिम 3 घटी में पूंछ काल रहता है। यह 3 घटी मान कुल भद्रामान का दसवां भाग समझना है। यह 3 घटी से कम या अधिक होता है।
शुक्ल पक्ष की चतुर्थी में भद्रा की चौथी प्रहर की अंतिम 3 घटी तथा एकादशी में दूसरे प्रहर की अंतिम 3 घटी पुच्छमान समझना है।
कृष्ण पक्ष की तीज में भद्रा के तीसरे प्रहर की अंतिम 3 घटी और दशमी की भद्रा की प्रथम प्रहर की अंतिम 3 घटी पूंछ का मान है। सप्तमी में भद्रा की दूसरे प्रहर की अंतिम 3 घटी और चतुर्दशी में भद्रा की चतुर्थ प्रहर की अंतिम 3 घटी पुच्छ मान है।
पूंछ का समय शुरु होना तथा समाप्ति समय का ज्ञान करने हेतु सामान्यगणित क्रिया का अभ्यास कर लेना चाहिए।